महाभुजंगप्रयात सवैया
कड़ी धूप या ठंड हो जानलेवा न थोड़ी दया ये किसी पे दिखाती।
कि लेती कभी सब्र का इम्तिहां और भूखा कभी रात को ये सुलाती।।
जरूरी यहाँ धर्म-कानून से पूर्व दो वक्त की रोटियाँ हैं बताती।
गरीबी न दे ऐ खुदा! जिंदगी में कि इंसान से ये न क्या क्या कराती?
शिल्प-लघु गुरु गुरु(यगण)×8
रचनाकार- रामबली गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by रामबली गुप्ता on April 23, 2019 at 5:23pm — 5 Comments
प्रतीक्षा लौ ...
जवाब उलझे रहे
सवालों में
अजीब -अजीब
ख्यालों में
प्रतीक्षा की देहरी पर
साँझ उतरने लगी
बेचैनियाँ और बढ़ने लगीं
ह्रदय व्योम में
स्मृति मेघ धड़कने लगे
नैन तटों से
प्रतीक्षा पल
अनायास बरसने लगे
सवाल
अपने गर्भ में
जवाबों को समेटे
रात की सलवटों पर
करवटें बदलते रहे
अभिव्यक्ति
कसमसाती रही
कौमुदी
खिलखिलाती रही
संग रैन के
मन शलभ के प्रश्न
बढ़ते रहे
जवाब…
Added by Sushil Sarna on April 22, 2019 at 6:25pm — 8 Comments
छकपक ... छकपक ... करती आधुनिक रेलगाड़ी बेहद द्रुत गति से पुल पर से गुजर रही थी। नीचे शौच से फ़ारिग़ हो रहे तीन प्रौढ़ झुग्गीवासी बारी-बारी से लयबद्ध सुर में बोले :
पहला :
"रेल चली भई रेल चली; पेल चली उई पेल चली!"
दूसरा :
"खेल गई रे खेल गई; खेतन खों तो लील गई!"
फ़िर तीसरा बोला :
"ठेल चली; हा! ठेल चली; बहुतन खों तो भूल चली!"
दूर खड़े अधनंगे मासूम तालियां नहीं बजा रहे थे; एक-दूसरे की फटी बनियान पीछे से पकड़ कर छुक-छुक…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 22, 2019 at 3:32pm — 2 Comments
कनक मंजरी छंद "गोपी विरह"
तन-मन छीन किये अति पागल,
हे मधुसूदन तू सुध ले।
श्रवणन गूँज रही मुरली वह,
जो हम ली सुन कूँज तले।।
अब तक खो उस ही धुन में हम,
ढूंढ रहीं ब्रज की गलियाँ।
सब कुछ जानत हो तब दर्शन,
देय खिला मुरझी कलियाँ।।
द्रुम अरु कूँज लता सँग बातिन,
में यह वे सब पूछ रही।
नटखट श्याम सखा बिन जीवित,
क्यों अब लौं, निगलै न मही।।
विहग रहे उड़ छू कर अम्बर,
गाय रँभाय रही सब हैं।
हरित सभी ब्रज के तुम पादप,
बंजर…
Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 22, 2019 at 10:54am — 4 Comments
(1).चेतना :
ग़ुलामी ने आज़ादी से कहा, "मतदाता सो रहा है, उदासीन है या पार्टी-प्रत्याशी चयन संबंधी किसी उलझन में है, उसे यूं बार-बार मत चेताओ; हो सकता है वह अपने मुल्क में किसी ख़ास प्रभुत्व या किसी तथाकथित हिंदुत्व या किसी इमरजैंसी के ख़्वाब बुन रहा हो!"
आज़ादी ने उसे जवाब दिया, "नहीं! हमारे मुल्क का मतदाता न तो सो रहा है; न ही उदासीन है और न ही किसी उलझन में है! उसे चेताते रहना ज़रूरी है! हो सकता है कि वह तुष्टीकरण वाली सुविधाओं, योजनाओं, क़ानूनों से आज़ादी का मतलब भूल गया हो या…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on April 21, 2019 at 3:30pm — 2 Comments
श'हर में शोर ये फैला हुआ है ।।
पडोसी गाँव में मुजरा हुआ है।।
कोई तो दीद के क़ाबिल है आया ।
यहाँ दो दिन से ही परदा हुआ है।।
वतन की आबरू कैसे बचाए।
म'सलतन आज ही सौदा हुआ है।।
जरा देखूं सराफ़त छोड़ कर के ।
सुना है नाम कुछ अच्छा हुआ है।।
अजां पढ़ ले या बुत की आरती को ।
सभी कुछ आज…
Added by amod shrivastav (bindouri) on April 21, 2019 at 10:47am — 3 Comments
अधूरी सी ज़िंदगी ....
कुछ
अधूरी सी रही
ज़िंदगी
कुछ प्यासी सी रही
ज़िंदगी
चलते रहे
सीने से लगाए
एक उदास भरी
ज़िंदगी
जीते रहे
मगर अनमने से
जाने कैसे
गुफ़्तगू करते
कट गयी
अधूरी सी ज़िंदगी
ढूंढते रहे
कभी अन्तस् में
कभी जिस्म पर रेंगते
स्पर्शों में
कभी उजालों में
कभी अंधेरों में
निकल गई छपाक से
जाने कहाँ
हमसे हमारी
अधूरी सी ज़िंदगी
बरसती रही…
ContinueAdded by Sushil Sarna on April 20, 2019 at 7:26pm — 6 Comments
मापनी २२१२ १२१ १२२ १२१२
हमने रखा न राज़ सभी कुछ बता दिया
खिड़की से आज उसने भी परदा हटा दिया
बंजर जमीन दिल की’ हुई अब हरी-भरी
सींचा है उसने प्रेम से’ गुलशन बना दिया
जज्बात मेरे’ दिल के’ मचलते चले…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on April 19, 2019 at 9:00pm — 3 Comments
१२२२ १२२२ १२२
उदासी से घिरी तन्हा छते हैं
कई किस्से यहाँ के घूरते हैं
परिंदों के परों पर घूमते हैं
हम अपने घर को अकसर ढूंढते हैं
नहीं है इश्क पतझड़ तो यहाँ क्यों
सभी के दिल हमेशा टूटते हैं
मेरा स्वेटर कहाँ तुम ले गई थीं
तुम्हारी शाल से हम पूछते हैं
नए रिश्तों में कितनी भी हो गर्मी
कहाँ रिश्ते पुराने छूटते हैं
कभी तो राख़ हो जाएंगी यादें
तुम्हे सिगरेट समझ कर फूंकते…
ContinueAdded by दिगंबर नासवा on April 19, 2019 at 8:22pm — 6 Comments
२२१/ २१२१/२२२/१२१२
लेकर शराब साड़ियाँ मतदान कीजिए
फिर पाँच साल जिन्दगी हलकान कीजिए।१।
देता है जो भी सीख ये तुमको चुनाव में
फूलों से ऐसे नेता का सम्मान कीजिए।२।
बाँटेंगे जात धर्म की सरहद में खूब वो
मत खाक उनका आप ये अरमान कीजिये।३।
सीढ़ी हो उनके वास्ते कुर्सी की राह पर
हर लक्ष्य उनका आप ही परवान कीजिए।४।
सेवक हैं उनको आप मत…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 19, 2019 at 8:04pm — 5 Comments
1-
नेता आपस में लड़ें, रोज जुबानी जंग।
मर्यादाएँ हो रहीं, इस चुनाव में भंग।।
इस चुनाव में भंग, सभी ने गरिमा खोई।
फैलाकर उन्माद, परस्पर नफरत बोई।।
जनता का इस बार, बनेगा वही चहेता।
जो कर सके विकास, चाहिए ऐसा नेता।।
2-
बातें बेसिरपैर कीं, नेता करते रोज।
मर्यादाएँ तोड़कर, दिखलाते हैं ओज।।
दिखलाते हैं ओज, मंच से देते गाली।
खुद की ठोकें पीठ,बजावें खुद ही ताली।।
संसद में जो लोग, चलाते मुक्के लातें।
गरिमा के विपरीत, वही करते हैं…
Added by Hariom Shrivastava on April 19, 2019 at 10:00am — 4 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on April 18, 2019 at 11:22pm — 3 Comments
अहीर छंद "प्रदूषण"
बढ़ा प्रदूषण जोर।
इसका कहीं न छोर।।
संकट ये अति घोर।
मचा चतुर्दिक शोर।।
यह दावानल आग।
हम सब पर यह दाग।।
जाओ मानव जाग।
छोड़ो भागमभाग।।
मनुज दनुज सम होय।
मर्यादा वह खोय।।
स्वारथ का बन भृत्य।
करे असुर सम कृत्य।।
जंगल करत विनष्ट।
सहे जीव-जग कष्ट।।
प्राणी सकल…
Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 18, 2019 at 1:18pm — 6 Comments
1212 1122 1212 22/112
--
जनाबे मीर के लहजे की नाज़ुकी कि तरह
तुम्हारे लब हैं गुलाबों की पंखुड़ी की तरह
oo
शगुफ्ता चेहरा ये ज़ुलफें ये नरगिसी आँखे
तेरा हसीन तसव्वुर है शायरी की तरह
oo
अगर ऐ जाने तमन्ना तू छत पे आ जाए
अंधेरी रात भी चमकेगी चांदनी की तरह
oo
यूँ ही न बज़्म से तारीकियाँ हुईं ग़ायब
कोई न कोई तो आया है…
Added by SALIM RAZA REWA on April 18, 2019 at 9:55am — 7 Comments
वेदना ...
अंतस से प्रस्फुरित हो
अधर तीर पर
ठहर गए कुछ शब्द
मौन के आवरण को
भेदने के लिए
अंतस के उजास पर
तिमिर का अट्हास
मानो वेदना का चरम हो
स्पर्शों की आँधी
निर्ग्रंथ देह पर
बिखरी अनुभूतियों के
प्रतिबिम्ब अलंकृत कर गई
रश्मियाँ अचंभित थी
निर्ग्रंथ देह पर
अनुभूतियों के
विप्रलंभ शृंगार को देखकर
क्या यही है प्रेम चरम की परिणीति
तृषा और तृप्ति के संघर्ष का अंत
नैनों तटों पर तैरती
अव्यक्त…
Added by Sushil Sarna on April 17, 2019 at 8:06pm — 6 Comments
2122 2122 2122 212
मौन रह अपनी ज़रूरत के लिए ए मित्रवर
तू समस्याओं पे काहें को फ़िराता है नज़र
यूँ भी सदियों से लुटेरे आबरू लूटा किए
रोकने की क्या ज़रूरत लूट लेंगे अब अगर
चाय अपनी दाल रोटी चल रही दासत्व से
तो भला ज़िद ठान बैठा है तू क्यूँ सम्मान पर
साख़ पर उल्लू हैं लाखों क्या हुआ, जाने भी दे
छोड़ चिंता बाग की, बस धन पे रख अपनी नज़र
क्या गरज तुझको पड़ी क्यूँ नींद अपनी खो रहा
यार पंकज, चुन सुकूँ, रख बन्द…
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 17, 2019 at 1:27pm — 7 Comments
समय के साथ भी सीखा गया है ।।
ये गुजरा दौर भी बतला गया है ।।
मेरी मजबूरियां अब मत गिनो तुम ।
मेरे संग हो तो सब देखा गया है ।।
सभी उस्ताद बनकर ही नहीं हैं।
मुझे अधभर में ही रख्खा गया है ।।
ये तेरा प्रेम कब छूटेगा मुझसे ।
मेरे चहरे में ये बस सा गया है ।।
मेरे भी चाहने वाले मिलेंगे।
मुझे कहकर यही बिछड़ा गया है ।।
कभी वो इन्तेहाँ मेरा भी ले…
ContinueAdded by amod shrivastav (bindouri) on April 17, 2019 at 11:30am — 5 Comments
सूत्र-सात यगण +गा; 122×7+2
पड़ी जान है मुश्किलों में करूँ क्या कि नैना मिले और ये हो गया।
गई नींद भी औ' लुटा चैन मेरा न जाने जिया ये कहां खो गया।।
जिया के बिना भी जिया जाय कैसे अरे! कौन काँटें यहां बो गया।
हुआ बावरा या नशा प्यार का है संभालो मुझे हाय! मैं तो गया।।
रचनाकार-रामबली गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by रामबली गुप्ता on April 17, 2019 at 10:29am — 9 Comments
२२१/२१२१/१२२१/२१२
दिल से निकल के बात निगाहों में आ गयी
जैसे हसीना यार की बाहों में आ गयी।१।
धड़कन को मेरी आपने रुसवा किया हुजूर
कैसे हँसी, न पूछो कराहों में आ गयी।२।
रुतबा है आपका कि सितम रहमतों से हैं
हमने दुआ भी की तो वो आहों में आ गयी।३।
कैसा कठिन सफर था मेरा सोचिये जरा
हो कर परेशाँ धूप भी छाहों में आ गयी।४।
सौदा जो सिर्फ…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 17, 2019 at 7:25am — 10 Comments
नयी सदी अपना एक चौथाई हिस्सा पूरा करने जा रही थी। तेज़ी से बदलती दुनिया के साथ मुल्क का लोकतंत्र भी मज़बूत होते हुए भी अच्छे-बुरे रंगों से सराबोर हो रहा था। काग़ज़ों और भाषणों में भले ही लोकतंत्र को परिपक्व कहा गया हो, लेकिन लोकतंत्र के महापर्व 'आम-चुनावों' के दौरान राजनीतिक बड़बोलेपन के दौर में यह भी कहा जा रहा था कि अमुक धर्म ख़तरे में है या अपना लोकतंत्र ही नहीं, मुल्क का नक्शा भी ख़तरे में है! कोई किसी बड़े नेता, साधु-संत, उद्योगपति, धर्म-गुरु या देशभक्त को चौड़ी छाती वाला इकलौता 'शेर' कह रहा था,…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on April 16, 2019 at 5:30pm — 5 Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |