२१२२ २१२२ २१२२ २१२
मेरी बगिया खिल उठी मौसम निराला हो गया
आ गई बेटी मेरे घर में उजाला हो गया
दीप खुशियों के जले शुभ शंख मानो बज उठे
देखिये साहिब मेरा तो घर शिवाला हो गया
लहलहाई यूँ फसल खेतों की मेरी देखिये
सोने चाँदी से मढ़ा इक इक निवाला हो गया
बिन सुरा सागर के जैसे खाली था मेरा वजूद
आते ही उसके लबालब ये पियाला हो गया
पढ़ते पढ़ते रात दिन आँखें मेरी थकती नहीं
उसका चेह्रा खूबसूरत इक…
ContinueAdded by rajesh kumari on October 23, 2016 at 12:55pm — 20 Comments
Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 23, 2016 at 12:48pm — 10 Comments
नेहा सुबह से उदास थी। शादी के पाँच साल होने को आए थे, पर उसकी गोद अब तक सूनी थी। उसकी और उसके पति की मेडीकल जाँच हो चुकी थी। सब ठीक था। फिर भी बात बन नहीं रही थी। बस सास इसी बात को लेकर अपने बेटे पर लगातार दबाव डाल रही थी कि वह उसे तलाक क्यों नहीं दे देता।
माँ की बातों में आकर आज सुबह ही अभिषेक तलाक के कागजात बनवाने वकील के पास चला गया था। भविष्य की चिंता को लेकर नेहा की आँखों में आँसू छलक आए थे। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। उसे लग रहा था कि हो सकता है अभिषेक का गुस्सा ठंडा…
ContinueAdded by विनोद खनगवाल on October 23, 2016 at 10:37am — 7 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 23, 2016 at 10:30am — 5 Comments
Added by Manan Kumar singh on October 23, 2016 at 7:30am — 13 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 23, 2016 at 12:14am — 8 Comments
2212 2212 2212
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दीवानगी में हम वफ़ा लिखते गए ।
तुम बेखुदी में बस जफ़ा पढ़ते गए ।।
पूछा किया वो आईने से रात भर ।
आवारगी में हुस्न क्यूँ ढलते गए ।।
आयी तबस्सुम जब मेरी दहलीज पर ।
देखा चिराग़े अश्क भी जलते गए ।।
नादानियों में फासलो से बेखबर ।
बस जिंदगी भर हाथ को मलते गए ।।
तालीम ले बैठा था जब इन्साफ की ।
क्यूँ मुज़रिमो के फैसले बदले गए ।।
जिसकी बेबाकी के चर्चे थे बहुत ।
तहज़ीब को अक्सर वही छलते गए…
Added by Naveen Mani Tripathi on October 22, 2016 at 7:00pm — 3 Comments
छुट्टी की बड़ी समस्या है दीदी, पापा अस्पताल में नर्सो के सहारे हैं! भाई से फोनवार्ता होते ही सुमी तुरन्त अटैची तैयार कर बनारस से दिल्ली चल दी|
अस्पताल पहुँचते ही देखा कि पापा बेहोशी के हालत में बड़बड़ा रहें थे| उसने झट से उनका हाथ अपने हाथों में लेकर, अहसास दिला दिया कि कोई है, उनका अपना |
हाथ का स्पर्श पाकर जैसे उनके मृतप्राय शरीर में जान सी आ गयी हो |
वार्तालाप घर-परिवार से शुरू हो न जाने कब जीवन बिताने के मुद्दे पर आकर अटक गयी |
एक अनुभवी स्वर प्रश्न बन उभरा, तो दूसरा…
Added by savitamishra on October 22, 2016 at 9:30am — 14 Comments
फाइलातुन-मफाइलुन-फइलुन
कमसिनी में शबाब पहने हुए |
हुस्न निकला निक़ाब पहने हुए |
तुहमते बेवफ़ाई का कब से
हम हैं बैठे खिताब पहने हुए |
कौन आया है चीखी तारीकी
बज़्म में माहताब पहने हुए |
आँख में इंतज़ार दिल में तड़प
मैं हूँ यह इंक़लाब पहने हुए|
मत यक़ीं करना उसपे आया है
जो वफ़ा का हिजाब पहने हुए |
सामना अस्ल का ज़रूरी है
क्यूँ हैं आँखों में ख्वाब पहने हुए…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on October 20, 2016 at 8:30pm — 17 Comments
ग़ज़ल
मात्रिक (22)
संघर्षों के जीवन रण में अपना हिस्सा हार गया,
मान के मिथ्या इस आँगन को, कोई इस के पार गया.
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विद्वत्ता से श्रेष्ठ कहाई सत्कर्मों की पुण्याई,
अहँकार के फेर में रावण! तेरा जीवन सार गया.
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प्रश्न हमारे सच्चे थे पर उत्तर झूठे थे उनके,
जब से सच का बोध हुआ है, धर्मों का आधार गया.
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ईश्वर पूजा, अल्लाह पूजा, ख़ुद के तन को कष्ट दिए,
उस जीवन की आस में मानव, ये जीवन बेकार गया.
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ईश्वर तेरे साथ चलेगा बस…
Added by Nilesh Shevgaonkar on October 20, 2016 at 8:15pm — 13 Comments
चिरौंजीलाल बड़े पेशोपेश में थे, एक बार तो उनको लगा कि उनकी लुगाई ने बात बस यूँ ही कह दी, शायद बिना ज्यादा कुछ सोचे ही| लेकिन जब उन्होंने गौर से सोचा तो चेहरे पर चिंता की लकीरें दौड़ गईं कि भला मजाक में भी कोई ऐसा कहता है|
हफ़्तों क्या महीनों से ही घर में चर्चा चल रही थी और उनको बार बार याद दिलाया जा रहा था| वह एक कान से सुनते और दूसरे से निकाल देते, आखिर शादी के १५ वर्षों में इतना तो उन्होंने सीख ही लिया था| जब उनको लगता कि लुगाई समझ रही है कि वह अनसुना कर रहे हैं तो हाँ हूँ भी कह देते|…
Added by विनय कुमार on October 20, 2016 at 6:23pm — 4 Comments
Added by रामबली गुप्ता on October 20, 2016 at 11:00am — 15 Comments
2122 1122 1122 22
बात सरहद पे अगर अब भी पुरानी होगी
तब दिलों मे हमें दीवार उठानी होगी
हर कहानी में हक़ीकत भी ज़रा होती है
ये हक़ीकत भी किसी रोज़ कहानी होगी
हाथ जिनके भी बग़ावत पे उतर आये हों
पैर में उनके भला कैसे रवानी होगी
सभ्य लोगों में असभ्यों की तरह बात तो कर
ये नई नस्ल है, तेरी भी दिवानी होगी
अपने अजदाद कभी राम-किसन-गौतम थे
देखना घर मे बची कुछ तो निशानी होगी
रंग…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on October 20, 2016 at 8:10am — 19 Comments
१२२२ १२२२ १२२
इन आँखों में जो सपने रह गये हैं
बहुत ज़िद्दी, मगर ग़मख़ोर-से हैं
अमावस को कहेंगे आप भी क्या
अगर सम्मान में दीपक जले हैं
अँधेरों से भरी धारावियों में
कहें किससे ये मौसम दीप के हैं
प्रजातंत्री-गणित के सूत्र सारे
अमीरों के बनाये क़ायदे हैं
उन्हें शुभ-शुभ कहा चिडिया ने फिर से
तभी बन्दर यहाँ के चिढ़ गये हैं
उमस बेसाख़्ता हो, बंद कमरे-
कई लोगों को फिर भी जँच रहे हैं …
Added by Saurabh Pandey on October 20, 2016 at 4:00am — 26 Comments
भीतर पुराने धूल-सने मकबरे में
धुआँते, भूलभुलियों-से कमरे
अनुभूत भीषण एकान्त
विद्रोही भाव
जब सूझ नहीं कुछ पड़ता है
कुछ है जो घूमघाम कर बार-बार
नव-आविष्कृत बहाने लिए
अमुक स्थिति को ठेल…
ContinueAdded by vijay nikore on October 19, 2016 at 11:00pm — 14 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on October 19, 2016 at 2:00pm — 4 Comments
माँ ...
दर्द का
मंथन हुआ तो
एक सागर
बूँद बन
लहद पर
ऐसा गिरा
कि
गर्म लावे से पिघल
माँ
लहद से बाहर
आ गयी
ले के दर्द बेटे का
फिर
लहद में
समा गयी
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 19, 2016 at 1:00pm — 4 Comments
झील ने कवि से पूछा, “तुम भी मेरी तरह अपना स्तर क्यूँ बनाये रखना चाहते हो? मेरी तो मज़बूरी है, मुझे ऊँचाइयों ने कैद कर रखा है इसलिए मैं बह नहीं सकती। तुम्हारी क्या मज़बूरी है?”
कवि को झटका लगा। उसे ऊँचाइयों ने कैद तो नहीं कर रखा था पर उसे ऊँचाइयों की आदत हो गई थी। तभी तो आजकल उसे अपनी कविताओं में ठहरे पानी जैसी बदबू आने लगी थी। कुछ क्षण बाद कवि ने झील से पूछा, “पर अपना स्तर गिराकर नीचे बहने में क्या लाभ है। इससे तो अच्छा है कि यही स्तर बनाये रखा जाय।”
झील बोली,…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2016 at 10:04am — 22 Comments
Added by Manan Kumar singh on October 18, 2016 at 8:00pm — 8 Comments
अस्पताल में आई. सी. यू. में भर्ती बेगम साहिबा को अपने जीवन के अंतिम पलों का अहसास होने लगा था । लेकिन मज़ाकिया स्वभाव के ज़िंदा दिल मिर्ज़ा साहब उनका हौसला बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे।
"अब तो जा रहीं हूँ जनाब, अपना ख़्याल रखियेगा, ऐसे ही ख़ुशमिज़ाज बने रहियेगा!" बेगम ने मिर्ज़ा जी की हथेली थामते हुए कहा।
"पगली, ये भी कोई मज़ाक का वक़्त है, लोग 'करवा चौथ' मना रहे हैं आज और तू जाने की बात सोच रही है, ऐं!" मिर्ज़ा जी ने उनके माथे पर बोसा देते हुए कहा।
"मैं कहती थी न कि मैं तुम्हारे…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 18, 2016 at 7:00pm — 7 Comments
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