वो तेरे नखरे तुझे कुछ खास करते हैं
आज भी हम तो मिलन की आस करते हैं
इन हवाओं में महकती है तेरी खुशबू
खोलकर खिडकी तेरा अहसास करते हैं
बन गयी नासूर मुझको खामुशी मेरी
ये जुबां वाले मेरा उपहास करते हैं
बेवफाई कर नहीं सकता सनम मेरा
लोग यूँ ही आजकल बकवास करते हैं
कौन आगे बोलता है अब सितमगर के
बैठते हैं साथ में और लाश करते हैं
उमेश कटारा
मौलिक एंव अप्रकाशित
Added by umesh katara on December 18, 2013 at 9:30am — 16 Comments
२२१ २१२१ १२२१ २१२ |
रिश्ते वफ़ा सब से निभाकर तो देखिए |
सारे जहाँ को अपना बनाकर तो देखिए |
इसका मिलेगे अज़्र खुदा से बहुत बड़ा |
भूखे को एक रोटी खिलाकर तो देखिए … |
Added by SALIM RAZA REWA on December 18, 2013 at 9:30am — 13 Comments
समय के ,
सूर्य के ताप से
सूखता हुआ मल,
स्वयम ही,
स्वाभाविक रूप से ,
हो जायेगा
दुर्गन्ध हीन |
और फिर
वातावरण स्वयम…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 18, 2013 at 6:30am — 18 Comments
"अंकल, इस बार सामान के बिल में सौ-दो सौ रूपये जरा बढाकर लिख देना, आगे मैं समझ लूँगा" रोहन ने दुकानदार से कहा.
"ऐसा ?.. पर बेटा, यह तो तुम्हारे घर की ही लिस्ट है न ?" दुकानदार को बहुत आश्चर्य हुआ.
"हाँ है तो. पर क्या है कि पापा आजकल पॉकेटमनी देने में बहुत आना-कानी करने लगे हैं.. " रोहन ने अपनी परेशानी बतायी.
(संशोधित)
जितेन्द्र ' गीत '
( मौलिक व् अप्रकाशित )
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on December 18, 2013 at 12:00am — 43 Comments
वापसी में मेरे मकान के बाहर ही मुझे लालाभाई मिल गये. मेरे हाथों मे सब्जियों से भरा थैला देखते ही चौंक पड़े, "क्यों भाई, कहाँ से ये सब्जियाँ लूट कर ला रहे हो?"
मैने उन्हें ऊपर से नीचे तक निहारा, "लूट कर.. ? खरीद के ला रहा हूँ भाई.."
मेरे कहते ही लाला भाई ने तुरंत बनावटी गंभीरता ओढ़ते हुए कहा, "हुम्म्म.. तब तो इन्कम टैक्स वालों को बताना ही पड़ेगा .. और सीबीआई वालों को भी..! कि भाई, तुम आजकल भी सब्जियाँ झोला भर-भर के खरीद पा…
Added by Shubhranshu Pandey on December 17, 2013 at 8:30pm — 26 Comments
खाकर इक दूजे की कसम
हम प्यार अमर कर जाएँगे
कोई रोक सके तो रोक ले हमको
हम न जुदा हो पाएँगे
हम बगिया के फूल नहीं
जो हमको कोई ऊज़ाडेगा
हम ने की नही भूल कोई
जो हम को कोई सुधारेगा
लैला मजनूं के बाद अब हम
इतिहास में नाम लिखाएगें
कोई रोक........................
पतझड़ सावन बसंत बहार
ऋीतुएँ होती हैं ये चार
एक भी मौसम नही है ऐसा
जिसमें हम कर सकें न प्यार
बुरी नज़र जो डालेगा उसका
मुह काला कर…
Added by NEERAJ KHARE on December 17, 2013 at 7:32pm — 4 Comments
सोचती हूँ होती मेरी भी एक बिटिया
पढ़ती वो भी बिन कहे दिल की पतिया
भीगती जब असुअन से मेरी अखियाँ
पूछती माँ क्यूँ भीगी तेरी अखिंयाँ
बनाती बहाना चुभ गया कुछ बिटिया
कहती,समझती हूँ माँ तेरे दिल की बतियाँ !!
काश होती मेरी भी एक बिटिया
वो पढ़ लेती मेरे दिल की पतियाँ
होती मेरी हमसाया,हमराज,सखी
कहती ना कभी ऐसी बतियाँ
उड़ा देती जो मेरी रातों की निंदियाँ
माँ तुममे भी है कुछ कमियाँ !!
मीना पाठक
मौलिक/अप्रकाशित
Added by Meena Pathak on December 17, 2013 at 5:15pm — 19 Comments
धूप उतर आयी
झरोखे से झांक
आज़ सुबह मेरे कमरे मे
जब धूप उतर आयी
बढ़ गई थोड़ी सी
चंचल तरुणाई ।
यह धूप आज़ महंगी है, पर –
कल तक आवारा थी
शांति मुझे देती अब
गंगा की धारा सी ।
कैसे बताऊँ क्या है ?
जल्द फिसल जाती है
तन ठिठुर जाता
हर छाँव सिहर जाती है ।
अब तक अनदेखी है
तेरी गोराई !
ऐसे मे अनजानी
याद तेरी आयी ।
आज़ मेरे कमरे मे –
धीरे से
धूप उतर आयी
बढ़ गयी थोड़ी सी
चंचल तरुणाई ।
-…
Added by S. C. Brahmachari on December 17, 2013 at 4:59pm — 15 Comments
कौआ आज फिर प्यासा था। लेकिन अब उसे हर हर रोज़ कंकड़ पत्थर इकट्ठे करते हुए बहुत कष्ट होने लगा था. वह इस रोज़ रोज़ के संघर्ष से मुक्ति चाहता था। फिर एक दिन अचानक ही उसने भगवे वस्त्र धारण कर लिए, माथे पर लंबा सा तिलक लगाया एक बड़ी सी स्टेज सजा कर ‘कांव-कांव’ करने लगा। देखते ही देखते अनगिनत लोग उसके अनुयायी बन उसकी जय जयकार करने लगे । अब वह सयाना कौआ बड़े आराम से दिन भर ‘कांव-कांव’ करता, क्योंकि उसकी ‘भूख’ व ‘प्यास’ का जीवन भर के लिए जुगाड़ हो चुका था।
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Ravi Prabhakar on December 17, 2013 at 4:48pm — 12 Comments
अनंग शॆखर छन्द =
===============
कभी डरॆ नहीं कभी मरॆ नहीं सपूत वॊ, प्रचंड वृष्टि बर्फ और ताप मॆं खड़ॆ रहॆ ॥
हिमाद्रि-तुंग बैठ शीत संग तंग हाल मॆं, सपूत एकता अखण्डता लियॆ अड़ॆ रहॆ ॥
प्रहार रॊज झॆलतॆ अशांति कॆ कुचाल कॆ, सदा निशंक काल-भाल वक्ष पै चढ़ॆ रहॆ ॥
अखंड भारती सुहासिनीं सुभाषिणीं कहॆ, सभी अघॊष युद्ध वीर शान सॆ लड़ॆ रहॆ ॥
कवि-"राज बुन्दॆली"
17/12/2013
पूर्णत: मौलिक एवं अप्रकाशित रचना,,,,…
ContinueAdded by कवि - राज बुन्दॆली on December 17, 2013 at 4:30pm — 16 Comments
तुम ही कहो अब
क्या मैं सुनाऊँ
सरगम के सुर
ताल हैं तुम से
सारी घटाएँ
बहकी हवाएँ
फागुन की हर
डाल है तुमसे
तुम ही कहो .......
तुम बिन अँखियन
सरसों फूलें
रीते सावन
साल हैं तुमसे
तेरी छुअन से
फूली चमेली
शारद की हर
चाल है तुमसे
तुम ही कहो .......
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by राजेश 'मृदु' on December 17, 2013 at 4:11pm — 14 Comments
रिश्तों की ताप
बर्फ सी ठंडी हथेली में, सूरज का ताप चाहिए
फिर बँध जाए मुट्ठी, ऐसे जज्बात चाहिए ।
बाँध सर पे कफन, कुछ करने की चाह चाहिए
मर कर भी मिट न सके, ऐसे बेपरवाह चाहिए।
मन में उमड़ते भावों को,शब्दों का विस्तार चाहिए
शब्द भाव बन छलक उठे,ऐसे शब्दों का सार चाहिए।
पथरा गई संवेदनाएं जहाँ , रिश्तों की ताप चाहिए
चीख कर दर्द बोल उठे,अहसासों की ऐसी थाप चाहिए।
चीर कर छाती चट्टानों…
ContinueAdded by Maheshwari Kaneri on December 17, 2013 at 12:30pm — 15 Comments
Added by AVINASH S BAGDE on December 17, 2013 at 10:30am — 26 Comments
हे ईश्वर
.
जूते का फीता बांधकर जैसे ही उठा, सामने किसी अपरचित को खड़ा देख मै चौक गया. लगा की मै सालों से उसे जानता हूँ पर पहचान नहीं पा रहा हूँ. बड़े संकोच से मैंने पूछा-" आप--", मै अपना प्रश्न पूरा करता इस-से पहले ही उन्होंने बड़ी गंभीर आवाज़ में कहा -" मै ईश्वर हूँ".
उन की गंभीर वाणी में कुछ ऐसा जादू था की मुझे तुरंत विश्वास हो गया की मै इस पूरी कायनात के मालिक से रूबरू हूँ. मैंने खुद को संभाला और अपे स्वभाव के अनुरूप उन पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी.…
ContinueAdded by Nilesh Shevgaonkar on December 17, 2013 at 8:30am — 9 Comments
क्यों चले आए शहर, बोलो
श्रमिक क्यों गाँव छोड़ा?
पालने की नेह डोरी,
को भुलाकर आ गए।
रेशमी ऋतुओं की लोरी,
को रुलाकर आ गए।
छान-छप्पर छोड़ आए,
गेह का दिल तोड़ आए,
सोच लो क्या पा लिया है,
और क्या सामान जोड़ा?
छोडकर पगडंडियाँ
पाषाण पथ अपना लिया।
गंध माटी भूलकर,
साँसों भरी दूषित हवा।
प्रीत सपनों से लगाकर,
पीठ अपनों को दिखाकर,
नूर जिन नयनों के थे,…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on December 16, 2013 at 11:00pm — 38 Comments
Added by atul kushwah on December 16, 2013 at 10:30pm — 9 Comments
ये कैसी आधुनिकता है …. …..
.
उफ्फ !
ये कैसी आधुनिकता है ….
जिसमें हर पल …..
संस्कारों का दम घुट रहा है //
हर तरफ एक क्रंदन है ….
सभ्यता आज ….
कितनी असभ्य हो गयी है //
आज हर गली हर चौराहे पर ….
शालीनता अपनी सभी …..
मर्यादाओं की सीमाएं तोड़कर हर ……
शिष्टाचार की धज्जियां उड़ा रही है //
बदन का सार्वजनिक प्रदर्शन …..
आधुनिकता का अंग बन गया…
Added by Sushil Sarna on December 16, 2013 at 7:30pm — 17 Comments
मै जीना चाहती हूँ माँ !!
कैसे जियेगी तू मेरी बच्ची ?
समय के साथ ये सब
श्रद्धांजलि और प्रदर्शनों
के आडम्बर शांत हो जायेंगे
सब कुछ भूल, लग जायेंगे
सभी अपने अपने काम में
पर तेरा जीवन नही बदलेगा !!
जो बच गई
जीवन तेरा और भी नर्क हो जाएगा
तू जब भी निकलेगी घर से
तेरी तरफ उठेंगी सौकड़ों आँखे
तू भूलना भी चाहेगी तो
दिखा – दिखा उंगुली
लोग तुझे भूलने नही देंगे
जानना चाहेंगे सभी ये कि
कैसे हुआ ये…
Added by Meena Pathak on December 16, 2013 at 7:00pm — 36 Comments
रिटायरमेंट के छह महीने बाद कैंसर से पीड़ित बाबूजी के देहांत होने पर परिवार के सभी लोग दुखी थे. किंतु सबसे ज़्यादा दुखी उनका बेटा माखन था, रो रोकर उसका बुरा हाल था इसलिए नही कि उसका बाप मर गया था बल्कि वो यह सोच रहा था कि जब मरना ही था तो नौकरी मे रहते क्यूँ न मरे उसे उनकी जगह नौकरी मिल जाती; उसकी जिंदगी संवर जाती वर्ना लम्बा जीते ताकि उनकी पेंशन से उसका परिवार पल बढ़ जाता.तभी अचानक पड़ोसी ने पूछा दाह संस्कार किस रीति रिवाज़ से करेंगे. माखन अपने मरे बाप का कम से कम पैसे में अंतिम संस्कार करना…
ContinueAdded by NEERAJ KHARE on December 16, 2013 at 7:00pm — 11 Comments
Added by गिरिराज भंडारी on December 16, 2013 at 5:30pm — 28 Comments
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