वह अलग थी अब कहानी और है
आज कल की निगहबानी और है
है जगह तो ठीक वैसी ही मगर
बह रही जो पवन पानी और है
वीरता की चरम सीमा है यहाँ
ईश की भी महरबानी और है
चढ़ रहे मंजिल…
ContinueAdded by PRAMOD SRIVASTAVA on October 11, 2016 at 12:00am — 6 Comments
मेरा खूने-क़ल्ब कबतक यूँ ही बार-बार होगा
कभी वो घड़ी भी आए जो तुझे भी प्यार होगा
दिलेसरनिगूं में कब तक पशेमानियाँ रहेंगी
तेरी हाँ का मुझको कब तक यूँ ही इंतेज़ार होगा
मेरी आशिक़ी पे कब तक यूँ ही तुहमतें लगेंगी
तेरे हाथ इश्क़ कब तक यूँ ही दाग़दार होगा
करूँ भी तो मैं करूँ क्या कोई दाफ़िया नहीं है
तेरा ज़िक्र जब भी होगा दिल बेक़रार होगा
पसेशाम अपने घर को जो मैं जाऊं फिरसे वापिस
वही इन्दिहाम होगा वही…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 10, 2016 at 10:08pm — 4 Comments
विष - एक क्षणिका :
मानव
तुम तो
सभ्य हो
फिर
विषधर का विष
कहां से
पाया तुमने
क्या
सभ्य वेश में
विषधर भी
रहने लगे
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 10, 2016 at 8:59pm — 8 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 10, 2016 at 7:51pm — 10 Comments
Added by Manan Kumar singh on October 10, 2016 at 7:30pm — 9 Comments
सब लोग तैयार हो रहे थे, पूरे घर में गहमागहमी मची हुई थी| बच्चों में भी बहुत उत्साह था, आज छुट्टी तो थी ही, साथ में दुर्गा पंडाल देखना और मेले का आनंद भी लेना था| रजनी ने भी अपनी चुनरी वाली साड़ी पहनी और शीशे के सामने खड़ी होकर अपने को निहारने लगी|
"माँ जल्दी चलो, पूजा को देर हो जाएगी", बेटे ने आवाज़ लगायी जो बाहर कार निकाल रहा था|
"आ रही हूँ, अरे अपने पापा को बोलो जल्दी निकलने के लिए", साड़ी सँभालते हुए रजनी कमरे से बाहर निकली|
"अच्छा किनारे वाला कमरा भी भिड़का देना, आने में तो देर…
Added by विनय कुमार on October 10, 2016 at 3:23pm — 8 Comments
221 2121 1221 212*
अनमोल पल थे हाथ से सारे फिसल गये
अपनों ने मुंह को फेर लिया दिन बदल गये।।
कुछ ख्वाब छूटे कुछ हुए पूरे, हुआ सफर
यादो के साथ साल महीने निकल गये।।
शरमा के मुस्कुरा के जो उनकी नजर झुकी
मदहोश हुस्न ने किया बस दिल मचल गये।।
बचपन के मस्त दिन भी हुआ करते थे कभी
बस्तो के बोझ आज वो बचपन कुचल गये।।
ओढे लिबास सादगी का भ्रष्ट तंत्र में
नेता गरीब के भी निवाले निगल गये।।
करते है बेजुबान को वो क़त्ल…
Added by नाथ सोनांचली on October 10, 2016 at 5:30am — 22 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 9, 2016 at 10:00pm — 18 Comments
दोहा गीत
आज़ादी की राह में ,शत शत वो बलिदान|
याद कहो कितना रहा ,बोलो हिन्दुस्तान||
सावरकर की यातना,देखी थी प्रत्यक्ष|
अंडमान की जेल में,काँपे पीपल वृक्ष||
संग्रामी आक्रोश में ,कितने बुझे चिराग|
कितनी टूटी चूड़ियाँ,कितने मिटे सुहाग||
कितनी दी कुर्बानियाँ,तब पाया सम्मान|
याद कहो कितना रहा ,बोलो हिन्दुस्तान||
रहे सदा जाँ बाज वो,हर सुख से महरूम|
झूल गये जो जान पर,उन फंदों को चूम||
नेहरू गाँधी…
ContinueAdded by rajesh kumari on October 9, 2016 at 8:44pm — 11 Comments
बह्र : २२११ २२११ २२११ २२
क्या क्या न करे देखिए पूँजी मेरे आगे
नाचे है मुई रोज़ ही नंगी मेरे आगे
डरती है कहीं वक़्त ज़ियादा न हो मेरा
भागे है सुई और भी ज़ल्दी मेरे आगे
सब रंग दिखाने लगा जो साफ था पहले
जैसे ही छुआ तेल ने पानी मेरे आगे
ख़ुद को भी बचाना है और उसको भी बचाना
हाथी मेरे पीछे है तो चींटी मेरे आगे
सदियों मैं चला तब ये परम सत्य मिला है
मिट्टी मेरे पीछे थी, है मिट्टी मेरे…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 9, 2016 at 6:30pm — 10 Comments
Added by रामबली गुप्ता on October 9, 2016 at 12:56pm — 10 Comments
घर का माहौल ग़मगीन था, डॉक्टर ने दोपहर को ही बता गया था कि माँ बस कुछ देर की ही की मेहमान हैI माँ की साँसें रह रह उखड रही थीं, धड़कन शिथिल पड़ती जा रही थी किन्तु फिर भी वह अप्रत्याशित तरीके से संयत दिखाई दे रही थीI ज़मीन पर बैठा पोता भगवत गीता पढ़ कर सुना रहा था, अश्रुपूरित नेत्र लिए बहू और बेटा माँ के पाँवों की तरफ बैठे सुबक रहे थेI
Added by योगराज प्रभाकर on October 9, 2016 at 10:00am — 25 Comments
Added by दिनेश कुमार on October 9, 2016 at 8:50am — 7 Comments
2122 2122 212
कनखियों से एक वादा फिर हुआ
हाँ, मुहब्बत का तकाजा फिर हुआ
हम तो समझे थे बहारें आ गयीं
मौत का सामान ताजा फिर हुआ
उल्फतें बढ़ती रहीं यह देखकर
इश्क का दुश्मन ज़माना फिर हुआ
रास बर्बादी मेरी आयी उन्हें
बाद मुद्दत मुस्कराना फिर हुआ
लौट आयेंगे सुना था एक दिन
किन्तु जीते जी न आना फिर हुआ
रूह रुखसत हो वहां उनसे मिली
और मंजर आशिकाना फिर…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 8, 2016 at 6:30pm — 22 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 8, 2016 at 4:10pm — 4 Comments
Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 8, 2016 at 4:00pm — 7 Comments
पूरे इलाके में हंगामा मचा हुआ था, अब तो पुलिस की गाड़ियां भी आ गयी थीं कि किसी अनहोनी को टाला जा सके| खैर, हुई तो बहुत अनहोनी बात ही थी इस दशहरा पर जिसे हजम कर पाना किसी के लिए सहज नहीं था|
हर साल की तरह इस बार भी रज्जन और उसका परिवार दशहरा के काफी दिन पहले से ही रावण का पुतला बनाने में जुट गया था, आखिर ये न सिर्फ उसका बल्कि उसके पुरखों का भी काम था| लेकिन इस बार वो हवा का रुख नहीं भांप पाया जो बदली हुई थी| और इसी वजह से उसने रामलीला समिति या गांव के सरपंच से पूछा भी नहीं| इधर गांव से…
Added by विनय कुमार on October 8, 2016 at 3:05pm — 2 Comments
तेरे आने से मेरा घर जगमगाया
पूर्णिमा का चंद्र जैसे मुस्कुराया
स्वांग रचकर रचयिता सबको नचाये
इस जगत को मंच इक अद्भुत बनाया
लाज कपड़ो में छुपाती थी कभी वो
आज उरियानी का कैसा दौर आया
आपदा जिसने न झेली जिन्दगी में
हौसलों की भी परख वो कर न पाया
पूछता दिल कटघरे में खुद को पाकर
इश्क ही क्यों हर कदम पे लड़खड़ाया
ज़िन्दगी भी पूछती है क्या बताऊँ
क्या मिला है और क्या मैं छोड़ आया
खोजती है हर नजर बस एक…
Added by नाथ सोनांचली on October 8, 2016 at 2:00pm — 6 Comments
Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on October 8, 2016 at 1:04pm — 5 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 8, 2016 at 10:30am — 14 Comments
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