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एक एहसास (कविता )

एक एहसास
मीठा सा
इंतज़ार दे गया ।

प्यार का
विश्वाश का
तड़प का
अधिकार का ।


एक एहसास
प्यारा सा
प्यार जता गया

आँखों से आँखों का मिलना
आत्मा की पुकार
एक ख़्वाब जगा गया ।

प्यारा सा चेहरा
अपनी और खींचता है
ग्रीष्म में सावन
का एहसास
तुम्हारा प्यार दे गया ।

मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 10, 2016 at 7:51pm — 10 Comments

गजल(लूट का धंधा.....)

2122 2122 2122 212

लूट का धंधा करें जो वे सभी रहबर हुए

जिंस कुछ जिनकी नहीं है आज सौदागर हुए।1



आशियाने जल रहे सब हो रहे बेघर यहाँ,

अब परिंदे क्या उड़ेंगे लग रहा बेपर हुए।2



मिल रही बहकी हवा कातिल बवंडर से अभी,

खरखराते पात सब हर डाल पर अजगर हुए।3



घुल रहा कैसा जहर गमगीन लगती है फिजा,

शब्द वैसे ही धरे हैं अर्थमय आखर हुए।4



है वही अपना गगन भरता गया काला धुआँ,

पूछते पंछी विकल हालात क्यूँ बदतर हुए।5



पत्थरों को फाड़ कर… Continue

Added by Manan Kumar singh on October 10, 2016 at 7:30pm — 9 Comments

देवी दर्शन--

सब लोग तैयार हो रहे थे, पूरे घर में गहमागहमी मची हुई थी| बच्चों में भी बहुत उत्साह था, आज छुट्टी तो थी ही, साथ में दुर्गा पंडाल देखना और मेले का आनंद भी लेना था| रजनी ने भी अपनी चुनरी वाली साड़ी पहनी और शीशे के सामने खड़ी होकर अपने को निहारने लगी|

"माँ जल्दी चलो, पूजा को देर हो जाएगी", बेटे ने आवाज़ लगायी जो बाहर कार निकाल रहा था|

"आ रही हूँ, अरे अपने पापा को बोलो जल्दी निकलने के लिए", साड़ी सँभालते हुए रजनी कमरे से बाहर निकली|

"अच्छा किनारे वाला कमरा भी भिड़का देना, आने में तो देर…

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Added by विनय कुमार on October 10, 2016 at 3:23pm — 8 Comments

गजल - अनमोल पल थे हाथ से सारे फिसल गये

221 2121 1221 212*



अनमोल पल थे हाथ से सारे फिसल गये

अपनों ने मुंह को फेर लिया दिन बदल गये।।



कुछ ख्वाब छूटे कुछ हुए पूरे, हुआ सफर

यादो के साथ साल महीने निकल गये।।



शरमा के मुस्कुरा के जो उनकी नजर झुकी

मदहोश हुस्न ने किया बस दिल मचल गये।।



बचपन के मस्त दिन भी हुआ करते थे कभी

बस्तो के बोझ आज वो बचपन कुचल गये।।



ओढे लिबास सादगी का भ्रष्ट तंत्र में

नेता गरीब के भी निवाले निगल गये।।



करते है बेजुबान को वो क़त्ल…

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Added by नाथ सोनांचली on October 10, 2016 at 5:30am — 22 Comments

एक फीलब्दीह/सतविन्द्र कुमार राणा

बह्र:122 122 122 122
-----
नहीं ये किसी को बताया हुआ है
कि इस दिल में तुमको बसाया हुआ है।

रहा जो हमेशा से दुश्मन हमारा
उसे भी गले से लगाया हुआ है।

जमाने को लगने न देंगे खबर भी
खजाना वफ़ा का छुपाया हुआ है।

करम से रहा जो हमेशा ही जालिम
वही अब तो रब का सताया हुआ है।


मुहब्बत वतन से ही ए ‘राणा’ कमायी
तहे दिल से इसको कमाया हुआ है।


मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 9, 2016 at 10:00pm — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
जय-जय हिन्दुस्तान (दोहा गीत 'राज ')

दोहा गीत

आज़ादी की राह में ,शत शत वो बलिदान|

याद कहो कितना रहा ,बोलो हिन्दुस्तान||

 

सावरकर की यातना,देखी थी प्रत्यक्ष|

अंडमान की जेल में,काँपे पीपल वृक्ष||

संग्रामी आक्रोश में ,कितने बुझे चिराग|

कितनी टूटी चूड़ियाँ,कितने मिटे सुहाग||

 

कितनी दी कुर्बानियाँ,तब पाया सम्मान|

याद कहो कितना रहा ,बोलो हिन्दुस्तान||

 

रहे सदा जाँ बाज वो,हर सुख से महरूम|

झूल गये जो जान पर,उन फंदों को चूम||

नेहरू गाँधी…

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Added by rajesh kumari on October 9, 2016 at 8:44pm — 11 Comments

मिट्टी मेरे पीछे थी, है मिट्टी मेरे आगे (ग़ज़ल)

बह्र : २२११ २२११ २२११ २२

 

क्या क्या न करे देखिए पूँजी मेरे आगे

नाचे है मुई रोज़ ही नंगी मेरे आगे

 

डरती है कहीं वक़्त ज़ियादा न हो मेरा

भागे है सुई और भी ज़ल्दी मेरे आगे

 

सब रंग दिखाने लगा जो साफ था पहले

जैसे ही छुआ तेल ने पानी मेरे आगे

 

ख़ुद को भी बचाना है और उसको भी बचाना

हाथी मेरे पीछे है तो चींटी मेरे आगे

 

सदियों मैं चला तब ये परम सत्य मिला है

मिट्टी मेरे पीछे थी, है मिट्टी मेरे…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 9, 2016 at 6:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल-बन के' सूरज सा' जमाने में' निकलते रहिये-रामबली गुप्ता

वह्र-2122 1122 1122 22



बन के' सूरज सा' जमाने में' निकलते रहिये,

हर अँधेरे को' उजाले मे' बदलते रहिये।



जिंदगी एक सफर खुशियों' भरा हो साहिब!

हर कदम आप मेरे साथ जो' चलते रहिये।।



दिल के' मन्दिर में उजाले की' वज़ह आप सनम,

अब तो इस दिल मे' सदा ज्योति सा' जलते रहिये।



दिल की बगिया में बहारों के सुमन मुस्काएं,

इसमें गर रोज सनम आप टहलते रहिये।



मैं जो' हूँ साथ जमाने से' भला डर कैसा?

हो के मायूस न यूं शाम से ढलते… Continue

Added by रामबली गुप्ता on October 9, 2016 at 12:56pm — 10 Comments


प्रधान संपादक
दिल (लघुकथा)

घर का माहौल ग़मगीन था, डॉक्टर ने दोपहर को ही बता गया था कि माँ बस कुछ देर की ही की मेहमान हैI माँ की साँसें रह रह उखड रही थीं, धड़कन शिथिल पड़ती जा रही थी किन्तु फिर भी वह अप्रत्याशित तरीके से संयत दिखाई दे रही थीI ज़मीन पर बैठा पोता भगवत गीता पढ़ कर सुना रहा था, अश्रुपूरित नेत्र लिए बहू और बेटा माँ के पाँवों की तरफ बैठे सुबक रहे थेI

“तुम्हें कुछ नहीं होगा माँ जी, तुम अच्छी हो जाओगीI” सास के मुँह में गँगाजल डालते हुए बहू की रुलाई फूट पड़ीI…

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Added by योगराज प्रभाकर on October 9, 2016 at 10:00am — 25 Comments

ग़ज़ल -- ज़ख़्म हँसते हैं लब नहीं हँसते ( दिनेश कुमार 'दानिश' )

2122--1212--22



ज़ख़्म हँसते हैं लब नहीं हँसते

लोग यूँ बे-सबब नहीं हँसते



ख़ुद में ही खोये खोये रहते हैं

महफ़िलों में भी सब नहीं हँसते



दर्दो-ग़म ने हमें ये सिखलाया

कब नहीं रोते कब नहीं हँसते



इस हँसी के भी कुछ म'आनी हैं

मसखरे रोज़ो-शब नहीं हँसते



पुर-तकल्लुफ़ है मेरा लहजा अब

वो भी अब ज़ेरे-लब नहीं हँसते



कैसे कह दूँ बहार आई है

फूल बाग़ों में जब नहीं हँसते



हम हैं इल्मो-अदब के राहनुमा

हम कभी… Continue

Added by दिनेश कुमार on October 9, 2016 at 8:50am — 7 Comments

गज़ल - कनखियों से एक वादा फिर हुआ

2122  2122  212

कनखियों से एक वादा फिर हुआ

हाँ, मुहब्बत का तकाजा फिर हुआ

 

हम तो समझे थे बहारें आ गयीं  

मौत का सामान ताजा फिर हुआ

 

उल्फतें बढ़ती रहीं यह देखकर  

इश्क का दुश्मन ज़माना फिर हुआ

 

रास बर्बादी मेरी आयी उन्हें

बाद मुद्दत मुस्कराना फिर हुआ

 

लौट आयेंगे सुना था एक दिन

किन्तु जीते जी न आना फिर हुआ

 

रूह रुखसत हो वहां उनसे मिली

और मंजर आशिकाना फिर…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 8, 2016 at 6:30pm — 22 Comments

कठपुतले (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

हमेशा की तरह इस बार भी विजयादशमी मनाने के लिए बड़े से मैदान पर परम्परागत तरीके से बड़े परिश्रम और तन-मन-धन से व श्रद्धा भाव से बनाए गए तीन बड़े-बड़े से पुतले बड़े जन-समूह के बीच खड़े रामलीला प्रसंग के साथ ही अपने परम्परागत दहन की प्रतीक्षा में थे । मंच पर परम्परागत गतिविधियाँ चल रहीं थीं। मैदान में परम्परागत तरीके से लगभग हर धर्म-सम्प्रदाय के हर आयु वर्ग लोग परम्परागत क्रियाकलाप करते हुए परम्परागत रामलीला देखते हुए पुतलों के दहन की प्रतीक्षा में थे।



एक पुतले ने दूसरे से कहा- "मानव ने… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 8, 2016 at 4:10pm — 4 Comments

गुरु महिमा (दोहा छन्द)/सुरेश कुमार ' कल्याण '

धन दौलत के फेर में, फैल रहा अन्धेर।

गुरु मारग पै चालिये, ना भटकेगा फेर।1।



दया धर्म अरु ज्ञान बिन, मिथ्या है अभिमान।

गुरु बिन तीनों ना मिलैं,सम हैं गुरु भगवान ।2।



दया धर्म सब व्यर्थ हैं, व्यर्थ पड़ा सब ज्ञान।

शीश झुके गुरु चरण में, मिले सन्त सुजान।3।



गुरु की राह न त्यागिये, यही गुणों की खान।

गुरु को छाड़ैं ना मिलै, कहीं प्रेम आराम।4।



गुरु बिन गति हो ज्ञान की, जैसे धनु बिन बाण।

सच्चे गुरु की ओट में, पूरे हों… Continue

Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 8, 2016 at 4:00pm — 7 Comments

रावण दहन--

पूरे इलाके में हंगामा मचा हुआ था, अब तो पुलिस की गाड़ियां भी आ गयी थीं कि किसी अनहोनी को टाला जा सके| खैर, हुई तो बहुत अनहोनी बात ही थी इस दशहरा पर जिसे हजम कर पाना किसी के लिए सहज नहीं था|

हर साल की तरह इस बार भी रज्जन और उसका परिवार दशहरा के काफी दिन पहले से ही रावण का पुतला बनाने में जुट गया था, आखिर ये न सिर्फ उसका बल्कि उसके पुरखों का भी काम था| लेकिन इस बार वो हवा का रुख नहीं भांप पाया जो बदली हुई थी| और इसी वजह से उसने रामलीला समिति या गांव के सरपंच से पूछा भी नहीं| इधर गांव से…

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Added by विनय कुमार on October 8, 2016 at 3:05pm — 2 Comments

तेरे आने से मेरा घर जगमगाया

तेरे आने से मेरा घर जगमगाया

पूर्णिमा का चंद्र जैसे मुस्कुराया



स्वांग रचकर रचयिता सबको नचाये

इस जगत को मंच इक अद्भुत बनाया



लाज कपड़ो में छुपाती थी कभी वो

आज उरियानी का कैसा दौर आया



आपदा जिसने न झेली जिन्दगी में

हौसलों की भी परख वो कर न पाया



पूछता दिल कटघरे में खुद को पाकर

इश्क ही क्यों हर कदम पे लड़खड़ाया



ज़िन्दगी भी पूछती है क्या बताऊँ

क्या मिला है और क्या मैं छोड़ आया



खोजती है हर नजर बस एक…

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Added by नाथ सोनांचली on October 8, 2016 at 2:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल (अगर तुम सा मिले दुश्मन तो हसरत और हो जाती)

नहीं जो चाहते रिश्ते अदावत और हो जाती,

अमन की बात ना करते सियासत और हो जाती,



दिखाकर बुज़दिली पर तुम चुभोते पीठ में खंजर,

अगर तुम बाज़ आ जाते मोहब्बत और हो जाती।



घिनौनी हरकतें करना तुम्हारी तो सदा आदत,

बदल जाती अगर आदत तो फितरत और हो जाती।



जो दहशतगर्द हैं पाले यहाँ दहशत वो फैलाते,

इन्हें बस में जो तुम रखते शराफत और हो जाती।



नहीं कश्मीर तेरा था नहीं होगा कभी आगे,

न जाते पास 'हाकिम' के शिकायत और हो जाती।



नहीं औकात तेरी… Continue

Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on October 8, 2016 at 1:04pm — 5 Comments

सकल दुख तरल रूप में आज वर्षित---ग़ज़ल, पंकज मिश्र

122 122 122 122

घनीभूत पीड़ा मनस व्योम क्षोभित

सकल दुख तरल रूप में आज वर्षित



अभीप्सा सुमन पर है मूर्च्छन प्रभावी

है निर्जीव सा तन हृदय ताल बाधित



कहाँ चाँदनी से क्षितिज था चमकना

कहाँ दामिनी ने किया पूर्ण भस्मित



पुनः लेखनी आज मानी न आज्ञा

गजल में किया है तुम्हें फिर सुशोभित



सजल चक्षुओं में कहाँ नींद होगी

निशा एक फिर से हुई तुझको अर्पित



न उद्देश्य किंचित भी चर्चा का लेकिन

तेरे नाम का मन्त्र बांचे… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 8, 2016 at 10:30am — 14 Comments

गजल

( बेवजह भौंकनेवालों को संबोधित)

रमल मुरब्बा सालिम

2122 2122

***

देख ढ़ेर बवाल मत कर

दोहरी अब चाल मत कर।1



रंग देख हँसे जमाना,

गिरगिटों-सा हाल मत कर।2



हैं सियारों-सी अदाएँ,

शेर वाली खाल मत कर।3



जो लड़ाई लड़ रहा उस

शस्त्र को वाचाल मत कर।4



कर रहा कुछ खुद नहीं तू,

भौंक कर अब ढ़ाल मत कर।5



बुझ गयीं कितनी मशालें,

और अब पामाल मत कर।6



श्वान भी सीमा बचाते,

भौंक,पर बेताल मत… Continue

Added by Manan Kumar singh on October 8, 2016 at 2:30am — 8 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४७

जो है दिल को शिकायत न हो ज़ेरेफुगाँ क्यों

न हो कहने का हक़ कुछ तो देते हो जुबां क्यों  

 

मेरी खानाख़राबी सुबूतेआशिक़ी है

जो हो मजनूं तुम्हारा हो उसका आशियाँ क्यों

 

यूँ कारेआशिक़ी से है आती बू-ए-साज़िश

अदू जो हैं हमारे वो तेरे पासबाँ क्यों

 

मकीनेदिलबिरिश्ता-ओ-दश्तेगमनशीं था

वफ़ातेकैस पे फिर न हो ख़ुश गुलसितां क्यों

 

जो मुझसे निस्बतों की सभी बातें हैं झूठीं

सुनाते हो मुझे तुम तुम्हारी दास्ताँ…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 7, 2016 at 10:09pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आइना ये पत्थरों की मार कैसे सह गया (ग़ज़ल 'राज ')

2122  2122  2122  212

इक मुहब्बत का महल कब चुपके चुपके ढह गया

बिन किये आवाज सब आँखों का काजल कह गया

 

अनमनी सी वो अकेली रह गई किश्ती खड़ी

पाँव के नीचे से ही सारा समन्दर बह  गया

 

वो खुदा भी उस फ़लक से देख कर हैरान है

आइना ये पत्थरों की मार कैसे सह  गया

 

ठोकरों ने ही तराशे वो पशेमाँ पंख फिर

ताकते परवाज़ से पीछे गुज़शता रह गया

 

फूल से भी जो हथेली सुर्ख  होती थीं  कभी

उस हथेली में पिघल कर आज सूरज बह…

Continue

Added by rajesh kumari on October 7, 2016 at 7:41pm — 18 Comments

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