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नूर -अतुकांत/ छंदमुक्त रचना

चाँद,

फ़क़त तुम्हारा नहीं,

मेरा भी है.

इसलिए नहीं की मै,

उसे निहारता हूँ

किसी रेतीले किनारे से

या इंतज़ार करता हूँ,

ईद के चाँद…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on April 26, 2015 at 12:30pm — 24 Comments

राहत कार्य (लघुकथा)

"सर, कुछ देर पहले उत्तर भारत में बड़ा भूकम्प आया है|"

"ओह, तुरंत कार्यवाही करो| संस्था के बीस बैनर और बनवा दो, पिछले भूकम्प वाले पत्र दिनांक और स्थान बदल कर सभी दानदाताओं को भिजवा दो| मैं भूकम्प प्रताड़ित क्षेत्र में चला जाता हूँ, गाड़ी तैयार करवा देना और राहत सामग्री के साथ उसमें दस-पन्द्रह खाली बैग रखना मत भूलना|"

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on April 26, 2015 at 12:00pm — 8 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
प्रेम भाव को समर्पित कुछ दोहे ..........(डॉ० प्राची)

स्वेच्छा से बिंधता रहा, बिना किसी प्रतिकार 

हिय से हिय की प्रीत को, शूलदंश स्वीकार 

ईश्वर प्रेम स्वरूप है, प्रियवर ईश्वर रूप 

हृदय लगे प्रिय लाग तो, बिसरे ईश अनूप 

कब चाहा है प्रेम ने, प्रेम मिले प्रतिदान 

प्रेमबोध ही प्रेम का, तृप्त-प्राप्य प्रतिमान 

भिक्षुक बन कर क्यों करें, प्रेम मणिक की चाह ?

सत्य न विस्मृत हो कभी, 'नृप हम, कोष अथाह' !

प्रवहमान निर्मल चपल, उर पाटन…

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Added by Dr.Prachi Singh on April 26, 2015 at 11:30am — 19 Comments

कुछ उलटा , कुछ सीधा -- डॉo विजय शंकर

अच्छाइयों के लिए फ़िकर क्यों करें
बुराइयों में बड़ा मजा आता है ||

भजन भगवान के करम शैतान के
कर के देखो बड़ा मजा आता है ||

सीधी बातें छोडो, गलतफहमियां
पालो, देखो,बड़ा मजा आता है ||

सच है, पर उपदेश कुशल बहुतेरे,
राजनीति है ,बड़ा मजा आता है ||

सबसे लड़ लेते हो, इक बार लड़ो ,
खुद से, देखो, बड़ा मजा आता है ||

झूठ सौ बोलते हो , एक बार सच
बोलो, देखो,बड़ा मजा आता है ||

मौलिक एवं अप्रकाशित
डॉo विजय शंकर

Added by Dr. Vijai Shanker on April 26, 2015 at 10:00am — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
बहरे वाफर में मेरी पहली कोशिश

मुफाइलतुन मुफाइलतुन मुफाइलतुन

 

हयात मेरी न लज़्ज़ते कायनात मेरी

सहर को है वक्त और सियाह रात मेरी

 

निचोड़ के खून तक मेरे जिस्म से वो कहें

कि बख़्श दी जान देखिये इल्तिफ़ात* मेरी                    *कृपा

 

न दोस्त न दिलनवाज़* रहा कोई मेरा अब                  *दिल को तसल्ली देनेवाला

ख़ुदा से ही कहता हूँ मैं हर एक बात मेरी

 

उतरने लगेंगे खोल वफ़ा के अब पसे मर्ग                     *मौत के…

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Added by शिज्जु "शकूर" on April 26, 2015 at 9:00am — 14 Comments

दोहे -रमेश चौहान



अटल नियम है सृष्टि की, देखें आंखे खोल ।

प्राणी प्राणी एक है, आदमी पिटे ढोल ।।

इंसानी संबंध में, अब आ रही दरार ।

साखा अपने मूल से, करते जो तकरार ।।

खग-मृग पक्षी पेड़ के, होते अपने वंश ।

तोड़ रहे परिवार को, इंशा देते दंश ।।

कई जाति अरू वर्ण के, फूल खिले है बाग ।

मिलकर सब पैदा करे, इक नवीन अनुराग ।।

वजूद बगिया के बचे, हो यदि नाना फूल ।

सब अपने में खास है, सबको सभी कबूल ।।

पत्ते छोड़े पेड़ जो, हो…

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Added by रमेश कुमार चौहान on April 25, 2015 at 2:54pm — 6 Comments

बाराती

मौसा, मौसी, ताऊ, फूफा

दुल्हे के सब साथी

बज रहे हैं गाजे बाजे

नाच रहे बाराती.

मेट्रो सी चमक रही

दिल्ली वाली भाभी

चक्करघिन्नी सी घूमे अम्मा

टांग कमर में चाभी

घुटनों का दर्द छुपाये

देख सभी को मुस्काती



नई सूट पहन कर भैया,

नाश्ते का पैकेट बाँट रहा

अपने लिए भी कोई

कटरीना, करीना छांट रहा

लहंगा चोली पहन के छोटी

घूमती है इतराती



जनक जीवन की मुश्किल बेला

विदा हो रही सीता

भीतर में कुछ टूट रहा…

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Added by Neeraj Neer on April 25, 2015 at 12:03pm — 14 Comments

काला पानी (लघुकथा)

"अरे राधेलाल,फिर चाय का ठेला! तुम तो अपना धंधा समेटकर अपने बेटे और बहू के घर चले गए थे।"

"अरे सिन्हा साब!वो घर नही,काला पानी है काला पानी!सभी अपने ज़िन्दगी में इतने व्यस्त हैं कि न कोई मुझसे बात करता और न कोई मेरी बात सुनता।बस सारा दिन या तो टी वी देखो या फिर छत और दीवारों को ताको।भाग आया।यहाँ आपलोगों के साथ बतियाते और चाय पिलाते बड़ा अच्छा समय बीत जाता है।अरे,आप किस सोच में पड़ गए?"

"सोच रहा हूँ कि मै तो तुम्हारी तरह चाय का ठेला भी नही लगा सकता।बेटा बहुत बड़ा अफ़सर जो ठहरा।"फीकी हँसी…

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Added by Mala Jha on April 25, 2015 at 10:00am — 23 Comments

ग़ज़ल - कुछ तो उसने कभी कहा होगा -पूनम शुक्ला

2122 1212 22
ऐसे कैसे कोई मरा होगा
कुछ तो उसने कभी कहा होगा
जब भी देखा जो आइना उसने
खुद से कह कर वो थक गया होगा
कितनी रातें गुजार दी होंगी
जाने कब तक वो जागता होगा
आँसू भी जब नहीं रहे साथी
मौत का साथ चुन लिया होगा
कितनी हैरत में जिन्दगी होगी
जब किसी ने नहीं सुना होगा
ख़ाक उड़ती है अब हवा में क्यों
जब कि घर लापता हुआ होगा
रूहे तामीर आज रोती है
जिसका कोई न अब पता होगा

पूनम शुक्ला

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Poonam Shukla on April 25, 2015 at 9:55am — 5 Comments

देशभक्ति (लघुकथा)

"अरे इस बॉल पे तो चार रन बन जाते पर सब तो पेप्सी के एड से ही कमाते है..। देश जाए भाड़ में." रेस्टोरेंट में टी वी देखते हुए स्वदेश ने ज्यूँ ही बिल देखा।"अरे ये १४० रूपये टैक्स के क्यों जोड़ दिए कच्चा बिल ही बना देते।"

"पर बाबू जी इसी टैक्स से तो देश चले है। चुप कर जानता है कौन हूँ मैं ?" "सेल्स टैक्स की रेड पड़वा दी तो भूल जाएगा ये देशभक्ति।"

मौलिक एवम् अप्रकाशित

Added by Sudhir Dwivedi on April 25, 2015 at 9:47am — 12 Comments

बदलते चेहरे (लघुकथा)

दानशीलता , सज्जनता और खुली सोच के कारण लाला गजेन्द्र प्रसाद का हर कोई कायल था । चुनाव में वे दमदार प्रत्याशी होकर जब बस्ती में गये तो गरीबों की दशा देख रो पडे । स्त्री सम्मान और गरीबों के प्रति बेहद संवेदनशील भाषण भी दिया । अपने ऑफिस से निकले तो ड्राइवर को नदारद देख उनका पारा चढ़ गया।उसके आते ही एक तमाचा उसके गाल पर दिया और बिना कारण जाने सप्ताह भर की तनख्वाह काट लेने का आदेश भी। उनकेे कार्यकलाप के ब्यौरे के लिए पीछा कर रही संवाददाता छाया उनके ये बदलते रूप देखकर चौंक गई।पर कुछ सोच समझ पाती…

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Added by jyotsna Kapil on April 25, 2015 at 8:00am — 4 Comments

चार दिन की चांदनी (लघुकथा)

श्रेया अपने से बड़ी उम्र के,अत्यंत आकर्षक एवं विवाहित बॉस रजत के प्रेम में पड़कर ज़माने को भूल बैठी। माँ व भाई ने कितना समझाया, विवाह के लिए,पर वह तो कुछ सुनने को तैयार ही न थी। अलग फ्लैट लेकर रहती थी,जहाँ सुविधा के अनुसार रजत आकर उसके साथ वक़्त बिताते थे।



उस दिन वह ज्वर से तप रही थी। रजत को पता लगा तो तुरंत भागे चले आये।श्रेया को उनका साथ बहुत अच्छा लग रहा था।

तभी मोबाइल बज उठा । उन्होंने दूसरी ओर से जो कहा गया सुना,

फिर उठते हुए कहा - "सॉरी श्रेया-आज तुम्हारे पास नहीं रुक…

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Added by jyotsna Kapil on April 25, 2015 at 8:00am — 5 Comments

तोहफा (कहानी )

तोहफा :

हेमा के हाथों में मेहँदी लग चुकी थी | विवाह में अब केवल दो ही दिन शेष रह गए थे |

रिश्तेदारों के नाम पर आए हुए कुछ लोगों में से दो महिलाएं खुसर फुसर कर रहीं थीं ||

“अरे इसके चेहरे पर तो दुल्हनों जैसी चमक ही नहीं है कितना बुझा बुझा सा मुखड़ा लग रहा है!

“अब क्या करे बेचारी ! माँ बाप ने कैसे न कैसे, जोड़ तोड़ करके तो यह रिश्ता करवाया है | “

"हाँ तुम सही कह रही हो | लेकिन यह अकेली ही तो इस घर की जिम्मेदारी उठा रही थी| अब क्या होगा इसके जाने के बाद ?"

"भाई है न…

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Added by डिम्पल गौड़ on April 25, 2015 at 12:47am — 10 Comments

खुदा से भी मिला हूँ मैं

भला हूँ मैं बुरा हूँ मैं
मुहब्बत का ज़ला हूँ मैं 
----
खुदा भी साथ है उसके
खुदा से भी मिला हूँ मैं
-----
बिना ही तेल के जलता
रहा हूँ वो दिया हूँ मैं
-----
न पूछो हाल कैसा है
न पूछो क्यों जीया हूँ मैं
-----
चला जा तू दगा देकर
मगर फिर भी तेरा हूँ मैं
-----
बिना सावन बरसती है 
सदा ही वो घटा हूँ मैं

उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित

Added by umesh katara on April 24, 2015 at 6:43pm — No Comments

कर्त्तव्यो की अजब कहानी...

कर्त्तव्यो की अजब कहानी, जीवन भर करता नादानी।

भूख लगे तो चिल्लाता यों, सारे जग का मालिक है वो।

शोषण का अपराध हृदय में, खोखल तना घना लगता वो।।

हाथ, पैर, मुख कर्म करे पर, अॅखियॉं मूंद करे बचकानी।

कर्त्तव्यो की अजब कहानी, जीवन भर करता नादानी।। 1

दया-करूण की ममता देवी, निश्छल अन्तर्मन की वेदी।

नहीं जरा भी रूक पाती है, करूणा-ममता बरसाती है।।

जीवन भर उल्लास बॉंट कर, पीती सदा नयन से पानी।

कर्त्तव्यो की अजब कहानी, जीवन भर करता नादानी।।…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 24, 2015 at 6:35pm — 3 Comments

कब्र में आज कुछ नमीं सी है !

कब्र में आज कुछ नमीं सी है,

शबे-माह कौन यहाँ आया है !

कहाँ हैं वो ..जिनके अश्कों नें,

अज़ल को ......ख्व़ाब से जगाया है !!

दूर वीरानें में .....दरख्तों पर ,

ये किसने चाँद को लटकाया है !

उम्र बस यूँ हि.....गुज़र जायेगी,

वक़्त बीता ...कब लौट के आया है !!

चले थे साथ ...मगर चल न सके,

एहसासात ........बेनवा निकले ! 

दर्द की दर्ज़ को भी सी न  सके,

रफूगर ही ......बेवफ़ा निकले !!

ता उम्र मिला न…

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Added by rajkumarahuja on April 24, 2015 at 3:30pm — 2 Comments

काश (लघु कथा )

वह आकाश में परिंदे की तरह उड़ रही थी ।माँ निश्चिन्त थी की बेटी तरक्की कर रही और पिता आजादी दे समय से ताल मिला रहे थे।बेटी के सोने -जागने , आने जाने से किसी का कोई सरोकार नहीं था।

" पापा मेरी तबियत खराब हो गयी है ।"

मुँह अँधेरे होटल पंहुचे पिता अपनी पुत्री को अस्त व्यस्त और नशे में डूबी देख समझ चुके थे की क्या घट चुका है।

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Archana Tripathi on April 24, 2015 at 8:30am — 21 Comments

पाषाण ........

हो चुकी हो तुम एक पाषाण

वो एहसासों की लहरों पे तैरना

धड़कनों को खामोशीओं में सुनना

होठों को छू लेने की तड़प

आगोश में भर लेने की चसक

सब रेत के घरोंदे थे .........

रेत के इन घरोंदों को

तूफ़ान से पहले क्यूँ खुद ही ढाना पड़ता है !

चादर में ग़मों की फटन को

वक़्त के धागे से क्यूँ ख़ुद ही सीना पड़ता है !

नींद के आगोश में

मरे हुए ख़वाबों को क्यूँ खुद ही ढोना पड़ता है !

उमंगों के उड़ते परिंदों को

दर्द के दरिया में क्यूँ…

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Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on April 24, 2015 at 4:15am — 12 Comments

चेहरे पे चेहरा ( लघुकथा )

स्त्री का सम्मान , आजादी और शिक्षा के लिए भरपूर प्रयास करने जैसी ढेरों आदर्श वादी बातों से प्रभावित स्नेहा लेक्चरर साहब घर जा पहुंची।
दस्तक से पूर्व ही कर्कश आवाज " खबरदार बिना मेरी अनुमति के कोई परिवर्तन किया तो लात मार घर से निकाल दूंगा I"

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Archana Tripathi on April 24, 2015 at 1:00am — 9 Comments


मुख्य प्रबंधक
अतुकांत कविता : संवेदना (गणेश जी बागी)

गर्मी में भीग जाते हैं

पसीने से  

ठंढ में खड़े हो जाते हैं

रोयें...

हमारी त्वचा

तुरंत परख लेती है

मौसम परिवर्तन को

 

धूल-कण आने से पहले

बंद हो जाती हैं पलके

उन्हें पता चल जाता है

है कोई खतरा

 

सुगंध और दुर्गन्ध में

अंतर करना जानती हैं

ये नासिका

खट्टा, मीठा, तीखा सब

तुरंत भाप लेती है

हमारी जिह्वा

 

हल्की सी आहट को

पहचान लेते…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 23, 2015 at 8:18pm — 23 Comments

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