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मगर, तुम न आए ....

मगर, तुम न आए ....

मैं ठहरी रही

एक मोड़ पर

अपने मौसम के इंतज़ार में

तड़पती आरज़ूओं के साथ

भीगती हुई बरसात में

मगर

तुम न आए

गिरती रही

मेरी ज़ुल्फ़ों पर रुकी हुई

बरसात की बूँदें

मेरे ही जलते बदन पर

थरथराती रही मेरे लबों पर

शबनमी सी इक बूँद

तुम्हारे स्पर्श के इंतज़ार में

मगर

तुम न आए

अब्र के पैरहन से

ढक गया आसमान

साँझ की सुर्खी से

रंग गया आसमान

आँखों में लेटी रही

ह्या

अपने…

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Added by Sushil Sarna on June 23, 2020 at 9:19pm — 2 Comments

अहसास की ग़ज़ल: मनोज अहसास

2122  2122  2122  212

आदमी को आदमी से डर के बचता देखकर

अपना चेहरा ढक रहे हैं शहर ठहरा देखकर

ढूंढ कर ला दे कोई मुझको मेरे वो आइने

जिनमें तुझको देखता था अपना चेहरा देखकर

इससे बेहतर ज़िन्दगी का और क्या मकसद रहे

आदमी ज़िंदा रहे दुनिया को हँसता देखकर

हाथ को छूकर निकल जाता है मेरे हाथ से

मेरा मन घबरा गया है बहता दरिया देखकर

आपकी बातों पे मुझको अब यकीं बिल्कुल नहीं

आग को झुठला रहे हैं घर भी जलता…

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Added by मनोज अहसास on June 23, 2020 at 11:32am — 4 Comments

खो बैठे जब होश

बड़े-बड़े देखे यहाँ

कुटिल , सोच में खोट

मर्यादा की आड़ ले

दें दूजों को चोट

ऐसे भी देखे यहाँ 

सुन्दर, सरल , स्वभाव

यदि सन्मुख हों तो बहे

सरस प्रेम रस भाव

कलियुग इसको ही कहें

चाटुकारिता भाय

तज कर अमृत का कलश

विष-घट रहा सुहाय

गिनें , गिनाएँ , फिर गिनें

नित्य पराए दोष

एक न अपने में दिखे

खो बैठे जब होश

मौलिक एवं अप्रकाशित

 

Added by Usha Awasthi on June 23, 2020 at 1:00am — 6 Comments

एकाकी चांद

ऑख की,ड़िबिया में,
बंद,
सपने हैं,
मौसम की खुनक,
सांसो के रास्ते,
अब,नहीं उतरती,
मन की,
सीढ़ियाँ ....
हालाँकि,
उदासी के दियों में,
भरपूर है तेल,
और कामना की बातियाॅ ....
रात भर
जलती है ।
होड़ लेती हैं, स्मृतियाँ...तारों से !
चांदनी के इद॔-गिद॔,
मृत सपनों का,
वलय है, एकाकी चांद के आंसू ...
रात भर टपकते हैं,
सुबह,पत्तों पर,
धोखा होता है,
ओस का।

अन्विता ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Anvita on June 22, 2020 at 9:58pm — 4 Comments

बाप (लघुकथा) -(पितृ दिवस के उपलक्ष में)

सुलेखा दौड़ती हांफ़ती घर में घुसी।

"क्या हुआ बिटिया? क्यों ऐसे हांफ़ रही हो?"

"कुछ नहीं पापा। एक कुत्ता पीछे लग गया था।"

"तो इसमें इतने परेशान होने की क्या बात है? तुम तो मेरी बहादुर बेटी हो।"

"पापा आप नहीं समझोगे।ये दो पैर वाले कुत्ते बहुत गंदी फ़ितरत वाले होते हैं।"

"दो पैर वाले कुत्ते? तुम ये क्या ऊल जलूल बोल रही हो।"

तभी सुलेखा का भाई सूरज हाथ में हॉकी लेकर बाहर की ओर लपका,"अरे बेटा सूरज इतनी रात को यह हॉकी लेकर.......?"

"पापा मैं उस कुत्ते को…

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Added by TEJ VEER SINGH on June 22, 2020 at 8:00pm — 4 Comments

दर्द का रिश्ता- लघुकथा

बहुत चहल पहल थी आज, अमूमन सप्ताहांत में थोड़ी भीड़ होती है लेकिन ऐसी भीड़ साल में दो ही दिन देखने को मिलती है, एक आज के दिन और एक मदर्स डे पर. शर्माजी एक कुर्सी पर बैठे हुए कुछ हमउम्र बुजुर्गों को देखते हुए सोच रहे थे, कुछ के चेहरे पर ख़ुशी, कुछ पर उम्मीद तो कुछ चेहरे निराश भी थे. कुछ लोग बाहर भी गए थे, उनके बच्चे ले गए थे आज के दिन को यादगार बनाने के लिए. अब बिना सेल्फी या साथ फोटो लिए भला कैसे सोशल मीडिया पर फादर्स डे मनता।

एक कार बाहर रुकी, मल्होत्रा जी उससे बाहर निकले और खड़े हो गए.…

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Added by विनय कुमार on June 22, 2020 at 7:18pm — 4 Comments

जय गणतंत्र, जय संविधान

देश पर मुझको है अभिमान

जय गणतंत्र जय संविधान

धर्म निरपेक्ष है देश हमारा

सुंदर प्यारा देश महान || 

हर संस्कृति को करता स्वीकार

अमन चैन में है विश्वास 

धर्म-जाति का भेद नहीं

अधिकार दिलाता सबको समान ||

शत्रु को भी मित्र समझता

सबका करता है कल्याण

शरणार्थियों को शरण दिलाता

सबसे बड़ा हिन्द संविधान ||

नर-नारी सब एक समान

हर क्षेत्र में उनका योगदान

सारी दुनियाँ में…

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Added by PHOOL SINGH on June 22, 2020 at 2:00pm — 1 Comment

नया पकवान / लघुकथा / चंद्रेश कुमार छतलानी

एक महान राजा के राज्य में एक भिखारीनुमा आदमी सड़क पर मरा पाया गया। बात राजा तक पहुंची तो उसने इस घटना को बहुत गम्भीर मानते हुए पूरी जांच कराए जाने का हुक्म दिया।

सबसे बड़े मंत्री की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई जिसने गहन जांच कर अपनी रिपोर्ट पेश की। राजा ने उस लंबी-चौड़ी रिपोर्ट को देखा और आंखें छोटी कर संजीदा स्वर में कहा, "एक लाइन में बताओ कि वह क्यों मरा?"

सबसे बड़े मंत्री ने अत्यंत विनम्र शब्दों में उत्तर दिया, "हुज़ूर, क्योंकि वह भूखा था।"

सुनते ही राजा की आंखें चौड़ी…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on June 22, 2020 at 12:30pm — 5 Comments

पितृ दिवस पर चंद दोहे :

पितृ दिवस पर चंद दोहे :

छाया बन कर धूप में,आता जिसका हाथ।

कठिन समय में वो पिता,सदा निभाता साथ।।1

बरगद है तो छाँव है, वरना तपती धूप।

पिताहीन जीवन लगे, जैसे गहरा कूप ।।2

घोड़ा बन कर पुत्र का, खेलें उसके साथ।

मेरे पापा ईश से, बढ़कर मेरे नाथ।।3

प्राणों से प्यारी लगे, पापा को संतान।

जीवन के हर मर्म का, दे वो सच्चा ज्ञान।।4

पिता सारथी पुत्र के, बनते सदा सहाय।

हर मुश्किल का वो करें , तुरंत उचित…

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Added by Sushil Sarna on June 21, 2020 at 10:31pm — 3 Comments

अहसास की ग़ज़ल :मनोज अहसास

22  22  22  22  22  22

ज्यादा चिंता से भी आखिर क्या होता है

जो सोचा,अक्सर उसका उल्टा होता है

कह देने से दर्द कहाँ हल्का होता है

कमजोरी का लोगों में चर्चा होता है

शाम ढले तो सब चीज़े धुंधली लगती हैं

सूरज फिर भी अगले दिन उजला होता है

जीवन का चक्कर चलता रहता है यों ही

हरियाली के बाद खेत सूखा होता है

कोई कहता रहता है मन की सब बातें

और किसी का दर्द सदा गूंगा होता है

पीड़ा के लम्हों में…

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Added by मनोज अहसास on June 21, 2020 at 3:36pm — 5 Comments

अहसास की ग़ज़ल :मनोज अहसास

22  22  22  22

रोज नए ढंग की उलझन है

सुलझाने का पूरा मन है

सबपे भारी बीसवाँ सन है

बच जाने का रोज जतन है

मेरे गीतों में ग़ज़लों में

तेरी यादों की कतरन है

मानव की ताकत की हक़ीक़त

गलियों का ये सूनापन है

सालों पहली कुछ बातों से

अब तक सीने में तड़पन है

मुझको जो उनसे कहना है

उनकी नज़र में पागलपन है

असली चेहरा ढक रक्खा है

सब चीजों पे रंग रोगन है

इन मिसरों के…

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Added by मनोज अहसास on June 21, 2020 at 3:33pm — 2 Comments

रानी अवंतीबाई लोधी

भारत वर्ष की भूमि महापुरुषों की ही नहीं बल्कि देवी रूप में देश के लिए बलिदान, त्याग और अपनी जान को न्यौछावर करने वाली नारियों से भी भरी पड़ी है| जिन्होने अपनी हर हद से उठ कर अपने देश की रक्षा के लिए मान मर्यादा को ध्यान में रखते हुए सब कुछ कर गुजरने के साहस की मिशाल पेश की | कुछ इतिहासकारों के अनुसार रानी अवंतीबाई लोधी भारत की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली महिला के रूप में जाना है। जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में रामगढ़ के रेवांचल प्रदेश में हुए मुक्ति आंदोलन की मुख्य सूत्रधार और…

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Added by PHOOL SINGH on June 21, 2020 at 3:30pm — 2 Comments

मेरे पिता (लेख)

मेरे पिता

पिता शब्द स्वयं अपने आप में बजनदार होता हैं। हाथ की दसों उंगलियों की तरह हर पिता का व्यक्तित्व अलग होता हैं। पिता को परिभाषित किया जा सकता हैं, उपमानों से अलंकारित किया जा सकता हैं पर रेखांकित नही किया जा सकता।बस,उम्मीद की जा सकती हैं कि हमारे पिता बहुत अच्छे हैं, बस थोड़े-से ऐसे और होते। सभी बच्चों के पिता उनके हीरो होते हैं। ऐसे ही मेरे पिता मेरे किसी सुपरमेन से कम नहीं हैं, हरफनमौला हैं। बचपन से मैंने उनका सख्त चेहरा,कठोर अनुशासनबद्ध,जुझारूपन देखा हैं। मितभाषी हम सब के…

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Added by babitagupta on June 21, 2020 at 3:03pm — 1 Comment

पिछलग्गू परिंदे

जासूसी उपन्यास पढ़ चुके एक मित्र से दूसरे मित्र ने उसकी कहानी का आशय पूछा।पहले ने जवाब में कहा,'

भरोसा, चोट......।'

' मतलब?' दूसरी तरफ से सवाल हुआ।

' परी कथा समझते हो न?'

' बिलकुल।'

' बस वैसा ही समझ लो।खेतों से पेट पालनेवाले चिड़ों के इलाके में एक सफेद चिड़ी उतरी। धूप में झुलसे उन बाशिंदों में वह गोरी थी, परी समझ ली गई।सुनहरी होने के चलते उसे सोनी नाम मिला। परिंदों का सरदार चिड़ा उसपर फिदा हुआ।दोनों का चोंच - बंधन हो गया। एक दिन ऊंची उड़ान भरते वक्त चिड़ा काल कवलित हो…

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Added by Manan Kumar singh on June 21, 2020 at 12:52pm — 2 Comments

सैनिकों का शौर्य बल

तोड़ कर अनुबन्ध अरि ने

देश पर डाली नज़र

उठा कर अब शस्त्र अपने

भून दो उसका जिगर

छल ,फरेब, असत्य ,धोखे का

करे अभिमान , खल

वह भी अब देखे हमारे

सैनिकों का शौर्य बल

शान्ति,सहआस्तित्व हो, स्थिर

बढ़े जग में अमन

वास्ते इस , धैर्य को समझा

कि हम कायर वतन

जो परायी सम्पदा को

हड़पने , रहता विकल

रौंद दो अहमन्यता 

षड़यन्त्र हो उसका विफल

शत्रु को है दण्ड देने…

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Added by Usha Awasthi on June 21, 2020 at 7:00am — 4 Comments

ऊँचाई ....

ऊँचाई ....
 
कितना
बौना हो जाता है
इंसान
अपने ही में…
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Added by Sushil Sarna on June 20, 2020 at 9:00pm — 2 Comments

मीर तक काश कभी दर्द का मंज़र पहुँचे (११२ )

ग़ज़ल (2122 1122 1122 22 /112 )

.

मीर तक काश कभी दर्द का मंज़र पहुँचे

और मज़मून-ए-शिकायत की झलक भर पहुँचे

**

आज किस हाल में है देख रिआया रहती

ग़म ज़रा उसका किसी दिल के तो अंदर पहुँचे

**

सिर्फ़ बातें ही किया करते गुहर लाने हैं

क्या कभी आप तह-ए-आब-ए-समंदर पहुँचे

**

जो घरों में हैं दुआ है कि सभी शाद रहें

और बिछड़ा है जो भटका है जो वो घर…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 20, 2020 at 12:30am — 4 Comments

दिवस(लघुकथा)

तरह तरह के दिवस मनाए जाते। कोई दिन पर्यावरण का होता,तो कोई बाल दिवस आदि आदि।शोर होते,जश्न भी। और दिवस चाहे जैसे भी लगे हों,पर बाल दिवस की चर्चा सुन कुछ शब्द कसमसाए।मुखर होने लगे।ध्वनि फूटी -

' हम कहने के माध्यम हैं।'

' हम तुम्हारे माध्यम हैं।' दूसरी आवाजें आने लगीं।

शब्द जैसे चरमराने लगे। टूटन का अहसास हुआ।वे कराह ते हुए बोले -

' तुम लोग कौन हो?'

' खूब,बहुत खूब!अपने निर्माताओं को ही बिसरा बैठे तुमलोग।' ताना भरी आवाजें गूंजने लगीं।

' निर्माता?हमारे ?' शब्द चौंके।

'…

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Added by Manan Kumar singh on June 19, 2020 at 9:37pm — 3 Comments

"स्मृतियाँ "

दुःखते हुए पांव हैं बाकी,
रिसते हुए घाव हैं बाकी,
आशाएँ जो छोड़ गईं,
उजड़े हुए गाँव हैं बाकी।
गीत अधर पर ठहरे-ठहरे
अश्रु पर पलकों के पहरे,
सहमे- सहमे सच पर हावी,
झूठ के निम॔म दांव हैं बाकी ।
सतरंगी सपनों के ड़र से,
लहरों से समझौते करते,
ठीक किनारे उलट गई जो,
स्मृतियों की नाव है बाकी...।

अन्विता ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Anvita on June 18, 2020 at 9:49pm — 6 Comments

प्रेम पर कुछ क्षणिकाएँ :

प्रेम पर कुछ क्षणिकाएँ :

प्रेम

ह्रदय में इस तरह

ज्यूँ नीर में

नीर तरंग

................

प्रेम

अवचेतन मन की

पराकाष्ठा

......................

प्रेम

अर्पण

समर्पण

..................

प्रेम

अबोले भावों का

मूक प्रदर्शन

...................

प्रेम

एक पावन

प्रतिकर्ष

मिलन का

.........................

प्रेम

एक…

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Added by Sushil Sarna on June 18, 2020 at 9:21pm — 4 Comments

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