1222—1222—1222—1222 |
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तसव्वुफ़ का है आलम, जिंदगी रोने नहीं देती |
ये मैली-सी चदरिया मोह की धोने नहीं देती |
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दिखे जो नींद में यारो, वो सपने हो नहीं… |
Added by मिथिलेश वामनकर on November 6, 2015 at 10:03pm — 14 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 6, 2015 at 9:53pm — 10 Comments
सिसकते दीये - (लघुकथा ) -
शंकर कुम्हार की जब से टांग टूटी थी, सारी घर गृहस्थी बिखर गयी थी!घरवाली दमा की मरीज़ , बेटा छोटू महज़ पांच साल का, कौन चलाये घर के खर्चे!त्यौहार सिर पर ! त्यौहार मनाना तो दूर ,रोज़मर्रा के खर्चे पूरे नहीं पड रहे थे!
शंकर ने जैसे तैसे थोडे से छोटे बडे मिट्टी के दीपक बनाये थे कि त्यौहार पर बेच कर चार पैसे आजायेंगे तो दीवाली ठीक ठाक मन जायेगी! छोटू को बडी मुश्किल से ,दस रुपये रोज़ देने का लालच देकर दीपक बेचने भेजा!छोटू भी खुश था कि सौ दो सौ रुपये कमा…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on November 6, 2015 at 8:00pm — 2 Comments
आँधियों के थपेड़े और,
गर्मी की तपिश ने,
उगते हुए पौधे की जड़ हिलाई,
वट वृक्ष की तब याद आई।
कर दिया क्यों दूर,
जिसने जन्म दे, पाला तुझे,
कर बड़ा काबिल बनाया,
सारी लगाकर पाई पाई ।
चलते हुए घुटनों के बल,
पहले पहल था जब…
ContinueAdded by Ajay Kumar Sharma on November 6, 2015 at 7:47pm — 2 Comments
Added by amod shrivastav (bindouri) on November 6, 2015 at 6:11pm — 7 Comments
Added by Janki wahie on November 6, 2015 at 5:49pm — 17 Comments
Added by amod shrivastav (bindouri) on November 6, 2015 at 4:18pm — 3 Comments
सैयां भये कोतवाल -(लघुकथा) -
बाल श्रम विरोध कानून सप्ताह के दौरान छापेमारी में पंद्रह बालकों को रिहा कराया गया!इनमें अधिकतर बच्चे अपने परिवार से भाग कर आये थे!कुछ अनाथ भी थे!जो अनाथ थे ,उनको तो अनाथालय वालों ने आश्रय दे दिया मगर जिनके मॉ बाप थे ,परिवार थे ,उनको लेने से अनाथालय वालों ने मना कर दिया!
अब सात बच्चे पुलिस की देख रेख में थे!उनके परिवारों को सूचना भिजवा दी थी!कुछ तो आसाम और नेपाल तक से भाग कर आये थे!अभी तो यह भी निश्चित नहीं था कि जो पते बच्चों ने दिये वह सत्य भी हैं…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on November 6, 2015 at 1:00pm — 16 Comments
तुमसे ही तो है
Added by Abid ali mansoori on November 5, 2015 at 9:00pm — 8 Comments
जो लक्ष्य से भटका नहीं,
जो हार पर अटका नहीं,
जीत पक्की है उसी की,
राह में खटका नहीं।
लगन है अटूट जिसकी,
और है पक्का इरादा,
पास उस रणवीर के,
काल भी फटका नहीं।
मजबूत हैं जिसके…
ContinueAdded by Ajay Kumar Sharma on November 5, 2015 at 8:30pm — 6 Comments
Added by Ravi Shukla on November 5, 2015 at 7:11pm — 11 Comments
1212 - 1122 - 1212 – 112 |
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न ओंस है, न शफक है, न ताब है कोई |
ये लॉन एक खफ़ा-सी किताब है कोई |
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झुका झुका सा मुझे देख, सब यही कहते … |
Added by मिथिलेश वामनकर on November 5, 2015 at 4:36pm — 19 Comments
अमर गंध …
पी के संग सो गयी
पी के रंग हो गयी
प्रीत की डोर की
मैं पतंग हो गयी
दीप जलता रहा
सांस चलती रही
पी की बाहों में मैं
इक उमंग हो गयी
हर स्पर्श देह में
गीत भरता रहा
नैनों की झील की
मैं तरंग हो गयी
निशा ढलती रही
आँखें मलती रही
होठों की होठों से
एक जंग हो गयी
कुछ खबर न हुई
कब सहर हो गयी
साँसों में पी की मैं
अमर गंध हो गयी
सुशील सरना
मौलिक एवं…
Added by Sushil Sarna on November 5, 2015 at 4:18pm — 6 Comments
Added by Abid ali mansoori on November 5, 2015 at 1:23pm — 11 Comments
221 2121 1221 212
शब्दों की ओट में छिपे मक्कार हैं बहुत
बाक़ी, अना को बेच के लाचार हैं बहुत
किसने कहा कि बज़्म में रहना है आपको
जायें ! रहें जहाँ पे तलबगार हैं बहुत
अपनी भी महफिलों की कमी मानता हूँ मैं
है फर्ज़ में कमी, दिये अधिकार हैं बहुत
समझें नहीं, कि अस्लहे सारे ख़तम हुये
अस्लाह ख़ाने में मेरे हथियार हैं बहुत
नफरत जता के हमसे, जो दुश्मन से जा मिले
वे भी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 5, 2015 at 8:00am — 46 Comments
221 2122 221 2122
रौशन हो दिल हमारा, इक बार मुस्कुरा दो
खिल जाय बेतहाशा, इक बार मुस्कुरा दो
पलकों की कोर पर जो बादल बसे हुए हैं
घुल जाएँ फाहा-फाहा, इक बार मुस्कुरा दो
आपत्तियों के…
ContinueAdded by Saurabh Pandey on November 4, 2015 at 11:30pm — 24 Comments
सहसा
छा जाता है आवेश
कुछ लगता है सनसनाने
मस्तिष्क में होने लगता है
घमासान
हाथ हठात पहुँचते है
लेखनी पर
इतना भी नहीं होता
कि तलाश लें
कोई कायदे का कागज
नोच लेता है हाथ
किसी अखबार का टुकड़ा
या किसी रद्दी का खाली भाग
और दौड़ने लगते है उस पर
अक्षर निर्बाध
अवचेतन सा मन
मानो कोई उड़ेल देता है
उसमें भावों की सम्पदा
जो स्वस्थ चित्त में
चाह कर भी नहीं उभरता…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 4, 2015 at 8:44pm — 5 Comments
Added by Manan Kumar singh on November 4, 2015 at 8:00pm — 14 Comments
कैसे अपने मधु पलों को शूल शैय्या पे छोड़ आऊँ
स्मृति घटों पर विरहपाश के कैसे बंधन तोड़ आऊं
विगत पलों के अवगुंठन में
इक दीप अधूरा जलता रहा
अधरों पर लज्जा शेष रही
नैनों में स्वप्न मचलता रहा
एकांत पलों में तृप्ति भाव को किस आँगन मैं छोड़ आऊँ
प्रिय स्मृति घटों पर विरहपाश के कैसे बंधन तोड़ आऊँ
अधरों से मिलना अधरों का
तिमिर का मौन शृंगार हुआ
तृषित देह का देह मिलन से
अंगार पलों का संचार हुआ
किस पल को मैं बना के जुगनू तिमिर…
ContinueAdded by Sushil Sarna on November 4, 2015 at 7:30pm — 27 Comments
सड़क के किनारे छाँव देता
एक दायरे के भीतर कैद
खुद घुटता हुआ मगर
हमें साँसें देता हुआ वृक्ष
कंक्रीट की घेराबंदी से
छोटी सी सीमा रेखा
में बंधा हुआ वह पेड़
और पिजड़े मैं कैद
मासूम और बेबस पक्षी
दोनों में कितना साम्य है
दोनों ही जीवित हैं
लेकिन स्वतन्त्रता को खोकर
दोनों की ही हदें
मानव ने बाँध दी हैं
और अब वे बस हमारी
आवश्यकता का साधन हैं
लेकिन वृक्ष पक्षी से
कहीं अधिक बेबस…
ContinueAdded by Tanuja Upreti on November 4, 2015 at 4:30pm — 8 Comments
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