" अब्बू ,ये नकाब और ये बुर्का? मैं नहीं पहनूंगी बस। "कहते हुए नीलोफर बाहर निकल गयी।
"क्या आप भी नीलोफर के अब्बा।ज़माना बदल गया है।आप भी बदल जाइए न।"
"कैसे बताऊँ तुमलोगों को बेग़म। ज़माना बिलकुल भी नहीं बदला है।बल्कि और भी बदतर हो गया है लड़कियों के लिए।"
कहते हुए हुए सिद्दकी साहब के जहन में वे सारी एक्स रे जैसी निगाहें घूमने लगीं जो कल बाज़ार में उनकी मासूम बच्ची के शरीर को छेदती हुई उनके दिल में सुई की तरह चुभ रही थीं।
.
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Mala Jha on April 23, 2015 at 7:00pm — 17 Comments
पार्टियों की रेस तो देखो कितनी है रफ़्तार
सत्ता में जब भी आ जाती, होता हाहाकार
चुनाव जीतकर आ जाए तो कितना अहंकार
भ्रष्टाचार का सभी तरफ फ़ैल गया अंधकार
काम करे सरकारी अफसर, कर रहे उपकार
रिश्वत खाकर फूले हैं और हो गए मक्कार
ईमानदारी पर आजकल मिलती है फटकार
बिक गए हैं बेईमानी में हम सब के संस्कार
नेता भाई किसान को जाकर दे गए ललकार
दाम दे देंगे जमीन के बंद करो फुफकार
कदम कदम पे रह…
ContinueAdded by Nidhi Agrawal on April 23, 2015 at 6:15pm — 8 Comments
बिना लाग लपेट के
बिना पाखण्ड के
सुन लेता है
समझ लेता है
ईश्वर मन की बात
जान लेता है आत्मा के भाव
फिर भी जाने क्यों
मन्दिर का घंटा जोर जोर से
तीन बार बजाने पर हr
प्रार्थना पूर्ण होने का
पूर्ण सा अहसास होता है
आत्म-मन -चित्त को
बडा ही भ्रमित है
मेरा अल्पज्ञान
ये सोच सोचकर
भारहीन मौन प्रार्थना को
ईश्वर तक पहुँचाने के लिये
मन्दिर के घंटे की आबाज
का भारी भरकम
भार क्यों लपेटा जाता है ?
मौलिक व…
Added by umesh katara on April 23, 2015 at 9:01am — 21 Comments
बहुत ही व्यस्त कार्यक्रम था आज मंत्री जी का। सारे दिन शैक्षिक गुणवत्ता की कायर्शाला में अधिकारियों , शिक्षाविदों के साथ वाद-विवाद में जबरदस्त सक्रिय रहे माननीय मंत्री जी, बार बार यही दोहराते रहे , " सदियों से हम विश्व-गुरु रहें हैं, हम ऐसी शिक्षा दें कि कोई भी शिक्षा के लिए विदेश न जाना चाहे।"
शाम घर जाते कार में पी ए से बता रहे थे:
"हफ्ते भर बाहर रहूंगा, रात दिल्ली निकल रहा हूँ I कल अमेरिका की फ्लाइट है, बेटे को हॉस्टल छोड़ कर आना है।.कहाँ कहाँ का जुगाड़ लगाया है तब एडमिशन मिला…
ContinueAdded by Dr. Vijai Shanker on April 23, 2015 at 9:00am — 26 Comments
22 22 22 22 22 2
दरवाज़े पर देखो कोई आया क्या ?
अपने हिस्से का कोलाहल लाया क्या ?
ख़ँडहर जैसा दिल मेरा वीराना, भी
खनक रही इन आवाज़ों को भाया क्या ?
कुतिया दूध पिलाती है, बंदरिया को
इंसाँ मारे इंसाँ को, शर्माया क्या ?
फुनगी फुनगी खुशियाँ लटकी पेड़ों पर
छोटा क़द भी, तोड़ उसे ले पाया क्या ?
सारे पत्थर आईनों पर टूट पड़े
कोई पत्थर ,पत्थर से टकराया क्या ?
जुगनू सहमा सहमा सा…
Added by गिरिराज भंडारी on April 22, 2015 at 6:30pm — 28 Comments
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
जिन्दगी के गीत गाता आदमी रो जायेगा
जिस घड़ी पत्थर का ये दिल मोम सा हो जायेगा
भूख से बेहाल बच्चा जो न सोया अब तलक
माँ अगर लोरी सुना दे भूखा ही सो जायेगा
आज तक मंदिर न जाकर कर दिया जो पाप है
माँ की सेवा से मिला आशीष वो धो जायेगा
मुतमइन था देख कर मैले में इंसानों की भीड़
तब न सोचा था,यहाँ बच्चा मेरा खो जाएगा
मानती जिस को थी दुनिया इक मसीहा आज…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on April 22, 2015 at 1:00pm — 15 Comments
"माँ, इस एफ.डी.आर. में भी नॉमिनी मुझे ही रखना, भैया सम्भाल नहीं सकता|"
"बेटे, मैं बराबर बांटना चाहती हूँ| उसको देख, तेरे पिताजी के देहांत के बाद उसने खुदके हक की सरकारी नौकरी तुझे दे दी और खुद प्राइवेट नौकरी में धक्के खा रहा है|"
"यही बात तो उसको बेवकूफ साबित करती है|"
(मौलिक और अप्रकाशित)
Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on April 22, 2015 at 12:35pm — 13 Comments
आदमी की भूख में उछाल आ गया |
पत्थरों को घिस दिया पहाड़ खा गया |
रुख बदल के जल प्रवाह मोड़ ही दिया,
भूख ही थी आदमी कमाल पा गया |
तम निगल कर रौशनी तमाम कर दिया,
जब लगाई युक्ति तो विकास छा गया |
देखकर सबकुछ खुदा मगन दिखा वहाँ,
आदमी को आज का मचान भा गया |
तन मिला दुर्लभ इसे वृथा नहीं किया
जिन्दगी थोड़ी मगर उठान ला गया ||
( मौलिक अप्रकाशित )
Added by Chhaya Shukla on April 22, 2015 at 12:00pm — 6 Comments
कोकिला क्यों मुझे जगाती है,
तोड़ कर ख्वाब क्यों रुलाती है.
नींद भर के मैं कभी न सोया था,
बेवजह तान क्यों सुनाती है.
चैन की भी नींद भली होती है
मधुर सुर में गीत गुनगुनाती है
बेबस जहाँ में सारे बन्दे हैं
फिर भी तू बाज नहीं आती है
(मौलिक व अप्रकाशित)
- जवाहर लाल सिंह
गजल लिखने की एक और कोशिश, कृपया कमी बताएं
Added by JAWAHAR LAL SINGH on April 22, 2015 at 12:00pm — 12 Comments
2122 2122 2122 212
******************************
पत्थरों के बीच रहकर देवता बनकर दिखा
दीन मजलूमों के हित में इक दुआ बनकर दिखा
****
कर रहा आलोचना तो सूरजों की देर से
है अगर तुझमें हुनर तो दीप सा बनकर दिखा
****
चाँद पानी में दिखाकर स्वप्न दिखलाना सहज
बात तब है रोटियों को तू तवा बनकर दिखा
****
देख जलता रोम नीरो सा बजा मत बंशियाँ
जो हुए बरबाद उनको आसरा बनकर दिखा
****
है सहोदर तो लखन …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 22, 2015 at 10:57am — 9 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२
जीवन से लड़कर लौटेंगे सो जाएँगे
लपटों की नाज़ुक बाँहों में खो जाएँगे
बिना बुलाए द्वार किसी के क्यूँ जाएँ हम
ईश्वर का न्योता आएगा तो जाएँगे
कई पीढ़ियाँ इसके मीठे फल खाएँगी
बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे
चमक दिखाने की ज़ल्दी है अंगारों को
अब ये तेज़ी से जलकर गुम हो जाएँगे
काम हमारा है गति के ख़तरे बतलाना
जिनको जल्दी जाना ही है, वो…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 22, 2015 at 10:30am — 14 Comments
Added by दिनेश कुमार on April 21, 2015 at 8:30pm — 24 Comments
“ बेटा!! आ गया तू.. कहाँ-कहाँ हो आया भारत भ्रमण में..?
“ माँ!! चारो दिशाओं में गया था. देखो! गंगाजी का जल भी लाया हूँ. आप कहो तो, पिताजी लाये थे वो कलश आधा खाली है उसमे ही डाल दूँ..”
“ नहीं!! बेटा.. रोज समाचारों में सुनती हूँ कि गंगा में स्वच्छता अभियान चल रहा है, वर्षों पहले तेरे पिता जो लाये वो तू बचा के रखना. कम से कम आगे आने वाली पीढ़ी, पवित्र गंगाजल तो देख लेगी..”
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on April 21, 2015 at 7:07pm — 26 Comments
वर्षा,
हर्ष-विषाद से मुक्त
चंचल, चपल, वाकपटुता में
मेढकों की टर्र-टर्र
रात के सन्नाटो में भी
झींगुरों के स्वर
सर-सराती हवाओं के संग लहराती
चिकन की श्वेत साड़ी
लज्जा वश देह से लिपट कर सिकुड् जाती
वनों की मस्त तूलिकाएं स्पर्श कर
रॅगना चाहतीं धरा
हरियाली, सावन, कजरी का मन भी
उमड़ता, प्यार-उत्साह...जोश
म्यॉन से तलवारें खिंच जाती.....द्वेष में
चमक कर गर्जना करती
बादलों की ओट से
आल्हा, राग छेड़ कर ताल ठोंकते
दंगल, चौपालों की…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 21, 2015 at 7:01pm — 14 Comments
221 2121 1221 212
अब और सब्र का तू मेरे इम्तिहाँ न ले
मेरी ज़मीं न छीन मेरा आसमाँ न ले
है मुख़्तसर ज़मीन तमन्नाओं की फ़क़त
ऐ बेरहम नसीब यूँ मेरा जहाँ न ले
कम रख ज़रा तू अपनी रवानी को ऐ हवा
इतना रहम तो कर कि मेरा आशियाँ न ले
जज़्बात से न बाँध मुझे ऐसे हमनशीं
मत रोक लफ़्ज़ मेरे यूँ मेरी ज़बाँ न ले
कायम है कायनात शजर के वुजूद से
खुद को ही बेवुजूद न कर अपनी जाँ न ले
मौलिक व…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on April 21, 2015 at 6:10pm — 17 Comments
"बापू, हमारे साथ शहर क्यों नहीं चलते ?"
"शहर जा बसेंगे तो खेती कौन करेगा ?"
"क्या रखा है खेती में ? कभी सूखा फसल को मार जाता है तो कभी बेमौसम बरसात।"
"तुम्हें कैसे समझाऊँ बेटा।"
"खुल कर बताओ बापू, दिल पर कोई बोझ है क्या ?"
"ये अन्नदाता की उपाधि का बोझ है बेटा, तुम नहीं समझोगे ।"
-------------------------------------------------------------------
(मौलिक एवँ अप्रकाशित)
Added by योगराज प्रभाकर on April 21, 2015 at 5:04pm — 18 Comments
थोड़ी छाँव और
ज़्यादा धूप में बैठी
बुढ़िया भी
अपने
चार करेले और
दो गड्डी साग न बिकने
पर उतना दुखी नहीं हैं
जितना नगर श्रेष्ठि
नए टेंडर न मिलने पर है
कलुवा
हलवाई की भटटी
सुलगाते हुए अपने
हम उम्र बच्चों को फुदकते हुए
नयी नयी ड्रेस और बस्ते के साथ
स्कूल जाते देख भी उतना दुखी नहीं है
जितना सेठ जी का बेटा
रिमोट वाली गाड़ी न पा के है
प्रधान मंत्री जी
हज़ारों किसान के सूखे से
मर जाने की खबर…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on April 21, 2015 at 12:31pm — 9 Comments
221 1222 221 1222
******************
कब मोह दिखाती है सरकार किसानों से
मतलब तो उसे है बस दो चार दुकानों से
****
रिश्तों की कहाँ कीमत वो लोग समझते हैं
है प्यार जिन्हें केवल दालान मकानों से
****
वो मान इसे लेंगे अपमान बुजुर्गी का
तकरार यहाँ करना बेकार सयानों से
****
कदमों को मिला पाए कब साथ नयों का हम
कब यार निभाई है तुमने भी पुरानों से
****
उस रोज यहाँ होगा सतयुग सा नजारा भी
जिस रोज …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 21, 2015 at 12:16pm — 15 Comments
ख्वाहिशों के सूरज का उगना हर सुबह
मन की खिड़की से झांकना हर सुबह
परदे मन पर लगाना चाहती है
ओट में हसरतों को दबाना चाहती है
क्योंकि वह एक लड़की है
समाज की नज़रों में लड़की बोझ होती है
उसे उम्मीदों के आँगन में
आशाओं के फूल खिलाने का
कोई हक नहीं होता
उसे हक है बस इतना कि
पराया धन कहलाए
किसी और के मधुबन को
चमन वो बनाए
लगा कर माथे रक्तिम गोल चिन्ह
किसी की पत्नी तो
किसी की बहू वह कहलाए
पैरों में बाँध कर…
Added by डिम्पल गौड़ on April 21, 2015 at 12:00am — 16 Comments
भोर के स्वर गान में
आकर बसे तुम प्राणों में
रश्मि मुग्धा ले चली
अनुराग सागर की तली
सीप की उच्छवांस में
आकार बसे तुम लहर में
मौन होकर रात भागी
तारकों को विरक्ति लागी
आकाश के सोपान में
आकर बसे तुम भानु में
प्रेम के संतृप्त मन में
नेह से डोले बदन में
चारणों की मधुर धुन में
आकर बसे तुम शब्दों में
नीद के विश्वास में
अभिलाष के अवकाश…
Added by kalpna mishra bajpai on April 20, 2015 at 9:00pm — 7 Comments
2025
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2025 Created by Admin.
Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |