मछली और दाँत
अचानक ! बरसात आती है
सड़क चलती लड़की
भीग जाती है |
एक्वेरियम की छोटी रंगीन
मछली तैर-तैर के
मन रीझ जाती है ||
x x x x x x x x
देखता हूँ टकटकी लगाए
जब तक ना होती ओझल |
“दाना-दाना-दाना-दाना”
उकसाता पुरुष मन चंचल ||
x x x x x x x x x x
बेटी सहसा आ,छेड़ देती बात
हमले से,काँप उठता है गात |
और मैं देखता हूँ छोटी मछली
और बढ़ते हुए बड़े-बड़े दाँत ||
सोमेश कुमार(मौलिक…
ContinueAdded by somesh kumar on June 16, 2017 at 2:48pm — 1 Comment
Added by Naveen Mani Tripathi on June 16, 2017 at 2:01pm — 2 Comments
Added by दिनेश कुमार on June 15, 2017 at 11:55pm — 2 Comments
तुम्हारी कसम ...
सच
तुम्हारी कसम
उस वक़्त
तुम बहुत याद आये थे
जब
सावन की फुहारों ने
मेरे जिस्म को
भिगोया था
जब
सुर्ख़ आरिज़ों से
फिसलती हुई
कोई बूँद
ठोडी पर
किसी के इंतज़ार में
देर तक रुकी रही
जब
तुम्हारे लबों के लम्स
देर तक
मेरे लबों से
बतियाते रहे
जब
घटाओं की
कड़कती बिजली में
मैं काँप जाती
जब
बरसाती तुन्द हवाओं से…
Added by Sushil Sarna on June 15, 2017 at 9:35pm — 6 Comments
गाँव जबसे कस्बे - - - -
गाँव जबसे कस्बे
होने लगे |
बीज अर्थों के,रिश्तों में
बोने लगे |
गाँव जबसे कस्बे- - - -
पेपसी,ममोज़ चाऊमीन से
कद बढ़ गया |
सतुआ-घुघुरी-चना-गुड़ से
बौने लगे |
पातियों का संगठन
खतम हो गया
बफ़र का बोझ अकेले ही
ढोने लगे |
गाँव जबसे कस्बे- - - -
पत्तलों कुल्ल्हडो की
खेतियाँ चुक गईं |
थर्माकोल-प्लास्टिक से
खेत बोने लगे…
ContinueAdded by somesh kumar on June 15, 2017 at 9:30am — 3 Comments
Added by दिनेश कुमार on June 15, 2017 at 4:28am — 6 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on June 15, 2017 at 1:00am — No Comments
कहाँ भला ख़ुशियों को ढूँढें
जब हर ओर विसंगतियाँ हैं...
क़समों-वादों के पत्तों पर सजे हुए हर ओर जुए हैं
सतहों तक स्पर्श रुके बस, कोर किसी ने कहाँ छुए हैं
कोशिश बिन रेशम से नाज़ुक बन्धन अब कैसे सँवरेंगे
जीवन की आपाधापी में रिश्ते जब बेमोल हुए हैं
उफ़! विकल्प हैं अपनों के भी
बाँचे कौन! कहाँ कमियाँ हैं ?
कहाँ भला ख़ुशियों को ढूँढें जब हर ओर विसंगतियाँ हैं...
मानवता का घूँघट ओढ़े दानव बैठे घात…
Added by Dr.Prachi Singh on June 14, 2017 at 9:15pm — No Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 14, 2017 at 1:58pm — 5 Comments
1 . नटखट नज़र ...
हो जाती बरसात तो गज़ब होता
फिर वो भीगी हया का क्या होता
वो उड़ती चुनर पे नटखट नज़र
भटक जाती अगर तो क्या होता
2 . भीगी सौगातें ..
.
सावन की रातें हैं सावन की बातें है
सावन में भीगी सी चंद मुलाकातें है
इक दूजे में सिमटे वो भीगे से लम्हे
साँसों की साँसों को भीगी सौगातें हैं
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 14, 2017 at 1:30pm — 4 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on June 14, 2017 at 12:30am — 6 Comments
मात्रिक छंद आधारित एक गीतिका
स्वीट कभी नमकीन, मुहब्बत होती है
जग में बहुत हसीन, मुहब्बत होती है
थोड़ा थोड़ा त्याग, तपस्या हो थोड़ी,
फिर न कभी ग़मगीन, मुहब्बत होती है
चढ़ती है परवान, नाम दुनिया में होता,
जितनी भी प्राचीन, मुहब्बत होती…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on June 13, 2017 at 3:39pm — 10 Comments
२ २ २ २ २ २ २ २
हम अपनों को बिसरा बैठे
गम पास हमारे आ बैठे
जलने की तमन्ना थी दिल में
सूरज को हाथ लगा बैठे
तुम शाद रहो आबाद रहो
हम तो दिल को फुसला बैठे
जब दुनिया में इंसा न मिला
हम पत्थर को अपना बैठे
कश्ती ने हाथ बढ़ाया जब
हम दूर किनारे जा बैठे
कैसा शिकवा कैसा गुस्सा
किस्मत से हाथ मिला बैठे
गिर्दाब बनाया हमने जो …
ContinueAdded by rajesh kumari on June 13, 2017 at 12:30pm — 9 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on June 13, 2017 at 12:30am — 13 Comments
1
कैसी ख़ामोशी
हर तरफ़ देखो
रात खामोश
2
यह जो तुम
हो गये हो ख़ामोश
बदली छायी ।
3
बदल गए
सोचा न ऐसा कभी
ख़ामोशी बोली ।
4
दूर हो गए
कदम ख़ामोशी के
चलते चले ।
5
जब टूटेगी
ख़ामोशी बादलों की
वर्षा ही होगी ।
6
सुनायी देती
ख़ामोशी की ज़ुबान
आँखों में देख ।
7
लम्बी ख़ामोशी
काँटो सी है चुभति
समझे कोई ।
8
रहने लगे…
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 12, 2017 at 11:00pm — 2 Comments
Added by Rahila on June 12, 2017 at 8:08pm — 7 Comments
मैं तस्वीर हो गया ...
क्यूँ
मेरी तस्वीर को
दीवार पर लगाते हों
एक कल को
वर्तमान बनाते हो
आज तक
कोई मेरे चेहरे को
पढ़ न पाया था
हर अपने ने मुझे
अपने स्वार्थ का
मोहरा बनाया था
मेरी हंसी भी मज़बूर थी
मेरा अश्क भी पराया था
यूँ जीवित रहने का
मैंने हर फ़र्ज़ निभाया था
चलो अच्छा हुआ
मैं एक अनकही तहरीर हुआ
बेगानों से अपनों की
ज़ागीर हुआ
अब मेरा सम्मान मोहताज़ नहीं
किसे से छुपा कोई राज़ नहीं…
Added by Sushil Sarna on June 12, 2017 at 3:00pm — 5 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on June 12, 2017 at 2:28pm — 6 Comments
Added by Mohammed Arif on June 12, 2017 at 11:30am — No Comments
लोकतंत्र के दड़बे में
मुर्गी जब से मोर हो गई
सावन ही सावन दिखता है
सब कुछ मनभावन दिखता है |
लोकतंत्र के पिंजड़े में
कौए जब से कैद हो गए
टांय-टांय का टेर लगाते
सब कुछ मनभावन बतलाते |
लोकतन्त्र के फुटपाथों पर
दाना खाता श्वेत कबूतर
बस कूहू-कूहू गाता है
सब मधुर-मधुर बतलाता है |
लोकतन्त्र के हरे पेड़ पर
कठफोड़वा हो गया कारीगर
“अहं-बया” चिल्लाता है
सब कुछ अच्छा बतलाता है…
ContinueAdded by somesh kumar on June 12, 2017 at 9:00am — No Comments
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