मोबाइल घर
(दोस्तों हम लोगों की एक जमात से बन गयी है जहाँ एक कवि लिखता है और दूसरा पढता है मंझे हुए कवि मंझी हुई कविता सब कुछ एकदम प्रोफेशनल मगर कोई स्थिति जिसको आप ने देखा हो और आपके दिल में अन्दर तक उतर गयी हो उस विषय पर जब आप लिखते हैं तो बात कुछ और…
ContinueAdded by Mukesh Kumar Saxena on March 14, 2012 at 8:00pm — 5 Comments
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 14, 2012 at 7:45pm — 6 Comments
हाँ मेरे पास कोई सहारा नहीं,
मगर मैं बेबस बेचारा नहीं;
*
सोचता हूँ कुछ मैं भी कहूँ अब
मगर ज़ुबान को ये गवारा नहीं;
*
वो जिसे हम अपना समझते रहे,
आज जाना के वो हमारा नहीं;
*
थोड़ी सी ज़मीन मुट्ठी भर आसमान,
आज…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 14, 2012 at 12:36pm — 18 Comments
.
मैं
और
तन्हाई
लड़ते रहते हैं
कभी बिखरते
कभी संवरते
रहते हैं.
ओ तन्हाई !
तुम क्यों
दुःख -पीड़ा को
रखती हो अपने साथ
फिरती हो यहाँ वहां
लिये हाथों में हाथ .
तन्हाई मुस्काई
कुछ इठलाई
बोली ...
बचपन की यादें
मोहब्बत के बातें
कहानी कहती नानी
रिमझिम बरसता पानी
पहली मुलाकात
महबूब की बात
उनका इतराना
रूठना मनाना
सब के…
ContinueAdded by Dr Ajay Kumar Sharma on March 14, 2012 at 11:57am — 6 Comments
दिन फिर गये जो जी रहे अब तक अभाव में,
वादों से गर्म दाल परोसी चुनाव में.
ढूंढे नहीं मिला एक भी रहनुमा यहाँ,
सच कहने सुनने की हिम्मत रखे स्वभाव में.
तब्दीलियाँ है माँगते यों ही सुझाव में,
फिर भेज दी है मूरतियां डूबे गाँव में,
दिल्ली में बैठ के समझेंगे वो बाढ़ को,
लाशें यहाँ दफ़न होने जाती है नाव में.
पूछा क्या रखोगे…
ContinueAdded by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 14, 2012 at 10:00am — 14 Comments
अरे शिकवा नहीं कोई,शिकायत क्या करू तुझसे?
वली है तू सनम मेरा,इबादत की इजाजत दे||१||
बहुत अब देख ली दुनिया,नहीं अब देखना कुछ…
ContinueAdded by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 14, 2012 at 8:30am — 19 Comments
Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 13, 2012 at 11:18pm — 6 Comments
"समय और भाग्य"
सब कुछ भले न सही, पर
कुछ कुछ सबको मिला है ,
और यही कुछ कुछ एहसास कराता है की …
ContinueAdded by Monika Jain on March 13, 2012 at 9:20pm — 7 Comments
ब्रज मां होली खेले मुरारी अवध मां रघुराई
मेरा संदेसा पिया को दे जो जाने पीर पराई
कोयल को अमराई मिली कीटों को उपवन
मैं अभागिन ऐसी रही आया न मेरा साजन
लाल पहनू , नीली पहनू, हरी हो या वसंती
पुष्पों की माला भी तन मन शूल ऐसे चुभती
…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 13, 2012 at 9:03pm — 20 Comments
दिल कितनॆ करीनॆ सॆ रखतॆ हैं,,,
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…
ContinueAdded by कवि - राज बुन्दॆली on March 13, 2012 at 6:30pm — 16 Comments
दुआ जिनको सच्चे दिलों से मिले.
Added by AVINASH S BAGDE on March 13, 2012 at 11:04am — 6 Comments
Added by Abhinav Arun on March 13, 2012 at 9:58am — 23 Comments
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 13, 2012 at 7:01am — 25 Comments
मैनें कहा
कुछ और नहीं
सिर्फ वो ही
जो युगों से
सहा था...
सहा था फूलों नें
ख्वाबों में लहराते
सावन के झूलों नें
उन शब्दों नें
जो आ न पाए
लबों पर तुम्हारे ही
ज़ुल्मों से ...
सहा था उस प्यासे नें...
जो दम तोड़ गया
समंदर में रह कर
पर छू न पाया
पानी को जुबान से कभी.
सहा था उन पलकों नें...
जो युगों से भरी हैं
अनमोल मोतियों से
आतुर हैं
छलकने को
पर…
ContinueAdded by Dr Ajay Kumar Sharma on March 12, 2012 at 11:30pm — 6 Comments
आँखों में भरे खूँ लिए तलवार खड़ा है
करने को मुझे कत्ल मेरा यार खडा है
.
दे दे तु मुझे अपनी दुआओँ का सहारा
चोखट पे तेरी आज ये बीमार खडा है
.
जाने दे मुझे मौत की आगोश मे हमदम
क्योँ बनके मेरी राह मे दीवार खडा है
.
मरकर ही सही आज ये एजाज मिला तो
करने को मेरा आज वो दीदार खडा है
.
गर मुझको मिटाने का वो रखते हें इरादा
हसरत भी फना होने को तय्यार खडा…
Added by SHARIF AHMED QADRI "HASRAT" on March 12, 2012 at 11:30pm — 18 Comments
चेहरे के पीछे
चेहरे है
उन पे कसे नकाब
बड़े तगड़े है..
मीठे बोलो के भीतर
तीखेपन का खंजर है..
घावों पे मरहम तो है
पर दाग बने गहरे है
लोग बने मदारी है.. और
समझे हमे जमूरा
मतलब की यारी है और
जमकर सीनाजोरी है
संभल संभल के हँसना है और
नाप तोल के कहना
मन के दुखड़े खोले तो
कहते है रोना धोना
खुल के जीने का
दम भर लो कितना भी
पर बच बच के है रहना
दुनिया गर…
Added by MAHIMA SHREE on March 12, 2012 at 5:30pm — 16 Comments
नज़्म - निमिष भर को उथल है !
सफ़र कटने में अंदेशा नहीं है
मगर सोचा हुआ होता नहीं है
कई लोगों को छूकर जी चुका हूँ
नहीं…
Added by Abhinav Arun on March 12, 2012 at 4:39pm — 14 Comments
सुर्ख इबारत बयाँ करेगी – मैंने जीना चाहा था,
चाक कलेजे के ज़ख्मों को मैंने सीना चाहा था;
जो भी आया उसने ही कुछ दुखते छाले फोड़ दिए,
वहशत की आग बुझाने को मेरे सब सपने तोड़ दिए;
तेरे आँचल के धागों से रिसना ढकना चाहा था,
सुर्ख इबारत बयाँ करेगी- मैंने जीना चाहा था |
अपनी ही रुसवाई…
ContinueAdded by Chaatak on March 12, 2012 at 11:31am — 22 Comments
सोचा था
तेरी याद के सहारे
जिंदगी बीता लूंगा
अब न तेरी याद आती है
न ही जिंदगी के दिन ही बचे
जो बचे भी उनमें क्या तेरे मेरे
क्या सुबह, क्या शाम
बस एक ही तमन्ना है
जहां भी रहो मुझे याद करना
क्योंकि तुम याद करोगे तो
दुनिया से जाते वक्त गम न होगा
क्योंकि तुम, तुम हो और हम, हम
राहें जुदा हो गई तो क्या
कभी मिलकर चले थे मंजिल की ओर
अब तो सोच कर भी सोचता हूं
क्यों मिले थे हम और क्यों बिछड़े
सोचता हूं
तेरी याद को ही…
Added by Harish Bhatt on March 12, 2012 at 2:49am — 6 Comments
"कशमकश"
क्यों वक़्त से पहले ये वक़्त भागता सा लगे है मुझे.
फिर भी क्यों ये ज़िन्दगी थमी सी लगे है मुझे ?
एक अजीब सी कशमकश है! क्या? मालूम नहीं.
पर कभी सब पास तो कभी सब दूर सा लगे है मुझे.…
ContinueAdded by Monika Jain on March 12, 2012 at 2:18am — 4 Comments
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