क्षणिकाएं ....
१.
खेल रही थी
सूर्य रश्मियाँ
घास पर गिरी
ओस की बूंदों से
वो क्या जानें
ये ओस तो
आंसू हैं
वियोगी
चाँद के
....................
२.
जीवन
मिटने के बाद भी
ज़िंदा रहता है
स्मृति के गर्भ में
अवशेष बन
श्वासों का
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on April 20, 2018 at 12:16pm — 6 Comments
"सर ! बलात्कार का केस और ये नार्कोटेस्ट ..ये सीबीआई जाँच की खुद माँग करना !!!
ये तो ख़ुदकुशी करना हुआ ।"
शतरंज की बिसात पर अकेले बैठे खेल रहे मंत्री जी से मुँह लगे सेक्रेटरी ने चिंतित होकर कहा।
" सुरेश बाबू ! इतनी चिंता क्यों करते हो ? इससे तो आपका बीपी बढ़ जाएगा । शान्ति पकड़ो जरा । देखे नहीं का..., जनता की सवालिया चितावन को ? लेकिन हम जरा दम भरे नहीं , कि गेट के बाहर भीड़ छटी नही। "
"लेकिन...!!!
"अच्छा यह सब छोड़ो..., जरा यहाँ आओ और बताओ तो सरी इस पारी को कौन…
Added by Rahila on April 20, 2018 at 7:15am — 4 Comments
212 212 212 212 212 212
जानें क्या बात है आज कल, दर्द अपना छिपाने लगा
हाल उसका पता कीजिए, वो बहुत मुस्कुराने लगा
हम उसे बस यूँ ही चारागर, झूठे ही तो नहीं लिख दिए
एक बेजान से बुत में भी, वो जो धड़कन चलाने लगा
उसको पागल नहीं जो कहें, तो भला नाम क्या और दें
एक निर्जन नगर में कोई, स्वप्न के घर बसाने लगा
शुक्रिया आपका शुक्रिया है ये तोहफा बहुत कीमती
देखिए तो विरह का असर शेर मैं गुनगुनाने लगा
उम्र भर की ख़लिश…
ContinueAdded by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 20, 2018 at 12:00am — 14 Comments
क्यों अंजान रखा 'उन काले अक्षरों से'
तेरे लिए क्या बेटा, क्या बेटी,
तेरी ममता तो दोनों के लिए समान थी,
परिवार की गाडी चलाने वाली तू,
फिर, कैसे भेदभाव कर गई तू,
क्यों शाला की ओर बढते कदमों को रोका,
क्यों उन आडे टेढे मेढे अक्षरों से अंजान रखा,
कहीं पडा, किसी किताब का पन्ना मिल जाता,
तो, उसे उलट पुलट करती, एक पल निहारती,
हुलक होती, पढते लिखते हैं कैसे,
जिज्ञासा होती इन शब्दों को उकेरने की,
या फिर…
ContinueAdded by babitagupta on April 19, 2018 at 8:31pm — 2 Comments
रामप्रसाद जी की इकलौती बेटी की शादी थी । सुबह से गहमा-गहमी लगी हुयी थी । रामप्रसाद जी का सबके साथ इतना अच्छा व्यवहार था उनके अड़ोस-पड़ोस में रहने वाले भी इस विवाह को लेकर उतने ही उत्साहित थे जितने स्वयं रामप्रसाद जी । रामप्रसाद जी के बराबर वाले घर में रहने वाले मोहनलाल जी से कभी छोटी बातों को लेकर हुयी कहा-सुनी इतनी बढ़ गयी थी कि आपस में एक-दूसरे को देखना तो क्या नाम भी सुनना पसंद नहीं था । इस वजह से मोहनलाल जी को विवाह में शामिल होने का बुलावा भी नहीं भेजा था उन्होने । रामप्रसाद जी कि पत्नी…
ContinueAdded by Neelam Upadhyaya on April 19, 2018 at 4:04pm — 12 Comments
(फ़ाइलातुन -फ़ाइलातुन -फ़ाइलातुन -फाइलुन )
कीजियेगा हुस्न वालों से मुहब्बत देख कर|
हो गए बर्बाद कितने लोग सूरत देख कर |
यूँ नहीं उसकी बुझी आँखों में आई है चमक
वह रुखे दिलबर पे आया है मुसर्रत देख कर|
बागबां आख़िर सितम ढाने से बाज़ आ ही गया
यकबयक फूलों की गुलशन में बग़ावत देख कर |
देखता है कौन यारो आजकल किरदार को
लोग रिश्ता जोड़ते हैं सिर्फ़ दौलत देख कर |
बे वफ़ाई के सिवा इन से तो कुछ मिलता नहीं
आज़माना हुस्न की चौखट पे…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on April 19, 2018 at 1:30pm — 8 Comments
मुंतज़िर मुंतज़िर रहा
मूरत बनाई थी जो
मुस्सवर ख़्यालों में
अब तक वह पाक
हसीन खवाब ही रही
रातों अँधेरे में कभी
दिन के उजाले में भी
रोज़ आई मुस्तकिल:
हलकी-सी मुस्कराई
बिना सलाम चली गई
मैं डरता रहा थर-थर
तस्वीर की तकदीर…
ContinueAdded by vijay nikore on April 19, 2018 at 11:47am — 26 Comments
एकाकीपन
भटकती भीड़ है बाहर
भीतर पसर रहा
कपूर-सा उड़ता
आँसू-विहीन
अटूट अकेलापन
सांकल लगे बंद कमरे का
निर्जीव सुन्न…
ContinueAdded by vijay nikore on April 19, 2018 at 11:30am — 12 Comments
तब्दीले आबोहवा
न सवाल बदला, न जवाब बदला....
न मंज़र न मक़ाम बदला
कागज़ के उड़ते चिन्दे-सा हूँ मैं
उड़ा दिया हवा ने जब-कभी
उड़ा जिधर रुख हवा ने बदला
चाह कर भी न बदल सका
न खुद को न खुदाई को मैं
हाँ, कई बार क़िर्वात का
आदतन क़ुत्बनुमा बदला
गुज़रा जब भी तुम्हारी गली से
बेरहम बेरुखी के बावजूद भी
साँकल खटखटाई हरबार
न आई चाहे तुम दरवाज़े …
ContinueAdded by vijay nikore on April 19, 2018 at 11:30am — 18 Comments
(फ़ाइलातुन -फ़ाइलातुन -फ़ाइलातुन -फ़ाइलुन )
बन गया है आज का इंसान हैवां दोस्तो |
पाक औरत का रहेगा कैसे दामां दोस्तो |
पेश आया था कभी दिल्ली में जैसा वाक़्या |
हो गया कठुआ ,रसाना में भी वैसा हादसा |
जिसको सुन कर हो रहे हैं जानवर दुनिया के ख़्वार |
कर दिया इंसान ने इंसानियत को शर्म सार |
यह नहीं है ख़्वाब कोई है हक़ीक़त दोस्तो |
आसिफ़ा है वह लुटी है जिसकी इज़्ज़त दोस्तो |
उम्र उस मासूम की थी सिर्फ़ लोगों आठ साल |
मुफ़लिसी थी घर में लेकिन था नहीं कोई…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on April 18, 2018 at 10:00pm — 16 Comments
२१२२/२१२२/२१२२/२१२
.
जो किताबों ने दिया वो फ़लसफ़ा अपनी जगह.
लोग जिस पर चल पड़े वो रास्ता अपनी जगह.
.
फिर लिपटकर रो सकूँ मैं ये दुआ अपनी जगह
लौट कर आए न तुम मैं भी रहा अपनी जगह.
.
हक़ बयानी का सभी को हौसला होता नहीं
संग हैं बेताब फिर भी आईना अपनी जगह.
.
छोड़ कर मुझ को तेरा क्या हाल है यह तो बता
तेरे पीछे हश्र मेरा जो हुआ अपनी जगह.
.
ये वो मंजिल तो नहीं है आज पहुँचे हैं जहाँ
गो तुम्हारे साथ चलने का मज़ा अपनी…
Added by Nilesh Shevgaonkar on April 18, 2018 at 8:30pm — 19 Comments
“भेड़िया आया... भेड़िया आया...” पहाड़ी से स्वर गूंजने लगा। सुनते ही चौपाल पर ताश खेल रहे कुछ लोग हँसने लगे। उनमें से एक अपनी हँसी दबाते हुए बोला, “लो! सूरज सिर पर चढ़ा भी नहीं और आज फिर भेड़िया आ गया।“
दूसरा भी अपनी हँसी पर नियंत्रण कर गंभीर होते हुए बोला, “उस लड़के को शायद पहाड़ी पर डर लगता है, इसलिए हमें बुलाने के लिए अटकलें भिड़ाता है।“
तीसरे ने विचारणीय मुद्रा में कहा, “हो सकता है... दिन ही कितने हुए हैं उसे आये हुए। आया था तब…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on April 18, 2018 at 7:00pm — 10 Comments
इन्तिजार ....
दफ़्न कर दिए
सारे जलजले
दर्द के
इश्क़ की
किताब में
ढूंढती रही
कभी
ख़ुद में तुझको
कभी
ख़ुद में ख़ुद को
मगर
तू था कि बैठा रहा
चश्म-ए -साहिल पर
इक अजनबी बन के
मैं
तैरती रही
एक ख़्वाब सी
तेरे
इश्क़ की
किताब में
राह-ए-उल्फ़त में
दिल को
अजीब सी सौग़ात मिली
स्याह ख़्वाब मिले
मुंतज़िर सी रात मिली
यादों के सैलाब मिले
चश्म को बरसात…
Added by Sushil Sarna on April 18, 2018 at 12:30pm — 7 Comments
1212----1122----1212----112/22
जो काम बस का नहीं, उसका इश्तिहार किया
यही तो काम सियासत ने बार बार किया
तमाम अहले-चमन भी सज़ा के भागी हैं
अगर उक़ाब ने गोरैया का शिकार किया
उन्हें तो शौक़ था वादों पे वादे करने का
और एक हम थे कि वादों पे ए'तिबार किया
ये कौन आया है साहिल से लौट कर प्यासा
ये किसकी प्यास ने दरिया को शर्मसार किया
मुक़ाम उनको ही हासिल हुआ है दुनिया में
जिन्होंने राह की दुश्वारियों को पार किया
जो इसके साथ न चल पाया रह…
ContinueAdded by दिनेश कुमार on April 18, 2018 at 9:39am — 15 Comments
17 अप्रैल, 2017 (मंगलवार) [रात नौ बजे]
डियर डायरी!
आज भी मैंने जो कहा-अनकहा सुना था, वैसा ही पाया और देखा भी, अपने इर्द-गिर्द, अपने घर में, समाज और परिवार में ही नहीं, पूरे देश और दुनिया में भी! कथनी और करनी में अंतर! एक से बढ़कर एक फेंकू! बदला लेने के पारम्परिक, ग़ैर-पारम्परिक और आधुनिक तौर-तरीक़े! बदलती हवायें, परिभाषाएं, अवसरवादिता और रीति-रिवाज़! रिश्तों की नीरसता और उनकी पोल! मशीनी आदमी का रमण-अमन-दमन-चलन और प्रकरण ! ख़रीद-फ़रोख़्त! आधुनिक…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 17, 2018 at 7:11pm — 3 Comments
दुआ कर ग़म-ए-दिल, दुआ कर तू
नफ़रत को नफ़रत से न देख तू, रात भर बेकरार न हो
रुसवा है वह, पर रह्म दिल है तू, रऊफ़ है तू
कर दुआ कि सोच पर उसकी, रहमत खुदा की हो
रफ़ीक ने दी है चोट तुम्हें, उसका उसे मलाल हो…
ContinueAdded by vijay nikore on April 17, 2018 at 3:51pm — 6 Comments
हवा खामोश है
फिजा भी उदास
बाजार सजा है
नफ़रतों का
मंदिर, मस्जिद, गिरजा,
क्या देखें
सभी जैसे निर्विकार
सड़कें तो पट गयी
जिंदा लाशों से
इंसानियत मर रही
आस दरक रही
सियासत व्यस्त है
दरकार दबाने में
अभिलाषा बुझ रही
आँसू निकलते नहीं
शब्द बोलते नहीं
'कठुआ', 'उन्नाव', 'दिल्ली,
'…………', '……….'
और कितने…
ContinueAdded by Neelam Upadhyaya on April 17, 2018 at 12:20pm — 7 Comments
प्रपात.....
मौन
बोलता रहा
शोर
खामोश रहा
भाव
अबोध से
बालू रेत में
घर बनाते रहे
न तुम पढ़ सकी
न मैं पढ़ सका
भाषा
प्रणय स्पंदनों की
आँखों में
भला पढ़ते भी कैसे
ये शहर तो
आंसूओं का था
घरोंदा
रेत का
ढह गया
भावों को समेटे
आँसुओं के
प्रपात से
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on April 17, 2018 at 11:41am — 10 Comments
अरकान:-
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
गुज़रे वक़्तों की वो तहरीर सँभाले हुए हैं,
दिल को बहलाने की तदबीर सँभाले हुए हैं।।
बाँध रक्खा है हमें जिसने अभी तक जानाँ,
हम महब्बत की वो ज़ंजीर सँभाले हुए हैं।।
देखते रहते हैं अजदाद के चहरे जिसमें,
हम वफ़ाओं की वो तस्वीर सँभाले हुए हैं।।
जिन लकीरों में नजूमी ने कहा था,तू है,
दोनों हाथों में वो तक़दीर सँभाले हुए हैं।।
वस्ल की शब…
ContinueAdded by santosh khirwadkar on April 17, 2018 at 11:21am — 16 Comments
लल्ला गया विदेश
© बसंत कुमार शर्मा
उसको जब अपनी धरती का,
जमा नहीं परिवेश.
ताक रही दरवाजा अम्मा,
लल्ला गया विदेश.
खेत मढैया बिका सभी कुछ,
हैं जेबें…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on April 17, 2018 at 9:12am — 11 Comments
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