For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

All Blog Posts (18,939)

, लक्ष्मण- रेखा(लघुकथा)

शाम को देश के हर शहर की तरह मेरे शहर के बाज़ारों में भी बहुत भीड़ होती है I बाज़ार की सड़क के दोनों तरफ खड़ी गाड्यिां के बीच रह गई  सड़क पर हर कोई तेज़ी से आगे निकलने की कोशिश करता दिखाई देता है Iचाहे वो  पैदल,टू-व्हीलर रिक्शा,साईकल व कार पे सवार हो, आज मैं  भी तेज़ी से  हर तरह की भीड़ को चीरता  हुआ, बस स्टॉप की और बढ़ रहा था,मगर मेरा शरीर साथ नहीं दे रहा था I इस लिए लोकल बस का इंतजार करना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था I  थ्री- व्हीलर स्टॉप आते ही मैं रुक गया I…

Continue

Added by मोहन बेगोवाल on November 4, 2015 at 2:30pm — 5 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
होंठों पे जिनके दीप जलाने की बात है--- (ग़ज़ल)--- मिथिलेश वामनकर

221 2121 1221 212

 

होंठों पे जिनके दीप जलाने की बात है

सीने में उनके आग लगाने की बात है

 

झाड़ी के फैलते हुए हाथों को काट…

Continue

Added by मिथिलेश वामनकर on November 4, 2015 at 12:34pm — 27 Comments

सारा आलम, धुँआ - धुँआ हो जाये

 सारा आलम,

धुँआ - धुँआ हो जाये

इसके पहले

बचा लेना चाहता हूँ

थोड़ी से 'हवा'

पारदर्शी और स्वच्छ

जो बहुत ज़रूरी है

स्वांस लेने के लिए

ज़िंदा रहने के लिए…

Continue

Added by MUKESH SRIVASTAVA on November 4, 2015 at 9:30am — 4 Comments

"विधि-विधान व्यवधान" - [लघुकथा] 26 - शेख़ शहज़ाद उस्मानी

दोनों की अपनी अपनी व्यस्त दिनचर्या। बच्चों को सुबह स्कूल बस स्टॉप पर छोड़ने के बाद थोड़ी सी चहलक़दमी से थोड़ा सा साथ, थोड़ा सा वार्तालाप, शायद रिश्तों में छायी बोरियत दूर कर दे।



"तुम्हें जानकर शायद ख़ुशी हो कि फेसबुक और साहित्यिक वेबसाइट में कुल मिलाकर सत्तर लघु कथाएँ, दो ग़ज़लें, दो गीत, कुछ छंद..... मेरा मतलब तकरीबन हर विधा में विधि-विधान के साथ मेरी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं।" - लेखक ज़हीर 'अनजान' ने बीच रास्ते में अपनी बीवी साहिबा से कहा। लेकिन सब अनसुना करते उन्होंने एक…

Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 4, 2015 at 8:30am — 11 Comments

अंधेरों का वजूद/ लघुकथा

सहसा अंतरव्यथा से जूझती हुई सिसकियों ने दम तोड़ ,घुटने टेक दिये । फैसला कायम हो चुका था । काले कोट वाले वजीर ने गुनाहों के कीचड़ में सने हुए बादशाह को , सूर्य  सा दैदीप्यमान बना दिया था। गुनाह बेदाग़ बरी हो अट्टाहास करता हुआ बाहर की तरफ एक और  बाजी खेलने को विदा हुआ । इधर काले कोट वाला वजीर अपने जेब की गहराई नाप रहा था। 

और उधर अंधी के आँखों पर चढी काली पट्टी ने अंधेरों का वजूद अंततः कायम रखा. तराजू फिर जरा सा डोल कर रह गया ।



मौलिक व…

Continue

Added by kanta roy on November 3, 2015 at 11:00pm — 10 Comments

आलोचना के स्वर // आबिद अली मंसूरी!

कौन सुनता है

कौन सुनना चाहता है
किसे पसन्द है आलोचना अपनी
एक कड़वा सच
छिपा होता है
आलोचना के शब्दों में
जिसे
नहीं चहते हम
स्वीकार करना,
जानते हैं
अपने अन्दर फ़ैले
खरपतवारों को सभी
पर नहीं चाहते
उखाड़ना
उनकी जड़ों को,
कभी-कभी
अकारण ही
करना पड़ता है
सामना
आलोचनाओं के बबंडर…
Continue

Added by Abid ali mansoori on November 3, 2015 at 8:30pm — 18 Comments

विडम्बना ( लघुकथा )

बाल श्रम उन्मूलन सप्ताह की कवरेज करके सहकर्मी राकेश के संग लौट रहा सुमित उमंग और जोश से लबरेज़ था।

" सरकार के इस कदम की जितनी प्रशंसा की जाए कम है । कम से कम भोले भाले मासूमों का बचपन तो न छीन पाएगा कोई अब। "

एक झोपड़ पट्टी के पास से गुज़रते हुए जमा भीड़ और एक फटेहाल स्त्री का उच्च स्वर में रुदन सुनकर वह रुक गया

" आग लग जावे इस सरकार को,

अच्छा भला मेरा मुन्ना काम करके चार पैसा कमा लेवे था।पन सज़ा के डर से काउ ने बाए काम पर न रखो।का करता बेचारा ?पेट की आग बुझावे की खातिर चोरी कर… Continue

Added by jyotsna Kapil on November 3, 2015 at 7:25pm — 8 Comments

नजरें दीवारों पर क्यों। " अज्ञात "

बेकार हजारों कोशिश भी,                         

इन आँखों को समझाने की ,                    

रखती हैं समुंदर को वश में,                   

और धार बहाये रहती हैं।

                       

जबकि है मालूम इन्हें,                                     

वो दूर हैं नजरों से फिर भी,                   

नजरें दीवारों पर क्यों,                                   

टकटकी लगाये रहती हैं।

                     

है असर मुहब्बत का…

Continue

Added by Ajay Kumar Sharma on November 3, 2015 at 5:26pm — 2 Comments

चाँदी के बटन ( लघु कथा )

सुनार की दुकान में बैठी नीलिमा अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रही थी।कि 75- 78 वर्ष के बुजुर्ग पर ध्यान चला गया।

" आओ -आओ आज़ क्या बनवा रहे हो अपनी बुढ़िया के लिए।" सुनार मोती लाल ने कहा।

ज़ेब से सुंदर चाँदी के बटन निकाल बुजुर्ग बोले , " इनमें चाँदी के घुंघुरू लगा दो।"

" आहा बुबू जी ! कितने सुंदर हैं ये ; कहाँ से बनवाये ? " नीलिमा ने उनको बैठने की ज़गह देते हए पूछा।



"चेली ! ये असली चाँदी नहीं है। नकली बटन हैं "

"अरे , तो फ़िर इनमें असली चाँदी के घुंघुरू क्यों लगवा रहे… Continue

Added by Janki wahie on November 3, 2015 at 5:22pm — 14 Comments

जरूरत (लघुकथा)

मॉल से दीवाली की ढेर सारी खरीदारी करके जैसे ही कार से गेट के बाहर निकले,एक गुब्बारे बेचने वाला कम उम्र का लड़का दौड़कर आया और गुब्बारे खरीदने की इल्तिज़ा करने लगा।

"अरे नहीं चाहिये भैया !"

"ले लो ना बीबी जी! "

"हां मम्मा ! ले लो ना मुझे चाहिये "

"अरे नहीं बेटा! क्या करोगे?अभी इतने सारे खिलौनें खरीदे है ना।"

"जाओ भैया!हमें जरूरत नहीं ।"उसने झिड़कने के अंदाज में कहा ।

लड़का थोड़ा हताश हुआ और बोला -

"कुछ चीजें जरूरी तो नहीं जब जरूरत हो तभी खरीदी जाए बीबी…

Continue

Added by Rahila on November 3, 2015 at 12:30pm — 11 Comments

झूठ - लघुकथा

" झूठ - लघुकथा "

"देख सुधा लौट आई मेरी बिन्नो।" कहते हुए माँ ने अपनी नवजात पोती को उसकी उसकी गोद में डाल दिया।

"हाँ माँ ये तो सच में पूरी बिन्नो मौसी है।" माँ की ख़ुशी में शामिल होते हुए सुधा ने मुस्करा कर अपनी भाभी सुमन की ओर देखा मानो पूछ रही हो। "बात बनी कि नहीं!"

भाभी को, ख़ुशी से झूमती माँ को एक टक देख अनायास ही उसके सामने भाभी का परेशान चेहरा अतीत में झलकने लगा। "जीजी मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं माँजी को कैसे ये 'रिपोर्ट' दिखाऊं। वो पहले ही सिर्फ 'पोते' की जिद पर अड़ी है और… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on November 3, 2015 at 11:42am — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
'दूसरा पहलू' (लघु कथा 'राज')

“आज उदास क्यूँ हो बेटा क्या सोच रहे हो ”? जलेबी पकड़ाते हुए पापा ने उसकी आँखों में देखते हुए  पूछा| “पापा मैं एक बहुत बड़ी दुविधा में हूँ आपको तो पता है मैं चित्रकला और काव्य लेखन  दोनों ही  विधाओं को पसंद करता हूँ तथा दिन रात मेहनत करता हूँ आगे अपना कैरियर भी इन्हीं में से किसी एक को लेकर बनाना चाहता हूँ” वैभव ने कहा | “तो फिर इसमें कैसी दुविधा है बेटा”?

“पापा मैं तो दोनों में  ही अपने को कुशल समझता था पर चुनाव करने में असमंजस में था तो मैंने सोचा क्यूँ न मैं इन विधाओं…

Continue

Added by rajesh kumari on November 3, 2015 at 11:38am — 14 Comments

आशा की किरण ( लघुकथा )

बेटी सनाया के लिए वर अनुसन्धान में हलकान होती रीमा के लिए वो बाँका सुदर्शन किरायेदार आशा की किरण लेकर आया था। इतनी अच्छी तनख्वाह और सभी ऐबों से दूर रहने वाले अश्विन को लेकर उनका मन कुलाँचें भरने लगा।

अब तो वक़्त बेवक़्त पकवान बनकर उसके पास पहुंचने लगे।हर वक्त बेटी की होशियारी का बखान और ममता लुटाने में कोई कसर न छोड़ी थी रीमा ने।कुछ दिन के लिए अपने घर गया अश्विन आज लौटने वाला था।उसे घेरने की पूरी तैयारी कर ली थी उन्होंने।इस बार बेटी के जन्मदिन पर उसकी सगाई का ऐलान करके दोहरे जश्न की…

Continue

Added by jyotsna Kapil on November 3, 2015 at 11:30am — 6 Comments

दोष आरक्षण के अब तो -(गजल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122    212

*********************************

बारिशों के  हादसे  जब  दामनों  तक आ गए

दुख मेरी तन्हाइयों की बस्तियों तक आ गए /1



याद  मुझको   तो  नहीं  हैं  ठोकरें मैंने भी दी

क्यों ये पत्थर रास्तों के मंजिलों तक आ गए /2



सोचकर निकले थे  बाहर  कुछ  उजाला ढूँढ लें

घर के तम लेकिन हमारे  रास्तों तक आ गए /3



नाव  जर्जर  और  पतवारें   रहीं   सब  अनमनी

क्या बताएं किस तरह हम साहिलों तक आ गए /4



हो रही है माँग हर शू जाति  क्या औ…

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 3, 2015 at 10:47am — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
सर झुकाये हयात आई इसरार पर- शिज्जु शकूर

212 212 212 212

आये उश्शाक़ खुद को लिये दार पर

सर झुकाये हयात आई इसरार पर



ओस की बूंद सा चाँद ढलता हुआ

खूब है सुब्ह के सुर्ख़ रुखसार पर



माह अफ़्लाक़ पर जल उठे हैं कई

नूर उछला है उनका शबे तार पर



मारने हक़ हज़ारों खड़े हैं यहाँ

और मक़्तूल तलवार की धार पर



अपनी नाकामियों का ख़मोशी के साथ

रख दिया उसने इल्ज़ाम अगयार पर



कौन अपना नुमाइंदा है मुल्क में

फूल है तो कहीं हाथ दस्तार पर



ढूँढ ही लेते हैं राह… Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on November 3, 2015 at 9:26am — 20 Comments

अमीरी, लघुकथा

घर से निकलते समय मुझे ये पता ही न रहा कि मैने पुरानी चप्पल डाली है | थोड़ी दूर चलने के बाद चप्पल टूट गई, इसी दुबिधा में कि घर वापस जाऊं या आगे,मैं टूटे चप्पल के साथ पैर घसीटते हुए आगे बढ़ गया | अचानक मेरा ध्यान सड़क के किनारे बैठे जूतियाँ गांठने वाले पर पड़ी, उसके नजदीक जा मैने चप्पल आगे बढ़ा दी |

" पांच रुपए लगेंगे " उसने नजरें चप्पल की और डालते हुए कहा |"

कोई बात नहीं " आप इसे ठीक कर दो |,

मैने उसकी आवाज़ पहचानते हुए थोडा सोच पे जोर देते हुए कहा |

"…

Continue

Added by मोहन बेगोवाल on November 3, 2015 at 1:00am — 8 Comments

तुम इस ही बहाने आओ भी

16 रुक्नी ग़ज़ल

=================================

हम अब भी साँसें खींच रहे; कुछ और सितम तुम ढ़ाओ भी।

दीदार तो होगा कम से कम; तुम इस ही बहाने आओ भी।।



कल सुब्ह चले जाना ये शब, तूफ़ान भरी को बीतने दो।

बादल झरते हैं आँखों से, बरसात है तुम रुक जाओ भी।



अरमान भरे दिल की दुनिया, उजड़ी है अभी बर्बाद हुई।

बस बाकी है दीवार ज़रा, माटी में इसको मिलाओ भी।।



तैयार ज़रा कर दो मुझको, बिखरा बिखरा हूँ ठीक नहीं।

शृंगार अधूरा है मेरा, कुछ मोती मुझपे चढ़ाओ… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 2, 2015 at 10:30pm — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
नज़र अपनी सितारों पर टिकाने से जरा पहले--(ग़ज़ल)--मिथिलेश वामनकर

1222—1222—1222—1222

 

नज़र अपनी सितारों पर टिकाने से जरा पहले

जमीं पर तुम जमा लेना सलीके से कदम अपने

 

फलक को चाँद भी रौशन करे खुद के उजालों…

Continue

Added by मिथिलेश वामनकर on November 2, 2015 at 5:28pm — 14 Comments

"शह और शिकस्त" - [लघुकथा] 25 (शतरंज संदर्भित) - शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"शह और शिकस्त" - (लघुकथा)



दोनों अलमारी में बहुत ही गोपनीय तरीके से रखे गए थे कई आवरणों से लपेट कर पैकेटों में। काले धन का पैकेट और कंडोम का पैकेट।



"आख़िर तुम गलकर सड़ ही गये न ! उत्पत्ति को रोकने के लिए किसने किया तुम्हारा उपयोग "- काले धन ने कहा।



"सच कहते हो" - कंडोम का पैकेट बोला - " जब तुम्हारी व्यवस्था करने में ही पुरुष दिन-रात एक करेगा, तो दाम्पत्य कर्तव्य वह कैसे निभायेगा , और निभायेगा भी तो उतावलेपन में मेरा इस्तेमाल करेगा कौन,भले उत्पत्ति होती रहे, कष्ट… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 2, 2015 at 5:09pm — 1 Comment

ग़ज़ल- सारथी || इन्तिज़ार इन्तिज़ार है तो है ||

इन्तिज़ार इन्तिज़ार है तो है 

ऐतबार ऐतबार है तो है /१

मैं हूँ नादाँ अगर तो, हूँ तो हूँ 

वो अगर होशियार है तो है /२ 

छोड़कर मुझको सिर्फ़ इक वो चाँद 

हिज़्र का राज़दार है तो है /३  

कल वो हँसता था मेरी हालत पर 

वो भी अब बेक़रार है तो है /४ 

दीद का लुत्फ़ हो गया हासिल 

अब नज़र कर्ज़दार है तो है /५ 

...........................................
सर्वथा मौलिक व अप्रकाशित

अरकान: २१२२ १२१२ २२ 

Added by Saarthi Baidyanath on November 2, 2015 at 3:30pm — 4 Comments

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

धर्मेन्द्र कुमार सिंह posted a blog post

जो कहता है मज़ा है मुफ़्लिसी में (ग़ज़ल)

1222 1222 122-------------------------------जो कहता है मज़ा है मुफ़्लिसी मेंवो फ़्यूचर खोजता है लॉटरी…See More
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सच-झूठ

दोहे सप्तक . . . . . सच-झूठअभिव्यक्ति सच की लगे, जैसे नंगा तार ।सफल वही जो झूठ का, करता है व्यापार…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर posted a blog post

बालगीत : मिथिलेश वामनकर

बुआ का रिबनबुआ बांधे रिबन गुलाबीलगता वही अकल की चाबीरिबन बुआ ने बांधी कालीकरती बालों की रखवालीरिबन…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक ..रिश्ते
"आदरणीय सुशील सरना जी, बहुत बढ़िया दोहावली। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर रिश्तों के प्रसून…"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"  आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, प्रस्तुति की सराहना के लिए आपका हृदय से आभार. यहाँ नियमित उत्सव…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी सादर, व्यंजनाएँ अक्सर काम कर जाती हैं. आपकी सराहना से प्रस्तुति सार्थक…"
Sunday
Hariom Shrivastava replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"आपकी सूक्ष्म व विशद समीक्षा से प्रयास सार्थक हुआ आदरणीय सौरभ सर जी। मेरी प्रस्तुति को आपने जो मान…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"आपकी सम्मति, सहमति का हार्दिक आभार, आदरणीय मिथिलेश भाई... "
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"अनुमोदन हेतु हार्दिक आभार सर।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन।दोहों पर उपस्थिति, स्नेह और मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत आभार।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ सर, आपकी टिप्पणियां हम अन्य अभ्यासियों के लिए भी लाभकारी सिद्ध होती रही है। इस…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 156 in the group चित्र से काव्य तक
"हार्दिक आभार सर।"
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service