चाह नही मेरी कि मैं ,अफसर बन सब पर गुर्राउं।
चाह नही मेरी कि मैं ,सत्ता में दुलराया जाऊं।।
लाल बत्ती की खातिर मैं ,अपनों का न गला दबाऊं।
गरीब जनों की सेवा करके ,आशीर्वाद उन्हीं का पाऊं।।
बड़े हमेशा बड़े रहेंगे ,छोटों को भी बड़ा बनाऊँ।
हर एक बच्चा बने साक्छर ,रोजगार के अवसर लाऊँ।।
मिटे गरीबी आये खुशहाली ,ऐसी मैं एक पौध लगाऊँ।।
.
(नीरज खरे)
मौलिक एवम् अप्रकाशित
Added by NEERAJ KHARE on June 6, 2016 at 7:30am — 3 Comments
Added by shree suneel on June 6, 2016 at 3:39am — 7 Comments
आते है गंदले कीचड़े उथले नारे नदी
मिलते है गंगा में और गंगा हो जाते हैं
पर गंगा बन मिलते है जब सागर में
गंगा के नामो निशाँ मिट जाते हैं .....…
Added by amita tiwari on June 5, 2016 at 8:00pm — 7 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 5, 2016 at 6:03pm — 6 Comments
Added by Manan Kumar singh on June 5, 2016 at 4:00pm — 6 Comments
न जाने याद क्यों आती, मुझे बीती दिनो की अब।
बता दो बेवफा इतना, तड़प मेरी मिटेगी कब।
निकलता अासमा में चॉंद, धरती पे नही निकले
तुम्हारी याद ऐसी है कि ये दिल से नहीं निकले
हजारो है यहॉं लेकिन न कोई मीत तुम जैसा
मगर सब पूछता खुद से, बता वो मीत था कैसा
पुकारू मैं किसे बोलो, रहूँ तन्हा परेशा जब
न जाने याद क्यों आती, मुझे बीती दिनो की अब।
बता दो बेवफा इतना, तड़प मेरी मिटेगी कब।
मुझे है चॉंद से नफरत, हवा उसको उडा ले…
ContinueAdded by Akhand Gahmari on June 5, 2016 at 11:05am — 2 Comments
क्यों भाई काँटे
शरीर ढूँढते रहते हो चुभने के लिए?
पैर से खींचकर निकाले गए
काँटे से मैंने पूछा
बस फैंकने को तत्पर हुई कि
वह बोल उठा
तुम मनुष्यों की
यही तो दिक़्क़त है
अपनी भूलों का दोष
तटस्थों पर मढ़ते आये हो
मैं कहाँ चल कर आया था
तुम्हारे पैरों तक ,चुभने को
मैं नहीं तुम्हारा पैर आकर
चुभा था मुझको
मैँ ध्यान मग्न पड़ा था
कि अचानक एक भारी सा पैर
आकर सीधा धँसा था
मेरे पूरे शरीर पर
उफ्फ वह घुटन भरी…
Added by Tanuja Upreti on June 5, 2016 at 10:30am — 7 Comments
94
अच्छे दिन!
------------
राहु कुपित हैं या शनि की महादशा का प्रभाव
मंगल विमुख हैं या गुरु की कृपा का अभाव,
कितनी दयनीय दशा है...... ! ! !
अनिरुद्ध कालचक्र कैसा फंसा है!
विवेचना .... थकती है, कथनी.. रुकती है,
रूखी सूखी सी लगातार....साॅंस..... बस, चलती है ! ! !
घर - बाहर , बाजार - बीहड़, दिन - रात,
अन्तर्वेदना, करुणा, निराशा के आघात,
नियामक ने व्युत्क्रम स्वरूप तो लिया नही !
अदभुद् विकल्पों को आधार मिला नहीं !…
फिर भी.... ये…
Added by Dr T R Sukul on June 4, 2016 at 11:24pm — 6 Comments
गंगा निर्मल पावनी, नहीं मात्र जल धार.
अपने आंचल नेह से, करती है उद्धार.
करती है उद्धार, प्रेम श्रद्धा उपजा कर.
जन खग पशु वन बाग, सिक्त हैं कूप-सरोवर.
हुआ कठौता धन्य, करे सबका मन चंगा.
भारत का सौभाग्य, मोक्ष सुखदायी गंगा.
मौलिक व अप्रकाशित
रचनाकार....केवल प्रसाद सत्यम
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 4, 2016 at 8:30pm — 6 Comments
टूटे पैमाने ....
२२ २२ २२ २
कुछ टूटे पैमाने हैं
कुछ रूठे दीवाने हैं
कुछ हैं सपनों में डूबे
कुछ खुद से अंजाने है
यादों के तहखानों में
बंद कई अफ़साने हैं
सोये शानों पर मेरे
टूटे ख़्वाब पुराने हैं
सहमे सहमे आँखों से
छलके दर्द दीवाने हैं
मुझको उसकी नज़रों से
बहते ज़ख्म चुराने हैं
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 4, 2016 at 6:40pm — 12 Comments
2212 2212 2212 2212
नखरे ततैय्ये से अजी इनको मिले भरपूर हैं
अपनी करें मन की खुदी खुद में बड़े मगरूर हैं
मतलब पड़े तारीफ़ करते हैं मगर सच बात ये
जोरू इन्हें मुर्गी, पड़ोसन सारी लगती हूर हैं
अंदाज इनके देख के गिरगिट भरें पानी यहाँ
पल में करेले नीम से पल में लगें अंगूर हैं
वादा करें ये तोड़ के देंगे फ़लक से चाँद को
माँगें अगर साड़ी कहें जानम दुकानें दूर हैं
गाते चुराकर गीत ये चोरी की…
ContinueAdded by rajesh kumari on June 4, 2016 at 5:19pm — 10 Comments
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 4, 2016 at 4:22pm — 1 Comment
एक बड़े ही अनुकूल सर्व सुविधा युक्त घूरे पर बर्षों से घरेलू मक्खियों की पीढ़ियां मजे से जिंदगी बसर कर रही थीं। ऐसे में ना जाने कौन साफ तबियत वाले ने नगर पालिका को घूरा हटाने का आवेदन दे मारा । इसकी खबर जैसे ही मख्खियों को लगी, उनमें खलबली मच गई । उन्हें इतना व्यथित देख,एक बूढ़ी सियानी मक्खी ने सांत्वना दी ।
"अरे इतना क्यूं घबरा रही हो? इतिहास गवाह है, आजतक हमें कोई नहीं मिटा पाया । "
"लेकिन दादी मख्खी! अगर नगर पालिका वाले सचमुच आ गये तो,हम बच्चों को लेकर कहाँ जायेंगे? "
"कहीं…
Added by Rahila on June 4, 2016 at 7:00am — 13 Comments
Added by डॉ पवन मिश्र on June 4, 2016 at 5:30am — 10 Comments
बहर - 222 221 221 22
माला के मोती बिखर जा रहे हैं
सब एक एक कर अपने घर जा रहे हैं
कर आँखें नम छोड़कर यूँ अकेला
देकर इतनें गम किधर जा रहे हैं
ढूंढेगें फ़िर भी नही अब मिलेंगे
हमसा कोई भी जिधर जा रहे हैं
देखो पूरी हो गयी है पढ़ाई
ले बिस्तर वापस शहर जा रहे हैं
भगवन मेरे यार रखना सलामत
साथी मेरे जिस डगर जा रहे हैं
.
मौलिक व अप्रकाशित
(बी.टेक पूरा होने पर अपने मित्रों के जाने पर लिखी गज़ल )
Added by maharshi tripathi on June 3, 2016 at 11:30pm — 4 Comments
दिल-ऐ-बिस्मिल में ...
कुछ भी तो नहीं बदला
नसीम-ऐ-सहर
आज भी मेरे अहसासों को
कुरेद जाती है
मेरी पलकों पे
तेरी नमनाक नज़रों की
नमी छोड़ जाती है
कहाँ बदलता है कुछ
किसी के जाने से
बस दर्द मिलता है
गुजरे हुए लम्हात के मरकदों पे
यादों के चराग़ जलाने में
और लगता है वक्त
लम्हा लम्हा मिली
अनगिनित खराशों को
जिस्म-ओ-ज़हन से मिटाने में
अपनी ज़फा से तुमने
वफ़ा के पैरहन को
तार तार कर दिया…
Added by Sushil Sarna on June 3, 2016 at 9:00pm — 8 Comments
ग़ज़ल ( आँखों से निकलते हैं )
१२२२ -१२२२ -१२२२ -१२२२
तड़प कर जो गमे जाने जहाँ दिल में पिघलते हैं ।
वही तो अश्क बन कर मेरी आँखों से निकलते हैं ।
क़यादत पर मेरी यह सोच के उंगली उठाना तुम
मेरे पीछे ही अपनों की तरह अग्यार चलते हैं ।
अगर देना नहीं था साथ तो पहले बता देते
अचानक कबले मंज़िल किस लिए रस्ता बदलते हैं ।
मुहब्बत करने वालों को है कब परवाह दुनिया की
जहाँ भी शमआ जलती है वहां परवाने जलते हैं…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on June 3, 2016 at 7:58pm — 6 Comments
"अबे तू मुंह बन्द करके बैठेगा, देखता नहीं बड़े लोग आपस में बात कर रहे हैं"
थानेदार ने घुड़की पिलाई और पत्रकार मित्र की ओर खींसे निपोरी। बेचारा शंकरा और सिमट गया, मुलिया ने बारह वर्षीया चुन्नी के पैरों पर का कपड़ा ठीक किया और बड़बड़ाने लगी दिमाग ठिकाने नहीं था उसका जब से बेटी की ऐसी हालत देखी थी चारों तरफ लाल ही रंग दिख रहा था उसे। पत्रकार महोदय ने कहा:
"ये तो और भी अच्छा है कि शंकरा नेता जी के घर के पास वाली झुग्गियों में रहता है नहीं तो चैनल…
ContinueAdded by Abha Chandra on June 3, 2016 at 4:00pm — 24 Comments
सुबह सुबह सिंह साहब का ड्राईवर कल्याण ,शर्मा जी के घर आया I
“सर, आप नगरपालिका में हैं ना , जानवर उठाने वाली गाड़ी के लिए फोन कर दीजिये मेहरबानी करके” I
“क्या हुआ “?
“वो सीज़र” कल्याण का गला भर आया “आज सुबह चल बसा “I
सीज़र सिंह साहब का एल्सेशियन कुत्ता था I सिंह साहब रोज़ उसे घुमाने ले जाते थे और उसी दौरान शर्मा जी की उनसे थोड़ी बहुत जान पहचान हो गई थी I आधे घंटे के प्रातः भ्रमण में , सिंह साहब के पास बातों का विषय, ज़्यादातर सीज़र ही होता था I कभी कभी शर्मा जी को…
ContinueAdded by pratibha pande on June 3, 2016 at 12:30pm — 30 Comments
2122 2122 2122
जब हवायें चल रहीं हैं क्यों घुटन है
सूर्य है उजला तो क्यों काला गगन है
कल बहुत उछला था अपनी जीत पर जो
आज क्यों हारा हुआ बोझिल सा मन है
चिन्ह घावों का नहीं है पीठ पर अब
पर हृदय में आज भी जीती चुभन है
मन ललक कर आँखों को उकसा रहा था
कह रहा संसार पर दोषी नयन है
सत्य तर्कों में समाया है भला कब ?
तर्क झूठों को बचाने का जतन है
क्या हृदय-मन, सोच जीती है कहीं…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 3, 2016 at 8:54am — 12 Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |