पाये अध्यादेश से, भोजन जन गन देश |
चारो पाये तंत्र के, दिये हमें पर क्लेश |
दिये हमें पर क्लेश, दिये टिमटिमा रहे हैं |
हुआ तैल्य नि:शेष, काल ने प्राण गहे हैं |
है आश्वासन झूठ, मूठ हल की जब आये |
पाये हल हर हाल, जियें मानव चौपाये ||
मौलिक/अप्रकाशित
Added by रविकर on July 5, 2013 at 9:01pm — 4 Comments
ऑफिस के बाहर खड़ा मै फोन पे बात कर रहा था,तभी अचानक एक लड़का मेरे पास आकर खड़ा हो गया ! कुछ देर देखने के बाद मैंने उससे पूछा क्या?
तो उसने मेरे पैरों की तरफ इशारा किया...मै समझा नहीं फिर मै उसके कपड़े जो बहुत ही पुराने और फटे थे ,देखने लगा!!
इतने में उसने अपने थैले से बूट पोलिश करने का ब्रश और एक डिबिया निकाल ली...फिर तो मै समझ गया यह क्या कह रहा था !!
मुझे भी दया आ गयी कहा चालो भाई अब पोलिश कर ही दो...
मैंने जूते निकाले और वो अपने काम में मस्त…
Added by ram shiromani pathak on July 5, 2013 at 7:00pm — 16 Comments
ओ.बी.ओ. के पावन मंच और गुरुजनों को सादर प्रणाम करता हूँ. समयाभाव के चलते नियमित रूप से मंच से जुड नही पा रहा हूँ इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ और आप सबके बीच कुछ मुक्तक निवेदित कर रहा हूँ. कृपया मार्गदर्शन करें .सादर
क्यूँ कभी प्रेम की ये निशानी लगे.
अश्रुपूरित कभी ये जवानी लगे.
ओस बन खो गये हैं हवा में कहीं,
बूँद पानी की ये जिंदगानी लगे.
प्रेम की बागवानी पुरानी सही.
कृष्ण-राधा की प्यारी कहानी सही.
तुम लिखो फूल…
ContinueAdded by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on July 5, 2013 at 1:30pm — 12 Comments
तमस मंथरा
के निवास में
ईच्छा जब
पग धरती है
**दश रथों की
धीर धुरी भी
विकल हाथ
बस मलती है
ऐसे में
अक्सर ही संयम
दूर भरत सा
रहता है
हो अधीर कुछ
मनस लखन भी
चाप चढ़ाए
फिरता है
बस विवेक तब
राम रूप में
सबको पार
लगाते हैं
ज्ञान तापसी
वेश सिया धर
बढ़ते चल
कह जाते हैं
इतना ही तो
लिखा हुआ है
तुलसी…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on July 5, 2013 at 12:01pm — 9 Comments
वज्न 2122 2122 2122 212
बह्र ए रमल मुसम्मन महज़ूफ
लमहा-लमहा याद कोई दिल को आने क्यूँ लगे
रफ़्ता-रफ़्ता वर्क़े-माज़ी वो हटाने क्यूँ लगे
इस मरासिम लफ़्ज़ से ही आजिज़ी होने लगी
फ़ासिले हम को रिफ़ाकत में रुलाने क्यूँ लगे
बेगुमाँ भाग आए थे जिनसे निगाहें हम बचा …
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on July 5, 2013 at 10:30am — 24 Comments
१~
बदलता अब कौन अपना आचरण है,
मधुर-स्मिति दर्द का ही आवरण है,
अनकहे शब्दों ने ढूँढी राह है ये
बादलों के बीच मे कोई किरण है !
२~
कोई छोटे हैं तो कोई बड़े हैं न,
हम सभी मुखौटे लिए खड़े हैं न,
असली चेहरा न तलाशिये हुज़ूर
एक चेहरे पर कई चेहरे जड़े हैं न !
३~
एक अनबुझी प्यास लिए हम गहरे कुएं हुए,
कभी लगी जो आग मित्र,हम उठते धुंएं हुए,
सजे हुए हैं हम…
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 5, 2013 at 12:25am — 4 Comments
Added by वेदिका on July 5, 2013 at 12:00am — 43 Comments
बिपदा बढ़ती बहु-गुणा, बा-शिंदे बेहाल |
बस-बेबस बहते बहे, बज-बंशी भूपाल |
बज बंशी भूपाल, बहर बंदिशें सुरीली |
मनमोहन मदमस्त, मगन मीरा शर्मीली |
चले अचल छल-चाल, भयंकर नदी बिगडती |
चारो तरफ बवाल, हमारी बिपदा बढ़ती ||
मौलिक / अप्रकाशित
Added by रविकर on July 4, 2013 at 11:00pm — 7 Comments
आया था लुत्फ़ लेने नवाबों के शह्र में
हैरतज़दा खड़ा हूँ नक़ाबों के शह्र में
आलूदा है फज़ाए बहाराँ भी इस क़दर
खुशबू नहीं नसीब गुलाबों के शह्र में
तहज़ीबे कोहना और तमद्दुन नफासतें
आया हूँ सीखने में नवाबों के शह्र में
ऐसी हसीं वरक़ को यहाँ देखता है कौन
हर सम्त जाहेलां है किताबों के शह्र में
बेहोश होने का न गुमां हमको हो सका
हर शख्स होश में है शराबों के शह्र में
चेहरे पे सादगी है तो जुल्फें…
ContinueAdded by Sushil Thakur on July 4, 2013 at 10:30pm — 13 Comments
मैंने ख्वाबों में देखा है, कल आयेंगे घर सजना
आज सुबह से थिरक रहे हैं,चंचल चित,व्याकुल नयना
घनघोर घटा घर आंगन छाना,तुझमें ही छुप जाऊंगी
व्यथित ढूंढ जब होंगे प्रिय, तुरत सामने आ जाऊंगी
लग जाऊंगी जब सीने से, झूम बरसना तुम अंगना
मैंने ख्वाबों में देखा है, कल आयेंगे घर सजना
पी-कहाँ, पपीहे कहते थे तुम, कल तडके घर आ जाना
मेरे साथ ही तुझको भी है, गीत ख़ुशी के फिर गाना
द्वार मिलन पर पलक बिछाए ठुमक रहे मेरे…
ContinueAdded by Dr Lalit Kumar Singh on July 4, 2013 at 10:00pm — 20 Comments
(1)
चाय-औ-नाश्ते पे "इस" त्रासदी की चर्चा करेंगे
सदन मे बैठ कर वो लफ्ज़ का खर्चा करेंगे
"" बहुत गमगीन हैं हम" , सारे नेता कह रहे हैं
बने जो गर विधायक "इस" हानि का हरज़ा भरेंगे
(2).
तेरे बर्फ से दोस्ती थी तेरी दरिया से खेलते थे वो
अब घूँट भर पीने को उनको नही मयस्सर पानी
ये क्या कर दिया तूने पल भर मे तोड़ दी यारी
ये कैसी दुस्मनी अपनो से ये कैसी बद-गुमानी
(3).
सभी ये चाहते है अब ज़िंदगी की सूरत बदल…
ContinueAdded by ajay sharma on July 4, 2013 at 10:00pm — 20 Comments
बहर : २१२ २१२
--------
जो सरल हो गये
वो सफल हो गये
जिंदगी द्यूत थी
हम रमल हो गये
टालते टालते
वो अटल हो गये
देख कमजोर को
सब सबल हो गये
भैंस गुस्से में थी
हम अकल हो गये
जो गिरे कीच में
वो कमल हो गये
अपने दिल से हमीं
बेदखल हो गये
देखकर आइना
वो बगल हो गये
---------------
(मौलिक एवम् अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 4, 2013 at 9:48pm — 26 Comments
शहर के बड़े चैराहे पर
जो बड़ी दीवार है
उसके पास से गुजरते हुए
अक्सर मन होता है
लिख दूं उस पर
‘लोकतंत्र’
लाल स्याही से।
एक बड़ा लाल चमकता हुआ
‘लोकतंत्र’
जो दूर से साफ चमके।
जब भी होता हूं वहां
कांव कांव करता एक कौआ
आ बैठता है दीवार पर
मानो आहवाहन करता हो
‘आंव, आंव
लिख दो इस दीवार पर
जग जाएं पशु, पक्षी, लोग
ढूंढकर निकाली जा सके
फाइलों और योजनाओं…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 4, 2013 at 8:00pm — 27 Comments
सुबह सुहानी आ गई ,लेकर शुभ सौगात |
अधर पर मुस्कान लिए, प्यार बसे दिन रात||
पूरे हों सपने सभी ,रहो न उनसे दूर |
गम का ना हो सामना ,ख़ुशी मिले भरपूर||
तारे सारे छुप गए ,आई प्यारी भोर |
आँगन खुशिओं से भरे ,मनवा नाचे मोर||
सुखद सन्देश जो मिले ,अधर आय मुस्कान|
खुशिओं से हो वास्ता ,मिले हमेशा मान||
पुष्प सी मुस्कान लिए ,रहो हमेशा पास |
होना ना उदास कभी क्योंकि आप हो ख़ास||
रविवार का दिवस अभी ,करलो…
ContinueAdded by Sarita Bhatia on July 4, 2013 at 4:00pm — 11 Comments
सोचता है मनुष्य
खुदगर्ज होकर
नहीं है बङा कोई उससे
हरा सकता है वह
अपने तिकङमबाज दिमाग से
प्रकृति को भी
भरोसा होता है उसे बहुत ज्यादा
अपने तिकङमबाज मस्तिष्क पर
समर्थन भी कर देती है
उसकी इस सोच का
शुरुआती सफलताएँ
नहीं सोचता वह ये
होते हैं प्राण प्रकृति में भी
होती हैं भावनाएँ प्रकृति में भी
करता जाता है मनुष्य
प्रकृति का विनाश
अपनी तिकङमों से
अपनी स्वार्थसिद्धि हेतु।
प्रकृति होती है नारी स्वरुपा…
Added by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on July 4, 2013 at 2:00pm — 12 Comments
प्रकृति पुरुष सा सत्य चिरंतन
कर अंतर विस्तृत प्रक्षेपण
अटल काल पर
पदचिन्हों की थाप छोड़ता
बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना...
अन्तः की प्राचीरों को खंडित कर
देता दस्तक.... उर-द्वार खड़ा
मृगमारीची सम
अनजाना - जाना पहचाना...
खामोशी से, मन ही मन
अनसुलझे प्रश्नों प्रतिप्रश्नों को
फिर, उत्तर-उत्तर सुलझाता...
वो,
अलमस्त मदन
अस्पृष्ट वदन
गुनगुन गाये ऐसी…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 4, 2013 at 1:00pm — 43 Comments
एकाकीपन साँझ का, मन विचलित करजाय
इस पड़ाव पर उम्र के , बनता कौन सहाय |
सुन्दर हर पल वह घडी,अनुपम सा उपहार
साँस साँस की हर लड़ी,करती जैसे प्यार |
होठ छुअन अहसास ही, मुग्ध मुझे करजाय,
संयम त्यागा स्वपन में, चंचल मन भटकाय |
बहका बहका दिख रहा, खुद का ही व्यवहार
जैसे सब कुछ ख़त्म है, मन मेरा लाचार |
मेरे जीवन में बसे, रूप धरा श्रृंगार,
पोर पोर में बह रही, बनी सतत रसधार |
-लक्ष्मण…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 4, 2013 at 12:30pm — 21 Comments
नाद- लय की ये नदी, फिर सूखती क्यों है?
निःशब्द बहती चेतना, फिर डूबती क्यों है?
है अधूरी जिंदगी ,सारे सवालों के जवाब
वो पहाड़े याद कर, फिर भूलती क्यों है ?
जब पवन जल अग्नि, आकाश धरती से
है जन्म लेती मूरतें, फिर टूटती क्यों है ?
जान कर भी जो कभी, लौट कर आया नहीं
ये बावरी तृष्णा उसे, फिर ढूँढती क्यों है ?
खूब रोता दिल…
Added by dr lalit mohan pant on July 4, 2013 at 1:00am — 11 Comments
Added by Sushil Thakur on July 4, 2013 at 12:30am — 8 Comments
व्यस्तता ,ज़िंदगी ,खेद है ,
आपका तो वचन ,वेद है,
हैं मधुर आप,हम खुरदुरे
मित्र ,हम में यही भेद है !
*
दर्द के पुष्प आओ तजें,
हर्ष के पुष्प ही अब सजें,
एक स्मिति अधर पर धरें
नेह की बांसुरी से बजें !
*
उनको दिखना है अब ,नहीं न ,
छुपते रुस्तम दिखे,कहीं न ,
मुक्त आकाश में…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 3, 2013 at 10:47pm — 6 Comments
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