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ईमानदारी (लघु कथा)

एक ही क्लास में पढ़े हुएI साथ साथ रहते बड़े हुएI मेरे दोस्त ने बेईमानी का रास्ता चुना और नजदीक के शहर में रहते हुए राजनेता बना और में ईमानदारी से गरीबी से लड़ते हुए टीचर बनाI लेकिन दोस्त की अच्छी बात ये रही की वो आज भी मुझसे बातें करता हैI और हर संभव मदद भी करता हैI और अपने शहर में आने का न्योता भी देता हैI आज उन से मिलने का प्लान बना लियाI बजाज का स्कूटर को बीस पच्चीस किक मारकर गर्म किया और अपनी भाग्यवान से धक्का मरवा कर चालू कियाI जैसे ही दोस्त के शहर पंहुचाI एक चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस ने…

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Added by harikishan ojha on October 18, 2016 at 10:43am — 2 Comments

पहल (लघुकथा)

निशा अपने सात साल के बेटे के साथ दिवाली की खरीदारी करके घर वापिस आ रही थी। रस्ते में कुछ बच्चे पटाखे जला रहे थे। सारे वातावरण में बारूद की गंध और धुँआ फैला हुआ था। अचानक उसके बेटे को तेज खाँसी शुरू हो गई और इतनी बढ़ गई कि वह बेहोश हो गया। लोगों ने मदद करके उनको जल्दी से हस्पताल पहुँचाया। थोड़ी देर बाद वह सामान्‍य हो गया।

"डॉक्टर साहब, मेरे बेटे को क्या हुआ था? चिंता की बात तो नहीं है ना?"- निशा ने घबराते हुए पूछा।

"हाँ, यह अब ठीक है, लेकिन चिंता की बात तो है। इसे साँस…

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Added by विनोद खनगवाल on October 18, 2016 at 10:43am — 3 Comments

शत्रु ना छू पाय सीमा दोस्तों (ग़ज़ल)

२१२२ २१२२ २१२

शत्रु ना छू पाय सीमा दोस्तों
सावधानी का ज़माना दोस्तों |
वीर हो बलवान हो तुम पासबाँ
हो बुलंदी पर तिरंगा दोस्तों |
शूरवीरों पर ही आश्रित भारती
शिर न झुकने पाय इसका दोस्तों |
माज़रा सरहद पे उलझा है बहुत
साथ मिलकर ठान लेना दोस्तों |
प्राण से प्यारा हमें कश्मीर है
हाथ से जाने न देना दोस्तों |

मौलिक /अप्रकाशित

Added by Kalipad Prasad Mandal on October 18, 2016 at 10:30am — 8 Comments

जिन्दगी है जो सफर राह पे चलते रहिये

तरही गजल

बह्र* - 2122 1122 1122 22



जिन्दगी है जो सफर राह पे चलते रहिये,

वक्त के साथ भी अंदाज बदलते रहिये।



माँ पिता और हैं उस्ताद धरा पर जिनकी

नेह और ज्ञान की छाया में ही पलते रहिये।।



रिश्ते होते है सदा चाक की मिट्टी जैसे

आप चाहेंगे उसी रूप में ढलते रहिये।।



शह्र है एक अमन का, वो बनारस मेरा

प्यार सुख चैन जिधर चाहे निकलते रहिये।।



परवरिश में तो है अत्फ़ाल पे सख़्ती लाज़िम,

आँख में देख के आंसू न पिघलते… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 18, 2016 at 4:46am — 2 Comments

अनबोले लम्स ....

अनबोले लम्स ....

आज मेरे

दिल के आईने में

मुझे

तुम नज़र आये थे

तन्हाई थी

मैं थी

और

तुम थे

अपने लम्स के साथ

मेरे ज़िस्म पर

बे-आवाज़

हौले हौले

रेंगते हुए

मेरी

हर

न को

तुम कुचलते रहे

खामोशियाँ

सरगोशियां करती रहीं

लौ भी

कहीं तारीक में

खो गयी

बस

शेष रही

मैं

और

मेरे ज़िस्म के

हर मोड़ पर

तुम्हारे…

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Added by Sushil Sarna on October 17, 2016 at 7:51pm — 2 Comments

ज़लज़ला /सुरेश कुमार ' कल्याण '

छब्बीस जनवरी

दो हजार एक

भारत का

बावनवां गणतंत्र दिवस

खुशियां थी अपार

सारी खुशियाँ

एक झटके से

बह गई ।



दिन चढ़ते ही

शुरू हुआ

विनाश का तांडव

अटारियाँ सारी

एक झटके से ढह गई ।



लील गया

हजारों जिंदगियां

लाखों घर

हुए नेस्तनाबूत।



गुजरात प्रांत

इक्कीस जिले

जलजले से

सारे हिले।

लाखों लोग

बेघर हो गए।



गांव के गांव

शहर के शहर

मिट्टी में मिल गए

जमींदोज हो… Continue

Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 17, 2016 at 7:46pm — 4 Comments

जनाज़ा(लघुकथा)राहिला

"सर!ये भागवती हत्याकांड के कई पहलू सामने आ रहे है।"

"जैसे कि?"फिर कुछ सोचकर 

"ये वही सरकारी स्वास्थ्य कर्मचारी वाली घटना की बात कर रहे हो?जिसकी उसी के कार्यालय में गांव के किसी दबंग ने कुल्हाड़ी मारकर हत्या कर दी है।"

हाँ ,हाँ..!वही।दरअसल जितने मुंह उतनी बातें है सर! छोटा सा गांव है जहाँ मृतका पदस्थ थी।कुछ का कहना ये है, कि उच्च जाति का होने के कारण हत्यारे को  दलित महिला का अपनी बराबरी से बैठना नहीं सुहाता था ।"

"तो क्या वो भी कर्मचारी था? "

"जी,और मृतका के…

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Added by Rahila on October 17, 2016 at 4:00pm — 7 Comments

एक ग़ज़ल की कोशिश : मेरी तालीम का मुझ पर असर है !

मेरी तालीम का मुझ पर असर है,

जो तेरे सामने झुकती नज़र है ।



बिना गलती के माँगूं मैं मुआफ़ी,

यही रिश्ते निभाने का हुनर है ।

के जब इंसान पत्थर भी जो मारे,

उसे बदले में फल देता शज़र है ।

हर इक चेहरे पे नक़ली मुस्कुराहट,

बड़े फनकार लोगों का शहर है ।

अमीरी में भी कितने ग़म है तुमको,

किसी की बददुआओं का कहर हैं ।…

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Added by Ambesh Tiwari on October 17, 2016 at 4:00pm — 11 Comments

ग़ज़ल - हर मयकशी के बीच कई सिलसिले मिले

221 2121 1221 212



हर मयकशी के बीच कई सिलसिले मिले ।

देखा तो मयकदा में कई मयकदे मिले ।।



साकी शराब डाल के हँस कर के यूं कहा।

आ जाइए हुजूर मुकद्दर भले मिले ।।



कैसे कहूँ खुदा की इबादत नहीं वहां ।

रिन्दों के साथ में भी नए फ़लसफ़े मिले ।।



यह बात और है की उसे होश आ गया ।

वरना तमाम रात उसे मनचले मिले ।।



जिसको फ़कीर जान के लिल्लाह कर दिया ।

चर्चा उसी के घर में ख़ज़ाने दबे मिले ।।



मुझ से न पूछिए कि…

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Added by Naveen Mani Tripathi on October 17, 2016 at 3:00pm — 8 Comments

विजय पर्व का मूल

काम क्रोध तन में भरा, बढ़ा खूब व्यभिचार।

रावण अन्तस में लिए, घूम रहा संसार।।



काँटे ही ज्यादा यहाँ, और बहुत कम फूल।

सत्य अहिंसा प्रेम को, मनुज गया है भूल।।



राजनीति गंदी हुई, गुंडा करते राज

रामराज सपना हुआ, देख रहे हैं आज।।



साये में आतंक के, झूल रहा संसार।

नरता रही कराह है, गूँजे चीख पुकार।।



आज तिरस्कृत हो रही, नारी हर घर द्वार।

उरियानी के दौर में, फैला विषम विकार।।



सब्ज-बाग में फाँसकर, संसद पँहुचे चोर।

जाति धर्म… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 17, 2016 at 11:47am — 5 Comments


प्रधान संपादक
ग़ज़ल - आग यूँ ही नहीं लगी होगी

2122 1212 22/112

.

आह मज़लूम ने भरी होगी.

आग यूँ ही नहीं लगी होगीI



एक गोली कहीं चली होगी.

एक दुनिया उजड़ गई होगीI



शर्म से लाल हो गया पीपल,

बेल कोई लिपट गई होगीI



झूमकर नाचने लगी मीरा, 


शाम की बांसुरी बजी होगीI



जुगनुओं का हुजूम जब निकला,

चाँद की नींद…
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Added by योगराज प्रभाकर on October 17, 2016 at 11:24am — 25 Comments

समस्या - समाधान ( लघु-कथा ) -- डॉo विजय शंकर

राजा बहुत चिंतित था। चिंतायुक्त विचार विमर्श के लिए वह अपने राजपरिवार के गुरु जी के पास निर्जन वन में गया। कुशल क्षेम के बाद बोला , " गुरु जी , मेरे राज्य में बहुत से बाबा हो गए हैं , प्रजाजन भी उनके पास अक्सर जाते हैं , उनसे आशा करते हैं कि वे परलोक छोड़ इहि लोक में भी उनका कल्याण करेंगे ? क्या ये सही है , वे क्यों जाते हैं ? "
गुरु जी बोले , " क्योंकि तुम उनका अभीष्ट कल्याण नहीं करते हो ,तुम उनका कल्याण करो। फिर देखो।"

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on October 17, 2016 at 7:27am — 12 Comments

तरही ग़ज़ल-सतविन्द्र कुमार राणा

बह्र:122 122 122 122

----

नहीं कम हुई मेरी उलझन किसी से

कहाँ मिल सका हूँ अभी तक खुदी से।



है गुरबत ने ओढ़ा ख़ुशी का ये चोला

बहकती है दुनिया लबों की हँसी से।



मुहब्बत बसाती है उनसब घरों को

उजाड़ा किसी ने जिन्हें दुश्मनी से।



मुलाकात होती जरूरी कभी तो

मुहब्बत बढ़ेगी तभी बानगी से।



चढ़ा जा रहा हूँ मैं गुस्से में खुद पर

*उतारे कोई कैसे मुझको मुझी से*।



सितारा करम का चमक जाए ‘राणा’

तो मिट जाए गम सब तेरी जिंदगी… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 17, 2016 at 7:02am — 10 Comments

ग़ज़ल: मुहब्बत सभी से जताते नहीं हैं|

122  122 122 122

 

मुहब्बत सभी से जताते नहीं हैं|

मगर दोस्तों से छुपाते नहीं हैं|

 

हमें  तो पता है सबब आशिकी  का,

तभी दिल किसी से लगाते नहीं हैं ।

 

 बहुत चोट खाई है अपनों से अब तक

तभी जख्म  सबको दिखाते नहीं हैं|।

 

अमिट कुछ निशां पीठ पर दे गए वो,

नये दोस्त हम अब बनाते नहीं हैं|

 

कि दौरे मुसीबत में थामा जिन्होंने 

तो हर्गिज उन्हें  हम भुलाते नहीं हैं।

 

अगर हो न मुमकिन जो…

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Added by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on October 17, 2016 at 12:30am — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
‘जीत का सेहरा’ (लघु कथा ‘राज’)

 

युद्ध  थम चुका था जश्न भी मना चुके थे पनडुब्बी ,हवाई जहाज ,टैंक बहुत खुश दिखाई दे रहे थे  तीनों का सीना गर्व से फूला था| युद्ध  की घटनाओं का तीनों ही बढ़ चढ़ कर जिक्र कर रहे थे न जाने कहाँ से वार्तालाप में अचानक मोड़ आया कि एक के बाद एक तीनों ही अपनी अपनी सफलताओं का बखान करने लगे |

टैंक बोला- “सबसे आगे मैं था कुचल डाला सबको मेरा तो डीलडौल  और रौब देख कर ही दुश्मन की घिघ्घी बंध गई थी”|

 “अरे तुझे क्या पता तेरे ऊपर मैं दुश्मनों को कवर कर रहा था वरना मेरे सामने तेरी क्या…

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Added by rajesh kumari on October 16, 2016 at 6:00pm — 10 Comments

शक्ति छ्न्द/सतविन्द्र कुमार

122 122 122 12

----

किसी ने कभी यह सही है कही

किया पूर्व ने ही उजाला सही

सकल नूर को दूर पश्चिम करे

सभी क्यों उसी की नकल में मरे।

2

महकते सुमन कुछ इशारा करें

गई चाहतों को दुबारा भरें

खिली जो कली है पिया की गली

लगन प्रेम की यह लगाती भली।

3.

कुहू की सुने हम सुवाणी अगर

चलें काटते हर कठिन सी डगर

सभी ओर मीठा अगर शोर हो

कहीं कष्ट का फिर नहीं जोर हो

4.

घटा से घटा है सकल ताप ये

बना जा रहा था सुजल भाप ये

नहीं… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 16, 2016 at 4:59pm — 4 Comments

गजल- जो नेक दिल हो जमाना उसे सताता है

बह्र 1212 1122 1212 112/22



जो नेक दिल हो ज़माना उसे सताता है

मुसीबतों से मगर वो न बौखलाता है।



जवान हार से भी जीत खींच लाता है

जो हार मान ले मातम वही मनाता है।।



तुम्हारे साथ में गुज़रा हरेक पल जानम

हयात में वही रस्ता मुझे दिखाता है।।



वफा के नाम पे करता दगा अगर कोई

जहाँ में खुद का ही वह कब्र खोद जाता है।।



करम खुदा का हमें क्यों समझ नहीं आता

कभी हमे वो रुलाता कभी हँसाता है।।



फरेब दिल में हमेशा भरा हुआ… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 16, 2016 at 4:49pm — 5 Comments

दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है (ग़ज़ल)

बह्र : २१२२ १२१२ २२

 

दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है

वो यक़ीनन कोई फ़रिश्ता है

 

दूर गुणगान से मैं रहता हूँ

एक तो जह्र तिस पे मीठा है

 

मेरे मुँह में हज़ारों छाले हैं

सच बड़ा गर्म और तीखा है

 

देखिए बैल बन गये हैं हम

जाति रस्सी है धर्म खूँटा है

 

सब को उल्लू बना दे जो पल में

ये ज़माना मियाँ उसी का है

 

अब छुपाने से छुप न पायेगा

जख़्म दिल तक गया है, गहरा है

 

आज…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 16, 2016 at 1:00am — 10 Comments

तरही ग़ज़ल -- " तेरे बारे में जब सोचा नहीं था " ( दिनेश कुमार )

1222--1222--122



मेरे चेहरे पे जब चेहरा नहीं था

मैं उस आईने से डरता नहीं था



ग़मों से जब नहीं वाबस्तगी थी

मैं इतनी ज़ोर से हँसता नहीं था



नज़ाक़त... ताज़गी... कुछ बेवफ़ाई

किसी के हुस्न में क्या क्या नहीं था



नशेमन की उदासी बढ़ रही थी

परिन्दा शाम तक लौटा नहीं था



हवा से लड़ रहा था एक दीपक

अँधेरा चार सू फैला नहीं था



फ़िज़ा की शक़्ल में शय कौन सी थी

चमन में गुल कोई महका नहीं था



सभी रिश्तों पे हावी… Continue

Added by दिनेश कुमार on October 16, 2016 at 12:53am — 3 Comments

मैं वज़ीर, वे चोर और सिपाही (लघुकथा)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

भव्य ऐतिहासिक भवन। भवन में बस आग की ही लपटें। बाहर ऊपर की ओर उठता धुआँ ही धुआँ।

कराहते हुए भवन ने कहा- "अब मेरा मंत्री कौन?"



"मैं महाराज !" अपनी लपटों को लहराते हुए आग (वज़ीर) ने कहा।





"चोर और सिपाही का पता लगाओ!" भवन ने आदेश देते हुए कहा।



भवन के अंदर और बाहर चारों ओर फैलती आग ने ताप बढ़ाते हुए कहा- "चोर तो इस दुनिया के विकसित देश हैं, महाराज और सिपाही अंतर्राष्ट्रीय व्यापार है!"



"क्या मतलब?" दक्षिण एशिया रूपी महाराज भवन ने चौंकते हुए… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 15, 2016 at 11:50pm — 6 Comments

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