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हिट-पिट , गिटपिट -- डॉo विजय शंकर

हिट हिटा हिट हिट

पिट पिटा पिट पिट

ये भी एक अज़ब दौर है

क्या हो जाए कब हिट

क्या जाये कब पिट

पब्लिक की च्वॉइस

मीडिया की वॉयस।

जिस नेता की जयंती बरसी

दो दिन उसकी बातें हिट।

जिससे हो अपना भला ,

हो अपना मामला फिट

वही हिट, वही हिट, वही हिट ,

बाकी सब गिटपिट गिटपिट।

ये बड़ी ख़बर , वो ख़बर हिट ,

गाना हिट , पिक्चर हिट ,

विचार हिट , डायलॉग हिट

मेकियावली हिट , चाणक्य हिट ,

ये नेता हिट ,उसका घोर विरोधी भी हिट… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on October 4, 2016 at 9:15am — 4 Comments

ग़ज़ल ( शुरुआते मुहब्बत हो गयी )

ग़ज़ल ( शुरुआते मुहब्बत हो गयी )

------------------------------------------

(फ़ाइलातुन -फ़ाइलातुन -फ़ाइलातुन- फाइलुन )

यक बयक मुझ पर सितमगर की इनायत हो गयी ।

ऐसा लगता है शुरुआते  मुहब्बत   हो  गयी ।

की वफ़ा गैरों से अहदे इश्क़ अपनों से किया

जानेमन यह तो अमानत में खयानत हो गयी ।

यह नतीजा तो अज़ीज़ों पर  यक़ी करने का है

यूँ नहीं पैदा सनम के दिल में नफरत हो गयी ।

दिल की अब कीमत कहाँ है हुस्न के बाजार…

Continue

Added by Tasdiq Ahmed Khan on October 3, 2016 at 8:58pm — 16 Comments

हिन्दी दिवस - लघुकथा

उस दिन मैं हिन्दी दिवस के एक समारोह में शामिल होने के लिए शेयरिंग कैब में दिल्ली एयरपोर्ट से सिविल लाइंस जा रहा था। कैब में दो और सहयात्री सवार थे। वे दोनों पीछे की सीट पर और मैं फ्रंट सीट पर था। उन दोनों के बीच बातचीत शुरू हुई तो पता चला एक मद्रासी तो दूसरा राजस्थानी है। 

मद्रासी – तुम कहाँ का रहनेवाला है ? 

राजस्थानी – आई’m फ़्रोम जयपुर, एंड यू ? 

मद्रासी – मैं चेन्नै में रहता। तुम क्या करता है ? 

राजस्थानी – आई’m ए एग्जीक्यूटिव इन बैंकिंग…

Continue

Added by Govind pandit 'swapnadarshi' on October 3, 2016 at 6:44pm — 4 Comments

ग़ज़ल( इस्लाह के लिए )मनोज अहसास

1222 1222 122



खुदा की दुनिया में क्या क्या नहीं है

हमारी आस को खतरा नहीं है



खुदा से यूँ हमे शिकवा नहीं है

उसे हमने मगर देखा नहीं है



किसी के हाथ में चुभती है चाँदी

किसी के हाथ में चिमटा नहीं है



बदलते दौर में उस घर का नक्शा

गली के मोड़ से दिखता नहीं है



बिखरकर खो गए यादों के मोती

हुनर का मुझमें ही धागा नहीं है



दुआ में और क्या मांगूं मैं या रब

उन्हें मुद्दत से बस देखा नहीं है



उतर आती है ज़न्नत… Continue

Added by मनोज अहसास on October 3, 2016 at 2:54pm — 8 Comments

त़रह़ी ग़ज़ल..

1222 1222 1222 1222



तेरे औ' मेरे नामों पर सियासत और हो जाती

निहाँ होता नहीं सब कुछ तो आफ़त और हो जाती.



ह़दों से आगे जा कर ये ग़मे फ़ुर्क़त असर करता

अगर मुझको तेरी स़ुह़्बत की आ़दत और हो जाती.



ये रोने धोने का आ़लम, फ़िराक़े यार का मौसम

ए क़िस्मत! हैं अभी ये कम, अज़ीयत और हो जाती!



ख़िरद पर ग़र यकीं करते नहीं फिर जाने क्या होता

जो सुनते दिल की, दुनिया से अ़दावत और हो जाती.



चलो अच्छा हुआ दो टूक तुमने कह दिया… Continue

Added by shree suneel on October 3, 2016 at 11:45am — 3 Comments

तड़प

(श्रृंगार छंद की रचना। 16 मात्रा आदि 32 अंत 23(21) )



सजन ना प्यास अधूरी छोड़।

हमारा नाजुक दिल ना तोड़।

बहुत हम तड़पे करके याद।

एक दुखिया करती फरियाद।।



सदा तारे गिन काटी रात।

बादलों से करती थी बात।

रही मैं रोज चाँद को ताक।

कलेजा होता रहता खाक।।



मिलन रुत आई बरसों बाद।

करो मत इसको यूँ बरबाद।

गले से लगने की है चाह।

निकलती साँसों से अब आह।।



बाँह में लो निचोड़ तुम आज।

छेड़ दो रग रग के सब साज।

होंठ अब रहे… Continue

Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on October 2, 2016 at 7:17pm — 10 Comments

ग़ज़ल ....हर सू तुम्हारा नाम है आ जाइये

2212       2212      2212

ढलती सुहानी शाम है आ जाइये 
हर सू तुम्हारा नाम है आ जाइये

ये वादियाँ ये खुश्बुएं हैरान हैं 
हर फूल पे इल्जाम है आ जाइये

कैसी चुभन है ये दिले नासाज़ की
दिल टूटना तो आम है आ जाइये

उजड़ा हुआ है मुद्दतों से आशियाँ
सूनी तभी से बाम है आ जाइये

नासूर बन जो रूह पे आयद हुआ 
उस ज़ख्म का पैगाम है आ जाइये

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

©बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 2, 2016 at 3:00pm — 14 Comments

ग़ज़ल:हसरतें बाँध लें बेडियाँ करके । (आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला' )

212  212  212   22

ज़िन्दगी को मिरे रायगाँ करके,    

चल दिये रंज को मेहमाँ करके,.

बाँह के इस क़फ़स से उड़े, अब क्या?

हसरतें बाँध लें बेडियाँ करके,

बेबसी आदमी की कहाँ ठहरे,

 रास्ते पर रहे आशियाँ करके,

पैर के धूल पर वक़्त मेहरबाँ,

धूल उड़ने लगे आँधियाँ करके,

लज़्ज़तें कुछ नहीं, दर्द ओ आंसू,

ये मिले फासले दरमियाँ करके,

वक़्त यूँ ही गुज़रता रहा…

Continue

Added by आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला' on October 2, 2016 at 1:00pm — 4 Comments

सर्जिकल स्ट्राइक्स (कविता)

हमने बहुत समझाया
ये समझाने की हद थी,
उस कमबख्त को न
मानने की जिद्द थी,
हर बार हमले के बदले
आम और प्यार भेजा,
लेकिन नापाक ने हर बार
आंतकियों को सीमा पार भेजा,
अब तो हद हो गयी
उरी में सोये जवानों को जलाया,
दुनिया में आंतकी कहलाया,
वीरों ने ठान लिया अब इलाज
जरुरी है ताकि अहसास हो सके,
इसीलिए सर्जिकल स्ट्राइक्स
जरुरी था ताकि दहशत हो सके,
"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by harikishan ojha on October 2, 2016 at 12:55pm — 8 Comments

धर्म (लघुकथा)

 "वह लड़की विधर्मी लगती है, कपड़े ज़रूर अलग पहने हैं, लेकिन शक्ल और चाल-ढाल तो..." सड़क के कोने में छिपकर बैठे एक मनचले ने शराब का घूँट भरते हुए दूसरे मनचले से कहा|

 

"इसको उठा लेते हैं... आजकल पूरा देश भी इनके विरुद्ध है" दूसरे की लाल आँखों में मक्कारी स्पष्ट झलक रही थी|

 

दोनों दौड़ कर उस लड़की के सामने खड़े हो गये, और तेज़ स्वर में दुश्मन देश के मुर्दाबाद का नारा लगाया|

 

लड़की भौचंकी रह गयी, उसको डरता देखकर उन दोनों के हौसले और भी बुलंद हो गये और…

Continue

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on October 2, 2016 at 11:24am — 12 Comments

कुकुभ -छन्द -६ नवरात्रि और दुर्गा पूजा के अवसर पर

 कुकुभ छंद

घोड़े चढ़कर दुर्गनाशिनी, माँ भवानी आ रही है

घोड़े के वाहन पर दुर्गा, लौटकर भी जा रही है |

घोडा उथल पुथल का प्रतीक, युद्ध की संभावना है

ज्योतिष विद्या मानते इसको, देशो की तना तनी है |

२.

ज्योतिष गणना में है पाते, आपद विपद कष्ट सारा

पूजो माता दुर्गा को अब , माता ही एक सहारा |

भक्त वत्सला, शक्ति स्वरूपा, भक्तों के घर आएँगी

कार्तिक गणेश महेश को भी, साथ साथ ही लाएँगी |

३.

नवरात्रि में आद्य शक्ति स्रोत,…

Continue

Added by Kalipad Prasad Mandal on October 2, 2016 at 10:30am — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -तब अलग थी, अब जवानी और है ( गिरिराज भंडारी )

ग़ालिब साहब की ज़मीन पर एक प्रयास

तब अलग थी, अब जवानी और है

2122   2122    212  --

शक्ल में जिनकी कहानी और है

क्या उन्होनें मन मे ठानी और है

 

लफ़्ज़ तो वो ही पुराना है मगर

आज फिर क्यों निकला मअनी और है

 

हाथ में पत्थर है, लब खंज़र हुये

तब अलग थी, अब जवानी और है

 

है समंदर की सतह पर यूँ सुकूत

पर दबी अब सरगिरानी और है

 

साजिशें सारी पस ए परदा हुईं

पर अयाँ जो है ज़बानी,.. और है…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on October 2, 2016 at 8:00am — 31 Comments

खामोश मौसम ....

खामोश मौसम ....

अपनी ही आवाज़ों के साथ

बैसाखियाँ

आग में जलने लगी

समय

और सुईयों की रफ़्तार

अपनी बेख़ौफ़ चाल के साथ

ज़िन्दा होने का

सबूत देती रही

जज़्बात

हड्डियों की बैसाखियों पर

खामोशियों के लिबास पहने

खुद को ढोते रहे

एक बैसाखी दिल की

किसी शरर की उम्मीद में

तारीकियों से लिपटी

पल पल जलती हुई

ज़ख्मों की तलाशी लेती रही

जलते हुए ख़्वाब

शायद अपनी बैसाखियाँ…

Continue

Added by Sushil Sarna on October 1, 2016 at 8:54pm — 14 Comments

गुर (बस दो मिनट में )





दो मिनट में


नहीं लिख दी जाती

कोई कविता

जैसे नहीं बनती सब्जी

दो मिनट में बढ़िया

दो मिनट में तो

बनती है बस मैगी

जो सिर्फ पेट भरती हैं |



अपनी संतुष्टि के लिए

भले लिख दो

मिनट, दो मिनट में

कुछ भी…

Continue

Added by savitamishra on October 1, 2016 at 11:43am — 17 Comments

मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं (ग़ज़ल)

बह्र : २१२२ १२१२ २२

 

अंधे बहरे हैं चंद गूँगे हैं

मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं

 

मैं कहीं ख़ुद से ही न मिल जाऊँ

ये मुखौटे नहीं हैं पहरे हैं

 

आइने से मिला तो ये पाया

मेरे मुँह पर कई मुँहासे हैं

 

फेसबुक पर मुझे लगा ऐसा

आप दुनिया में सबसे अच्छे हैं

  

अब जमाना इन्हीं का है ‘सज्जन’

क्या हुआ गर ये सिर्फ़ जुमले हैं

-----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 1, 2016 at 10:00am — 19 Comments

सीमा ने बलिदान क्यों माँगा

कभी विधि चले  साथ 

कभी झटक दिए हाथ
कैसा ये खेल कैसे खिलौने 
बिन बदरा…
Continue

Added by amita tiwari on September 30, 2016 at 8:30pm — 11 Comments

ककुभ छंद (16, 14 चरणांत 22)

कब वीरों की दग्ध चिता पर कब समाधि पर आओगे

कब सुख से सूखे लोचन पर करुणा  के घन लाओगे

 

काले मन से कब छूटेगा

मोह श्वेत परिधानों का

कब तक आलंबन पाओगे

व्योम प्रवृत्त विमानों का

कब तक शोणित की सरिता में तुम निर्विघ्न नहाओगे

 

नश्वर देह सुरक्षित कितना

रक्षक के समुदायों से

दंभ भरा अस्तित्व बचेगा

कब तक कठिन उपायों से

मन के उजले संकेतों को कब तक तुम झुठलाओगे

 

झूठा नाटक कब तक मरने

वालों पर…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 30, 2016 at 7:07pm — 14 Comments

ख़्वाबों की लहद ....

ख़्वाबों की लहद ....

ये आंखें

न जाने कितने चेहरे

हर पल जीती हैं

हर चेहरे के

हज़ारों ग़म पीती हैं

मुस्कुराती हैं तो

ख़बर नहीं होती

मगर बरस कर

ये सफर को अंजाम

दे जाती हैं

ज़हन की मिट्टी को

किसी दर्द का

पैग़ाम दे जाती हैं

मेरी तन्हाईयों को

नापते -नापते

न जाने कितने आफ़ताब लौट गए

मेरी तारीकियों में

हर शरर ने

अपना वज़ूद खोया है

हर लम्हा

किसी न किसी लम्हे के लिए

वक्त की चौखट से…

Continue

Added by Sushil Sarna on September 30, 2016 at 3:24pm — 14 Comments

कौन बुरा लगता है

आजकल देखने मे
कौन बुरा लगता है,
रोता है वो फिर भी,
हंसता हुआ लगता है।
दिल में है दर्द
पलकें हैं भीगी हुयी,
कोई हमसे यूँ ही
रूठा हुआ लगता है।
डूबा हूँ पानी में
प्यासा हूँ बैठा हुआ
समन्दर भी मुझे अब
सूखा हुआ लगता है।
कौन यहाँ बिखरा गया
फूल और पतियों को,
पेड़ हर तरफ यहाँ ,
टूटा हुआ लगता है।
सब कुछ तो है घर की
दीवारों में सजा हुआ
आिशयाँ मेरा फिर भी
बिखरा हुआ लगता है।
मौलिक अप्रकाशित

Added by S.S Dipu on September 30, 2016 at 12:05am — 4 Comments

ग़ज़ल-आरसी भी तरस जाता, तब मुहँ दिखाती हो |

बहर : २१२  २१२  २१२  २१२  २२

ना करो ऐसे↓ कुछ, रस्म जैसे निभाती हो

आरसी भी तरस जाता↓, तब  मुहँ दिखाती हो |

छोड़कर  तब गयी अब हमें,  क्यों रुला/ती हो   

याद के झरने↓ में आब जू, तुम बहाती हो |  

रात दिन जब लगी आँख, बन ख़्वाब आती हो

अलविदा कह दिया फिर, अभी क्यों सताती हो ? 

  

जिंदगी जीये हैं इस जहाँ मौज मस्ती से

गलतियाँ  भी किये याद क्यों अब दिलाती हो |

प्रज्ञ हो  जानती हो कहाँ  दुःखती  रग…

Continue

Added by Kalipad Prasad Mandal on September 29, 2016 at 10:30pm — 10 Comments

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