त्रिभंगी - १०, ८, ८, ६ (जगण पृथक शब्द के रूप में प्रयुक्त नहीं हो सकता)
बैठी पदमासन, सब पर शासन, वरद अभय कर, मुसकाती |
वीणा रव सुन्दर, उर के अंदर, सब कुछ झंकृत, कर जाती ||
आशीष दयामयि, हे करुणामयि, सतत विमल हो, मति मेरी |
कोटिक रवि जागे, अघ तम भागे, जलधारा जनु, गति मेरी ||
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 4, 2014 at 5:00pm — 10 Comments
देखा है जब से तेरी तस्वीर को सनम
आँखो मे मेरे बस गइ खा के कहूँ कसम
कैसा है तुमसे रिश्ता हमको नही पता
पर बात अपने दिल की मैं तुमको दूँ बता
जैसे है तेरे साथ रिश्ता मेरा अहम
आँखो मे मेरे बस गइ खा के कहूँ कसम
देखा है जब से तेरी तस्वीर को सनम
देखा था मैनें सपना एक रात क्या कहूँ
आँखो से छलकते अश्कों के साथ मैं बहूँ
ये बात मेरी ऐसी नहीं हो तुझे हजम
आँखो मे मेरे बस गइ खा के कहूँ कसम
देखा है जब से तेरी…
ContinueAdded by Akhand Gahmari on March 4, 2014 at 4:48pm — 24 Comments
मैं नारी हूँ .. "कुसुम अवदात नहीं हूँ"
सौंदर्य बोध से गढ़ी हूँ
मानवता के लिए कड़ी हूँ
सबके के लिए अहिर्निश खड़ी हूँ
भावनाओं से नित जड़ी हूँ
कभी किसी से नहीं हूँ कम,
इस बात पर अड़ी हूँ
मैं नारी हूँ..... बिन स्वर का गान नहीं हूँ ।
दिल में उत्साह भरा है अपरिमित
हर वक्त सेवा में हूँ समर्पित
शक्तियों से हूँ मैं निर्मित
जो चाहूँ वो करती हूँ अर्जित
इससे हूँ में सदा ही गर्वित
मैं नारी…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on March 4, 2014 at 4:00pm — 21 Comments
गीत
.
मन के पन्नों में ,मै.
गीत लिख रही हूँ
जो शब्द तुमनें दिए
वही बुन रही हूँ…..
दिल की धड़कन में
यादें सुबक रही हैं
जो दर्द तुमनें दिए
वही लौटा रही हूँ
मन के पन्नों में ,मै
गीत लिख रही हूँ…..
मौसमों की तरह
तुम बदल गए हो
और कितना सहूँ
मै भी बदल रही हूँ
मन के पन्नों में ,मै.
गीत लिख रही हूँ……
दो कदम ही चले थे
फिर खोगए तुम
राह सूनी सही
मैं अभी…
ContinueAdded by Maheshwari Kaneri on March 4, 2014 at 2:30pm — 4 Comments
कैलाश पर शिव लोक में
था सर्वत्र आनंद.
चारो ओर खुश हाली थी
सब प्यार में निमग्न.
खाना पीना था प्रचुर
वसन वासन सब भरपूर.
जंगल था, लताएँ थी
खूब होती थी बरसात,
स्वच्छ वायुमंडल ,
खुली हुई रात.
धीरे धीरे नागरिकों ने
काट डाले जंगल
बांध कर नदियों को
किया खूब अमंगल.
एक बार पड़ गया
बहुत घनघोर अकाल.
चारो ओर मचा
विभत्स हाहाकार.
नाच उठा दिन सबेरे
विकराल काल…
ContinueAdded by Neeraj Neer on March 4, 2014 at 9:10am — 14 Comments
मूक नहीं है वो लिखते जाना ही उसकी जात है ,
तम की स्याही से वो लिखती नित्य नव प्रभात है ।
उजियारा फैलाने को रोज नया सूरज वो लाती है ,
जो मूक हो जीते है उनकी जुबान वो बन जाती है ।
पढ़ लिख कर सम्मान की अलख वो जगाती है ,
झूठे हो चाहे जितने पर सच्चाई की धार लगाती है ।
अज्ञानता के घोर तमस को समूल उखाड़ भगाती है,
होती जिसके हाथ कलम ज्ञान भंडार लगाती है॰
पैनी कितनी भी हो तलवारें पर भीत नहीं ये खाती…
ContinueAdded by annapurna bajpai on March 3, 2014 at 10:30pm — 11 Comments
वह कथा कहूँ जो नहीं कही
अम्बर में कलानिधि घूम रहा
एक निर्झरिणी थी झूम रही
लहरी थी तट को चूम रही…
ContinueAdded by Vivek Jha on March 3, 2014 at 8:30pm — 7 Comments
इन्दु अपने मंडल की पेंशन प्रमुख थी, किसी भी बुजुर्ग महिला या बहन को पेंशन लगवानी होती तो झट उससे संपर्क करतीं ....
अपने मोहल्ले की अपनी कॉलोनी की सभी महिलाओं की चाहे वो वृद्ध हो, विधवा हो या तलाकशुदा हो उसने बिना किसी अड़चन के पेंशन लगवा दी थी.
समय ने करवट ली, उसके पति का आकस्मिक देहांत हो गया ...
कुछ समय बीत जाने पर उसकी एक ख़ास सहेली ने उसे सुझाव दिया ...
"भाभी आप ने पेंशन के लिए अपना फॉर्म भरवाया ?"
थोड़ा चुप रहकर फिर कहा ..
"यह तो सरकार दे रही है…
ContinueAdded by Sarita Bhatia on March 3, 2014 at 4:30pm — 19 Comments
बह्र : मात्रिक बह्र
________________________________
तुम तड़पी तो हम भी तरसे, ये भी तुमको मालुम हो
तुमसे ज्यादा हम टूटे थे, ये भी तुमको मालुम हो
तुमको इसका दुख है तुमने, मेरे खातिर दर्द सहा
हम भी तेरी याद में रोए, ये भी तुमको मालुम हो
मेरा ऊँचा बंगला जाने, दुनिया को क्यों खलता है
एक समय था दर-दर भटके, ये भी तुमको मालुम हो
बस देख के उनकी सूरत को, उनको अच्छा मत जानो
इक चेहरे पे कितने चेहरे, ये भी तुमको मालुम हो…
Added by शकील समर on March 3, 2014 at 4:00pm — 7 Comments
पूछता है द्वार
चौखट से --
कहो, कितना खुलूँ मैं !
सोच ही में लक्ष्य से मिलकर
बजाता जोर ताली
या, अघाया चित्त
लोंदे सा,
पड़ा करता जुगाली.…
Added by Saurabh Pandey on March 3, 2014 at 2:30pm — 41 Comments
आशिकों की आँख का मोती ग़ज़ल
देखिए , हंसती कभी रोती ग़ज़ल/१
है नफ़ासत औ मुहब्बत से पली
तरबियत के बीज भी बोती ग़ज़ल/२
इन लतीफ़ों –आफ़रीं के दरम्यां
आलमी मेयार को खोती ग़ज़ल/३
मुफ़लिसी , ये भूख औ तश्नालबी
देख ये मंजर, कहाँ सोती ग़ज़ल/४
‘सारथी’ जाया न नींदें कीजिये
रतजगा करके कहाँ होती ग़ज़ल/५
.....................................................
सर्वथा मौलिक व अप्रकाशित
अरकान: २१२२ २१२२ २१२
Added by Saarthi Baidyanath on March 3, 2014 at 11:00am — 16 Comments
भाड़ में गए हरामजादे समाजवाले...राघव ने जेल की दीवारों पर एक जोरदार मुक्का मारा| उसका पोर पोर काँटा बन चुका था| वह बाहर से भी जख्मी था और भीतर से भी| वह जहर खा लेना चाहता था, लेकिन इस कालकोठरी में उसे वह भी प्राप्त नहीं हो सकता था| उसे आज तक मिला ही क्या? उसकी आँखे रोते रोते सूज चुकी थी, अब उनमें आंसू भी नहीं बन रहे थे| उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वह अपने शरीर के बाहर हवा में तैर रहा हो| एक ही पल में अगणित विचार कौंध उठते| वह जड़ भी था, चलायमान भी| उसके अंदर महाभारत का युद्ध चल रहा था, वह…
ContinueAdded by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on March 2, 2014 at 11:27pm — 15 Comments
फागुन का मास
तारों की बारात
चाँदनी के रथ पर
आएगा मोहन
यमुना के तीर
होके अधीर, में तो उसकी हो जाऊँगी ।
श्यामल सा मनोहर गात
पीला सा सिर पर पाग
कानों में कुंडल
अधरों पे मोती
धरे तिरछा पैर
छोड़ सब की खैर, मै तो चरणन में गिर जाऊँगी ।
होंठों की शान
प्यारे की मुस्कान
मीठी सी चितवन
सखियों का लूटे मन
कर के सब जतन, मै तो उनकी हो जाऊँगी ।
माँ यशोदा का…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on March 2, 2014 at 2:30pm — 8 Comments
वो होगा जो कभी न हुआ, देखते रहो
इक दिन खुलेगा बाबे वफा, देखते रहो ...
जो शख्स मुझ से रूठ गया है वो दोस्तो
आएगा मुसकुराता हुआ, देखते रहो....
ज़िंदाने ग़म में जिसने मुझे कैद कर दिया
वो ही करेगा मुझ को रिहा , देखते रहो...
अशकों से कैसे बनते हैं मेरी ग़ज़ल के शेर
लिक्खेगी मेरी नोके मिज़ा देखते रहो ...
फूलों में कौन भरता है ये रंगो बू अजय …
Added by Ajay Agyat on March 2, 2014 at 2:00pm — 6 Comments
मैदानी हवाएँ
समेट नहीं पाती हूँ चाह कर भी कभी
अनमनी यादों की चँचल-सी धारा-गति
लौट-लौट आते हैं दर्द भरे धुँधले
अधबने अधजले सपने
छिपाए न छिपें अर्थहीन समर्थों से अश्रु मेरे
क्यूँ आते हो जगा जाते हो तुम आन्दोलन,
इस अथाह सागर में प्रिय रोज़ सवेरे-सवेरे ?
हो दिन का उजाला
भस्मीला कुहरा
या हो अनाम अरूप अन्धकार
तुम्हारी यादों का फैलाव पल-पल
स्वतन्त्र मैदानी अनदिखी…
ContinueAdded by vijay nikore on March 2, 2014 at 1:00pm — 17 Comments
2122 2122 2122 2122
गर यक़ीं ख़ुद पर नहीं हर रास्ता दुश्वार होगा
ख़्वाब मे भी फूल देखोगे वहाँ पर खार होगा
बात बाहर जब गई है तो कोई गद्दार होगा
कल्पनाओं से ही तो छपता नही अखबार होगा
चौक में जो रात को चिल्ला रहा था बात…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 2, 2014 at 10:00am — 24 Comments
बात ही बात है
हर जगह बात है
हवा थक चुकी है
बात ही बात से,
बूँदों को बार बरसना पड रहा है
ताकि उसकी तरफ भी कोई देखे,
लेकिन लोगों को बात से फुरसत नहीं है।
बात को बात से लडाया जा रहा है
बात किसी को नहीं देख पा रही है
कौन उसका है,और कौन पराया है
बात लोगों से नाराज है।
बात ही बात से।
लोगों के दिमाग़ पर छाई है बात
बात लोगों से तंग है
लोग बातों से तंग हैं
ये वर्तमान में जीने के…
ContinueAdded by सूबे सिंह सुजान on March 1, 2014 at 11:30pm — 9 Comments
शराब की खाली बोतल के बगल में लेटी है
सरसों के तेल की खाली बोतल
दो सौ मिलीलीटर आयतन वाली
शीतल पेय की खाली बोतल के ऊपर लेटी है
पानी की एक लीटर की खाली बोतल
दो मिनट में बनने वाले नूडल्स के ढेर सारे खाली पैकेट बिखरे पड़े हैं
उनके बीच बीच में से झाँक रहे हैं सब्जियों और फलों के छिलके
डर से काँपते हुए चाकलेट और टाफ़ियों के तुड़े मुड़े रैपर
हवा के झोंके के सहारे भागकर
कचरे से मुक्ति पाने की कोशिश कर रहे…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 1, 2014 at 11:03pm — 4 Comments
तरही गजल- 2122 2122 212
आग में तप कर सही होने लगी।
प्यार में मशहूर भी होने लगी।।
जब कभी यादों के मौसम में मिली,
राज की बातें तभी होने लगी।
तुम बहारों से हॅंसीं हस्ती हुर्इं,
आँंख में घुलकर नमी होने लगी।
उम्र से लम्बी सभी राहें कठिन,
पास ही मंजिल खुशी होने लगी।
तुम नजर भी क्या मिलाओगी अभी,
शाम सी मुश्किल घड़ी होने लगी।
चॉंदनी अब चांद से मिलती नहीं,
खौफ हैं बादल…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 1, 2014 at 6:53pm — 6 Comments
हाय! अकेलापन क्यों?
बोझिल सा लगता है
अकेलापन तो स्वर्णिम क्षण है
अपने आप को जानने का पल है
क्यों मानव इससे घबराए?
यह तो सबका बल है।
अकेलापन शक्ति देता है…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on March 1, 2014 at 6:00pm — 12 Comments
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