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March 2014 Blog Posts (163)

त्रिभंगी (एक प्रयास)

त्रिभंगी - १०, ८, ८, ६ (जगण पृथक शब्द के रूप में प्रयुक्त नहीं हो सकता)

बैठी पदमासन, सब पर शासन, वरद अभय कर, मुसकाती |

वीणा रव सुन्दर, उर के अंदर, सब कुछ झंकृत, कर जाती ||

आशीष दयामयि, हे करुणामयि, सतत विमल हो, मति मेरी |

कोटिक रवि जागे, अघ तम भागे, जलधारा जनु, गति मेरी ||

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 4, 2014 at 5:00pm — 10 Comments

मेरा वहम

देखा है जब से तेरी तस्‍वीर को सनम

आँखो मे मेरे बस गइ खा के कहूँ कसम

कैसा है तुमसे रिश्‍ता हमको नही पता

पर बात अपने दिल की मैं तुमको दूँ बता

जैसे है तेरे साथ रिश्‍ता मेरा अहम

आँखो मे मेरे बस गइ खा के कहूँ कसम

देखा है जब से तेरी तस्‍वीर को सनम

देखा था मैनें सपना एक रात क्‍या कहूँ

आँखो से छलकते अश्‍कों के साथ मैं बहूँ

ये बात मेरी ऐसी नहीं हो तुझे हजम

आँखो मे मेरे बस गइ खा के कहूँ कसम

देखा है जब से तेरी…

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Added by Akhand Gahmari on March 4, 2014 at 4:48pm — 24 Comments

मैं नारी हूँ ( कल्पना मिश्रा बाजपेई)

मैं नारी हूँ .. "कुसुम अवदात नहीं हूँ"

सौंदर्य बोध से गढ़ी हूँ 

मानवता के लिए कड़ी हूँ

सबके के लिए अहिर्निश खड़ी हूँ

भावनाओं से नित जड़ी हूँ

कभी किसी से नहीं हूँ कम,

इस बात पर अड़ी हूँ 

मैं नारी हूँ..... बिन स्वर का गान नहीं हूँ ।

दिल में उत्साह भरा है अपरिमित

हर वक्त सेवा में हूँ समर्पित 

शक्तियों से हूँ मैं निर्मित

जो चाहूँ वो करती हूँ अर्जित

इससे हूँ में सदा ही गर्वित

मैं नारी…

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Added by kalpna mishra bajpai on March 4, 2014 at 4:00pm — 21 Comments

गीत

गीत 

.

मन के पन्नों में ,मै.

 गीत लिख रही हूँ

जो शब्द तुमनें दिए

वही बुन रही हूँ…..

दिल की धड़कन में

यादें सुबक रही हैं

जो दर्द तुमनें दिए

वही लौटा रही हूँ

मन के पन्नों में ,मै

 गीत लिख रही हूँ…..

मौसमों की तरह

तुम बदल गए हो

और कितना सहूँ

मै भी बदल रही हूँ

मन के पन्नों में ,मै.

 गीत लिख रही हूँ……

दो कदम ही चले थे

फिर खोगए तुम

राह सूनी सही

मैं अभी…

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Added by Maheshwari Kaneri on March 4, 2014 at 2:30pm — 4 Comments

कैलाश पर अशांति

कैलाश पर शिव लोक में

था सर्वत्र आनंद.

चारो ओर खुश हाली थी

सब प्यार में निमग्न.

खाना पीना था प्रचुर

वसन वासन सब भरपूर.

जंगल था, लताएँ थी

खूब होती थी बरसात,

स्वच्छ वायुमंडल ,

खुली हुई रात.

धीरे धीरे नागरिकों ने

काट डाले जंगल

बांध कर नदियों को

किया खूब अमंगल.

एक बार पड़ गया

बहुत घनघोर अकाल.

चारो ओर मचा

विभत्स हाहाकार.

नाच उठा दिन सबेरे

विकराल काल…

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Added by Neeraj Neer on March 4, 2014 at 9:10am — 14 Comments

कलम (अन्नपूर्णा बाजपेई)

मूक नहीं है वो लिखते जाना ही उसकी जात है ,

तम की स्याही से वो लिखती नित्य नव प्रभात है ।  

 

उजियारा फैलाने को रोज नया सूरज वो लाती है ,

जो मूक हो जीते है उनकी जुबान वो बन जाती है ।  

 

पढ़ लिख कर सम्मान की अलख वो जगाती है ,

झूठे हो चाहे जितने पर सच्चाई की धार लगाती है ।

 

अज्ञानता के घोर तमस को समूल उखाड़ भगाती है,

होती जिसके हाथ कलम ज्ञान भंडार लगाती है॰ 

 

पैनी कितनी भी हो तलवारें पर भीत नहीं ये खाती…

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Added by annapurna bajpai on March 3, 2014 at 10:30pm — 11 Comments

नदी की सीख

वह कथा कहूँ जो नहीं कही

अम्बर में कलानिधि घूम रहा 

एक निर्झरिणी थी झूम रही 

लहरी थी तट को चूम रही…

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Added by Vivek Jha on March 3, 2014 at 8:30pm — 7 Comments

विधवा पेंशन

इन्दु अपने मंडल की पेंशन प्रमुख थी, किसी भी बुजुर्ग महिला या बहन को पेंशन लगवानी होती तो झट उससे संपर्क करतीं ....

अपने मोहल्ले की अपनी कॉलोनी की सभी महिलाओं की चाहे वो वृद्ध हो, विधवा हो या तलाकशुदा हो उसने बिना किसी अड़चन के पेंशन लगवा दी थी.

समय ने करवट ली, उसके पति का आकस्मिक देहांत हो गया ...

कुछ समय बीत जाने  पर उसकी एक ख़ास सहेली ने उसे सुझाव दिया ...

"भाभी आप ने पेंशन के लिए अपना फॉर्म भरवाया ?"

थोड़ा चुप रहकर फिर कहा ..

"यह तो सरकार दे रही है…

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Added by Sarita Bhatia on March 3, 2014 at 4:30pm — 19 Comments

गजल : हम भी तेरी याद में रोए, ये भी तुमको मालुम हो//शकील जमशेदपुरी//

बह्र : मात्रिक बह्र

________________________________

तुम तड़पी तो हम भी तरसे, ये भी तुमको मालुम हो

तुमसे ज्यादा हम टूटे थे, ये भी तुमको मालुम हो

तुमको इसका दुख है तुमने, मेरे खातिर दर्द सहा

हम भी तेरी याद में रोए, ये भी तुमको मालुम हो



मेरा ऊँचा बंगला जाने, दुनिया को क्यों खलता है

एक समय था दर-दर भटके, ये भी तुमको मालुम हो



बस देख के उनकी सूरत को, उनको अच्छा मत जानो

इक चेहरे पे कितने चेहरे, ये भी तुमको मालुम हो…



Continue

Added by शकील समर on March 3, 2014 at 4:00pm — 7 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
शब्द के व्यापार में.. (नवगीत) // --सौरभ

पूछता है द्वार

चौखट से --

कहो, कितना खुलूँ मैं !



सोच ही में लक्ष्य से मिलकर

बजाता जोर ताली

या, अघाया चित्त

लोंदे सा,

पड़ा करता जुगाली.…



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Added by Saurabh Pandey on March 3, 2014 at 2:30pm — 41 Comments

ग़ज़ल- सारथी || आशिकों की आँख का मोती ग़ज़ल ||

आशिकों की आँख का मोती ग़ज़ल

देखिए , हंसती कभी रोती ग़ज़ल/१ 

है नफ़ासत औ मुहब्बत से पली

तरबियत के बीज भी बोती ग़ज़ल/२ 

इन लतीफ़ों –आफ़रीं के दरम्यां

आलमी मेयार को खोती ग़ज़ल/३ 

मुफ़लिसी , ये भूख औ तश्नालबी

देख ये मंजर, कहाँ सोती ग़ज़ल/४ 

‘सारथी’ जाया न नींदें कीजिये

रतजगा करके कहाँ होती ग़ज़ल/५

.....................................................

सर्वथा मौलिक व अप्रकाशित  

अरकान: २१२२ २१२२  २१२    

Added by Saarthi Baidyanath on March 3, 2014 at 11:00am — 16 Comments

चरस (लघुकथा)

भाड़ में गए हरामजादे समाजवाले...राघव ने जेल की दीवारों पर एक जोरदार मुक्का मारा| उसका पोर पोर काँटा बन चुका था| वह बाहर से भी जख्मी था और भीतर से भी| वह जहर खा लेना चाहता था, लेकिन इस कालकोठरी में उसे वह भी प्राप्त नहीं हो सकता था| उसे आज तक मिला ही क्या? उसकी आँखे रोते रोते सूज चुकी थी, अब उनमें आंसू भी नहीं बन रहे थे| उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वह अपने शरीर के बाहर हवा में तैर रहा हो| एक ही पल में अगणित विचार कौंध उठते| वह जड़ भी था, चलायमान भी| उसके अंदर महाभारत का युद्ध चल रहा था, वह…

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Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 2, 2014 at 11:27pm — 15 Comments

फागुन का मास

फागुन का मास

तारों की बारात

चाँदनी के रथ पर

आएगा मोहन

यमुना के तीर

होके अधीर, में तो उसकी हो जाऊँगी ।

श्यामल सा मनोहर गात

पीला सा सिर पर पाग

कानों में कुंडल

अधरों पे मोती

धरे तिरछा पैर

छोड़ सब की खैर, मै तो चरणन में गिर जाऊँगी ।

होंठों की शान

प्यारे की मुस्कान

मीठी सी चितवन

सखियों का लूटे मन

कर के सब जतन, मै तो उनकी हो जाऊँगी ।

माँ यशोदा का…

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Added by kalpna mishra bajpai on March 2, 2014 at 2:30pm — 8 Comments

ग़ज़ल

वो होगा जो कभी न हुआ, देखते रहो 

इक दिन खुलेगा बाबे वफा, देखते रहो ...

जो शख्स मुझ से रूठ गया है वो दोस्तो

आएगा मुसकुराता हुआ, देखते रहो....

ज़िंदाने ग़म में जिसने मुझे कैद कर दिया 

वो ही करेगा मुझ को रिहा , देखते रहो...

अशकों से कैसे बनते हैं मेरी ग़ज़ल के शेर 

लिक्खेगी मेरी नोके मिज़ा देखते रहो ...

फूलों में कौन भरता है ये रंगो बू अजय …

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Added by Ajay Agyat on March 2, 2014 at 2:00pm — 6 Comments

मैदानी हवाएँ .... (विजय निकोर)

मैदानी हवाएँ

 

 

समेट नहीं पाती हूँ चाह कर भी  कभी

अनमनी यादों की चँचल-सी धारा-गति

लौट-लौट आते हैं दर्द भरे धुँधले

अधबने अधजले सपने

छिपाए न छिपें अर्थहीन समर्थों से अश्रु मेरे

क्यूँ आते हो जगा जाते हो तुम आन्दोलन,

इस अथाह सागर में प्रिय रोज़ सवेरे-सवेरे ?

 

हो दिन का उजाला

भस्मीला कुहरा

या हो अनाम अरूप अन्धकार

तुम्हारी यादों का फैलाव पल-पल

स्वतन्त्र मैदानी अनदिखी…

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Added by vijay nikore on March 2, 2014 at 1:00pm — 17 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
हर रास्ता दुश्वार होगा ( ग़ज़ल ) गिरिराज भन्डारी

2122    2122   2122  2122

गर यक़ीं ख़ुद पर नहीं हर रास्ता दुश्वार होगा

ख़्वाब मे भी फूल देखोगे वहाँ पर खार होगा

 

बात बाहर जब गई है तो कोई गद्दार  होगा

कल्पनाओं से ही तो छपता नही अखबार होगा

 

चौक में जो रात को चिल्ला रहा था बात…

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Added by गिरिराज भंडारी on March 2, 2014 at 10:00am — 24 Comments

कविता -( बात ही बात है)

बात ही बात है

हर जगह बात है

हवा थक चुकी है

बात ही बात से,

बूँदों को बार बरसना पड रहा है

ताकि उसकी तरफ भी कोई देखे,

लेकिन लोगों को बात से फुरसत नहीं है।

बात को बात से लडाया जा रहा है

बात किसी को नहीं देख पा रही है

कौन उसका है,और कौन पराया है

बात लोगों से नाराज है।

बात ही बात से।

लोगों के दिमाग़ पर छाई है बात

बात लोगों से तंग है

लोग बातों से तंग हैं

ये वर्तमान में जीने के…

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Added by सूबे सिंह सुजान on March 1, 2014 at 11:30pm — 9 Comments

कविता : विकास का कचरा और कचरे का विकास

शराब की खाली बोतल के बगल में लेटी है

सरसों के तेल की खाली बोतल

 

दो सौ मिलीलीटर आयतन वाली

शीतल पेय की खाली बोतल के ऊपर लेटी है

पानी की एक लीटर की खाली बोतल

 

दो मिनट में बनने वाले नूडल्स के ढेर सारे खाली पैकेट बिखरे पड़े हैं

उनके बीच बीच में से झाँक रहे हैं सब्जियों और फलों के छिलके

 

डर से काँपते हुए चाकलेट और टाफ़ियों के तुड़े मुड़े रैपर

हवा के झोंके के सहारे भागकर

कचरे से मुक्ति पाने की कोशिश कर रहे…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 1, 2014 at 11:03pm — 4 Comments

चॉंद मुस्काता रहा हर रात में

तरही गजल- 2122 2122 212

आग में तप कर सही होने लगी।

प्यार में मशहूर भी होने लगी।।

जब कभी यादों के मौसम में मिली,

राज की बातें तभी होने लगी।

तुम बहारों से हॅंसीं हस्ती हुर्इं,

आँंख में घुलकर नमी होने लगी।

उम्र से लम्बी सभी राहें कठिन,

पास ही मंजिल खुशी होने लगी।

तुम नजर भी क्या मिलाओगी अभी,

शाम सी मुश्किल घड़ी होने लगी।

चॉंदनी अब चांद से मिलती नहीं,

खौफ हैं बादल…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 1, 2014 at 6:53pm — 6 Comments

अकेलापन

हाय! अकेलापन क्यों?

बोझिल सा लगता है

अकेलापन तो स्वर्णिम क्षण है

अपने आप को जानने का पल है

क्यों मानव इससे घबराए?

यह तो सबका बल है। 

अकेलापन शक्ति देता है…

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Added by kalpna mishra bajpai on March 1, 2014 at 6:00pm — 12 Comments

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