२२ २२ २२ २२
नफरत की बुआई जारी है
दहशत की कटाई जारी है
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ऊपर वाला है खौफज़दा
शैताँ की खुदाई जारी है
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गुड बंटना बंद हुआ जबसे
रिश्तों में खटाई जारी है
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मेजों पर अम्न की बातें हैं
सरहद पे लड़ाई जारी है
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दिल भी मैला रूह भी मैली
सड़कों की सफाई जारी है
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नादां को दानां का तमगा
ऐसी दानाई जारी है
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गुमशुद हैं दाना पंछी का
जालों की बुनाई जारी है
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बारिश…
ContinueAdded by योगराज प्रभाकर on November 10, 2015 at 11:00am — 8 Comments
Added by Manan Kumar singh on November 10, 2015 at 9:10am — 2 Comments
1212 - 1122 - 1212 – 22 |
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हरेक बात, करामात कह रहा हूँ मैं |
वो दिन को रात कहें, रात कह रहा हूँ मैं |
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लगे है आज तो खाली ख़याल अच्छे दिन… |
Added by मिथिलेश वामनकर on November 9, 2015 at 11:00pm — 6 Comments
अरकान- 1222 1222 1222 1222
न जाने क्यों भला फिर आज उनकी याद आयी है|
न मिलने की कसम जिनसे हमेशा मैंने खाई है|
मुरव्वत से हैं बेगाने हया तक बेच खाई है,
छूटे गर पिंड ऐसों से इसी में ही भलाई है|
तुम्हारी याद हावी है मेरे दिल पर उसी दिन से,
हुई खुशियाँ मेरी रुखसत दुखों से ही सगाई है|
समझकर देवता पत्थर को घर में ला बिठाया है,
इमारत दिल की यूँ अफसोस क्यों मैंने सजाई है|
जो मारा पीठ पर…
ContinueAdded by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on November 9, 2015 at 8:00pm — 1 Comment
मोहन कुमार आज एक शराबखाने के एक अलग-थलग कोने में बैठा था।मेज पर सामने एक बोतल शराब के साथ।जिस शराब को वह पीने की ज़बरदस्ती कोशिश कर रहा था,उसे शायद ही कभी पीया हो।एक हल्का सा ज़ाम बमुश्किल गले से उतार पाया।हल्के नशे में उसे अपने ज़िन्दगी का फ्लैशबैक नज़र आने लगा-
कॉलेज से पहले पत्रकारिता के प्रति रूचि..
इंटरमीडिएट के दौरान ही जाने माने टीवी पत्रकार को अपना आदर्श मान लेना...
अपनी रूचि के अनुरूप पत्रकारिता के उच्च कोर्स में प्रवेश लेना....
अपने आदर्श पत्रकार से…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 9, 2015 at 7:30pm — 4 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 9, 2015 at 6:20pm — 10 Comments
पिताजी!उस कमजोर बकरी को जल्दी हृष्ठ-पुष्ट देखने की चाह में स्नेहवश बागीचे से अलग-अलग किस्म की पत्तियां लाकर लगभग जबरन खिलाने की कोशिश कर रहे थे।लेकिन वो ढीठ की बच्ची भूख शांत होने के बाद किसी चींज को मुंह तक ना लगा रही थी।ये देख वे खीज गये और बोले:
"अरी खा ले कम्बख्त!इतने किस्म की पत्तियां मुफ़्त में मिल रही हैं और तू भाव खा रही है ।"
"अजी!गुस्सा क्यों होते हो जी ! मुफ़्त माल है!वो क्या जाने?जानवर है जानवर, इंसान नहीं है "मां कनखियों से देख, छेड़ लेकर बोली।
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मौलिक…
Added by Rahila on November 9, 2015 at 6:00pm — 18 Comments
पुरुष प्रधान देश में कोई,
'नर' नारी से बली नहीं ,
सदियों से है अब तक घर में,
दाल किसी की गली नहीं।
त्रेता युग में दशरथ जी ने ,
दुष्टों का संहार किया,
धर्म परायण रघुवंशी ने,
अपनी प्रजा से प्यार किया,
पर कैकेई के सम्मुख उनकी,
चाल एक भी चली…
ContinueAdded by Ajay Kumar Sharma on November 9, 2015 at 3:44pm — 1 Comment
Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 9, 2015 at 1:10pm — 7 Comments
"दद्दा, आपने यह जो सम्मान पत्र स्वर्णिम फ़्रेम में लगवा रखा है, इसकी वापसी की बोली तीन लाख सत्तर हज़ार तक पहुंच गयी है!अब और क्या चाहिये!कमा लो, बढिया मौका है!कुछ बच्चों के काम आयेगा!वैसे भी अब आप तो साल दो साल के मेहमान हो!फ़िर तो यह भी रद्दी हो जायेगा"!
"बक़वास बंद करो, नहीं तो दैंगे दो जूते खींच के"!
"जूते भले ही दो की ज़गह चार मार लो, पर यह बहती गंगा में हाथ धोने का अवसर मत छोडो"!
"हम शेर हैं, हम भेड बकरी नहीं जो इस भेड चाल में शामिल हो जांय"!
"दद्दा यह कोई…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on November 9, 2015 at 11:00am — 13 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 9, 2015 at 6:27am — 8 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 8, 2015 at 7:28pm — 8 Comments
Added by amod shrivastav (bindouri) on November 8, 2015 at 11:41am — 3 Comments
इस गीत के सभी अंतरे “हीर छंद” (६,६,११. आदि गुरु अंत रगण) पर आधारित हैं.
मानव है, मानव बन, मानव का प्यार ले,
बैर भूल, द्वेष मिटा, जिंदगी सँवार ले ||
लोक लाज, भूल गया, कैसा मनु कर्म…
ContinueAdded by Ashok Kumar Raktale on November 8, 2015 at 10:00am — 4 Comments
1222 1222 1222 1222
कहो कुछ तो समझ के भी जताते और ही कुछ हैं
अदीबों की ज़ुबाँ में कुछ , इरादे और ही कुछ हैं
रवादारी हो , रस्में या कोई हो मज़हबी बातें
अलग ऐलान करते हैं, सिखाते और ही कुछ हैं
उन्हें मालूम है सच झूठ का अंतर मगर फिर भी
दबा कर हर ख़बर सच्ची , दिखाते और ही कुछ हैं
जो क़समें दोस्ती की रोज़ खाते हैं, बिना…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 8, 2015 at 9:49am — 16 Comments
१२२२ २१२२ १२२२ २१२२
नहीं करना काम कोई मगर दर्शाना बहुत है
छछुंदर सी शक्ल पाई अजी इतराता बहुत है
जरा रखना जेब भारी करेगा फिर काम तेरा
सदा भूखी तोंद उसकी भले ही खाया बहुत है
वजन रखना बोलने पर जरा भारी बात का तू
दबा देगा बात को घाघ वो चिल्लाता बहुत है
दरोगा वो गाँव का देखिये तो मक्कार कितना
शिकायत लिखता नहीं फालतू हड़काता बहुत है
मुहल्ले में शांत रहता मगर उसने बारहा ही
भिड़ाया है…
ContinueAdded by rajesh kumari on November 7, 2015 at 6:18pm — 9 Comments
क्षण कठिन हो या सरल,
एक समान में जियो,
भूल कर अतीत को,
वर्तमान में जियो।
हो सुखों की संपदा,
दु:ख का पहाड़ हो,
नेक नियति मानकर,
तुम गरल-सुधा पियो।
जीत है कभी तो,
कभी हार भी मिले,…
ContinueAdded by Ajay Kumar Sharma on November 7, 2015 at 5:46pm — No Comments
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Added by मोहन बेगोवाल on November 7, 2015 at 4:30pm — 1 Comment
लघुकथा- नफरत
अख़बार में प्लास्टिक की बोरी पर दीपक बेचते गरीब बच्चे की फोटो के साथ उस की दास्ताँ छपी थी. जिस ने अपने मेहनत से अमेरिका में एरोनाटिक्स इंजीनियरिंग में मुकाम हासिल किया था. उस फोटो को देख कर हार्लिक बोला , “ कितना गन्दा बच्चा है. इसे देख कर खाना खाने की इच्छा ही न हो.”
“ यदि मैं देख लू तो मुझे उलटी हो जाए,” लुनिक्स ने अपना तर्क दिया, “ मम्मा ! ये भारतीय बच्चे इतने गंदे क्यों होते हैं ? आप तो भारत में रही है ना. आप वहां कैसे रहती थी. ये तो नफरत के काबिल है.”
“…
ContinueAdded by Omprakash Kshatriya on November 7, 2015 at 3:30pm — 10 Comments
16 रुक्नी ग़ज़ल
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नफ़रत का बाज़ार सजा है; हममें जितनी, कीमत उतनी।
इच्छाओं का दाम लगा है, खुदमें जितनी, कीमत उतनी।।
इस पुस्तक के पन्नों पर तुम, नैतिकता क्यों कर लिखते हो।
मानवता की छद्म व्याख्या, इसमें जितनी, कीमत उतनी।।
व्यवहार और समाचार में, सिर्फ एक सम्बन्ध यही है।
नमक मिर्च की हुई मिलावट, इनमें जितनी, कीमत उतनी।।
कलयुग वाले महाराज के, दरबारी मानक बदले हैं।
चाटुकारिता भरी हुई है, जिसमें…
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 7, 2015 at 9:30am — 13 Comments
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