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गंगादशहरा पर कुछ दोहे

...............

गंगा जी ने जिस दिवस, धरे धरा पर पाँव

माने गंगा दशहरा, मिलकर पूरा गाँव।१।

**

विष्णुपाद से जो निकल, बैठी शंकर भाल

प्रकट रूप में फिर चली, गोमुख से बंगाल।२।

**

करती मोक्ष प्रदान है, भवसागर से तार

भागीरथ तप से हुआ, हम सबका उद्धार।३।

**

गोमुख गंगा धाम है, चार धाम में एक

जिसके दर्शन से मिटें, मन के पाप अनेक।४।

**

अमृत जिसका नीर है, जीवन का आधार

अंत समय जो ये मिले, खुले स्वर्ग का द्वार।५।

**

अद्भुत गंगाजल कभी, पड़ें…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2020 at 1:39pm — 4 Comments

उम्मीद क्या करना -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'( गजल)

१२२२/१२२२/१२२२/१२२२



रहेगा साथ सूरज यूँ  सदा  उम्मीद क्या करना

जलेगा साँझ होते ही दिया उम्मीद क्या करना।१।

**

जो बरसाता रहा कोड़े सदा निर्धन की किस्मत पर

करेगा आज  थोड़ी  सी  दया  उम्मीद  क्या करना।२।

**

बनाये  दूरियाँ  ही  था सभी  से  गाँव  में  भी  जो 

नगर में उससे मिलने की भला उम्मीद क्या करना।३।

**

चला करती है उसकी जब इसी से खूब रोटी सच

वो देगा छोड़ छलने की…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2020 at 5:00am — 4 Comments

दर्द

दिल मेरा यह हाल देख घबराता है

शहर का अब मजदूरों से क्या नाता है।

खून पसीने से अपने था सींचा जिसको

बुरे दौर में दामन शहर छुड़ाता है।

आया संकट कोरोना का देश में जबसे

सड़कों पर लाचार मनुज दिख जाता है।

जिसने चमकाया शहरों को हो लथपथ

आज वही शहरों से फेंका जाता है।

देख दर्द होता है दिल में अब अवनीश

दुनियां को रचता क्या एक विधाता है।

मेहनत करने वाला क्यूँ दर दर भटके

क्यूँ नेता साहब सेठ ऐंठ दिखलाता…

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Added by Awanish Dhar Dvivedi on May 31, 2020 at 10:34pm — 4 Comments

दिन दीन हो चला

एक मजदूर जननी एक मजबूत जननी



कितने आलसी हो चले हैं दिन

कितनी चुस्त हो चली हैं रातें

इधर खत्म से हो चले किस्से

उधर खत्म सी हो चली बातें

जानते थे दिन कि

अब क्यों हो चले है ऐसे

जानते थे दिन कि

कभी नहीं थे ऐसे ऐसे

सुनते थे कि दिन -दिन का फेर होता है

सुनते थे कि इंसाफ मे देर हो भी जाये

सुनते थे कि इंसाफ मे अंधेर नहीं होता है

पर दिन का एक नकाब…

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Added by amita tiwari on May 31, 2020 at 8:00pm — 2 Comments

"लोग"

लोग इससे ज्यादा

क्या करेंगे ...छीन लेंगे हॅसी

रोक लगा देंगे कहकहों पर,और

घोंट देंगें दम..

मुस्कुराहटों का।

लोग ,लगा देंगे प्रतिबंध

गति,लय और लोच पर।

कामनाओ के छतनार वृक्ष की

हर ड़ाली काट-छाॅट कर;बना देंगे बोनसाई, और

रोंप देंगे,

गमलों में ।

छीन लेंगे कलम,या फिर, काट देंगे अंगुलियां ।

क्रिया के पश्चात प्रतिक्रिया, एक

शाश्वत सत्य है; समय का पहिया

कभी तो घूमेगा प्रतिकूल, और

लौटाएगा मिट्टी को,उसकी सारी ऊव॔रा,… Continue

Added by Anvita on May 31, 2020 at 3:49pm — 10 Comments

बाल गजल(मैंने डिग्री हासिल की है..)

22 22 22 22

मैंने डिग्री हासिल की है
सब कहते हैं,नाक बची है।1

फेल अगर तुम हो जाओ, तो
लोग कहेंगे,नाक कटी है।2

गुस्से का इजहार हुआ तो,
यूं लगता है,नाक चढ़ी है।3

हो जाते जब लोग बड़े, सब
कहते,उनकी नाक बड़ी है।4

सर्दी - खांसी,नजला हो,तो
कहते,खुलकर नाक चली है।5

ऑक्सीजन से जीवन देती,
कहते,कितनी नाक भली है!6
'मौलिक व अप्रकाशित'

Added by Manan Kumar singh on May 31, 2020 at 10:58am — 5 Comments

ग़ज़ल ( ये नया द्रोहकाल है बाबा...)

(2122 1212 22/112)

शह्र में फ़िर बवाल है बाबा

ये नया द्रोहकाल है बाबा

एक तालाब अब नहीं दिखता

क्या यही नैनीताल है बाबा?

क्या इसे ही उरूज कहते हैं?

अस्ल में ये ज़वाल है बाबा

भूख हर रोज़ पूछ लेती है

रोटियों का सवाल है बाबा

आंख इतना बरस चुकी अब तो

आंसुओं का अकाल है बाबा

मैं अकेला ही लड़ पड़ा सबसे

देखकर वो निढाल है बाबा

क़ब्र के वास्ते जगह न रही

फावड़ा है…

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Added by सालिक गणवीर on May 31, 2020 at 8:00am — 18 Comments

करता रहा था जानवर रखवाली रातभर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२१/२१२१/१२२१/२१२

जिसके लिए स्वयं को यूँ पाषान कर गये

दो फूल उसके आपको भगवान कर गये।१।

**

कारण से कुछ के मस्जिदें बदनाम हो गयीं

मन्दिर को लोग कुछ यहाँ दूकान कर गये।२।

**

करता रहा था जानवर रखवाली रातभर

बरबाद दिन में खेत को इन्सान कर गये।३।

**

अपनी हुई न आज भी  पतवार कश्तियाँ

क्या  खूब  दोस्ती  यहाँ  तूफान  कर गये।४।

**

दिखते नहीं दधीचि से परमार्थी सन्त अब

मरकर भी अपनी देह जो यूँ दान कर गये।५।

**

माटी भी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 30, 2020 at 9:30am — 18 Comments

अहसास की ग़ज़ल -मनोज अहसास

2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2

अपने ही पापों से मन घबराता है

सीने में इक अपराधों का खाता है

लाचारी से कुछ भारी है मजबूरी

आँखों में ताकत है देख न पाता है

उसकी मजबूरी समझूँ या अपना दुख

गुलशन से सहरा में कोई आता है?

लाख कोशिशें कर के माना है हमनें

जो होना है आखिर वो हो जाता है

दिल मे कोई भीड़ सलामत है लेकिन

तेरा चेहरा साफ नहीं दिख पाता है

क्या जाने अफसाना है या सच कोई

आखिर में जो सच की जीत बताता है

ढलता है जब सूरज अपनी भी…

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Added by मनोज अहसास on May 29, 2020 at 12:35pm — 8 Comments

ग़ज़ल-आ गई फिर से मुसीबत मेरे सर पर कम्बख्त

बह्र-फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फैलुन

मुँह अँधेरे वो चला आया मेरे घर कमबख्त

आ गई फिर से मुसीबत मेरे सर पर कमबख्त

इस समय खौफजदा लगती है दुनिया सारी

सबके सीने में समाया हुआ है डर कमबख्त

चाहता हूँ मैं उड़ूँ नील गगन मे लेकिन

साथ देते ही नहीं अब मेरे ये पर कमबख्त

बन के तूफान चला आया शहर के अन्दर

कर गया कितनों को बरबाद समन्दर कमबख्त

लाख चाहूँ मैं उसे मुट्ठी में कर लूँ लेकिन

दो कदम दूर ही रहता है मुकद्दर कमबख्त

वो भी कहता है कि…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on May 29, 2020 at 8:30am — 2 Comments

टिड्डियाँ चीन नहीं जायेंगी

टिड्डियाँ   

चीन नहीं जायेंगी

वह आयेंगी 

तो सिर्फ भारत

क्योंकि वह जानती हैं

कि चीन में

बौद्ध धर्म आडंबर में है

और भारत में

आचरण है, संस्कार है

यहाँ अहिंसा  

परम धर्म है

यहाँ आजादी है  

अभिव्यक्ति की

भ्रमण की, निवास की

व्यवसाय की. समुदाय की

जो चीन में नहीं है

वे जानती हैं

चीन यदि जायेंगी

तो बच नहीं पाएंगी 

आहार पाने की कोशिश में

आहार बन…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 28, 2020 at 4:59pm — 4 Comments

भूख तक तो ठीक था - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२१२२/२१२२/२१२२/२१२



जिन्दगी की डाँट खाकर भी सँभल पाये न हम

चाह कर भी यूँ  पुराना  पथ  बदल पाये न हम।१।

**

एक संकट क्या उठा के साथ छूटा सबका ही

हाथ था सबने बढ़ाया किन्तु चल पाये न हम।२।

**

फर्क था इस जिन्दगी को जीने के अन्दाज में

आप सा छोटी खुशी पर यूँ उछल पाये न हम।३।

**

भूख तक तो ठीक था मुँह फेरकर सब चल दिये

लुट रही इन इज्जतों  पर क्यों उबल पाये न हम।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 28, 2020 at 6:55am — 6 Comments

बचपने की उम्र है

खेल लेने दो इन्हे यह बचपने की उम्र है

गेंद लेकर हाथ में जा दृष्टि गोटी पर टिकी

लक्ष्य का संधान कर ,  एकाग्रता की उम्र है

खेल.....

गोल घेरे को बना हैं धरा पर बैठे हुए

हाथ में कोड़ा लिए इक,सधे पग धरते हुए

इन्द्रियाँ मन में समाहित, साधना की उम्र है

खेल.....

टोलियों में जो परस्पर आमने और सामने

ज्यों लगे सीमा के रक्षक शस्त्र को हैं तानने

व्यूह रचना कर समर को जीतने की उम्र है

खेल.....

मौलिक…

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Added by Usha Awasthi on May 27, 2020 at 7:59pm — 6 Comments

गजल( कैसी आज करोना आई)

22 22 22 22

कैसी आज करोना आई

करते है सब राम दुहाई।

आना जाना बंद हुआ है,

हम घर में रहते बतिआई!

दाढ़ी मूंछ बना लेते हैं

सिर के बाल करें अगुआई।

बंद पड़े सैलून यहां के

रोता फिरता अकलू नाई।

डर के मारे दुबके हैं सब

नाई कहता, 'आओ भाई!

मास्क लगाकर मैं रहता हूं

तुम क्योंकर जाते खिसियाई?

मुंह ढको,फिर आ जाओ जी,

घर जाओ तुम बाल कटाई।

एक दिवस की बात नहीं यह

आगे बढ़ती और लड़ाई।

झाड़ू पोंछा,बर्तन बासन,

अपना कर,अपनी…

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Added by Manan Kumar singh on May 27, 2020 at 1:15pm — 7 Comments

वो सुहाने दिन

कभी लड़ाई कभी खिचाई, कभी हँसी ठिठोली थी

कभी पढ़ाई कभी पिटाई, बच्चों की ये टोली थी

एक स्थान है जहाँ सभी हम, पढ़ने लिखने आते थे

बड़े प्यार से गुरु हमारे, हम सबको यहाँ पढ़ाते थे

कोई रटे है " क ख ग घ", कोई अंग्रेजी के बोल कहे

पढ़े पहाड़ा कोई यहां पर, कोई गुरु की डाँट सहे 

एक यहां पर बहुत तेज़ था, दूजा बिलकुल ढीला था

एक ने पाठ याद कर लिया, दूजे का चेहरा पीला था

 

कमीज़ तंग थी यहाँ किसी की, पतलून किसी की ढीली…

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Added by AMAN SINHA on May 27, 2020 at 8:06am — 3 Comments

हल हँसिया खुरपा जुआ (कुंडलिया)

हल हँसिया खुरपा जुआ, कन्नी और कुदाल।
झाड़ू   गेंती  फावड़ा,  समझ  रहे   हैं  चाल।
समझ  रहे   हैं चाल, मगर सबके सब बेबस।
जब भी जिसको चुना, स्वप्न दिखलाए हैं बस।
युगों-युगों से भूख, गरीबी से हैं बेकल।
कन्नी और कुदाल, जुआ खुरपा हँसिया हल।
रणवीर सिंह 'अनुपम'
"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by रणवीर सिंह 'अनुपम' on May 26, 2020 at 10:37pm — 4 Comments

उफ़ ! क्या किया ये तुम ने ।

उफ़ ! क्या किया ये तुम ने, वफ़ा को भुला दिया,  

उस शख़्स ए बावफ़ा को, कहो क्या सिला दिया।

  

जो ले के जाँ, हथेली पे, हरदम रहा खड़ा, 

तुम ने उसी को, ज़ह्र का, प्याला पिला दिया।

अब क्या भला, किसी पे कोई, जाँ निसार दे, 

जब अपने ख़ूँ ने, ख़ून का, रिश्ता भुला दिया।

गुलशन की जिस ने तेरे, सदा देखभाल की,

उस बाग़बां का तू ने, नशेमन जला दिया।

गर वो मिलेंगे हम से, कभी पूछ लेंगे हम, 

क्यूँ ख़ाक़ में हमारा,…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on May 26, 2020 at 12:08pm — 16 Comments

योग छंद

छंद विधान [20 मात्रा,12,8 पर यति,अंत 122 से]

मन में हो शंका तो, खून जलाए।

ऐसे  में  रातों को, नींद  न  आए।।

बात अगर मन में जो, रखी दबाए।

अंदर ही अंदर वह, घुन सा खाए।। (1).

बुद्धि नष्ट क्रोधी की, क्रोध   कराए।

क्रोधी ही  अपनों से, बैर    बढ़ाए।।

बात सही क्रोधी को,समझ न आए।

गर्त में पतन के भी, क्रोध   गिराए।। (2).

ईर्ष्या से मानव की, बुद्धि नसाए।

ईर्ष्या ही मन में भी, क्रोध बढ़ाए।।

ईर्ष्या …

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Added by Hariom Shrivastava on May 25, 2020 at 8:00pm — 3 Comments

ग़़ज़़ल- फोकट में एक रोज की छुट्टी चली गई

बह्र - मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन

221 2121 1221 212

अन्धों के गांव में भी कई बार ख्वामखाह

करती है रोज रोज वो ऋंगार ख्वामखाह

रिश्ता नहीं है कोई भी उससे तो दूर तक

मुजरिम का बन गया है तरफदार ख्वामखाह

फोकट में एक रोज की छुट्टी चली गई

इतवार को ही पड़ गया त्यौहार ख्वामखाह

नाटक में चाहते थे मिले राम ही का रोल

रावण का मत्थे मढ़ गया किरदार ख्वामखाह

ये बुद्ध की कबीर की चिश्ती की है जमीन

फिर आप भाँजते हैं क्यूँ तलवार ख्वामखाह

खबरे बढ़ा चढ़ा…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on May 25, 2020 at 5:07pm — 16 Comments

'तुरंत' के दोहे ईद पर (१०६ )

अपने जीवन काल में , देखी पहली ईद |

मोबाइल में कर रहा , मैं अपनों की दीद ||

बिन आमद के घट गयी , ईदी की तादाद |

फीका बच्चों को लगे , सेवइयों का स्वाद ||

कहे मौलवी ईद है , कैसी बिना नमाज़ |

रब रूठा तो क्या करें, कौन सुने आवाज़ ||

ख़ूब मचलती आस्तीं , हमकिनार हों यार |

लेकिन सब दूरी रखें , कोविड करे गुहार ||

ग्राहक का टोटा हुआ ,सूने हैं बाज़ार |

घर में सारे बंद हैं , ठंडा है व्यापार ||

चन्द जगह पर विश्व में , जबरन हुई नमाज़ |

जिए…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 25, 2020 at 2:30pm — 10 Comments

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"आदरणीय रामबली जी बहुत ही उत्तम और सार्थक कुंडलिया का सृजन हुआ है ।हार्दिक बधाई सर"
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" जी ! सही कहा है आपने. सादर प्रणाम. "
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"आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति स्नेह और मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत…"
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"अवश्य, आदरणीय अशोक भाई साहब।  31 वर्णों की व्यवस्था और पदांत का लघु-गुरू होना मनहरण की…"
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"आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, आपने रचना संशोधित कर पुनः पोस्ट की है, किन्तु आपने घनाक्षरी की…"
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"मनहरण घनाक्षरी   नन्हें-नन्हें बच्चों के न हाथों में किताब और, पीठ पर शाला वाले, झोले का न भार…"
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