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मेरी यह छोटी बहर की ग़ज़ल

दरवाजों पर ताले रखना

चाबी जरा संभाले रखना।

 

ठंडी होगयी चाय सुबह की

पानी और उबाले रखना।

 

संसद में घेरेंगे तुझको

तू भी प्रश्न उछाले रखना।

 

गाँवों का सावन है फीका

नीम पर झूले डाले रखना।

 

चिडियों की चीं चीं खेतों में

कुछ गौरैयाँ पाले रखना|

 

दूर ना होना अपनों से तू

रिश्ते सभी संभाले रखना।

...आभा 

अप्रकाशित एवं  मौलिक 

 

 

                 …

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Added by Abha saxena Doonwi on September 14, 2016 at 1:00pm — 6 Comments

भाषा यह हिन्द (त्रिभंगी छंद)

भाषा यह हिन्दी, बनकर बिन्दी, भारत माँ के, माथ भरे ।
जन-मन की आशा, हिन्दी भाषा, जाति धर्म को, एक करे ।।
कोयल की बानी, देव जुबानी, संस्कृत तनया, पूज्य बने ।
क्यों पर्व मनायें,क्यों न बतायें, हिन्दी निशदिन, कंठ सने ।।

Added by रमेश कुमार चौहान on September 14, 2016 at 12:00pm — 5 Comments

हमें बढ़ाना मान (दोहे)

हिंदी दिवस की शुभ कामनाओं के साथ  कुछ दोहे -

हमें बढ़ाना मान (दोहे)

=================

हिंदी में साहित्य का, बढ़ा खूब भण्डार 

हम संस्कृति का देखते, शब्दों में श्रृंगार |

कविता दोहा छंद में, सप्त सुरों का राग 

गीत गीतिका छंद में, भरें प्रेम अनुराग…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 14, 2016 at 11:30am — 12 Comments

सावन सूखी रह गई

सावन

सूखी रह गई,

सूखे भादो मास

विरहन प्यासी धरती कब से,

पथ तक कर हार गई

पनघट पूछे बाँह पसारे,

बदरा क्यों मार गई

पनिहारिन

भी पोछती

अपनी अंजन-सार

रक्त तप्त अभिसप्त गगन यह,

निगल रहे फसलों को

बूँद-बूँद कर जल को निगले,

क्या दें हम नसलों को

धूँ-धूँ कर

अब जल रही

हम सबकी अँकवार

कब तक रूठी रहेगी हमसे,

अपना मुँह यूॅं फेरे

हम तो तेरे द्वार खड़े हैं

हृदय हाथ में…

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Added by रमेश कुमार चौहान on September 14, 2016 at 11:27am — 3 Comments

बुढ़ापे का सफ़र

बुढ़ापे की पुकार



सहम जाता हूँ मैं

रात के सन्नाटे से

ना छोड़ना मुझे बेटा

कभी किसी बहाने से

मैं तब भी था भूखा जब

तेरी पैंट फट गयी थी

और तू ले गया था

पैसे मेरे सरहाने से

तब तू रोया करता था

हँसी हमें सूझती थी

आज हँसी तुझे भी

आती हैं पर

मेरे रो जाने से

मालूम है मुझे भी

कंधों पर बोझ तेरे

ज़रूरत से ज़्यादा है

पर मेरे कंधों के भोज

से तेरा बोझ आधा है

तुम तीनों बच्चे और

तेरे दादा दादी साथ थे

घर… Continue

Added by S.S Dipu on September 14, 2016 at 4:46am — 10 Comments

ऐसा भी हो

ऐसा भी हो 
स्वंय से मिले निगाहें जब- जब 
गर्व से सीना तन पाए 
ग्लानि  हो न मीलों  तक 
इतिहास भले न रच पाए …
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Added by amita tiwari on September 14, 2016 at 3:05am — 5 Comments

पहाड़ी के बीच

पहाड़ी के बीच

**************************

ऊँची नीची पहाड़ी पगडंडियों में

बल खाती घुमावदार सड़कों के बीच

दिखती है एक चाय की दुकान

यह दुकान होती है

छोटे मोटे मकानों में

किसी भी पगडंडी पर

किसी खोखे जैसी दुकान

उस में चाय भी बनती है

आलू प्याज के बनते हैं पकौड़े भी

यहाँ कभी कभी टहलते हुये

होते हैं लोग इकट्ठा

करतें हैं अपने ऊँची चोटी पर बसे गाँव की बातें

इसी बीच इन्हीं दुकानों पर

वे कर लेते…

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Added by Abha saxena Doonwi on September 13, 2016 at 11:00pm — 7 Comments

ग़ज़ल...आँसुओं की आँख से सौगात बैरन आ गई

2122     2122     2122      212

तुम पिया आये नहीं बरसात बैरन आ गई 

दिन गुजारा बेबसी में रात बैरन आ गई

था हवाओं ने कहा मनमीत का सन्देश है 

ले जुदाई बेशरम की बात बैरन आ गई

ढोल ताशे बज उठे हैं गूंजती शहनाइयाँ 

हाय रे महबूब की बारात बैरन आ गई

मुट्ठियों में दिल समेटा होंठ भी भींचे खड़े 

आँसुओं की आँख से सौगात बैरन आ गई

भाइचारा भूल जाओ अब मियाँ तकरीर में 

धर्म मजहब आदमी की जात बैरन आ…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 13, 2016 at 8:00pm — 12 Comments

अपनी जिम्मेदारी तय करें ( आलेख - हिन्दी दिवस विशेष )

चौदह सितम्बर आते ही सरकारी संस्थानों , विद्यालयों आदि में हिन्दी भाषा की यूँ याद आने लगती है , जैसे सावन महीना लगते ही मायके वालों को बेटी को बुलाने की आती है । उसकी खातिरदारी में जैसे तरह तरह की योजनाएँ बनती हैं , ठीक वैसे ही हिन्दी भाषा पखवाड़े को लेकर शुरू हो जाती हैं । जैसे पंद्रह दिन बीते नहीं कि बेटी की विदा की चिंता सताने लगती है, वैसे ही पखवाड़ा निपटते ही हिन्दी भाषा को एक कोने में पटक वही पुराना ढर्रा चलने लगता है ।

 

चौदह सितम्बर हिन्दी दिवस , दिवसों की श्रृंखला में एक ओर दिवस… Continue

Added by shashi bansal goyal on September 13, 2016 at 5:18pm — 4 Comments

ईद मुबारक

चाँद की शक्ल में आ जाओ सहर होने तक,

ईद  हो  जाये  मेरी  आठ  पहर  होने    तक.

 

तुमको   आवाज़   भी  देती तो बताओ…

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Added by Abha saxena Doonwi on September 13, 2016 at 5:00pm — 6 Comments

ढलक गया .... (क्षणिकाएं )

ढलक गया .... (क्षणिकाएं )

१.

बंद था

एक लम्हा

पलकों की मुट्ठी में

सह न सका

दस्तक

याद की

और

ढलक गया

हौले से

.... ... ... ... ... ...

२.

था

एक ख़्वाब

जो

हकीकत से पहले

जाने कब

हकीकत में

ख्वाब हो गया

.... .... .... .... .... ....

३.

वो

ज़िदंगी का

बीता कल था

जिया मरके

जिसमें

वो सुहाना पल था

वो पल

सुख का

रूह से 

बतियाता रहा

मारने के बाद…

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Added by Sushil Sarna on September 13, 2016 at 4:39pm — 12 Comments

बिज़नेस का सबक़ (लघुकथा)

"बेटा, ये सब सिर्फ़ उनका बिज़नेस है, कोई समर कैम्प चलाकर पैसा कमाता है, तो कोई हॉबी क्लासेज़! ढंग से कोई कुछ नहीं सिखाता!" - गर्मियों की छुट्टियां शुरू होने पर वर्मा जी ने अपने बेटे अतुल की फ़रमाइश पर समझाते हुए कहा।





"पापा, फिर स्कूल क्यों भेजते हो, वहां भी तो हमें कुछ भी नहीं सिखाते ढंग से!" अतुल ने जवाब में सवाल किया।



"किसने कहा तुमसे ऐसा?" वर्मा जी ग़ुस्से में बोले।



"ट्यूशन वाले सर ने ! दादा जी भी तो कहते हैं कि सालों ने बिज़नेस बना रखा है! क़िताबें थोप… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 13, 2016 at 4:17pm — 7 Comments

आक्रोश (लघु कथा )

बेटा जो नयी वैकेंसी निकली थी, तुमने फार्म डाल दिया ?’- पिता के चेहरे पर खुशी थी . उनके हाथ में एक मोबाईल था .

‘नहीं पापा, मैं कोई फॉर्म नहीं डालूँगा . आपके कहने पर पहले कितने  फार्म भर चुका हूँ , कितने इक्जाम दिए, पर कोई नतीजा निकला ?’

‘बेटा तकदीर को कोई नहीं जानता --------?’

‘बेकार की बाते हैं पापा, नौकरी किस्मत से नहीं योग्यता से मिलती है एक्स्ट्रा आर्डिनरी बच्चों को नौकरी की कमी नहीं , पर जो बच्चे सामान्य हैं वे क्या करें, सरकार के पास उनके लिए कोई व्यवस्था…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 13, 2016 at 3:30pm — 5 Comments

दीपक तले अँधेरा

कलावती देवी को प्राइमरी शिक्षिका के पद से सेवानिवृत्त हुए चौदह पन्द्रह वर्ष बीत  चुके थे | पति का देहांत हो गया था और वह अपने बेटे के साथ रहती थीं | अकेलेपन और अवहेलना ने उनको चिड़ाचिड़ा बना दिया था | कान से कम सुनाई देता था इस लिए खुद भी तेज आवाज में बोलती थीं, ऐसा कि पूरा मोहल्ला सुनता | बाहर बैठ कर अखबार और अध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ना यही उनकी दिनचर्या थी | सास-बहू का जैसे सांप छछूंदर सा बैर था, ना तो बहू उनका ख्याल रखती ना ही वह बहू पर तंज कसने का कोई मौका छोड़तीं | बहू उनका खाना निकाल कर रख…

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Added by Meena Pathak on September 13, 2016 at 3:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल-जन-जन में' मैं सद्भाव का संचार करूंगा।-रामबली गुप्ता

वह्र-2212 2212 221 122



जन-जन में' मैं सद्भाव का संचार करूँगा।

सबके दिलों पे प्यार से अधिकार करूँगा।।



नित द्वेष औ' दुर्भाव को कर दूर हृदय से।

मैं प्यार से झंकृत दिलों के तार करूँगा।।



जातीयता औ' धर्म के हर भेद मिटा मैं।

सबसे सदा समभाव का व्यवहार करूँगा।।



निज राष्ट्र के रक्षार्थ रण में शीश खुशी से।

बलिदान क्या इक बार मैं सौ बार करूँगा।।



प्रति पग अहिंसा-प्रेम औ' सन्मार्ग पे चल कर।

मैं विश्व में सुख-शांति का विस्तार… Continue

Added by रामबली गुप्ता on September 13, 2016 at 3:00pm — 10 Comments

एक हिंदी ग़ज़ल इस्लाह के लिए

बह्र-२१२२ २१२२ २१२२ २१२,

मुस्कुराती चांदनी है तो पिघलने दीजिये।

गेसुओं में चाँद तारे आज ढलने दीजिये।1

----

अश्क भर भर जाम पीता मै रहा हूँ दोस्तो,

डगमगाते इस कदम को भी सँभलने दीजिये। 2

----

जा रहेगें मंजिलों तक जख़्म वाले पांव भी,

यार बस अपने कदम को राह चलने दीजिये। 3

----

इस जहां को तो लुभाये चंद सिक्को की खनक,

बस हमारे ही हृदय में प्यार पलने दीजिये। 4

----

नफ़रतों की भीड़ में जो आग थे कल बाटते,

लुट गए वो लोग भी अब हाथ…

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Added by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on September 13, 2016 at 1:00pm — 11 Comments

ग़ज़ल( इस्लाह के लिए )मनोज अहसास

221 2121 1221 212



बैठे हैं इल्तिज़ाओ की चादर लिए हुए

उनकी गली में इश्क़ का दफ्तर लिए हुए



हैरत नज़र में पीठ में खंज़र लिए हुए

चलते हैं हम तो दर्द का लश्कर लिए हुए



कुछ ऐसे बदनसीब भी ढोता है ये जहां

जीते हैं एक जान कई सर लिए हुए



तन्हाइयों का शौक लेके आ गया कहाँ

जिन्दा हैं खुद को खोने का ही डर लिए हुए



दुनिया की बात सोचता तो कैसे सोचता

कांधो पे तेरे गम से भरा सर लिए हुए



तब जाके पूरी होगी मेरे ज़ख्मो की तलब

वो… Continue

Added by मनोज अहसास on September 13, 2016 at 10:37am — 7 Comments

लोक तंत्र -दोहे

प्रजातंत्र के देश में, परिवारों का राज

वंशवाद की चौकड़ी, बन बैठे अधिराज |

वंशवाद की बेल अब, फैली सारा देश

परदेशी हम देश में, लगता है परदेश  |

लोकतंत्र को हर लिये, मिलकर नेता लोग

हर पद पर बैठा दिये, अपने अपने लोग |

हिला दिया बुनियाद को, आज़ादी के बाद

अंग्रेज भी किये नहीं,  तू सुन अंतर्नाद |

संविधान की आड़ में, करते भ्रष्टाचार

स्वार्थ हेतु नेता सभी, विसरे सब इकरार |

बना कर लोकतंत्र को,…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on September 13, 2016 at 7:30am — 27 Comments

गांव बने तब एक निराला

सौंधी सौंधी मिट्टी महके

चीं-चीं चिड़िया अम्बर चहके ।

बाँह भरे हैं जब धरा गगन

बरगद पीपल जब हुये मगन

गांव बने तब एक निराला

देख जिसे ईश्वर भी बहके ।

ऊँची कोठी एक न दिखते

पगडंडी पर कोल न लिखते

है अमराई ताल तलैया,

गोता खातीं जिसमें अहके ।

शोर शराबा जहां नही है

बतरावनि ही एक सही है

चाचा-चाची भइया-भाभी

केवल नातेदारी गमके ।

सुन-सुन कर यह गाथा

झूका रहे नवाचर माथा

चाहे  कहे…

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Added by रमेश कुमार चौहान on September 12, 2016 at 10:00pm — 4 Comments

लघु कथा

"अपमान "



'जल्दी से आ जा मोनू ,खाना गरम है,खा लें,सबके साथ ।

क्या जल्दी है ,माँ खाना खाना लगा रखा है ?

आते साथ चुपचाप बैठा देख माँ से रहा ना गया।

हाथ धोकर आजा बेटा, फिर खाना खाने बैठ।

जितना तुझे ज़रूरत हो उतना ही लेना,छोड़ना मत ।माँ ने लाड़ले को समझाना चाहा ।

'अब पेट कोई कमरा नही है खाता जाऊँगा ,थोड़ा छूट गया तो क्या फ़र्क़ पड़ता है ?

ये अन्नदेव का अपमान है बेटा ।

वो कैसे ?जिस दिन तुम्है ग़ुस्सा आ जाता है,और उस दिन तुम खाना नही खाते तब ये संतुलन और… Continue

Added by Nita Kasar on September 12, 2016 at 9:30pm — 4 Comments

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