बह्र : २१२२ १२१२ २२
दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है
वो यक़ीनन कोई फ़रिश्ता है
दूर गुणगान से मैं रहता हूँ
एक तो जह्र तिस पे मीठा है
मेरे मुँह में हज़ारों छाले हैं
सच बड़ा गर्म और तीखा है
देखिए बैल बन गये हैं हम
जाति रस्सी है धर्म खूँटा है
सब को उल्लू बना दे जो पल में
ये ज़माना मियाँ उसी का है
अब छुपाने से छुप न पायेगा
जख़्म दिल तक गया है, गहरा है
आज…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 16, 2016 at 1:00am — 10 Comments
Added by दिनेश कुमार on October 16, 2016 at 12:53am — 3 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 15, 2016 at 11:50pm — 6 Comments
"अरे मुंगेरी, खाना खाने भी चलेगा, या मगन रहेगा यहीं |" मुंगेरी को दीवार से बात करता हुआ देख चाचा ने कहा |
बहुमंजिला इमारत में प्लास्टर होने के साथ बिजली का भी काम चल रहा था | दोपहर में भोजन करने सब नीचे जाने लगे थे | मुंगेरी भी चाचा के साथ नीचे आकर जल्दी-जल्दी खाना ख़त्म करने लगा | तभी अचानक इमारत धू-धूकर जलने लगी | जैसे ही आग मुंगेरी के बनाये मंजिल पर पहुँची, मुंगेरी फफक कर रो पड़ा | सारे मजदूर महज हो-हल्ला मचा रहे थे | लेकिन मुंगेरी ऐसे रो रहा था जैसे उसकी अपनी कमाई जल…
Added by savitamishra on October 15, 2016 at 8:00pm — 2 Comments
सीमा पार से आके तुमने हमको जो ललकारा है
भागो तुम उस पार चलो यह भारतवर्ष हमारा है।
आये दिन जो तुम करते रहते हो उत्पात यहां
अब हम नहीं सहेंगे यह सब यह संकल्प हमारा है।
ऐसा क्या व्यवहार तुम्हारा जो कहके जाते हो पलट
अपनी सीमा पर है नहीं नियंत्रण यह दुर्भाग्य तुम्हारा है।
सरहद पर जो आते हैं करते स्वागत है हम उन का
मित्र तुम्हारे चरणों में यह झुका शीश हमारा है।
आये हो तो रहो यहां होकरके निर्भीक मगर
धोखा देने वालों पर गिरता फिर खड्ग…
ContinueAdded by indravidyavachaspatitiwari on October 15, 2016 at 6:19am — 3 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on October 14, 2016 at 7:47pm — 6 Comments
एक प्रयास
***********
कान्हा की मैत्री मेरा मान हुई
तुमसे जुड़ा जो नाता मेरी शान हुई
इसे जोड़ा है गिरधर ने बड़े प्रेम से
हमारी खुशियां ही मुरली की तान हुई
मैं उलझी थी शब्दो की उलझन में
तुम्हारी ख़ामोशी तुम्हारा पयाम हुई
धूप में बादल से तुम, अंधेरों में किरण सी मैं
तुम्हारी बाहें हर तूफ़ां में मेरी मचान हुई
कई दांव देखे है रिश्तों के हमने
निष्ठा हमारी लोबान हुई
बीते बरस इम्तहानों के जैसे…
ContinueAdded by अलका 'कृष्णांशी' on October 14, 2016 at 4:03pm — 6 Comments
'मेरे लिए क्या लायी, मेरे लिए क्या है", बच्चे हल्ला मचा रहे थे| बड़े भी कुछ कह तो नहीं रहे थे लेकिन उनकी भी नज़रें उसी की तरफ टिकी हुई थीं| नौकरी शुरू करने के दो महीने बाद श्रुति अपने कस्बे वाले घर लौटी थी और इस बीच घर के अधिकतर सदस्यों ने उससे कुछ न कुछ लाने की फरमाईस कर दी थी| अपनी सीमित तनख़्वाह में भी उसने सबके लिए कुछ न कुछ ले लिया था| एक किनारे बैठी उसकी दादी उसे बेहद प्यार भरी नज़रों से देख रही थी और इंतज़ार कर रही थीं कि कब सब लोग हटें तो वह अपनी पोती को लाड करें| श्रुति उनकी सबसे ज्यादा…
ContinueAdded by विनय कुमार on October 13, 2016 at 8:07pm — 8 Comments
रावण
.
तिल्ली का मुंह
दियासलाई की पीठ पर
रगड़ते ही
रावण
धू धू कर जल उठा
उसके जिस्म की आग
धुंआ और राख
ऊपर उठकर
फ़ैल गए चार सू
यहाँ वहां जहाँ तहां
अँधेरे से जुगलबंदी कर
लोट आये पुनः धरा पर
शबनम संग चुपके से
जब आप थे निद्रा के आगोश में
उसके भस्मबीज
चू पड़े खेतों में
खड़ी साग सब्जी और फसलों
के अंतरमन में
और
उग आये रावण
गाँव -गाँव …
Added by Anant Alok on October 13, 2016 at 8:00pm — 3 Comments
नये सरकारी आदेश की प्रति बाबूराम के कार्यालय में पहुँच गयी थी. इस आदेश के अनुसार किसी भी विकलांग को लूला-लंगड़ा, भैंगा-काणा या गूंगा-बहरा आदि कहना दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया था. सरकार ने यह व्यवस्था दी है कि यदि आवश्यक हुआ तो विकलांग के लिए दिव्यांग शब्द का प्रयोग किया जाए. बड़े साहब ने मीटिंग बुला कर उस सरकारी आदेश को न केवल पढ़कर सुनाया था बल्कि सभी को सख्ती से इसे पालन करने की हिदायत भी दी थी. आज कार्यालय जाते समय बाबूराम यह सोचकर…
ContinueAdded by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 13, 2016 at 3:00pm — 14 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 12, 2016 at 10:00pm — 5 Comments
बहरे हज़ज़ मुसम्मन मक्बुज.....
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 1212 1212 1212
सरे निगाह शाम से ये क्या नया ठहर गया
ये कौन सीं हैं मंजिलें ये क्या गज़ब है आरजू
जिसे सँभाल कर रखा वही समा बिखर गया
अभी है वक़्त बेवफा अभी हवा भी तेज है
अभी यहीं जो साथ था वो हमनवा किधर गया
ये वादियाँ ये बस्तियाँ ये महफ़िलें ये रहगुजर
हज़ार गम गले पड़े…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 12, 2016 at 9:53pm — 8 Comments
रग्घू के यहाँ तेरहवीं का भोज खाने के बाद गांव के कुछ बुजुर्ग वहीँ दरवाजे पर बने कउड़ा पर हाथ सेंकने बैठ गए| जाड़े का दिन था और ठंढ भी कुछ ज्यादा थी| कुछ लोग खाने के बारे में बात करने लगे, किसी को अच्छा लगा था तो किसी को साधारण| जोखू चच्चा को हमेशा से ये ब्रम्ह भोज खराब लगता था और उन्होंने कई बार इसके विरोध में बोला भी था लेकिन किसी ने उसपर ध्यान नहीँ दिया| रग्घू की माली हालात अच्छी नहीँ थी, उसपर पिता की बिमारी ने उसे और कंगाल कर दिया था| अब ये भोज का खर्च, आज जोखू चच्चा ने सोच लिया कि बात…
ContinueAdded by विनय कुमार on October 12, 2016 at 8:30pm — 6 Comments
Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 12, 2016 at 7:42pm — 3 Comments
हार ...
ये इश्क-ओ-मुहब्बत के
बड़े अज़ब नज़ारे हैं
उनके दिए दर्दों से
हमने
तन्हा लम्हे सँवारे हैं
लोग
डरते होंगे ज़ख्मों से
मगर
सच कहते हैं
ये ज़ख्म
हमें बहुत प्यारे हैं
रिस्ते ज़ख्मों की
हर टीस पे
हमने सनम पुकारे हैं
अंगार बन के उठती हैं
यादें उनकी
तन्हाई में
कैसे बताएं ज़माने को
हम क्या जीते
क्या हारे हैं
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 12, 2016 at 1:13pm — 6 Comments
पथ पे शूल बहुत बिखरे है
पग को रखना सम्हल - सम्हल
जीवन में गम बहुत पड़े है
खिल के हंसना मचल -मचल
अब रात बहुत ही काली है
संघर्षो की इक थाली है
कठिन नहीं कुछ भी जग में,
नभ तक जाना सरल - सरल
हे युवा आज मत घबराओ
कुछ देश में एसा कर जाओ
तेरे अतुलित बल से थल पे,
खिल जायेगा कमल - कमल
……………………………
मौलिक तथा अप्रकासित
कवि हिमांशु पाण्डेय
Added by Himanshu pandey on October 12, 2016 at 12:30pm — 1 Comment
Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 11, 2016 at 9:26pm — 5 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 11, 2016 at 8:30pm — 11 Comments
हम सब कठपुतलें हैं,
करते परंपरागत दहन,
रावण के पुतलों का,
मनाते पर्व विजय का,
पर छुपे हुए रावण,
हर जगह फैलें हैं,
ऊपर से उल्लासित हम,
भीतर से त्रस्त और खोखले हैं,
आतंक,दुराचार,विभीषिकाओं के,
भीषण दौर इस विश्व में,
सभी धर्मों, सभ्यताओं,
और समाजों ने झेले हैं,
छुपी हुई दुराचारी,
अहंकारी मनोवृत्ति के,
आतंक और भ्रष्टाचार के,
युद्ध और विनाश के,
अशिक्षा और दरिद्रता के,
इन रावणों का दहन करने,
हे राम…
Added by Arpana Sharma on October 11, 2016 at 10:30am — 15 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 11, 2016 at 4:48am — 7 Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |