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August 2017 Blog Posts (144)

" उमस " ( लघु कथा )

" हेलो - क्या हाल है , आसिफ ? " मैं तो ठीक हूँ तलत ,

" लेकिन मौसम बहुत बेकार है दिन भर बादलों की आना जाना जारी है लेकिन बारिश की कोई संभावना नज़र नहीं आती । घनघोर घटाएँ छाती तो हैं लेकिन वैसी बारिश नहीं होती जैसी होनी चाहिए। हलकी फुल्की फौहार थोड़ी देर के लिए माहौल में ठंडक पैदा कर देती। सूरज की तपिश इसी ठंडक को उमस में परिवर्तित कर देती है। बस ये उमस ही बर्दाश्त से बाहर है। बड़ी बेचैनी होती है। एक अजीब सी घुटन है। 

काश ! कोई इन घटाओं से कह दे आएं…

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Added by MUZAFFAR IQBAL SIDDIQUI on August 20, 2017 at 6:50am — 6 Comments

" फर्ज " ( लघु कथा )

देख , रुचि - " अंश बहुत अच्छा लड़का है । घर के लोग भी कुलीन हैं और फिर बैंगलोर में ही है । शादी के बाद तुझे जॉब भी स्विच नहीं करना पड़ेगा । तेरे पिताजी ने तो पंडित जी से कुंडली भी मिलवा ली है। 

अब तू ,ना ... मत करना । इन्हें भी तेरी बहुत चिंता है । एक ही साल तो रह गया है रिटायर होने में ।। 

नहीं माँ , ... " मैं कितनी बार बोल चुकीं हूँ । अभी मुझे शादी नहीं करनी । जब करनी होगी तो बता दूँगी ।"…

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Added by MUZAFFAR IQBAL SIDDIQUI on August 20, 2017 at 1:11am — 5 Comments

लघुकथा--इशारा

हवलदार -" नये थानेदार साहब आज दौरे पर निकले थे । तुम्हारी दुकान पर भी निगाह गई थी । तुमने सामान बाहर सड़क तक जमा रखा है । इससे यातायात में लोगों को दिक्कत आती है ।" हवलदार का इतना कहना ही था कि
घबराकर दुकान संचालक अनिल बोला -"जी...जी...जी... आज के बाद सामान बाहर नज़र नहीं आएगा ।"
"नहीं , नहीं थानेदार साहब का इशारा किसी दूसरी चीज़ की ओर है ।" हवलदार कहते हुए चला गया मगर अनिल को इशारा बहुत देर बाद समझ में आया ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on August 19, 2017 at 11:30pm — 11 Comments

बरखा ( सार छंद- १६,१२)



छन्न पकैया छन्न पकैया , आयी बरखा रानी

बोली बच्चों अंदर बैठो  , मेरी बूढ़ी नानी |

छन्न पकैया छन्न पकैया , भूख लगी है नानी

गरमा गरम पकौड़े खाएं , बोली गुड़ियाँ रानी |

छन्न पकैया छन्न पकैया , सबर रखो तुम मुनिया

मंडी से लाना होगा अब , प्याज , मिर्च औ धनियाँ|

छन्न पकैया छन्न पकैया , मिलकर खाओ भैया

आओ फिर हम नाचे गायें, करके ता ता थैया |

छन्न पकैया छन्न पकैया , जब जब भरता पानी

छप छप करते हैं पानी…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 19, 2017 at 11:30pm — 14 Comments

लघुकथा "मजबूरियाँ"

म्याऊँ -म्याऊँ बहुत देर से एक करुण पुकार कानों में सुन कर अम्माँ खीज कर बोलीं ,अरी गिन्नी ,"ज़रा बाहर जाकर देखियो ये कौन सी चुड़ैल बिल्ली चिल्ला रही है ? मरी को डंडा मार के भगा दे ....। "अरे अम्माँ जी ये तो वही है जिसने कल ही छत पर पाँच सुंदर से बच्चे दिए हैं बिचारी भूखी है शायद ...",गिन्नी लगभग चीख़ती सी बोली । बिल्ली की प्रसवपीडा के बाद की स्थिति को सोच वह विह्वल हो उठी थी । अंदर आ अम्माँ से फिर बोली ,"अम्माँ इसे कुछ खाने को दे दूँ ,ज़रा पेट तो देखो काली नदी के किनारों की तरह सिमट कर मिल रहा… Continue

Added by Mamta on August 19, 2017 at 1:08pm — 7 Comments

लघुकथा उलझन दाखिले की

३ साल की बेटी के नर्सरी क्लास के दाखिले के लिए जाने माने दो स्कूलों  में एडमीशन टेस्ट दिलवाए थे | सोचा ढेरों बच्चों में पास भी होगी कि नहीं| नाम पूछने पर कुछ बताया नहीं और कुछ सुनाया भी नहीं| एक चौकलेट दी गई | बिटिया ने खोल कर वहीँ खा ली और हाथ में रेपर दिखाकर वहीँ बैठी नन से पूछा, आपकी डस्ट बिन कहाँ है और बाहर चली गयी |आज जब रिज़ल्ट देखा तो दोनों स्कूल की लिस्ट में नाम था | किसमें दाखिला लें---- इस पर हम माता पिता सहमत ही नहीं हो पा रहे थे |मां का दिल कहता पास के स्कूल में डालें, आने जाने…

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Added by Manisha Saxena on August 19, 2017 at 11:00am — 8 Comments

अंधी जनता, राजा काना बढ़िया है ...गज़ल

22-22-22-22-22-2



नये दौर का नया ज़माना, बढ़िया है

अंधी जनता, राजा काना, बढ़िया है



अब तो है यह उन्नति की नव परिभाषा,

जंगल काटो, पेड़ लगाना, बढ़िया है



अपना राग अलापो अपनी सत्ता है,

अपने मुंह मिट्ठू बन जाना, बढ़िया है



नई सियासत में तबदीली आई है,

आग लगा कर आग बुझाना, बढ़िया है



हत्या करना बीते युग की बात हुई,

अब दुश्मन की साख मिटाना, बढ़िया है



अगर कोख में बिटिया अब तक जिंदा है,

खूब पढ़ाना, ख़ूब बढ़ाना, बढ़िया… Continue

Added by Balram Dhakar on August 18, 2017 at 8:30pm — 18 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४९

बहरे रमल मुसद्दस सालिम;

फ़ाएलातुन/ फ़ाएलातुन/फ़ाएलातुन;

2122/2122/2122)

.

झाँक कर वो देख ले अपनी ख़ुदी में

ऐब दिखता है जिसे हर आदमी में 

 

पास आकर दूरियों का अक्स देखा

ग़ैर जब होने लगा तू दोस्ती में

 

यूँ नहीं मरते हैं हम सादासिफ़त पे

रंग सातों मुन्शइब हैं सादगी में

 

इक पसेमंज़र-ए-ज़ुल्मत है ज़रूरी

यूँ नहीं दिखती हैं चीज़ें रौशनी में

 

आ तुझे भी इस्तिआरों से सवारूँ

लफ्ज़ के…

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Added by राज़ नवादवी on August 18, 2017 at 2:30pm — 14 Comments

अपाहिज़ कौन: लघुकथा

मुझसे गाड़ी का इंतज़ार नहीं हो रहा था, किसी भी तरह जल्दी गंतव्य स्थान पर पहुँचना था । अभी नया-नया मंत्री पद संभाला था, सो मंत्री पद का शऊर कहाँ से आता ? ऊपर से समाज सेवा का भूत सर चढ़ का नाच रहा था | “पब्लिक की समस्याओं का निवारण करने के लिये, दिन हो या रात ? हमेशा तत्पर रहूंगी |” आज ही तो, ये शपथ ली थी | तभी दिमाग़ में कुछ कौंधा और मैं निकल पड़ी । सामने से जो बस आती  दिखी, मैं बैठने को उतावली हो उठी । बिना कुछ देखे सुने ही, बस पर चढ़ गई । इंसानों से ठसाठस भरी बस थी। भीषण गरमी थी । लोग एक…

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Added by Uma Vishwakarma on August 18, 2017 at 12:30pm — 3 Comments

ग़ज़ल - जो तेरे इश्क़ की खुमारी है,

जो तेरे इश्क़ की खुमारी है,

हमने तो रूह में उतारी है,

दर्द पलकों से टूट बिखरा है,

इन दिनों ग़म से मेरी यारी है,

तू मेरी सांस में उतर आया,

इश्क़ है या कोई बीमारी है ,

तू निगाहों में या कि दिल में रहे,

मेरी मुझसे ही जंग जारी है,

वस्ल के नाम नींद को रख कर,

हमने शब आँख में गुजारी है !!अनुश्री!!

मौलिक व् अप्रकाशित

Added by Anita Maurya on August 18, 2017 at 9:09am — 8 Comments

संवाद -एक ग़ज़ल

मापनी 2122 2122 2122 212

 

कैद  हैं  धनहीन तो, जो सेठ है, आजाद  है

झुग्गियों की लाश  पर  बनता यहाँ प्रासाद है

 

थाम कर दिल मौन कोयल डाल पर बैठी हुई,

तीर लेकर हर  जगह बैठा हुआ सय्याद है

 

भाईचारा प्रेम  सब बातें किताबी हो  गईं,

हो रही  बेघर मनुजता,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on August 18, 2017 at 9:01am — 10 Comments

सियासत पर दो मुक्तक

सियासत मुल्क़ की यारों लहू पीने की आदी है
निवाला छीन भूखों का पहनती आज खादी है
किसे अच्छा कहूँ मैं अब सभी का हाल इक जैसा
बना है रहनुमा वो आज जो खुद ही फ़सादी है |1|

अगरचे दिल सियासत से बहुत नाशाद है अपना
नहीं लगता दयार-ए-हिन्द ये आबाद है अपना
उठेगी गर वतन में अब किसी निर्दोष की मय्यत
कहेगा कौन किस मुंह से वतन आज़ाद है अपना |2|

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by नाथ सोनांचली on August 18, 2017 at 5:00am — 9 Comments

जिजीविषा / किशोर करीब

ये क्या है जो मुझे चलाती?

कभी मंद कभी तेज भगाती

क्या पाया क्या पाना चाहा,

हरदम मुझको याद दिलाती

विधना ने क्रंदन दुःख लिखा,

यह प्रेरित करती हर्षाती

कभी शिथिल होकर बैठा जो,

उत्प्रेरित कर मुझे जगाती

जलते जीवन में भी हँसकर,

बढ़ते जाना मुझे सिखाती…

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Added by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 17, 2017 at 10:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल

212  212  212  212

सज सँवर अंजुमन में वो गर जाएँगे I

नूर परियों के चेहरे   उतर जाएँगे II

जाँ निसार अपनी  है तो उन्हीं पे सदा ,

वो कहेंगे जिधर  हम उधर जाएँगे I

ऐ ! हवा मत करो  ऐसी अठखेलियाँ ,

उनके चेहरे पे गेसू बिखर  जाएँगे I

 

पासवां कितने  बेदार हों हर तरफ ,

उनसे मिलने को हद से गुजर जाएँगे I

है मुहब्बत का तूफां जो दिल में भरा ,

उनकी नफ़रत के शर बे-असर जाएँगे I

बेरुखी उनकी…

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Added by कंवर करतार on August 17, 2017 at 9:30pm — 8 Comments

ग़ज़ल (दिल से बाहर ही न निकले दिलरुबा तेरा ख़याल )

(फाइलातुन -फाइलातुन -फाइलातुन - फाइलुन /फाइलात )

शाम होते ही सितम ढाए सदा तेरा ख़याल |

दिल से बाहर ही न निकले दिलरुबा तेरा ख़याल |

देखता हूँ जब भी मैं नाकाम दीवाना कोई

यक बयक आता है मुझको बे वफ़ा तेरा ख़याल |

उम्र भर कैसे निभेगा साथ मुश्किल है यही

है अलग मेरा तसव्वुर और जुदा तेरा ख़याल |

हो न हो तुझको यकीं लेकिन है सच्चाई यही

किस ने आख़िर है किया मेरे सिवा तेरा ख़याल |

ढोंग तू फिरक़ा परस्ती को…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on August 17, 2017 at 8:30pm — 10 Comments

एक मुट्ठी राख़ ..../अंगड़ाइयों से...

एक मुट्ठी राख़ ....

न ये सुबह तेरी है न रात तेरी है l
आबगीनों सी बंदे हयात तेरी  है l
इतराता है क्यूँ तू मैं की क़बा में -
एक मुट्ठी राख़ औकात  तेरी  है l

........................................

अंगड़ाइयों से...

उम्र जब अपने शबाब पर होती है l
तो मोहब्बत भी बेहिसाब  होती है l
जवां अंगड़ाइयों से मय बरसती है -
हर मुलाक़ात हसीन ख़्वाब होती है l

सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित  

Added by Sushil Sarna on August 17, 2017 at 4:38pm — 2 Comments

*मन मनोरम* छ्न्द में गीत.....

*रोज चौकन्नी रहूँ मै,*

*किन्तु हरजाई न आये |*

*और मेरे मन भवन में,*

*मौन परछाईं न आये |*



खिल रहे थे पुष्प उर में,

साँझ आते ये झरे हैं।

भूल मैं सुधि-बुधि गयी हूँ,

साख उर के ये हरे हैं।

आंख मेरी ये थकी हैं।

लौट तरुणाई न आये।



*रोज चौकन्नी रहूँ मै,*

*किन्तु हरजाई न आये |



चाँदनी बिखरी पड़ी थी,

भर लिया दामन में है।

जब भी पिघले अश्रुजल ये,

चख लिया सावन में है।

वेदना बढ़ती गयी थी,

किन्तु करुणाई न… Continue

Added by अनहद गुंजन on August 17, 2017 at 4:00pm — 5 Comments

अब की बारिश में - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर" (गजल)

1222 1222 1222 1222



बहा कर ले गई नदिया खजाना अब की बारिश में

न बच पाया मुहब्बत का ठिकाना अब की बारिश में।1।



डुबो कर घर गए मेरा किसी की आँखों के आँसू

है आई बाढ़ समझे ये जमाना अब की बारिश में।2।



जहाँ मिलते थे तन्हा नित खुदा से आरजू कर हम

न जाने क्यों खुदा भूला बचाना अब की बारिश में।3।



हैं बाहर बदलियाँ रिमझिम कि भीतर आँखों से जलथल

बहुत मुश्किल है सीले खत सुखाना अब की बारिश में।4।



पहुँच हम तक भी जाएगी तुम्हारे तन की हर… Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 17, 2017 at 11:13am — 11 Comments

ग़ज़ल --इस्लाह के लिए

      (122-122-122-12)

रहे हम तो नादां ये क्या कर चले

कि दौर ए जफ़ा में वफ़ा कर चले।

वो तूफ़ान के जैसे आ कर चले

मेरा आशियाना फ़ना कर चले।

रक़ीबों की तारीफ़ की इस क़दर

कि चहरा मेरा ज़र्द सा कर चले'

कहीं जाग जाएँ न इस ख़ौफ़ से

हम आँखों में सपने सुला कर चले

ज़मीं हमको बुज़दिल का ताना न दे

तो फिर हम ये नज़रें उठा कर चले।

तड़पते रहे अधजले कुछ हरूफ़

वो जब मेरे खत को जला कर…

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Added by Gurpreet Singh jammu on August 16, 2017 at 4:30pm — 13 Comments

आभासी ( कविता)

आभासी इस दुनिया में क्या 

आभास भी आभासी होते हैं ?

शक्ल नहीं होती है सामने 

इंसान भी आभासी होते हैं ?

समय समय पर बनते बिगड़ते 

रिश्ते भी आभासी होते हैं ?

इंसान में इंसानियत नहीं तो  

आभासी इंसान भी होते हैं ?

बदलते युग का आगाज़ है  

असली और नकली भी होते हैं ? 

साहित्य कोष में भी 

कहीं आभासी शब्द होते हैं  ?

जाने कितने ऐसे सवाल है मन…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 16, 2017 at 4:00pm — 3 Comments

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