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September 2018 Blog Posts (92)

रिश्तों का सच

आज उसे अपने वादे के मुताबिक अपनी पत्नी के साथ पास के एक माॅल में ही फिल्म देखने जाना था। कुछ ज्यादा उत्साहित तो नहीं था, लेकिन फिर भी अपनी पत्नी के लिए कुछ 'खास' करने की खुशी उसके चेहरे पर दिखाई दे रही थी। आॅफिस की नोंक झोंक और रास्ते में ट्रैफिक की रोक टोक जैसी बाधाओं को पार कर, जब वो घर पहुंचा तो अत्याधिक शांति पाकर थोड़ा ठिठक सा गया। हाॅल में घुसते ही, एक जाना पहचाना चेहरा जो शायद…

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Added by Hari Prakash Dubey on September 10, 2018 at 3:00pm — 6 Comments

पुष्प श्रद्धा के ना चढ़ें तो अर्चना ही व्यर्थ है।

पुष्प श्रद्धा के ना चढ़ें तो अर्चना ही व्यर्थ है।

भाव जिसमें शुचित ना हो, सर्जना ही व्यर्थ है।।

तुम न कोलाहल सुनो,

ना ही करतल ध्वनि बिको।

सत्य के आधार पर

सुंदरम बन कर टिको।।

दृष्टिहीनों के समक्ष, अति नर्तना ही व्यर्थ है।

पुष्प श्रद्धा के ना चढ़ें तो अर्चना ही व्यर्थ है।।

भाव जिसमें शुचित ना हो, सर्जना ही व्यर्थ है।।

मेनका की कामना

और उसीकी उपासना।

व्यर्थ शालिग्रामों में है

फिर सत्य को…

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Added by SudhenduOjha on September 10, 2018 at 11:00am — No Comments

गजल - है तो है

पतझड़ों के बीच भी यदि ऋतु सुहानी है तो है

घर हमारे महमहाती रात रानी है तो है

 

हो रहीं मशहूर परियों की कथाएँ आजकल

और उनमें एक अपनी भी कहानी है तो है  

 

बेवफा वो हो गया पर हम न भूले हैं उसे

यदि हमारे पास उसकी कुछ निशानी…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on September 10, 2018 at 9:43am — 4 Comments

ज्वार उठाना होगा , मस्तक कटाना होगा

महासमर की बेला है

वीरों अब संधान करो,

शत्रु को मर्दन करने को,

त्वरित अनुसंधान करो |

मातृभू की खातिर फिर

लहू बहाना होगा;

ज्वार उठाना होगा,

मस्तक कटाना होगा|

सिंहासन की कायरता से ,

संयम अब डोल रहा

चिरस्थायी संस्कृति हित ,

कडक संघर्षों को खोल रहा|

अखिल विश्व की दिव्य मनोरथ,

अधरों में अब डोल रहा,

लुट रही मानवता नित-क्षण

लंपट सदा कायरों की भाषा

बोल रहा|

वीरों को आगे आना होगा,

संघर्ष शिवाजी सा –

सतत्…

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Added by आलोक पाण्डेय on September 9, 2018 at 12:00pm — 1 Comment

"फ़ितरतें और गुफ़्तगू, बस!" - (लघुकथा)

दाढ़ी-मूंछधारी दोनों दोस्त, मौलवी अब्दुर्रहमान साहिब और पंडित रामनारायण जी रोज़ाना की तरह अलसुबह की चहलक़दमी कर हंसी-मज़ाक सा करते हुए अपने घरों की ओर वापस लौट रहे थे। तभी विपरीत दिशा से दिखाई दिये दिलचस्प नज़ारे पर परंपरागत संबोधन के साथ टिप्पणी करते हुए पंडित जी ने कहा - "मुल्ला जी! वो देखो तुम्हारी पड़ोसन बुरका पहन कर अपने बच्चे को श्रीकृष्ण जी की फ़ैन्सी पोशाक में स्कूल छोड़ने अकेले जा रही है पैदल!"



"उसका नहीं, उसकी पड़ोसन शर्मा मैडम का बेटा होगा पंडित जी!"



"नहीं, उसी का…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 7, 2018 at 11:41pm — 5 Comments

बस है कोशिश उड़ूँ कुतरे पर ले

बह्र - 2122-1221-22

इतना उलझा है आदम बसर में।।
खुद से पूछे वो है किस सफर में ।।

क्या समझ पाएगे रात भर में।।
फर्क है इस नजर उस नजर में।।

ना बदल पाऊं बिलकुल न बदले।
पर है कोशिश उड़ूँ कुतरे पर में।।

अपनी मंजिल से है लापता जो ।
चीखता फिर रहा, रह-गुजर में।।

हर मुसाफिर की कोशिस यही बस।
सब सलामत रहे मेरे घर में।।

आमोद बिन्दौरी /मौलिक- अप्रकाशित

Added by amod shrivastav (bindouri) on September 7, 2018 at 8:30pm — 3 Comments

औक़ात - लघुकथा –

औक़ात - लघुकथा –

"सलमा, यह किसके बच्चे को लेकर जा रही हो"।

"चचाजान, आप पहचान नहीं पाये इन्हें, अपने अर्जुन हैं"।

"अरे वाह, बहुत बड़े हो गये। पर इनको यह क्या पोशाक डाल रखी है"।

"इनको एक सीरियल में कान्हा का किरदार करना है। उसी के लिये लेकर जा रही हूँ"।

"बहुत खूब, संभल कर जाना"।

अभी सलमा चार क़दम ही चली थी कि एक कट्टरपंथी ग्रुप ने उसे घेर लिया। उसे बच्चा चोर बताकर पुलिस थाने ले गये।

 "दरोगा जी,बड़ा तगड़ा केस लाये  हैं,आज तो आपके दोनों हाथों में लड्डू…

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Added by TEJ VEER SINGH on September 7, 2018 at 7:01pm — 14 Comments

कोई और नहीं-- लघुकथा

उसकी उम्मीद अब छूटने लगी थी, लगभग आधा घंटा होने को आया था. कोई अपनी गाड़ी रोकने को तैयार नहीं था और पिताजी लगभग बेहोश सड़क के किनारे पड़े हुए थे. एकदम से सामने एक जानवर आया और उसको बचाने के चक्कर में बाइक असंतुलित होकर उलट गयी.

सड़क काफी खाली थी और शाम हो चली थी. तभी एक गाड़ी दूर से आती दिखी और वह उसे रोकने का प्रयास करने लगा. उस कार वाले ने गाड़ी रोकी, उतर कर उसके पास आया और तुरंत पिताजी को हाथ लगाकर अपने कार में डाला.

नजदीक के हस्पताल में पहुंचकर गाड़ी वाले ने इमरजेंसी तक पिताजी को…

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Added by विनय कुमार on September 7, 2018 at 4:21pm — 10 Comments

भ्रम ... (दो क्षणिकाएं )

भ्रम ... (दो क्षणिकाएं )

लूट कर
नारी की
अस्मत
पुरुष ने
कर लिया
स्वयं को
नग्न
तोड़ दिया
उसकी नज़र में
पुरुषत्व का
भ्रम

2.
कोहराम मच गया
जब दम्भी
पुरुषत्व के प्रत्युत्तर में
हया
बेहया

हो गयी

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on September 7, 2018 at 3:43pm — 10 Comments

वसुधा - कहानी

छुट्टी का दिन था तो विवेक सुबह से ही लैपटॉप में व्यस्त था| कुछ बैंक और इंश्योरेंश के जरूरी काम थे, वही निपटा रहा था| बीच में एक दो बार चाय भी पी| विवेक सुबह से देख रहा था कि आज वसुधा का चेहरा बेहद तनाव पूर्ण था। आँखें भी लाल और कुछ सूजी हुई सी लग रहीं थीं। जैसा कि अकसर रोने से हो जाता है|

घर के सारे काम निपटाकर जैसे ही वसुधा कमरे में आकर अपने बिस्तर पर लेटने लगी।

"क्या हुआ  वसुधा, तबियत तो ठीक है ना"?

"मुझे क्या होगा, मैं तो पत्थर की बनी हुई हूँ"।

"अरे यह कैसी…

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Added by TEJ VEER SINGH on September 7, 2018 at 2:00pm — 10 Comments

'डंके' की 'चोट' पर (लघुकथा)

"हमने कहा था न कि थक जाने पर तलब होने पर वह आयेगा ही! हमें रेस्क्यू की उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए!"



"हां, ग़रीब हो या अमीर, पर है  तो चाय का आदी ही! यह चाय फेंकेगा नहीं! 'मनी माइंडिड' होगा, तो यह पियेगा और पिलायेगा!" चाय के डंके में दो-तीन घंटों से पड़ी शेष चाय में गोते लगाते एक चीटे ने डंके की दीवारों पर चढ़ते, गिरते-डूबते हुए उस चीटे की बात सुनकर कहा। चाय में डूबे और डंके में भटकते संघर्षरत चींटे भी बड़ी उम्मीद के साथ सजग हो जीवन-रक्षा की कल्पना करने लगे।



"ज़रा फुर्ती…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 7, 2018 at 5:00am — 7 Comments

जो गिरफ़्तार है जुल्फों में वो फरार कहाँ



2122 1122 1212 22



इक ज़माने से गुलिस्ताँ में है बहार कहाँ ।

जान करता है गुलों पर कोई निसार कहाँ ।।

बारहा पूछ न मुझसे मेरी कहानी तू ।

अब  तुझे  मेरी  सदाक़त पे ऐतबार कहाँ ।।

एक मुद्दत से कज़ा का हूँ मुन्तजिर साहब ।

मौत पर मेरा अभी तक है इख़्तियार कहाँ ।।

आपकी थी ये बड़ी भूल मान जाते हम ।

दिख रहे आप…

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Added by Naveen Mani Tripathi on September 7, 2018 at 12:20am — 7 Comments

ग़ज़ल बह्र -फऊलुन -फऊलुन -फऊलुन -फऊलुन

ज़माने को मेरी ज़रूरत नहीं है

मुझे  तो किसी से शिकायत नहीं है ।

.

अकेले में रहने की आदत है मुझको

किसी से भी मेरी अदावत नहीं है ।

.

नई पीढ़ी का ये चलन आज देखो

ज़रा सी भी इनमें लियाक़त नहीं है ।

.

है कितना यहाँ झूट महफ़ूज़ यारो

कि सच्चों की कोई अदालत नहीं है ।

.

सरे आम लुटती है इज़्ज़त यहाँ पर

किसी की यहाँ अब हिफ़ाज़त नहीं है ।

.

लगा मुझको झूटों के बाज़ार में यूँ

कि सच बोलने की इजाज़त नहीं है ।

.

मौलिक…

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Added by Mohammed Arif on September 5, 2018 at 11:30pm — 18 Comments

युद्ध के विरुद्ध

जी हाँ  ! युद्ध के विरुद्ध हूँ मैं-

इस लिए नहीं की नहीं देश से प्यार मुझे

अथवा की अपनों के लिए मन नहीं डोलता है 

मेरी धमनियों में भी रक्त है वो भी खौलता है 

अपनों की शहादत पर बहुत क्रोध जागता है 

मन जोश में सीमा की और भागता है 

बदले की आग जलाती है



लेकिन

एक बात यह भी समझ में आती है 

कि 

धरित्री जननी है रक्त नहीं पचाती 

गगन जनक है रणभेरी नहीं सुहाती 



और ये भी 

कि इधर रमेश गिरे अथवा उधर रहमान 

मरती तो दोनों और…

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Added by amita tiwari on September 5, 2018 at 10:30pm — 9 Comments

शान्ति ....

शान्ति ....

वर्तमान के पृष्ठों पर

विध्वंसकारी स्याही से

भविष्य का सृजन करने वालो

होश में आओ

विनाश की कालिख़ से

कहीं आने वाले कल का

दम न घुट जाए

तुम

नए युग के निर्माण के लिए

संगीनों को

खून की स्याही में डुबोकर

आने वाले कल का

शृंगार करते हो

और हम

पवन के पृष्ठों पर

ॐ शान्ति ॐ शान्ति ॐ शान्ति

के सुवासित सन्देश से

नव युग के निर्माण का

आह्वान करते हैं

विपरीत…

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Added by Sushil Sarna on September 5, 2018 at 7:02pm — 7 Comments

नजरिया--लघुकथा

बगल में आ बैठे मौलाना को देखकर उसका मन तल्ख़ हो गया. वैसे उन्होंने कुछ किया नहीं था, बस सर पर एक जालीदार टोपी लगा रखी थी. और मूंछ नहीं रख के एक लम्बी सफ़ेद दाढ़ी रखी हुई थी. उसने अपने आप को उस भीड़ में भी यथासंभव उनसे दूर रखने की कोशिश की.

जैसे ही उसका स्टॉप आया, वह मौलाना पर एक वक्र दृष्टि डाल कर उतर गया. "जाहिलपना तो इनके रग रग में भरा रहता है, जहाँ देखो वहीँ यह टोपी और दाढ़ी", वापस जाते समय उसके दिमाग में यही चल रहा था. अपने मोहल्ले के पास पहुंचा तो मंदिर में पूजा हो रही थी. वह जूते उतारकर…

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Added by विनय कुमार on September 5, 2018 at 5:30pm — 9 Comments

समझदार बहुत होते हैं- ग़ज़ल


सब तिजारत में समझदार बहुत होते हैं
दाम कम हों तो  ख़रीदार  बहुत  होते हैं


हुस्न में इतनी कशिश है कि इसी कारण से
उनकी  नज़रों के  गिरफ़्तार  बहुत  होते हैं


कौन कहता है क़दरदान नहीं हैं उनके
नेकदिल हो तो तलबगार बहुत होते हैं


दोस्ती होती है  मज़बूत अगर जीवन में
आड़े  मौकों पे मददगार  बहुत  होते  हैं


ये तरीक़ा है अजब मुल्क में अपने देखो
बेगुनह  कम हैं  गुनहगार  बहुत होते हैं !!


मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on September 5, 2018 at 4:00pm — 12 Comments

शिक्षक दिवस के दोहे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

शिक्षक दिवस के दोहे



बनते शिष्य महान तब, शिक्षक अगर महान

शिक्षक बिन हर इक रहा, अधकचरा इन्सान।१।



जिसने जीवन  भर किया, शिक्षक  का सम्मान

जग ने उसका  है  किया, इत उत  बड़ा बखान।२।



शिक्षक थोड़ा  सा  अगर,  दे  दे जो उत्साह

भटका बालक चल पड़े, सदा सत्य की राह।३।



पथ की बाधा नित हरी, जिसने राह बुहार

दे थोड़ा सा मान कर, शिक्षक का आभार।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 4, 2018 at 9:00pm — 9 Comments

रात का सुन-सान पल मैं, निर्वसन हूँ प्यार कर।

रात का सुन-सान पल मैं, निर्वसन हूँ प्यार कर।
सिंधु तट की रेत मैं, प्रिय है मेरा उच्छृंखल लहर।।
यामिनी कह चंद्रिका से, 
मधु पात्र को वो ढाल दे।
आज श्लथ भू पर गिरूं, 
कुछ इस तरह का गात्र दे।।
चांदनी की शीतल छुवन
हो प्रेम पगता वक्ष पर
रात का सुन-सान पल मैं,…
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Added by SudhenduOjha on September 4, 2018 at 5:00pm — 1 Comment

पूछ रहा मुझसे स्वदेश

पूछ रहा मुझसे हिमालय,

पूछ रहा वैभव अशेष

पूछ रहा क्रांत गौरव भारत का,

पूछ रहा तपा भग्नावशेष

अनंत निधियाँ कहाँ गयी,

क्यों आज जल रहा तपोभूमि अवशेष;

कैसे लूटी महान सभ्यता प्राचीन,

क्यों लुप्तप्राय वीरोचित मंगल उपदेश !

कितने कलियों का अन्त हुआ भयावह,

कितने द्रोपदियों के खुले केश,

बता,कवि! कितनी मणियाँ लुटी,

कितनों के लुटे संसृति-चीर विशेष !

चढ़ तुंग शैल शिखरों से देख!

नहीं सौंदर्य बोध,विघटन के विविध क्लेश;

कहाँ…

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Added by आलोक पाण्डेय on September 4, 2018 at 5:00pm — 4 Comments

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