भरा विश्व सारा मेरे नयन में ,
गगन का विश्राम है मेरे नयन में .
तिरस्कार सामने है मैत्री की सगाई
करुणा सागर है मेरे नयन में
धनुष मेघ जीवन का है ऐसा रचा
सफल रंग लहराता मेरे नयन में
कर्तव्य वृक्ष है उपवन में उगे
खिले स्नेह पुष्प है मेरे नयन में
बदले थे पथ विभन्न जन्म में
नया एक पथ है मेरे नयन में
न करना न सहेना , रोना न खेलना
मुक्तीकी छाया है मेरे नयन में...................…
Added by narendrasinh chauhan on May 5, 2015 at 3:00pm — 7 Comments
कभी गलियारे मेँ यादोँ के
कभी बँजारे बन राहोँ पर
न जाने क्या ढूँढते हैँ हम
भूलाना था जिसे हमको
वही सब याद करते हैँ
रेत के भँवर मेँ डूबते हैँ हम
कभी मौसम जो भाते थे
और मँजर जो लुभाते थे
उन्हीँ से आज ऊबते हैँ हम
न आने वाला है अब कोई
न मनाने वाला है अब कोई
खुद से जाने क्योँ रूठते हैँ हम
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Mohinder Kumar on May 5, 2015 at 3:00pm — 7 Comments
“सुनो! कितनी अच्छी हो तुम, कितना प्रेम है तुम्हारे पास मेरे लिए. मेरा शादी-सुदा होना भी तुमने अपनी गहराइयों से स्वीकार लिया है. कुछ कहो न!, ऐसा क्या है मुझमे..?”
“ मुझे, तुमसे सब कुछ मिल रहा है जो किसी से शादी के बाद जो मिलता. और मैं तुमसे अपनी मर्जी तक सम्बन्ध बनाये रख सकती हूँ, क्यूंकि तुम शादी-शुदा होने के कारण, समाज अपने परिवार और क़ानून के डर से मुझसे जबरदस्ती नहीं कर सकते. नहीं तो आजकल के बेचलर...तौबा-तौबा “
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व्…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on May 5, 2015 at 12:01pm — 19 Comments
Added by VIRENDER VEER MEHTA on May 5, 2015 at 10:32am — 4 Comments
2212 2212 2212 222
खुद से खफा हूँ जिन्दगी मक्तल हुयी जाती है
कोई खता गो आजकल पल पल हुयी जाती है
जबसे मुझे उसने छुआ है क्या कहूँ हाले दिल
शहनाई दुनिया धड़कने पायल हुयी जाती है
अब जबकि मै मानिन्द सहरा सा होता जाता हूँ
है क्या कयामत ये??जुल्फ वो बादल हुयी जाती है
शम्मा जलाकर मेरे दिल का दाग जिसने पारा
स्याही वही अब चश्म का काजल हुयी जाती है
सदके ख़ुदा को जाऊ मै क्या खूब रौशन है…
ContinueAdded by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 5, 2015 at 10:30am — 10 Comments
Added by Seema Singh on May 5, 2015 at 9:41am — 6 Comments
देशराज सिंह के चार बेटे हुए , उनमें से तीन के नाम हैं , ज्ञान सिंह, वचन सिंह ,करम सिंह ।
ये तीनों जब से अपने हाथ पाँव के हुए एक दूसरे दूर हो गए।
लोग समझते हैं कि वे एक दूसरे से बिलकुल अंजान हो गए जबकि असलियत यह है कि वे तीनों आपस में एक दूसरे की शक्ल ही नहीं देखना चाहते हैं , कभी-कभार का मिलना जुलना तो बहुत दूर की बात. तीनों एक दूसरे से बिलकुल उल्टी दिशा में चलते हैं।
और चौथा ?
चौथा , विवेक सिंह , वो तो हर समय सोया ही रहता है, कभी जागा हो, किसी ने देखा ही नहीं।…
Added by Dr. Vijai Shanker on May 5, 2015 at 9:30am — 16 Comments
२१२२/१२१२/२२ (११२)
वह’म है वो नज़र नहीं रखता
आसमां क्या ख़बर नहीं रखता.
.
वो मकीं सब के दिल में रहता है
आप कहते हैं घर नहीं रखता.
.
है मुअय्यन हर एक काम उसका
कुछ इधर का उधर नहीं रखता.
.
अपने दर पे बुलाना चाहे अगर
तब खुला कोई दर नहीं रखता.
.
ख़ामुशी अर्श तक पहुँचती है
लफ्ज़ ऐसा असर नहीं रखता.
.
तेरी हर साँस साँस मुखबिर है
तू ही ख़ुद पे नज़र नहीं रखता.
.
दिल ही दिल में हमेशा घुटता है…
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2015 at 8:30am — 20 Comments
Added by Samar kabeer on May 4, 2015 at 11:12pm — 15 Comments
लौटेंगे कर्म फल आप तक ज़रूर
******************************
बातें हमेशा मुँह से ही बोली जायें तभी समझीं जायें ज़रूरी नहीं
कभी कभी परिस्थितियाँ जियादा मुखर होतीं हैं शब्दों से ,
और ईमानदार भी होतीं हैं
देखा है मैनें
जिसे परिवार में समदर्शी होना चाहिये
उनको छाँटते निमारते ,
अपनों में से भी और अपना
वैसे गलत भी नहीं है ये
अधिकार है आपका , सबका
देखा जाये तो मेरा भी है
तो, छाँटिये बेधड़क , बस ये…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 4, 2015 at 7:04pm — 16 Comments
आँखों में बेबस मोती है …
रात बहुत लम्बी है
ज़िंदगी बहुत छोटी है
पत्थरों के बिछोने पे
लोरियों की रोटी है
अब वास्ता ही नहीं
हाथों की लकीरों से
भूख बिलखती है पेट में
मुफलिसी साथ सोती है
आते ही मौसम चुनाव का
होठों पे हँसी होती है
राजनीति की जीत हमेशा
हम जैसों से ही होती है
हर चुनाव के भाषण में
नाम हमारा ही होता है
कुर्सी मिलते ही फिर से
फुटपाथ पे तकदीर होती है
संग होते हैं श्वान वही
वही भूखी रात…
Added by Sushil Sarna on May 4, 2015 at 4:00pm — 14 Comments
दर्द के दरिया में सब कुछ खारा है
तुम ना जानो ...
क्यूंकि ये दर्द तो हमारा है
वो जो परिंदा इसमें डूबा है
इसे तुमने ही वहां उतारा है !
मगर समंदर के खारे पानी में
मछलियाँ ख़ुशी से तैर रही हैं
एक दूजे से खेल रही हैं
दुखी नज़र नहीं आतीं वो
यहाँ से निकलने का कोई
उतावलापन भी नहीं दिखता उन्हें
और अगले पल की फिक्र भी नहीं !
मैं भी तो मछली बन सकता हूँ
मुठ्ठी ढीली छोड़
ग़मों को आज़ाद कर सकता हूँ
और पकड़ सकता हूँ
कुछ…
Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 4, 2015 at 9:51am — 12 Comments
जानवर होने का नाटक भूँक भूँक के
**********************************
जंगल में
जानवरों में फँसा हुआ मैं
जानवर ही लगता हूँ , व्यवहार से
पहनी नज़र में
ऐसा व्यवहार सीख लिया है मैनें
जिससे इंसानियत शर्मशार भी न हो
और जानवर भी लग जाऊँ थोड़ा बहुत
लगना ही पड़ता है , अल्पमत में हूँ न ,
और काम बाक़ी है , एक बड़ा काम
मुझे तलाश है इंसानों की
जो छुप गये लगते हैं , भय से ,
जानवरों में एकता जो है , बँटे हुये इंसान…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 4, 2015 at 9:00am — 17 Comments
सत्य.....
पंच महाभूतों की आस्था
विज्ञान भी मानता- शोध में,
वेद-पुराणों, महाकाव्यों के आधार बिन्दु
जीवन के सेतु-बंध,
उपकृत करते-
क्षित, जल, पावक, गगन व समीर
एक दूसरे के पूरक
महाकाश से घटाकाश तक सर्वत्र व्यापी
तल-वितल, अतल भी
धारण करते पिण्ड स्वरूप.....अखण्ड ब्रह्म,
कण-कण रोमांच से भरपूर
क्षर कर भी सृजन के चंद्र-सूर्य
चक्राकार आवृत्ति के द्विगुण- सघन तम व तेज
विस्तारित करते रहस्य
आकार लेते, आभाष - अनुभव…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 4, 2015 at 8:30am — 14 Comments
Added by मनोज अहसास on May 3, 2015 at 10:22pm — 10 Comments
जब करूंगा अंतिम प्रयाण
ढहते हुए भवन को छोडकर
निकलूँगा जब बाहर
किस माध्यम से होकर गुज़रूँगा ?
वहाँ हवा होगी या निर्वात होगा?
होगी गहराई या ऊंचाई में उड़ूँगा
मुझे ऊंचाई से डर लगता है
तैरना भी नहीं आता
क्या यह डर तब भी होगा
मेरा हाथ थामे कोई ले चलेगा
या मैं अकेले ही जाऊंगा
चारो ओर होगा प्रकाश
या अंधेरे ने मुझे घेरा होगा
मुझे अकेलेपन और अंधकार से भी डर लगता है
क्या यह डर तब भी होगा?
भय तो विचारों से होते हैं उत्पन्न
क्या…
Added by Neeraj Neer on May 3, 2015 at 6:47pm — 12 Comments
शब्दों को नापना नहीं आता
अक्षर गिनते कतराती हूँ
छोड़ मुझे दौडने लगते
पकडने में गिर जाती हूँ
शब्दों को नापना नहीं आता
अक्षर गिनते कतराती हूँ
तले मन गहन समंदर
तल समंदर में खो जाती हूँ
लहरे मेरी सखी सहचरी
लहरों संग खेल जाती हूँ
शब्दों को नापना नहीं आता
अक्षर गिनते कतराती हूँ
कर जाती हूँ कुछ भी कैसा
चढ जाती हूँ मै मीनार भी
घात बात सह नही पाती
दोहरे लोगों से घबराती हूँ
रोके कितना मुझे जमाना
मन पहाड़ चढ जाती…
Added by kanta roy on May 3, 2015 at 3:30pm — 20 Comments
“बहन रो क्यों रही हो !”
“मेरा बेटा.... कहकर, वह अभागी माँ और जोर –जोर से रोने लगी !”
“सखी, पहले ये आँसू पोंछ लो,..अब बताओ, हुआ क्या था ?”
“लाख समझाया , पर नहीं माना, गलत लोगों का साथ , पैसे की भूख, वो और उसके दोस्त रोज आरी लेकर निकल जाते और अपने दादा - परदादा से भी पुराने जमाने के पेड़ काटकर बेच आते, अरे कितनी बार कहा था यह प्रकृति हमारी माँ है, ये पेड़ हमारे जीवनदाता ! “
“ फिर !”
“फिर क्या .. एक दिन उन्होंने वो बड़ा सा पेड़ काटा और वो पेड़, मेरे बेटे पर ही…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on May 3, 2015 at 12:22pm — 7 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on May 3, 2015 at 10:28am — 16 Comments
Added by Manan Kumar singh on May 3, 2015 at 9:47am — 4 Comments
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