For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

All Blog Posts (19,140)

नक़ाब (लघुकथा)

" अब्बू ,ये नकाब और ये बुर्का? मैं नहीं पहनूंगी बस। "कहते हुए नीलोफर बाहर निकल गयी।
"क्या आप भी नीलोफर के अब्बा।ज़माना बदल गया है।आप भी बदल जाइए न।"
"कैसे बताऊँ तुमलोगों को बेग़म। ज़माना बिलकुल भी नहीं बदला है।बल्कि और भी बदतर हो गया है लड़कियों के लिए।"
कहते हुए हुए सिद्दकी साहब के जहन में वे सारी एक्स रे जैसी निगाहें घूमने लगीं जो कल बाज़ार में उनकी मासूम बच्ची के शरीर को छेदती हुई उनके दिल में सुई की तरह चुभ रही थीं।

.

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Mala Jha on April 23, 2015 at 7:00pm — 17 Comments

राजनीती - एक मुक्त तुकांत कविता

पार्टियों की रेस तो देखो कितनी है रफ़्तार

सत्ता में जब भी आ जाती, होता हाहाकार

 

चुनाव जीतकर आ जाए तो कितना अहंकार

भ्रष्टाचार का सभी तरफ फ़ैल गया अंधकार

 

काम करे सरकारी अफसर, कर रहे उपकार

रिश्वत खाकर फूले हैं और हो गए मक्कार

 

ईमानदारी पर आजकल मिलती है फटकार

बिक गए हैं बेईमानी में हम सब के संस्कार  

 

नेता भाई किसान को जाकर दे गए ललकार

दाम दे देंगे जमीन के बंद करो फुफकार

 

कदम कदम पे रह…

Continue

Added by Nidhi Agrawal on April 23, 2015 at 6:15pm — 8 Comments

मन्दिर का घंटा



बिना लाग लपेट के 

बिना पाखण्ड के 

सुन लेता है 

समझ लेता है

ईश्वर मन की बात

जान लेता है आत्मा के भाव

फिर भी जाने क्यों 

मन्दिर का घंटा जोर जोर से

तीन बार बजाने पर हr

प्रार्थना पूर्ण होने का

पूर्ण सा अहसास होता है

आत्म-मन -चित्त को  

बडा ही भ्रमित है 

मेरा अल्पज्ञान 

ये सोच सोचकर 

भारहीन मौन प्रार्थना को

ईश्वर तक पहुँचाने के लिये 

मन्दिर के घंटे की आबाज 

का  भारी भरकम

भार क्यों लपेटा जाता है ?



मौलिक व…

Continue

Added by umesh katara on April 23, 2015 at 9:01am — 21 Comments

विवशता (लघुकथा) : डॉo विजय शंकर

बहुत ही व्यस्त कार्यक्रम था आज मंत्री जी का। सारे दिन शैक्षिक गुणवत्ता की कायर्शाला में अधिकारियों , शिक्षाविदों के साथ वाद-विवाद में जबरदस्त सक्रिय रहे माननीय मंत्री जी, बार बार यही दोहराते रहे , " सदियों से हम विश्व-गुरु रहें हैं, हम ऐसी शिक्षा दें कि कोई भी शिक्षा के लिए विदेश न जाना चाहे।"

शाम घर जाते कार में पी ए से बता रहे थे:

"हफ्ते भर बाहर रहूंगा, रात दिल्ली निकल रहा हूँ I कल अमेरिका की फ्लाइट है, बेटे को हॉस्टल छोड़ कर आना है।.कहाँ कहाँ का जुगाड़ लगाया है तब एडमिशन मिला…

Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on April 23, 2015 at 9:00am — 26 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -- कोलाहल थोड़ा सा कोई लाया क्या ? ( गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22  2   

दरवाज़े पर देखो कोई आया  क्या ?

अपने हिस्से का कोलाहल लाया क्या ?

ख़ँडहर जैसा दिल मेरा वीराना, भी

खनक रही इन आवाज़ों को भाया क्या ?

कुतिया दूध पिलाती है, बंदरिया को

इंसाँ मारे इंसाँ को, शर्माया क्या ?

 

फुनगी फुनगी खुशियाँ लटकी पेड़ों पर

छोटा क़द भी, तोड़ उसे ले पाया क्या ?

 

सारे पत्थर आईनों पर टूट पड़े

कोई पत्थर ,पत्थर से टकराया क्या ?



जुगनू सहमा सहमा सा…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on April 22, 2015 at 6:30pm — 28 Comments

जिन्दगी के गीत गाता आदमी रो जायेगा

२१२२    २१२२    २१२२   २१२

जिन्दगी के गीत गाता आदमी रो जायेगा

जिस घड़ी पत्थर का ये दिल मोम सा हो जायेगा

 

भूख से बेहाल बच्चा जो न सोया अब तलक

माँ अगर लोरी सुना दे भूखा ही सो जायेगा

 

आज तक मंदिर न जाकर कर दिया जो पाप है

माँ की सेवा से मिला आशीष वो धो जायेगा

 

मुतमइन था देख कर मैले में इंसानों की भीड़

तब न सोचा था,यहाँ बच्चा मेरा खो जाएगा

 

मानती जिस को थी दुनिया इक मसीहा आज…

Continue

Added by Dr Ashutosh Mishra on April 22, 2015 at 1:00pm — 15 Comments

बेवकूफ कौन (लघुकथा)

"माँ, इस एफ.डी.आर. में भी नॉमिनी मुझे ही रखना, भैया सम्भाल नहीं सकता|"


"बेटे, मैं बराबर बांटना चाहती हूँ| उसको देख, तेरे पिताजी के देहांत के बाद उसने खुदके हक की सरकारी नौकरी तुझे दे दी और खुद प्राइवेट नौकरी में धक्के खा रहा है|"


"यही बात तो उसको बेवकूफ साबित करती है|"

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on April 22, 2015 at 12:35pm — 13 Comments

"भूख में उछाल आ गया"

आदमी की भूख में उछाल आ गया |
पत्थरों को घिस दिया पहाड़ खा गया |

रुख बदल के जल प्रवाह मोड़ ही दिया,
भूख ही थी आदमी कमाल पा गया |

तम निगल कर रौशनी तमाम कर दिया,
जब लगाई युक्ति तो विकास छा गया |

देखकर सबकुछ खुदा मगन दिखा वहाँ,
आदमी को आज का मचान भा गया |

तन मिला दुर्लभ इसे वृथा नहीं किया
जिन्दगी थोड़ी मगर उठान ला गया ||

( मौलिक अप्रकाशित )

Added by Chhaya Shukla on April 22, 2015 at 12:00pm — 6 Comments

कोकिला क्यों मुझे जगाती है,

कोकिला क्यों मुझे जगाती है,
तोड़ कर ख्वाब क्यों रुलाती है.


नींद भर के मैं कभी न सोया था,
बेवजह तान क्यों सुनाती है.

चैन की भी नींद भली होती है 
मधुर सुर में गीत गुनगुनाती है 

बेबस जहाँ में सारे बन्दे हैं
फिर भी तू बाज नहीं आती है

(मौलिक व अप्रकाशित)

- जवाहर लाल सिंह 

गजल लिखने की एक और कोशिश, कृपया कमी बताएं 

Added by JAWAHAR LAL SINGH on April 22, 2015 at 12:00pm — 12 Comments

देख जलता रोम नीरो सा बजा मत बंशियाँ - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’



2122      2122     2122     212

******************************

पत्थरों  के  बीच   रहकर  देवता  बनकर  दिखा

दीन मजलूमों के हित में इक दुआ बनकर दिखा

****

कर  रहा  आलोचना  तो   सूरजों   की   देर  से

है अगर  तुझमें हुनर तो  दीप सा बनकर दिखा

****

चाँद पानी में  दिखाकर स्वप्न  दिखलाना सहज

बात तब  है  रोटियों  को  तू तवा  बनकर दिखा

****

देख  जलता  रोम  नीरो  सा  बजा मत बंशियाँ

जो हुए  बरबाद  उनको  आसरा  बनकर दिखा

****

है सहोदर  तो  लखन …

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 22, 2015 at 10:57am — 9 Comments

ग़ज़ल : बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

 

जीवन से लड़कर लौटेंगे सो जाएँगे

लपटों की नाज़ुक बाँहों में खो जाएँगे

 

बिना बुलाए द्वार किसी के क्यूँ जाएँ हम

ईश्वर का न्योता आएगा तो जाएँगे

 

कई पीढ़ियाँ इसके मीठे फल खाएँगी

बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे

 

चमक दिखाने की ज़ल्दी है अंगारों को

अब ये तेज़ी से जलकर गुम हो जाएँगे

 

काम हमारा है गति के ख़तरे बतलाना

जिनको जल्दी जाना ही है, वो…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 22, 2015 at 10:30am — 14 Comments

ग़ज़ल -- हर काम यूँ करो कि हुनर बोलने लगे

221-2121-1221-212



हर काम यूँ करो कि हुनर बोलने लगे

मेहनत दिखे सभी को, समर बोलने लगे



उस बेवफ़ा से बोलना तौहीन थी मेरी

लेकिन ये मेरे ज़ख़्म-ए-जिगर बोलने लगे



तहज़ीब चुप है इल्मो-अदब आज शर्मसार

देखो पिता के मुँह पे पिसर बोलने लगे



आँखों से मैं ज़बान का ऐसे भी काम लूँ

जो भी मैं कहना चाहूँ नज़र बोलने लगे



सब हमको बुतपरस्त समझते रहे मगर

ऐसे तराशे हमने , हजर बोलने लगे



दैरो हरम के नाम पे जब शह्र बँट गया

दोनों तरफ़… Continue

Added by दिनेश कुमार on April 21, 2015 at 8:30pm — 24 Comments

पवित्रता....(लघुकथा)

“ बेटा!! आ गया तू.. कहाँ-कहाँ हो आया भारत भ्रमण में..?

“ माँ!! चारो दिशाओं में गया था. देखो! गंगाजी का जल भी लाया हूँ.  आप कहो तो, पिताजी लाये थे वो कलश आधा खाली है उसमे ही डाल दूँ..”

“ नहीं!!  बेटा.. रोज समाचारों में सुनती हूँ कि गंगा में स्वच्छता अभियान चल रहा है, वर्षों पहले तेरे पिता जो लाये वो तू बचा के रखना. कम से कम आगे आने वाली पीढ़ी,  पवित्र गंगाजल तो देख लेगी..”

  

    जितेन्द्र पस्टारिया

(मौलिक व् अप्रकाशित)

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on April 21, 2015 at 7:07pm — 26 Comments

वर्षा---

वर्षा,

हर्ष-विषाद से मुक्त

चंचल, चपल, वाकपटुता में

मेढकों की टर्र-टर्र

रात के सन्नाटो में भी

झींगुरों के स्वर

सर-सराती हवाओं के संग लहराती

चिकन की श्वेत साड़ी

लज्जा वश देह से लिपट कर सिकुड् जाती

वनों की मस्त तूलिकाएं स्पर्श कर

रॅगना चाहतीं धरा

हरियाली, सावन, कजरी का मन भी

उमड़ता, प्यार-उत्साह...जोश 

म्यॉन से तलवारें खिंच जाती.....द्वेष में

चमक कर गर्जना करती

बादलों की ओट से

आल्हा, राग छेड़ कर ताल ठोंकते

दंगल, चौपालों की…

Continue

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 21, 2015 at 7:01pm — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
अब और सब्र का तू मेरे इम्तिहाँ न ले

221 2121 1221 212

अब और सब्र का तू मेरे इम्तिहाँ न ले

मेरी ज़मीं न छीन मेरा आसमाँ न ले

 

है मुख़्तसर ज़मीन तमन्नाओं की फ़क़त

ऐ बेरहम नसीब यूँ मेरा जहाँ न ले

 

कम रख ज़रा तू अपनी रवानी को ऐ हवा

इतना रहम तो कर कि मेरा आशियाँ न ले

 

जज़्बात से न बाँध मुझे ऐसे हमनशीं

मत रोक लफ़्ज़ मेरे यूँ मेरी ज़बाँ न ले

 

कायम है कायनात शजर के वुजूद से

खुद को ही बेवुजूद न कर अपनी जाँ न ले

 

 मौलिक व…

Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on April 21, 2015 at 6:10pm — 17 Comments


प्रधान संपादक
बोझ (लघुकथा)

"बापू, हमारे साथ शहर क्यों नहीं चलते ?"
"शहर जा बसेंगे तो खेती कौन करेगा ?"  
"क्या रखा है खेती में ? कभी सूखा फसल को मार जाता है तो कभी बेमौसम बरसात।"
"तुम्हें कैसे समझाऊँ बेटा।"
"खुल कर बताओ बापू, दिल पर कोई बोझ है क्या ?"
"ये अन्नदाता की उपाधि का बोझ है बेटा, तुम नहीं समझोगे ।"      
-------------------------------------------------------------------
(मौलिक एवँ अप्रकाशित)

Added by योगराज प्रभाकर on April 21, 2015 at 5:04pm — 18 Comments

दुःख, सिर्फ दुःख होता है

थोड़ी छाँव और

ज़्यादा धूप  में बैठी

बुढ़िया भी

अपने

चार करेले और

दो गड्डी साग न बिकने

पर उतना दुखी नहीं हैं

जितना नगर श्रेष्ठि

नए टेंडर न मिलने पर है



कलुवा

हलवाई  की भटटी

सुलगाते हुए अपने

हम उम्र बच्चों को  फुदकते हुए

नयी नयी ड्रेस और बस्ते के साथ

स्कूल जाते देख भी उतना दुखी नहीं है

जितना सेठ जी का बेटा

रिमोट वाली गाड़ी न पा के है



प्रधान मंत्री जी

हज़ारों किसान के सूखे से

मर जाने की खबर…

Continue

Added by MUKESH SRIVASTAVA on April 21, 2015 at 12:31pm — 9 Comments

गर जाग गया होता अंतस जो अजानों से - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

221  1222  221  1222

******************

कब  मोह  दिखाती  है  सरकार  किसानों से

मतलब  तो उसे  है बस  दो  चार दुकानों से

****

रिश्तों  की  कहाँ कीमत  वो लोग  समझते हैं

है   प्यार  जिन्हें  केवल  दालान  मकानों  से

****

वो  मान   इसे  लेंगे  अपमान   बुजुर्गी  का

तकरार   यहाँ  करना   बेकार   सयानों  से

****

कदमों  को मिला पाए कब साथ नयों का हम

कब  यार  निभाई  है  तुमने  भी  पुरानों  से

****

उस  रोज  यहाँ होगा सतयुग सा  नजारा भी

जिस रोज …

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 21, 2015 at 12:16pm — 15 Comments

क्योंकि वह एक लड़की है (कविता )

ख्वाहिशों के सूरज का उगना हर सुबह 

मन की खिड़की से झांकना हर सुबह 

परदे मन पर लगाना चाहती है 

ओट में हसरतों को दबाना चाहती है 

क्योंकि वह एक लड़की है 

समाज की नज़रों में लड़की बोझ होती है 

उसे उम्मीदों के आँगन में 

आशाओं के फूल खिलाने का 

कोई हक नहीं होता 

उसे हक है बस इतना कि 

पराया धन कहलाए 

किसी और के मधुबन को

चमन वो बनाए 

लगा कर माथे रक्तिम गोल चिन्ह 

किसी की पत्नी तो 

किसी की बहू वह कहलाए 

पैरों में बाँध कर…

Continue

Added by डिम्पल गौड़ on April 21, 2015 at 12:00am — 16 Comments

देव -वंदना

भोर के स्वर गान में 

आकर बसे तुम प्राणों में

रश्मि मुग्धा ले चली 

अनुराग सागर की तली

सीप की उच्छवांस में 

आकार बसे तुम लहर में

मौन होकर रात भागी 

तारकों को विरक्ति लागी 

आकाश के सोपान में 

आकर बसे तुम भानु में

प्रेम के संतृप्त मन में 

नेह से डोले बदन में 

चारणों की मधुर धुन में 

आकर बसे तुम शब्दों में

नीद के विश्वास में 

अभिलाष के अवकाश…

Continue

Added by kalpna mishra bajpai on April 20, 2015 at 9:00pm — 7 Comments

Monthly Archives

2025

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

आशीष यादव added a discussion to the group भोजपुरी साहित्य
Thumbnail

दियनवा जरा के बुझावल ना जाला

दियनवा जरा के बुझावल ना जाला पिरितिया बढ़ा के घटावल ना जाला नजरिया मिलावल भइल आज माहुर खटाई भइल आज…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय सौरभ सर, क्या ही खूब दोहे हैं। विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"हार्दिक आभार आदरणीय "
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी प्रदत्त विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी प्रदत्त विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर सुंदर रचना हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . शृंगार

दोहा पंचक. . . . शृंगारबात हुई कुछ इस तरह,  उनसे मेरी यार ।सिरहाने खामोशियाँ, टूटी सौ- सौ बार…See More
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन।प्रदत्त विषय पर सुन्दर प्रस्तुति हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"बीते तो फिर बीत कर, पल छिन हुए अतीत जो है अपने बीच का, वह जायेगा बीत जीवन की गति बावरी, अकसर दिखी…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"वो भी क्या दिन थे,  ओ यारा, ओ भी क्या दिन थे। ख़बर भोर की घड़ियों से भी पहले मुर्गा…"
Sunday
Ravi Shukla commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी
"आदरणीय गिरिराज जी एक अच्छी गजल आपने पेश की है इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई आदरणीय मिथिलेश जी ने…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service