दस दॊहॆ,,,,,(माँ)
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प्रथम खिलायॆ पुत्र कॊ,बचा हुआ जॊ खाय !
दॊ रॊटी कॊ आज वह, घर मॆं पड़ी ललाय !! (१)
दूध पिलाया जब उसॆ, सही वक्ष पर लात !
वही पुत्र अब डाँट कर, करता माँ सॆ बात !! (२)
सूखॆ वसन सुलाय सुत,रही शीत सिसियात !
चिथड़ॊं मॆं अँग अँग ढँकॆ, जागी सारी रात !! (३)
नज़ला खाँसी ताप या, गर्म हुआ जॊ गात !
एक छींक पर पुत्र की, जगतॆ हुआ प्रभात !! (४)
गहनॆ गिरवी धर दियॆ, जब जब सुत बीमार !
मज़दूरी कर कर भरा,…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on April 6, 2015 at 4:00am — 9 Comments
एक पतंग
भर रही थी
बहुत ऊँची उड़ान
विस्तृत गगन में
जैसे, जाना चाहती हो
आसमान को चीरती, अंतरिक्ष में
लहराती, बलखाती, स्वंय पर इठलाती
दे ढील दे ढील, सभी एक स्वर में चिल्ला रहे थे !
कई चरखियाँ
खत्म हो गयीं
सद्दीयों के गट्टू
मान्झों के गट्टू
गाँठ, बाँध-बाँध कर
एक के बाद एक ऐसे जोड़े गए
जैसे ये अटूट बंधन है ,कभी नहीं टूटेगा
वो काटा, वो काटा पेंच पर पेंच लडाये जा रहे थे !
तालियाँ…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on April 6, 2015 at 1:59am — 7 Comments
मुतकारिब मुसम्मन सालिम
१२२ १२२ १२२ १२२
तुम्हे आज प्रिय नीद ऐसी सुलायें
झरें इस जगत की सभी वेदनायें I
नहीं है किया काम बरसो से अच्छा
चलो नेह का एक दीपक जलायें I
गरल प्यार में इस कदर जो भरा है
असर क्या करेंगी अलायें-बलायें I
तुम्हारी अदा है धवल -रंग ऐसी
कि शरमा गयी चंद्रमा की कलायें I
जगी आज ऐसी विरह की तड़प है
सहम सी गयी है सभी चेतनायें…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 5, 2015 at 8:00pm — 34 Comments
22—22—22—---22—22--22 |
|
मीलों पीछे सच्चाई को छोड़ गया हूँ |
हत्थे चढ़ जाने के भय से रोज दबा हूँ |
|
दीवारों पर अरमानों के ख़्वाब टंगे हैं… |
Added by मिथिलेश वामनकर on April 5, 2015 at 7:30pm — 37 Comments
रुकी हुई सी एक ज़िन्दगी
फ़्लैट में जब दाखिल हुआ तो वो मेरे साथ बगल वाले सोफे पर बैठ गया |उसके रिटायर्ड पिताजी ने पहले पानी दिया और कुछ देर बाद चाय बनाकर ले आए |हाल-चाल की औपचारिकता के बाद मैंने कहा यहाँ घुटन सी है |बाहर पार्क में चलते हैं और हम बाहर निकल आए |ई.टी.ई ट्रेनिंग के 9 साल बाद आज मिलना हुआ था |छह माह पहले वो फेसबुक पर टकराया था |वहीं पर थोड़ा सा उसने अपने जीवन के उतार-चढ़ाव का हल्का-फुल्का जिक्र किया था और तभी से उससे मिलने का मन हो रहा था |
“आगे क्या सोचा है…
ContinueAdded by somesh kumar on April 5, 2015 at 12:27pm — 8 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है
वैसे मज़लूमों का साहस पूँजीपथ का रोड़ा है
सारे झूट्ठे जान गए हैं धीरे धीरे ये मंतर
जिसकी नौटंकी अच्छी हो अब तो वो ही सच्चा है
चुँधियाई आँखों को पहले जैसा तो हो जाने दो
देखोगे ख़ुद लाखों के कपड़ों में राजा नंगा है
खून हमारा कैसे खौलेगा पूँजी के आगे जब
इसमें घुला नमक है जो उसका उत्पादक टाटा है
छोड़ रवायत भेद सभी का खोल…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 5, 2015 at 12:21pm — 17 Comments
आते-आते मैंने भी ललना से लगन लगाई है
थोड़ी कह लो देर भले,मैंने भी बीबी पायी है
आयी,मन की कोई भी कली नहीं मुरझाई है
लगता सब हरा-हरा,ख़ुशी चतुर्दिक छाई है।
हूरों की मशहूर कथाएँ होंगी,मुझे भला क्या,
मुझको तो अपनीवाली सबसे आगे भायी है
खाते ठोकर रह गये, कुछ भी तो मिला नहीं,
मुझको तो अपनीवाली मीठी-सी खटाई है।
बूँद-बूँद पानी को तरसा,चलती रहीं हवाएँ,
बेमौसम बरसात हुई,रूप की बदली छाई है।
फूल-फूल भटका हूँ ,काँटों की ताकीद रही,
मधु का अक्षय कोष ले…
Added by Manan Kumar singh on April 5, 2015 at 12:00pm — 5 Comments
1222 1222 1222 1222
*************************
नगर भी गाँव जैसा ही मुहब्बत का घराना हो
सभी के रोज अधरों पर खुशी का ही तराना हो
*****
बिछा लेना कहीं भी जाल जब चाहे निषादों सा
मगर जीवन में नफरत ही तुम्हारा बस निशाना हो
*****
है भोलापन बहुत अच्छा मगर छल भी समझ पाए
रचो जग तुम जहाँ बचपन भी इतना तो सयाना हो
*****
खुशी हो बाँटनी जब भी न सोचो गैर अपनों की
मगर सौ बार तुम सोचो किसी का दिल दुखाना हो
*****
नई…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 5, 2015 at 10:41am — 11 Comments
शिल्प = भगण X 7 + रगण
ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।ऽ
ऊपर सींकि टँगाय धरी हति,झूलत ती लटकी नित जीत की !!
मॊहन खाइ गयॊ सगरॊ दधि, फॊरि गयॊ मटकी नवनीत की !!
भीतर आइ लखी गति मॊ पर,गाज गिरी टटकी अनरीत की !!
‘राज’ कहैं नहिं दॆंउ उलाहन,भीति हियॆ अटकी कछु प्रीत की !!
"राज बुन्दॆली"
मौलिक एवं अप्रकाशित,,,,,,,
Added by कवि - राज बुन्दॆली on April 5, 2015 at 4:00am — 5 Comments
रात के कुएं में
क्या मैं हूँ कूपमंडूक की भांति
और मुझे भान नहीं
उजालों के अस्तित्व का.
या कि हूँ एक भागा हुआ आदमी -
उजालों के भय से.
कुछ भी सोचो, तय यही है,
मुझसे गप्पें मारतीं रातें
पूछतीं नहीं- 'तुम क्यों हो नंगे' .
दिखातीं नहीं मेरी दुरवस्था औरों को,
घर की बात समझतीं हैं.
कह रही थी वह-
एक भाई है मेरा,
मेरी प्रकृति के विपरीत,
सवाल करता है बहुत,
पटरी बैठती नहीं मेरी-उसकी.
मौलिक व…
Added by shree suneel on April 5, 2015 at 1:30am — 6 Comments
221 2121 1221 212
उठने लगा है दिल से मेरे ये सवाल क्यों
इस तंगदिल जहाँ से करूँ अर्ज़े हाल क्यों
तुझसे रही न कोई शनासाई ऐ हयात
फिर बार-बार आये तेरा ही खयाल क्यों
हैं अश्क़बार और भी इस बज़्म में कई
ऐ दोस्त ये बता कि मेरी ही मिसाल क्यों
आयेंगे और लम्हे अभी तो बहार के
आखिर तुम्हें है शाखे शजर ये मलाल क्यों
कैसे बताये कोई मुकद्दर किसी का क्या
कल जो खिला चमन में वो अब पायमाल…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on April 4, 2015 at 2:53pm — 34 Comments
पैरों में एक जोड़ी हवाई चप्पल,
और छोटी छोटी ख़्वाहिशों से चमकती आँखों के साथ
हाथों में स्टिक लिए
कुछ लड़कियां हॉकी खेलने जाती है
भागती है गेंद के पीछे
गेंद में छुपा बैठा है पेट भर खाने का सुख
पहाड़ के उस पार
जंगलों के बीचों बीच नंगे पाँव
एक वृद्ध आदिवासी दंपति
सखुआ के पत्तों को हटाकर
पौधों की जड़ें खोद
रात के खाने का इंतजाम करता है।
उसने कभी हॉकी का स्टिक नहीं देखा है
पर वह सपने देखता है
गेंद से…
ContinueAdded by Neeraj Neer on April 4, 2015 at 1:30pm — 7 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on April 4, 2015 at 10:37am — 12 Comments
चकोर सवैया
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भगण X 7 + गुरु + लघु
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फॊरत है मटकी नित मॊहन, नंद यशॊमति तॆ कहु आज !!
चीर चुरावत गॊपिन कॆ सुनु, वॊहि न आवत एकहु लाज !!
नाँवु धरैं नर नारि सबै नित, नाँवु धरै यदु वंश समाज !!
खीझत खीझत ‘राज’कहैं अलि,खूब सताइ रहा बृजराज !!
"राज बुन्दॆली"
मौलिक व अप्रकाशित
Added by कवि - राज बुन्दॆली on April 4, 2015 at 5:30am — 6 Comments
Added by Samar kabeer on April 3, 2015 at 10:32pm — 40 Comments
2212 2212
तू मुस्करा के देख ले
दिल से लगा के देख ले
झुकना नहीं मंजूर अब
कोई झुका के देख ले
है नाम तेरे जिन्दगी
बस आजमा के देख ले
ये खेल है दिलकस बहुत
बाजी लगा के देख ले
बुझते मुहब्बत के चिराग
अब तो जला के देख ले
कोई नहीं हमसा यहाँ
नजरें घुमा के देख ले
मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा
Added by umesh katara on April 3, 2015 at 8:10pm — 18 Comments
तमन्ना
इस चमन की सुमन खिलते रहें
सुख दुःख में हम मिलते रहें
लाख कोशिश करे हमें तोड़ने की
हम जुड़े हुवे हम जुड़ते रहें
इंद्रधनुषी रंग छाते रहें
खुशियों के गीत गाते रहें
लहू के रंग फैलायें न कोई
हम जगे हुवे हम जगते रहें
पक्षियों का कलरव गूंजता रहे
पर्वतों को गगन चूमता रहे
आँधियाँ चाहे चले जोर से
हम अडिग हुवे हम अडिग रहें
झरने कल कल झरते रहें
विकास पथ पर बढ़ते रहें
भूल से भी न रोके कोई
हम अजये विजयी रहें
हिम शिखर…
ContinueAdded by Shyam Mathpal on April 3, 2015 at 7:30pm — 5 Comments
Added by कवि - राज बुन्दॆली on April 3, 2015 at 12:14am — 8 Comments
22-22--22-22--22-22—2 |
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तुम बिन सूने-सूने लगते जीवन-वीवन सब |
साँसें-वाँसें, खुशबू-वुशबू, धड़कन-वड़कन सब |
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आज सियासत ने धोके से, अपने बाँटें… |
Added by मिथिलेश वामनकर on April 2, 2015 at 11:00pm — 38 Comments
उड़ानें उसकी बहुत ऊँची हो चुकी हैं
बेशक , बहुत ऊँची
खुशी होती है देख कर
अर्श से फर्श तक पर फड़फड़ाते
बेरोक , बिला झिझक, स्वछंद उड़ते देख कर उसे
जिसके नन्हें परों को
कमज़ोर शरीर में उगते हुए देखा है
छोटे-छोटे कमज़ोर परों को मज़बूतियाँ दीं थीं
अपने इन्हीं विशाल डैनों से दिया है सहारा उसे
परों को फड़फड़ाने का हुनर बताया था
दिया था हौसला, उसकी शुरुआती स्वाभाविक लड़खड़ाहट को
खुशी तब भी बहुत होती थी
नवांकुरों की कोशिशें…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 9:30pm — 23 Comments
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