Added by Dr. Vijai Shanker on July 29, 2014 at 10:09am — 12 Comments
याद आता है
वो अपना दो कमरे का घर
जो दिन मे
पहला वाला कमरा
बन जाता था
बैठक ....
बड़े करीने से लगा होता था
तख़्ता, लकड़ी वाली कुर्सी
और टूटे हुये स्टूल पर रखा
होता था उषा का पंखा
आलमारी मे होता था
बड़ा सा मरफ़ी का
रेडियो ...
वही हमारे लिए टी0वी0 था
सी0डी0 था और था होम थियेटर
कूदते फुदकते हुये
कभी कुर्सी पर बैठना
कभी तख्ते पर चढ़ना
पापा की गोद मे मचलना…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on July 28, 2014 at 10:06pm — 11 Comments
गजल- रंग पानी सा....
बह्र - 2122, 2122, 2122
नारि ही जब शक्ति की दुर्गा-सती है।
आज कल हालात की मारी हुयी है।।
काल बन भस्मासुरों को भस्म कर दें,
निर्भया बन वह सड़क पर लुट रही है।
विष्णु-शिव-ब्रह्मा हुआ है आदमी अब,
सृ-िष्ट - नारी की कहानी त्रासदी है।
नित गरीबी आग में पकती रही पर,
भूख, बच्चों की पढायी सालती है।
रक्त नर का पी कपाली बन लड़ी जो,
खून में लथपथ शिवानी सो रही है।…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 28, 2014 at 9:00pm — 9 Comments
1
न्याय पर जनतंत्र जन कल्याण पर,
अर्थ अवसरवाद का चेहरा लगा है/
रोशनी सर्वत्र जाने में विवश है,
बादलोँ का सूर्य पर पहरा लगा है/
2
तुम अँधेरे पंथ पर क्यों चल रहे,
रोशनी के जाल हमने तिर दिये हैं/
रह गई जो कालिमा दीपक तले,
उन अँधेरोँ से तो दीपक पल रहे हैं/
3
नीँद उड़ती जा रही है,रात रिसती रह गई/
धार में नौका ना जाने किस दिशा को गह गई/
उड़ गये बादल छलक पाताल का पानी गया,
फिर बिगड़ते सन्तुलन की बात धरती कह गई/
4
कहीं…
Added by पं. प्रेम नारायण दीक्षित "प्रेम" on July 28, 2014 at 8:30pm — 4 Comments
"अरे वाह आज तो मजा आ गया", रमेश घर में घुसते ही चहकते हुये बोला, ".. दुकानदार ने सामान का बिल बनाते समय साढ़े पाँच सौ रुपये कम जोड़े !"
“पापा, फ़िर तो आपको वो लौटा देना था न !”, बेटी नेहा ने अपनी आँखो को और बडा़ करते हुये कहा.
“पागल हो क्या ?”, मानों उसकी नादानी पर हँसते हुये रमेश ने कहा, “.... आज हम पार्टी करेंगे…”
नेहा के मन में टीचर की बतायी बातें कौंध गयीं, “गंगा में तमाम नदियाँ ही नहीं मिलतीं, शहरों के गंदे नाले भी गिरते हैं.”
उसे लगा, वो गंगा में…
ContinueAdded by Shubhranshu Pandey on July 28, 2014 at 8:00pm — 12 Comments
२१२२ ११२२ २१२
तेरी बातों से बड़ा हैरान हूँ
जिन्दगी मेरी बड़ा परेशान हूँ
क्या खता है, है सही क्या, क्या गलत
बेखबर इन से अभी नादान हूँ
मेरी खातिर है नहीं इक पल उन्हें
जो कहा करते थे उनकी जान हूँ
इश्क करना भी हुनर इक हो गया
इस हुनर से तो अभी अनजान हूँ
सांस चलती है तो जिंदा कहते सब
पर खबर मुझको कि मैं बेजान हूँ
है न चाहत का सबब मुझको पता
धड़कने कहती हैं बस कुरवान…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on July 28, 2014 at 3:25pm — 10 Comments
दोहे // प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा //
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ये मात्र दोहे हैं. चिकित्सा सलाह नहीं .
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मानस चरचा हो रही सुनो लगा कर ध्यान
भव सागर तरिहो सभी इसको पक्का जान
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मटर पराठा खा गये बैठे जितने लोग
लौकी सेवन नित करें भागें सगरे रोग
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लौकी रस इक्कीस दिन प्रातः पी लें…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 28, 2014 at 1:45pm — 14 Comments
मैं चाहता हूँ कि बिल्ली सी हों मेरी कविताएँ !
क्योकि -
युद्ध जीत कर लौटा राजा भूल जाता है -
कि अनाथ और विधवाएँ भी हैं उसके युद्ध का परिणाम !
लोहा गलाने वाली आग की जरुरत चूल्हों में है अब !
एक समय तलवार से महत्वपूर्ण हो जातीं है दरातियाँ !
क्योंकि -
नई माँ रसोई खुली छोड़ असमय सो जाती है अक्सर !
कहीं आदत न बन जाए दुधमुहें की भूख भूल जाना !
कच्ची नींद टूट सकती है बर्तनों की आवाज से भी ,
दाईत्वबोध पैदा कर सकता…
ContinueAdded by Arun Sri on July 28, 2014 at 10:47am — 24 Comments
२२/२२/२२/२
.
रावण को तू राम बता,
और सहाफ़त काम बता. ...सहाफ़त-पत्रकारिता
.
बिकने को तैयार हैं सब,
तू भी अपने दाम बता.
.
सीख ज़माने वाला फ़न,
धूप कड़ी हो, शाम बता.
.
झूठ भी सच हो जाएगा,
बस तू सुब्हो शाम बता.
.
चाहे काट हमारा सर,
पर पहले इल्ज़ाम बता.
.
क़ातिल ख़ुद मर जाएगा,
बस मक़्तूल का नाम बता.
.
निलेश "नूर"
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Nilesh Shevgaonkar on July 28, 2014 at 9:00am — 11 Comments
थर्राहट
कुछ अजीब-सा एहसास ...
बेपहचाने कोई अनजाने
किसी के पास
इतना पास क्यूँ चला आता है
विश्वास के तथ्यों के तत्वों के पार
जीवन-स्थिति की मिट्टी के ढेर के
चट्टानी कण-कण को तोड़
निपुण मूर्तिकार-सा मिट्टी से मुग्ध
संभावनाओं की कल्पनाओं के परिदृश्य में
दे देता है परिपूर्णता का आभास ...
उस अंजित पल के तारुण्य में
सारा अंबर अपना-सा
स्नेहसिक्त ओंठ नींदों में…
ContinueAdded by vijay nikore on July 28, 2014 at 1:30am — 15 Comments
आज यों निर्लज्जता सरिता सी बहती जा रही है
द्वेष इर्षा और घृणा ले साथ बढती जा रही है
बिन परों के आसमाँ की सैर के सपने संजोते
पा रहे पंछी नए आयाम सब कुछ खोते खोते
लालसा भी कोयले पर स्वर्ण मढ़ती जा रही है
दिन गए वो खेल के जब खेलते थे सोते सोते
अब गुजरता है लडकपन पुस्तकों का बोझ ढोते
दौड़ है बस होड़ की जो क्या क्या गढ़ती जा रही है
काश के पंछी ही होते लौट आते शाम होते
कोसते भगवान् को…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on July 28, 2014 at 1:00am — 3 Comments
आज अचानक बेटा अपने बीबी बच्चों सहित गांव पंहुचा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । कहाँ तो बुलाने पे भी कोई न कोई बहाना बना देता था और अगर आया भी तो अकेला और उसी दिन वापस ।
" दादा , दादी के पैर छुओ बच्चों" , और बहू ने भी झुक के पैर छुए दोनों के । फिर बहू ने लाड़ दिखाते हुए कहा " क्या बाबूजी , आप कितने दुबले हो गए हैं , लगता है माँ आपका ध्यान नहीं रख पाती , अब आप लोग हमारे साथ ही चल कर रहिये" ।
"हाँ , हाँ , क्यों नहीं , बिलकुल अब आप लोग चलिए हमारे साथ , क्या रखा है अब यहाँ" ,…
ContinueAdded by विनय कुमार on July 27, 2014 at 10:36pm — 10 Comments
मस्त वर्षा ऋतु निराली !
मस्त वर्षा ऋतु निराली, मेघ बरसे साँवरा ।
भीगती है सृष्टि सारी, देख मन हो बाँवरा ।।
झूमता सावन लुभाता, शोर करती है हवा ।
मग्न होकर मोर नाचें, गीत गाते हैं…
ContinueAdded by Satyanarayan Singh on July 27, 2014 at 7:30pm — 10 Comments
प्रतीक्षा
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प्रतीक्षा है
किसकी?
किसे है प्रतीक्षा
मन, मस्तिष्क
या आँखें
विभेद कठिन
आज तक स्मृति में है
वह सब कुछ
विस्मृत हो तो कैसे
क्या उसने भुला दिया होगा
शायद भुला सके
पर मैं नहीं भूल…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 27, 2014 at 5:00pm — 12 Comments
Added by Rana Pratap Singh on July 27, 2014 at 1:30pm — 1 Comment
अवनी अम्बर जीव चराचर
सुख पा सब हर्षाये
वर्षा प्रेम सुधा बरसाये
प्रियतम को आमंत्रित करने
मेघ दूत बन आये
नील गगन के मुख मंडल पर
श्वेत श्याम घन छाये
वर्षा प्रेम सुधा बरसाये
बहे पवन मदमस्त झूम के
पुरवा मन अलसाये
प्रेम मिलन संकेत सरित ने
अर्णव संग जताये
वर्षा प्रेम सुधा बरसाये
छैला दिनकर आज धरा से
छिप छिप नैन लड़ाये
प्रेम जलज बिहँसे इस जग…
ContinueAdded by Satyanarayan Singh on July 27, 2014 at 1:00pm — 12 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on July 27, 2014 at 12:13pm — 6 Comments
मैं शब्दों के भार को तौलता रहा
भाव तो मन से विलुप्त हो गया|
मैं प्रज्ञा की प्रखरता से खेलता रहा
विचारों से प्रकाश लुप्त हो गया|
मस्तिष्क धार की गति तो तीव्र थी,
मन-ईश्वर का समन्वय सुषुप्त हो गया|
...…
Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 27, 2014 at 11:20am — 5 Comments
1222/ 1222/ 1222
बहुत सोचा तुम्हें आखिर भुला दूँ मैं
जले लौ तो उसे खुद ही हवा दूँ मैं
उदासी का सबब गर पूछ लें मुझसे
अज़ीयत के निशाँ उनको दिखा दूँ मैं
कभी सागर कभी सहरा कभी जंगल
यूँ क्या-क्या बेख़याली में बना दूँ मैं
हक़ीकत तो बदल सकती नहीं फिर क्यों
गुजश्ता उन पलों को अब सदा दूँ मैं
तुम्हारी कुर्बतों के छाँटकर लम्हे
किताबों का हर इक पन्ना सजा दूँ मैं
इन आँखों से…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on July 27, 2014 at 11:00am — 16 Comments
1222 1222 1222 1222
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दुखों से दोस्ती रख कर सुखों के घर बचाने हैं
मुझे अपनी खुशी के रास्ते खुद ही बनाने हैं
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परिंदों को पता तो है मगर मजबूर हैं वो भी
नजर तूफान की कातिल नजर में आशियाने हैं
**
पलों की कर खताएँ कुछ मिटाना मत जमाने तू
किसी का प्यार पाने में यहाँ लगते जमाने हैं
**
न जाने कौन सी दुनिया बसाकर आज हम बैठे
गलत मन के इरादे हैं गलत तन के निशाने…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 27, 2014 at 9:43am — 10 Comments
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