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June 2016 Blog Posts (172)

अभिलाषा (व्यंग्य कविता)

चाह नही मेरी कि मैं ,अफसर बन सब पर गुर्राउं।
चाह नही मेरी कि मैं ,सत्ता में दुलराया जाऊं।।
लाल बत्ती की खातिर मैं ,अपनों का न गला दबाऊं।
गरीब जनों की सेवा करके ,आशीर्वाद उन्हीं का पाऊं।।
बड़े हमेशा बड़े रहेंगे ,छोटों को भी बड़ा बनाऊँ।
हर एक बच्चा बने साक्छर ,रोजगार के अवसर लाऊँ।।
मिटे गरीबी आये खुशहाली ,ऐसी मैं एक पौध लगाऊँ।।

.
(नीरज खरे)
मौलिक एवम् अप्रकाशित

Added by NEERAJ KHARE on June 6, 2016 at 7:30am — 3 Comments

तजमींन..

1212 1122 1212 22

तज़़्मीन बर ग़ज़ल जाँ निसार अख्तर



वो होंगे कैसे, सितम जिनपे मैंने ढाया था

कि मैं रुका न मुझे कोई रोक पाया था

थे अपने लोग मगर उनसे यूँ निभाया था

"ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था

दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था "



जमूद हूँ कि रवाँ हूँ मैं रहगुज़र की तरह

रुका कभी तो लगा वो भी इक सफ़र की तरह

दयारे गै़र में उभरा कुछ उस दहर की तरह

" गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह

अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था… Continue

Added by shree suneel on June 6, 2016 at 3:39am — 7 Comments

हाँ !चुनाव तुम्हारा है

आते है गंदले कीचड़े उथले नारे नदी

मिलते है गंगा में और गंगा हो जाते हैं

पर गंगा बन मिलते है जब सागर में

गंगा के नामो निशाँ मिट जाते हैं .....…

Continue

Added by amita tiwari on June 5, 2016 at 8:00pm — 7 Comments

कभी आके खुद तुम यहाँ देख लेना-ग़ज़ल

122 122 122 122

कभी आके खुद तुम यहाँ देख लेना।

मेरे इश्क़ की, इन्तेहाँ देख लेना।



यकीं इश्क़ पर गर, चे कम हो कभी भी।

तो ग़ज़लों का मेरी, जहाँ देख लेना।।



मिलेगा न मुझसा, दिवाना कहीं भी।

यहाँ देख लो फिर वहाँ देख लेना।।



मेरे हौसले की न पूछो कहानी।

झुकाऊँगा मैं, आसमाँ देख लेना।।



चलाना जो खंज़र, बचा लेना दिल को।

सजाया तुम्हें है, कहाँ देख लेना।।





मिलेगी यहाँ सिर्फ तस्वीर तेरी।

यही धन किया है जमाँ देख… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 5, 2016 at 6:03pm — 6 Comments

गजल(आग जंगल में लगी.....)

2122 2122 212



आग जंगल में लगी बुझती कहाँ

तीलियों-सी रौ समंदर की कहाँ।1



रस धरा का पी रहे बरगद खड़े

लग रहा है जिंदगी यूँ जी कहाँ।2



लाज ढ़कने का उठा बीड़ा लिया

तार होता है वसन जो सी कहाँ।3



अब लजाने का जमाना लद गया

यह नयन बहता जुबानी भी कहाँ।4



साथ चलने का भरा था दम कभी

दिख रहा मझधार में वह ही कहाँ।5



आँसुओं में घुल गये कितने शिखर

है पिघलता आज भी यह जी कहाँ।6



सुन रहा कब से जमाने की सदा

कह… Continue

Added by Manan Kumar singh on June 5, 2016 at 4:00pm — 6 Comments

अब

न जाने याद क्यों आती, मुझे बीती दिनो की अब।

बता दो बेवफा इतना, तड़प मेरी मिटेगी कब।

निकलता अासमा में चॉंद, धरती पे नही निकले

तुम्‍हारी याद ऐसी है कि ये दिल से नहीं निकले

हजारो है यहॉं लेकिन न कोई मीत तुम जैसा

मगर सब पूछता खुद से, बता वो मीत था कैसा

पुकारू मैं किसे बोलो, रहूँ तन्‍हा परेशा जब

न जाने याद क्यों आती, मुझे बीती दिनो की अब।

बता दो बेवफा इतना, तड़प मेरी मिटेगी कब।

मुझे है चॉंद से नफरत, हवा उसको उडा ले…

Continue

Added by Akhand Gahmari on June 5, 2016 at 11:05am — 2 Comments

काँटे का इंटरव्यू

क्यों भाई काँटे

शरीर ढूँढते रहते हो चुभने के लिए?

पैर से खींचकर निकाले गए

काँटे से मैंने पूछा

बस फैंकने को तत्पर हुई कि

वह बोल उठा

तुम मनुष्यों की

यही तो दिक़्क़त है

अपनी भूलों का दोष

तटस्थों पर मढ़ते आये हो

मैं कहाँ चल कर आया था

तुम्हारे पैरों तक ,चुभने को

मैं नहीं तुम्हारा पैर आकर

चुभा था मुझको

मैँ ध्यान मग्न पड़ा था

कि अचानक एक भारी सा पैर

आकर सीधा धँसा था

मेरे पूरे शरीर पर

उफ्फ वह घुटन भरी…

Continue

Added by Tanuja Upreti on June 5, 2016 at 10:30am — 7 Comments

अच्छे दिन!

94

अच्छे दिन!

------------

राहु कुपित हैं या शनि की महादशा का प्रभाव

मंगल विमुख हैं या गुरु की कृपा का अभाव,

कितनी दयनीय दशा है...... ! ! !

अनिरुद्ध कालचक्र कैसा फंसा है!

विवेचना .... थकती है, कथनी.. रुकती है,

रूखी सूखी सी लगातार....साॅंस..... बस, चलती है ! ! !



घर - बाहर , बाजार - बीहड़, दिन - रात,

अन्तर्वेदना, करुणा, निराशा के आघात,

नियामक ने व्युत्क्रम स्वरूप तो लिया नही !

अदभुद् विकल्पों को आधार मिला नहीं !…

फिर भी.... ये…

Continue

Added by Dr T R Sukul on June 4, 2016 at 11:24pm — 6 Comments

कुण्डलिया.......पतित पावनी गंगा

गंगा निर्मल पावनी, नहीं मात्र जल धार.

अपने आंचल नेह से,  करती  है  उद्धार.

करती  है  उद्धार,  प्रेम श्रद्धा उपजा कर.

जन खग पशु वन बाग, सिक्त हैं कूप-सरोवर.

हुआ  कठौता  धन्य,  करे  सबका  मन  चंगा.

भारत  का  सौभाग्य,  मोक्ष  सुखदायी  गंगा.

मौलिक व अप्रकाशित

रचनाकार....केवल प्रसाद सत्यम

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 4, 2016 at 8:30pm — 6 Comments

टूटे पैमाने ....

टूटे पैमाने   .... 

२२ २२ २२ २ 

कुछ टूटे पैमाने हैं
कुछ रूठे दीवाने हैं 


कुछ हैं सपनों में डूबे
कुछ खुद से अंजाने है

 

यादों के तहखानों में
बंद कई अफ़साने हैं 

सोये शानों पर मेरे
टूटे ख़्वाब पुराने हैं 

सहमे सहमे आँखों से
छलके दर्द दीवाने हैं 

मुझको उसकी नज़रों से
बहते ज़ख्म चुराने हैं 


सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on June 4, 2016 at 6:40pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
पल में करेले नीम से पल में लगें अंगूर हैं (हास्य ग़ज़ल 'राज')

2212  2212  2212  2212 

 

नखरे ततैय्ये से अजी इनको मिले भरपूर हैं

अपनी करें मन की खुदी खुद में बड़े मगरूर हैं

 

मतलब पड़े तारीफ़ करते हैं मगर सच बात ये

जोरू इन्हें मुर्गी, पड़ोसन सारी लगती हूर हैं

 

अंदाज इनके देख के गिरगिट भरें पानी यहाँ

पल में करेले नीम से पल में लगें अंगूर हैं

 

वादा करें ये तोड़ के देंगे फ़लक से चाँद को   

माँगें  अगर साड़ी कहें जानम  दुकानें दूर हैं  

 

गाते  चुराकर गीत ये चोरी की…

Continue

Added by rajesh kumari on June 4, 2016 at 5:19pm — 10 Comments

उसकी नजर जब पास है

बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम

मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन

2212 2212 2212 2212



गज़ल



छिपता नहीं है दर्दे दिल पर तुम कसम तक खा गये

परहेज जो इतना किया पर क्या छुपा कर पा गये



तुम जानते इस दर्द को पहचानते हमदर्द को

गम बांटते तब ठीक था यह बात क्या गम खा गये



पहला अभी यह खब्त था पुरजोर सा वह जब्त था

सायक चुभा कब चश्म का धनु देखकर घबरा गये



यह इश्क है या फिर सजा इसके बिना भी क्या मजा

दृग-कोर ने क्या छू लिया… Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 4, 2016 at 4:22pm — 1 Comment

इतिहास गवाह है(लघुकथा )राहिला

एक बड़े ही अनुकूल सर्व सुविधा युक्त घूरे पर बर्षों से घरेलू मक्खियों की पीढ़ियां मजे से जिंदगी बसर कर रही थीं। ऐसे में ना जाने कौन साफ तबियत वाले ने नगर पालिका को घूरा हटाने का आवेदन दे मारा । इसकी खबर जैसे ही मख्खियों को लगी, उनमें खलबली मच गई । उन्हें इतना व्यथित देख,एक बूढ़ी सियानी मक्खी ने सांत्वना दी ।

"अरे इतना क्यूं घबरा रही हो? इतिहास गवाह है, आजतक हमें कोई नहीं मिटा पाया । "

"लेकिन दादी मख्खी! अगर नगर पालिका वाले सचमुच आ गये तो,हम बच्चों को लेकर कहाँ जायेंगे? "

"कहीं…

Continue

Added by Rahila on June 4, 2016 at 7:00am — 13 Comments

ताटंक छन्द

(२ जून २०१६ को जवाहर बाग़, मथुरा की हृदयविदारक घटना के सन्दर्भ में)



थर्रायी धरती फिर देखो, कुछ कुत्सित मंसूबों से।

स्वार्थ वशी हो कुछ अन्यायी, फिर बोले बंदूकों से।।

माँ का आँचल लाल हुआ फिर, रक्त बहा है वीरों का।

मुरली की तानों से हटकर, खेल हुआ शमशीरों का।१।



पूछ रही मानवता तुमसे, क्या तुम मनु के जाये हो।

ऐसा क्या दुष्कर्म किया जो, भारत भू पर आये हो।।

सत्याग्रह का चोला ओढ़े, तुम किस मद में खोये हो।

मथुरा की पावन धरती पर, क्यों अंगारे बोये… Continue

Added by डॉ पवन मिश्र on June 4, 2016 at 5:30am — 10 Comments

अपने मित्रों को समर्पित एक गज़ल

बहर - 222 221 221 22

माला के मोती बिखर जा रहे हैं
सब एक एक कर अपने घर जा रहे हैं

कर आँखें नम छोड़कर यूँ अकेला
देकर इतनें गम किधर जा रहे हैं

ढूंढेगें फ़िर भी नही अब मिलेंगे
हमसा कोई भी जिधर जा रहे हैं

देखो पूरी हो गयी है पढ़ाई
ले बिस्तर वापस शहर जा रहे हैं

भगवन मेरे यार रखना सलामत
साथी मेरे जिस डगर जा रहे हैं

.
मौलिक व अप्रकाशित
(बी.टेक पूरा होने पर अपने मित्रों के जाने पर लिखी गज़ल )

Added by maharshi tripathi on June 3, 2016 at 11:30pm — 4 Comments

दिल-ऐ-बिस्मिल में ...

दिल-ऐ-बिस्मिल में ...

कुछ भी तो नहीं बदला

नसीम-ऐ-सहर

आज भी मेरे अहसासों को

कुरेद जाती है

मेरी पलकों पे

तेरी नमनाक नज़रों की

नमी छोड़ जाती है

कहाँ बदलता है कुछ

किसी के जाने से

बस दर्द मिलता है

गुजरे हुए लम्हात के मरकदों पे

यादों के चराग़ जलाने में

और लगता है वक्त

लम्हा लम्हा मिली

अनगिनित खराशों को

जिस्म-ओ-ज़हन से मिटाने में

अपनी ज़फा से तुमने

वफ़ा के पैरहन को

तार तार कर दिया…

Continue

Added by Sushil Sarna on June 3, 2016 at 9:00pm — 8 Comments

ग़ज़ल ( आँखों से निकलते हैं )

ग़ज़ल ( आँखों से निकलते हैं )  

   १२२२ -१२२२ -१२२२ -१२२२

तड़प कर जो गमे जाने जहाँ दिल में पिघलते हैं ।

वही तो अश्क बन कर मेरी आँखों से निकलते हैं ।

क़यादत पर मेरी यह सोच के उंगली उठाना तुम

मेरे पीछे ही अपनों की तरह अग्यार चलते हैं ।

अगर देना नहीं था साथ तो पहले बता देते

अचानक कबले मंज़िल किस लिए रस्ता बदलते हैं ।

मुहब्बत करने वालों को है कब परवाह दुनिया की

जहाँ भी शमआ  जलती है वहां परवाने जलते हैं…

Continue

Added by Tasdiq Ahmed Khan on June 3, 2016 at 7:58pm — 6 Comments

ब्रेकिंग न्यूज़

"अबे तू मुंह बन्द करके बैठेगा, देखता नहीं बड़े लोग आपस में बात कर रहे हैं"

थानेदार ने घुड़की पिलाई और पत्रकार मित्र की ओर खींसे निपोरी। बेचारा शंकरा और सिमट गया, मुलिया ने बारह वर्षीया चुन्नी के पैरों पर का कपड़ा ठीक किया और बड़बड़ाने लगी दिमाग ठिकाने नहीं था उसका जब से बेटी की ऐसी हालत देखी थी चारों तरफ लाल ही रंग दिख रहा था उसे। पत्रकार महोदय ने कहा:

"ये तो और भी अच्छा है कि शंकरा नेता जी के घर के पास वाली झुग्गियों में रहता है नहीं तो चैनल…

Continue

Added by Abha Chandra on June 3, 2016 at 4:00pm — 24 Comments

कुत्ता [लघु कथा ]

सुबह सुबह सिंह साहब का ड्राईवर कल्याण ,शर्मा  जी के घर आया I

“सर, आप नगरपालिका में हैं ना , जानवर उठाने वाली गाड़ी के लिए फोन कर दीजिये मेहरबानी करके” I

“क्या हुआ “?

“वो सीज़र”  कल्याण का गला भर आया  “आज सुबह चल बसा “I

सीज़र सिंह साहब का एल्सेशियन कुत्ता था I सिंह साहब रोज़ उसे घुमाने ले जाते थे और उसी दौरान शर्मा जी की उनसे थोड़ी बहुत जान पहचान हो गई थी I आधे घंटे के प्रातः भ्रमण में , सिंह साहब के पास  बातों का विषय, ज़्यादातर  सीज़र ही होता था I कभी कभी शर्मा जी को…

Continue

Added by pratibha pande on June 3, 2016 at 12:30pm — 30 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - पर हृदय में आज भी जीती चुभन है - गिरिराज भन्डारी

2122    2122    2122

जब हवायें चल रहीं हैं क्यों घुटन है

सूर्य है उजला तो क्यों काला गगन है

 

कल बहुत उछला था अपनी जीत पर जो

आज क्यों हारा हुआ बोझिल सा मन है

 

चिन्ह घावों का नहीं है पीठ पर अब

पर हृदय में आज भी जीती चुभन है

 

मन ललक कर आँखों को उकसा रहा था

कह रहा संसार पर दोषी नयन है

 

सत्य तर्कों में समाया है भला कब ?

तर्क झूठों को बचाने का जतन है

 

क्या हृदय-मन, सोच जीती है कहीं…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on June 3, 2016 at 8:54am — 12 Comments

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