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प्रधान संपादक
ग़ज़ल : रिश्तों में खटाई जारी है

२२ २२ २२ २२

नफरत की बुआई जारी है

दहशत की कटाई जारी है

.

ऊपर वाला है खौफज़दा

शैताँ की खुदाई जारी है

.

गुड बंटना बंद हुआ जबसे

रिश्तों में खटाई जारी है

.

मेजों पर अम्न की बातें हैं

सरहद पे लड़ाई जारी है

.

दिल भी मैला रूह भी मैली

सड़कों की सफाई जारी है

.

नादां को दानां का तमगा

ऐसी दानाई जारी है

.

गुमशुद हैं दाना पंछी का

जालों की बुनाई जारी है

.

बारिश…

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Added by योगराज प्रभाकर on November 10, 2015 at 11:00am — 8 Comments

गजल(मनन)

गजल

2122 2122 2122 2122

हम हुए कब से पराये अब बताना चाहिए भी,

जब हुए थे मनचले हम यह सुनाना चाहिए भी।

चुभ गयी थी चाँदनी तब ओस की इक बूँद बनकर,

हृत्-पटल तब से विखंडित कुछ जुड़ाना चाहिए भी।

खो गये हम थे बहुत उस नेह की सूनी डगर तब,

हैं कहाँ पहुँचे पता अब तो लगाना चाहिए भी।

भूलते हम जा रहे, जाना बहुत,फिर भी कहाँ तक,

रुत नयी नित हो रही कुछ तो अ-जाना चाहिए भी

बादलों-से केश काले कर रहे अठखेलियां जब,

ढक न जाये चाँद अब घूँघट हटाना चाहिए… Continue

Added by Manan Kumar singh on November 10, 2015 at 9:10am — 2 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
हरेक बात, करामात कह रहा हूँ मैं-- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

1212 - 1122 - 1212 – 22

 

हरेक बात, करामात कह रहा हूँ मैं

वो दिन को रात कहें, रात कह रहा हूँ मैं

 

लगे है आज तो खाली ख़याल अच्छे दिन…

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Added by मिथिलेश वामनकर on November 9, 2015 at 11:00pm — 6 Comments

न जाने क्यों भला फिर आज उनकी याद आयी है|

अरकान- 1222     1222       1222        1222 

न जाने क्यों भला फिर आज उनकी याद आयी है|

न मिलने की कसम जिनसे हमेशा मैंने खाई है|

मुरव्वत से हैं बेगाने हया तक बेच खाई है,

छूटे गर पिंड ऐसों से इसी में ही भलाई है|

तुम्हारी याद हावी है मेरे दिल पर उसी दिन से,

हुई खुशियाँ मेरी रुखसत दुखों से ही सगाई है|

समझकर देवता पत्थर को घर में ला बिठाया है,

इमारत दिल की यूँ अफसोस क्यों मैंने सजाई है|

जो मारा पीठ पर…

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Added by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on November 9, 2015 at 8:00pm — 1 Comment

आज़ाद देश के ग़ुलाम(लघुकथा)

मोहन कुमार आज एक शराबखाने के एक अलग-थलग कोने में बैठा था।मेज पर सामने एक बोतल शराब के साथ।जिस शराब को वह पीने की ज़बरदस्ती कोशिश कर रहा था,उसे शायद ही कभी पीया हो।एक हल्का सा ज़ाम बमुश्किल गले से उतार पाया।हल्के नशे में उसे अपने ज़िन्दगी का फ्लैशबैक नज़र आने लगा-

कॉलेज से पहले पत्रकारिता के प्रति रूचि..

इंटरमीडिएट के दौरान ही जाने माने टीवी पत्रकार को अपना आदर्श मान लेना...

अपनी रूचि के अनुरूप पत्रकारिता के उच्च कोर्स में प्रवेश लेना....

अपने आदर्श पत्रकार से…

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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 9, 2015 at 7:30pm — 4 Comments

"मीडिया से आइडिया" - [लघुकथा] 30 __शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"मीडिया से आइडिया" - (लघुकथा)



हालाँकि गुड्डन के तीनों बच्चे बहुत समझदार थे। काफी पहले से ही सब कुछ समझ रहे थे। कुछ ही दिनों में गुड्डन को फाँसी की सजा होने वाली थी। अम्मीजान के तो बुरे हाल हो रहे थे रो-रो कर। दादी माँ ने ही बच्चों को दिलासा देने के लिए उनसे कहा - " अच्छा-अच्छा सोचो, तो ग़म नहीं होगा। मुल्क के तमाम मशहूर लोगों की तरह तुम्हारे अब्बू मशहूर रहे हैं भले वो डकैती की दुनिया रही हो या दहशतग़र्दी की ! अखबारों में नाम छपता रहा है उनका। आज भी तो देखो , महान लोगों की तरह दुनिया… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 9, 2015 at 6:20pm — 10 Comments

मुफ़्त का माल -(लघुकथा )राहिला

पिताजी!उस कमजोर बकरी को जल्दी हृष्ठ-पुष्ट देखने की चाह में स्नेहवश बागीचे से अलग-अलग किस्म की पत्तियां लाकर लगभग जबरन खिलाने की कोशिश कर रहे थे।लेकिन वो ढीठ की बच्ची भूख शांत होने के बाद किसी चींज को मुंह तक ना लगा रही थी।ये देख वे खीज गये और बोले:

"अरी खा ले कम्बख्त!इतने किस्म की पत्तियां मुफ़्त में मिल रही हैं और तू भाव खा रही है ।"

"अजी!गुस्सा क्यों होते हो जी ! मुफ़्त माल है!वो क्या जाने?जानवर है जानवर, इंसान नहीं है "मां कनखियों से देख, छेड़ लेकर बोली।

.

मौलिक…

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Added by Rahila on November 9, 2015 at 6:00pm — 18 Comments

नर- नारी से बली नहीं। " अज्ञात "

पुरुष प्रधान देश में कोई,                         

'नर' नारी से बली नहीं ,                            

सदियों से है अब तक घर में,                     

दाल किसी की गली नहीं।

त्रेता युग में दशरथ जी ने ,                          

दुष्टों का संहार किया,                          

धर्म परायण रघुवंशी ने,                            

अपनी प्रजा से प्यार किया,                      

पर कैकेई के सम्मुख उनकी,                    

चाल एक भी चली…

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Added by Ajay Kumar Sharma on November 9, 2015 at 3:44pm — 1 Comment

"मिठाई का डिब्बा" - [लघुकथा] 29 __शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"मिठाई का डिब्बा" -(लघुकथा)



"अरे सुनो, दीपावली पूजा का थोड़ा सा प्रसाद उसको भी तो दो "



"क्यों दें उसको ? साला न मीठी ईद पर बुलाता है घर पर, न कभी बकरीद पे गोश्त खिलवाता है काइयां, मनघुन्ना !"



"दे दो यार, भला आदमी है, ड्यूटी पे कभी टिफिन नहीं लाता, गंभीर होकर ड्यूटी करता है, और सभी धर्मों का आदर भी तो करता है !"



" तो ऐसा करते हैं कि ये वाला प्रसाद तू रख ले और जो प्रसाद अभी चपरासी ने अपन को दिया है, वो उसको दे देते हैं, साला याद रखेगा अगली ईद तक… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 9, 2015 at 1:10pm — 7 Comments

मौका परस्त – ( लघुकथा ) -

"दद्दा, आपने यह जो सम्मान पत्र स्वर्णिम फ़्रेम में लगवा रखा है, इसकी वापसी की बोली तीन लाख सत्तर हज़ार तक पहुंच गयी है!अब और क्या चाहिये!कमा लो, बढिया मौका है!कुछ बच्चों के काम आयेगा!वैसे भी अब आप तो साल दो साल के मेहमान हो!फ़िर तो यह भी रद्दी हो जायेगा"!

"बक़वास बंद करो, नहीं तो दैंगे दो जूते खींच के"!

"जूते भले ही दो की ज़गह चार मार लो, पर यह बहती गंगा में हाथ धोने का अवसर मत छोडो"!

"हम शेर हैं, हम भेड बकरी नहीं जो इस भेड चाल में शामिल हो जांय"!

"दद्दा यह कोई…

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Added by TEJ VEER SINGH on November 9, 2015 at 11:00am — 13 Comments

"कुछ पलों का चाँद" - (लघुकथा) 28 __शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"कुछ पलों का चाँद" - ---(लघुकथा)



"अब रोने से क्या फायदा ? पहले सेे पैसों का इन्तज़ाम रखना था, और डाक्टरनी को पहले से ही कुछ एक हज़ार एडवांस दे देते, कम से कम सही टाइम पर ओपरेशन तो हो जाता !"



"पैसों का अच्छा इन्तज़ाम ही हो जाता, तो सरकारी की बजाय तुम्हें प्राइवेट अस्पताल में ही वक़्त से पहले ही भर्ती न करवा देता ! " जमीला की बात का जवाब देते हुए उसके शौहर नासिर ने कहा। -"मैंने कहा था न कि बिटिया ही होगी ! कितनी ख़ूबसूरत बिटिया दी थी अल्लाह मियाँ ने। तुम्हारे पास ही लिटाया था… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 9, 2015 at 6:27am — 8 Comments

आइये महानुभाव

आइये महानुभाव!

बेख़ौफ़ आईये

मत घबराईये।।



ये गरीबखाना है

यहाँ सबका आना जाना है।



ये जो झीलंगहिया खटिया है न?

दर्द से चुर्र चुर्र ज़रूर कराहती है

पर यह सबके भार उठाती है।।



खैर!

आप मचिया पर बैठिये

किन्तु थोड़ा ठहरिये

इसे साफ़ कर देता हूँ

आपके लायक कर देता हूँ।



आपके श्वेतावरण का ध्यान है मुझे;

दाग अंदर हों, कोई बात नहीं

लेकिन

कपड़ों पर अच्छे नहीं लगते

ज्ञात है मुझे।।



बोलिये… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 8, 2015 at 7:28pm — 8 Comments

हम गरीबों को भी अपना

हम गरीबों को भी अपना ...

2122-2122-2122-212



धर्म मजहब लीक कैसी सब मिटा दे ऐ खुदा/

हम गरीबों को भी अपना कुछ पता दे ऐ खुदा//



मुद्दतें बीती नही आया कोई तेरा फ़ैसला/

निर्धनों के घर को आ के कुछ सज़ा दे ऐ खुदा //



रोज दानें बुन के लौटी माँ मेरी कहती तुझे/

जनता है वो खुदा है कुछ सदा दे ऐ खुदा//



रौशनीं भी इस धरा की खो गई जानें कहाँ/

अब बुझे सारे चिरागों को जला दे ऐ खुदा//



हो दिवाली गाँव घर-घर रौशनीं हो प्यार की/

भूख से… Continue

Added by amod shrivastav (bindouri) on November 8, 2015 at 11:41am — 3 Comments

गीत

इस गीत के सभी अंतरे “हीर छंद” (६,६,११. आदि गुरु अंत रगण) पर आधारित हैं.

 

 

मानव है, मानव बन, मानव का प्यार ले,

बैर भूल, द्वेष मिटा, जिंदगी सँवार ले ||

  

लोक लाज, भूल गया, कैसा मनु कर्म…

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Added by Ashok Kumar Raktale on November 8, 2015 at 10:00am — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गज़ल - अदीबों की ज़ुबाँ में कुछ , इरादे और ही कुछ हैं - गिरिराज भंडारी

1222     1222      1222     1222

कहो कुछ तो समझ के भी जताते और ही कुछ हैं

अदीबों की ज़ुबाँ में कुछ , इरादे और ही कुछ हैं  

 

रवादारी हो , रस्में या कोई हो मज़हबी बातें

अलग ऐलान करते हैं, सिखाते और ही कुछ हैं

 

उन्हें मालूम है सच झूठ का अंतर मगर फिर भी  

दबा कर हर ख़बर सच्ची , दिखाते और ही कुछ हैं  

 

जो क़समें दोस्ती की रोज़ खाते हैं, बिना…

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Added by गिरिराज भंडारी on November 8, 2015 at 9:49am — 16 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
रँगेहाथों कोई पकड़े तो हक हकलाता बहुत है (हास्य व्यंग ग़ज़ल 'राज'

१२२२ २१२२  १२२२ २१२२

नहीं करना काम कोई मगर दर्शाना बहुत है

छछुंदर सी शक्ल पाई अजी इतराता बहुत है

 

जरा रखना जेब भारी करेगा फिर काम तेरा

सदा भूखी तोंद उसकी भले ही खाया बहुत है

 

वजन रखना बोलने पर जरा भारी बात का तू  

दबा देगा बात को घाघ वो चिल्लाता बहुत है

 

दरोगा वो  गाँव  का देखिये तो  मक्कार कितना

शिकायत लिखता नहीं फालतू हड़काता बहुत है

 

मुहल्ले में शांत रहता मगर उसने बारहा ही   

भिड़ाया है…

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Added by rajesh kumari on November 7, 2015 at 6:18pm — 9 Comments

वर्तमान में जियो। " अज्ञात "

क्षण कठिन हो या सरल,                 

एक समान में जियो,                         

भूल कर अतीत को,                          

वर्तमान  में जियो।                              

हो सुखों की संपदा,                           

दु:ख का पहाड़ हो,                          

नेक नियति मानकर,                                  

तुम गरल-सुधा पियो।                      

जीत है कभी तो,                             

कभी हार भी मिले,…

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Added by Ajay Kumar Sharma on November 7, 2015 at 5:46pm — No Comments

समाज का जहर (लघुकथा)

कल की बात याद आते ही एक तो उसका दिल करा उस की कोठी मे काम के लिए न जाए, मगर पेट की भूख उस को आज फिर उसकी  कोठी तक खींच लाई थी |    

"कोई ऐसे भी तो नहीं कह देता कि उसके रिश्तेदार की मौत हो गई| " 

मगर जब बीबी ने कहा," रत्ती ! तुम झूठ बोल रही हो", |

“तो उसे लगा, क्या कोई मौत पर भी झूठ बोल सकता है…

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Added by मोहन बेगोवाल on November 7, 2015 at 4:30pm — 1 Comment

लघुकथा- नफरत

लघुकथा- नफरत

अख़बार में प्लास्टिक की बोरी पर दीपक बेचते गरीब बच्चे की फोटो के साथ उस की दास्ताँ छपी थी. जिस ने अपने मेहनत से अमेरिका में एरोनाटिक्स इंजीनियरिंग में मुकाम हासिल किया था. उस फोटो को देख कर हार्लिक बोला , “ कितना गन्दा बच्चा है. इसे देख कर खाना खाने की इच्छा ही न हो.”

“ यदि मैं देख लू तो मुझे उलटी हो जाए,” लुनिक्स ने अपना तर्क दिया, “ मम्मा ! ये भारतीय बच्चे इतने गंदे क्यों होते हैं ? आप तो भारत में रही है ना. आप वहां कैसे रहती थी. ये तो नफरत के काबिल है.”

“…

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Added by Omprakash Kshatriya on November 7, 2015 at 3:30pm — 10 Comments

जिसमें जितनी कीमत उतनी- पंकज मिश्र

16 रुक्नी ग़ज़ल

=====================================

नफ़रत का बाज़ार सजा है; हममें जितनी, कीमत उतनी।

इच्छाओं का दाम लगा है, खुदमें जितनी, कीमत उतनी।।



इस पुस्तक के पन्नों पर तुम, नैतिकता क्यों कर लिखते हो।

मानवता की छद्म व्याख्या, इसमें जितनी, कीमत उतनी।।



व्यवहार और समाचार में, सिर्फ एक सम्बन्ध यही है।

नमक मिर्च की हुई मिलावट, इनमें जितनी, कीमत उतनी।।



कलयुग वाले महाराज के, दरबारी मानक बदले हैं।

चाटुकारिता भरी हुई है, जिसमें…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 7, 2015 at 9:30am — 13 Comments

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