22—22—22—22—22—2 |
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गुलशन में फिर भौंरा आया, बढ़िया है |
फूलों से काटों का नाता, बढ़िया है |
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आज उफ़क तक सरसों देखी, दिल बोला-… |
Added by मिथिलेश वामनकर on October 28, 2015 at 4:03pm — 15 Comments
बहुत बरसों के बाद वह स्वयं को को बहुत ही हल्का हल्का महसूस कर रहा थाl न तो उसे सुबह जल्दी उठने की चिंता थी, न जिम जाने की हड़बड़ी और न ही अभ्यास सत्र में जाने की फ़िक्रl लगभग ढाई दशक तक अपने खेल के बेताज बादशाह रहे रॉबिन ने जब खेल से संन्यास की घोषणा की थी तो पूरे मीडिया ने उसकी प्रशंसा में क़सीदे पढ़े थेl समूचे खेल जगत से शुभकामनाओं के संदेश आए थेl कोई उस पर किताब लिखने की बात कर रहा था तो कोई वृत्तचित्र बनाने कीl उसकी उपलब्धियों पर गोष्ठियाँ की जा रही थींl किन्तु वह इन सबसे दूर एक शांत…
ContinueAdded by योगराज प्रभाकर on October 28, 2015 at 4:00pm — 12 Comments
नवरात्र के दिनों में सामने वाले घर में रहने वाली अधेड़ आयु की स्त्री के हाथों में लाल कांच की चूड़ी देखकर बिल्डिंग में रहने वाली सभी महिलाये चौंक गई, " ओह, तो इसका मतलब इनके पति हैं"! वह महिला अपने दो युवा बच्चों के साथ इस फ्लैट में रहने नई नई आई थी! प्रायः वह महिला कोई साज श्रृंगार नहीं करती थी जिससे सभी ने मन ही मन ये विचार बना लिया था वह शायद विधवा हैं लेकिन नवरात्र की पूजा के दिनों में साज श्रृंगार से पूर्ण उस महिला को देखकर अन्य महिलाओं के मन में खलबली मच गयी! आखिर पूछ ही लिया "आपके…
ContinueAdded by Rajni Gosain on October 28, 2015 at 12:57pm — 3 Comments
भरी दोपहरी मई के महीने में वो दरवाज़े पर आया और ज़ोर ज़ोर से आवाज़ लगाने लगा खान साहब…….. खान साहब……..| मेरी आँख खुली मैंने बालकनी से झाँका | एक ५५-६० साल का अधबूढ़ा शख्स, पुराने कपड़ों, बिखरे बाल और खिचड़ी दाढ़ी में सायकल लिए खड़ा है। मुझे देखते ही चिल्ला पड़ा फलाँ साहब का घर यही है| मैंने धीरे से हाँ कहा और गर्दन को हल्की सी जेहमत दी | वो चहक उठा उन्हें बुला दीजिये | मैंने कहा अब्बा सो रहे हैं, आप मुझे बताएं | उसने ज़ोर देकर कहा, नहीं आप उन्हें ही बुला दीजिये , कहियेगा फलाँ शख्स आया है। मुझे बड़ा…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on October 28, 2015 at 12:30pm — 7 Comments
अधूरी ख्वाहिशें - ( लघुकथा ) -
कीर्ति के शिखर पर बैठे एक खिलाड़ी ने जब सन्यास ले लिया तो उसके कुछ समय पश्चात. पत्रकार सुधीर जिज्ञासा वश ढूंढता हुआ, उसका साक्षात्कार लेने, उसके पैत्रिक गॉव जा पहुंचा!गॉव के बाहर ही एक व्यक्ति मैले कुचैले वस्त्रों में सिर पर गोबर का टोकरा ले जाता दिखा!सुधीर ने उससे भूतपूर्व बालीबाल खिलाडी रघुराज सिंह का घर पूछा!
"क्या करोगे भाई उसके घर जाकर"!
“मुझे उनका साक्षात्कार लेना है"!
"एक गुमनाम आदमी का साक्षात्कार,क्यों मज़ाक करते…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on October 28, 2015 at 11:43am — 5 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 28, 2015 at 9:47am — 3 Comments
Added by Archana Tripathi on October 27, 2015 at 11:52pm — 13 Comments
आदरणीय कलाम साहब को समर्पित
सरल, सादगी की वह मूरत,
ऐसा पावन दूत हुआ,
भारत ही क्या ,उसकी छवि से,
जग सारा अभिभूत हुआ,
आकाश, नाग, पृथ्वी, त्रिशूल से,
दाता पैने तीरों का,
भारत को समृद्ध किया और
जीवन जिया फकीरों सा ।
जिसकी …
ContinueAdded by Ajay Kumar Sharma on October 27, 2015 at 11:30pm — 2 Comments
2122 2122 2122 212
कल्पना का पथ टटोलें कुछ समय की आह सुन
इस तरह निभ जाये शायद अपनी चाहत अपनी धुन
उनकी यादों की कोई सीमा कोई मंज़िल भी है
मुड़ हकीकी से मजाज़ी या जगत की पीर बुन
बेगुनाही का मज़ा इस बात से दुगना हुआ
मेरे कातिल ने कहा है खुद सजा की राह चुन
एक मिसरा उनपे भी हो जिनसे होती है ग़ज़ल
फाइलातुन, फाइलातुन ,फाइलातुन, फाइलुन
प्रेम की इस व्यंजना में इक अमिट अनुराग है
वो न मेरा नाम लेती है कहती है बस मेरे…
Added by मनोज अहसास on October 27, 2015 at 2:00pm — 18 Comments
Added by amod shrivastav (bindouri) on October 27, 2015 at 8:30am — 9 Comments
अरकान- 212 212 212 212
दर्द सीने में अक्सर छुपाती है माँ|
तब कहीं जाकर फिर मुस्कुराती है माँ|
ख़ुद न सोने की चिंता वो करती मगर,
लोरियां गा के हमको सुलाती है माँ|
रूठ जाते हैं हम जो कहीं माँ से तो,
नाज-नखरे हमारे उठाती है माँ|
लाख काँटे हों जीवन में उसके मगर,
फूल बच्चों पे अपनी लुटाती है माँ|
माँ क्या होती है पूछो यतीमों से तुम,
रात-दिन उनके सपनों में आती है…
ContinueAdded by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on October 26, 2015 at 10:30pm — 7 Comments
"सुगना, क्या यह सच है कि दशहरे की रात को तुमने चौधरी जगन्नाथ के तीनों बेटों की खलिहान में सोते हुए कुल्हाडी से हत्या की थी"!
"बिलकुल सच है ज़ज़ साब,मैंने ही मारा उन तीनों राक्षसों को , रावण के साथ उनका मरना भी ज़रूरी था, "!
"तुम्हें अपनी सफ़ाई में कुछ कहना है"!
"ज़ज़ साब, उन तीनों दरिंदों ने उसी खलिहान में मुझे भूसा लेने बुलाया था और भरी दोपहरी में मेरी इज़्ज़त तार तार कर दी!मेरा बापू चौधरी के पास शिकायत करने गया तो चौधरी बोला कि सुगना के बापू जब पेड पर फ़ल लदे होते हैं तो…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on October 26, 2015 at 5:00pm — 9 Comments
अंबर से मेघ नहीं बरसे
अब आँखों से ही बरसेंगे
शोक है
मनी नहीं खुशियाँ
गाँव में इस बार
दशहरा पर
असमय गर्भ पात हुआ है
गिरा है गर्भ
धान्य का धरा पर
कृषक के समक्ष
संकट विशाल है
पड़ा फिर से अकाल है
खाने के एक निवाले को
रमुआ के बच्चे तरसेंगे
व्यवस्था बहुत बीमार है
अकाल सरकारी त्योहार है
कमाने का खूब है
अवसर
बटेगी राहत की रेवड़ी
खा जाएँगे नेता,…
ContinueAdded by Neeraj Neer on October 26, 2015 at 2:51pm — 11 Comments
मूक अंतर्वेदना स्वर को तरसती रह गयी
आँख सागर आँसुओं का सोख पीड़ा सह गयी
मानकर जीवन तपस्या अनवरत की साधना
यज्ञ की वेदी समझ आहूत की हर चाहना
मन हिमालय सा अडिग दावा निरा ये झूठ था
उफ़! प्रलय में ज़िंदगी तिनके सरीखी बह गयी
मूक अंतर्वेदना....
खोज कस्तूरी निकाली रेडियम की गंध में
स्वप्न का आकाश भी ढूँढा कँटीले बंध में
दिख रही थी ठोस अपने पाँव के नीचे ज़मीं
राख की ढेरी मगर थी भरभरा कर ढह गयी
मूक…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on October 26, 2015 at 9:30am — 11 Comments
[आधार छंद : 'विधाता']
1222 1222 1222 1222
कभी अपने मुसीबत में, ज़रा भी काम आये हैं,
जिन्हें समझा नहीं था दोस्त वे नज़दीक लाये हैं।
जिसे माना, जिसे पूजा, उसे घर से भगा कर के,
बुढ़ापे में, जताकर स्वार्थ, ममता को भुलाये हैं।
तुम्हारे पास दिल रख तो दिया गिरवी भरोसे पर,
पता मुझको चला तुमने, हज़ारों दिल दुखाये हैं।
कभी वे फोन पर बातें करेंगी, स्वर बदलकर के,
कभी वे नेट पर चेटिंग, झिलाकर के बुलाये हैं।
न जाने…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 26, 2015 at 8:30am — 10 Comments
Added by Rahila on October 26, 2015 at 7:12am — 24 Comments
Added by Samar kabeer on October 25, 2015 at 10:53pm — 17 Comments
Added by amod shrivastav (bindouri) on October 25, 2015 at 9:42pm — 8 Comments
जीवन की आपाधापी में,
दिन बचपन के भूल गये,
परिवर्तित हो गयी हवायें,
मौसम भी प्रतिकूल भये।
वो शाम सुहानी,मित्रों के दल,
और किनारा नदियों का,
कूद, कबड्डी,गुल्ली डंडा,
झर झर झरना सदियों का,
खेत और खलिहान की रंगत,
लदी डाल में अमियों का,
मानचित्र…
ContinueAdded by Ajay Kumar Sharma on October 25, 2015 at 3:00pm — 8 Comments
वो ममता मयी छुवन हो
जो माँ की कोख से निकलते ही मिली
या हो उसी गोद की जीवन दायनी हरारत
या
तुम्हारी उंगलियों को थामे ,
चलना सिखाते
पिता की मज़बूत, ज़िम्मेदार हथेली हो
या हो
जमाने की भाग दौड़ से दूर , निश्चिंत
कलुषहीन हृदय से
धमा चौकड़ी मचाते , गिरते गिराते , खेलते कूदते
बच्चे
या फिर स्कूलों कालेजों की किशोरा वस्था की निर्दोष मौज मस्तियाँ
या हो वो जवानी में पारिवारिक , सामाजिक ज़िम्मेदारियों…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on October 25, 2015 at 1:48pm — 14 Comments
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