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समझाओ

समझाओ



वफ़ा हमसे करो या न करो पर गैर न समझो

मुहब्बत हमने की थी क्या खता थी यह तो बतलाओ



मिले तो आप ही छुप छुप के कितनी मर्तवा हमसे

अब किसका था कसूर ऐ-दिल बस इतना तो समझाओ



कहीं 'दीपक' जले तो रौशनी ज़रूर होती है

हमारा दर्द भी समझो बार बार न जलाओ



सुना है बेवफा रोते नहीं आंसू नहीं आते

ऐसा नुस्खा प्रेम का हमको भी दे जाओ…

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Added by Deepak Sharma Kuluvi on September 20, 2012 at 3:30pm — No Comments

याद

गुजश्ता दिनों की याद मुझे जब भी आती है ,

मेरी तनहायी मुझसे कुछ कहती है कुछ छुपा जाती है , (१)



याद तेरे वादों की भी है तेरे इरादों की भी है ,


रात आती है और कुछ सताती है कुछ रुलाती है ,(२)



सारे जहां में चर्चे हुए थे अपने लाब्वो लुवाब के,


क्या खाक इश्क करते डरके जालिम समाज से (३)



डर ऐसा हावी हुआ उनके दिलो दिमाग में,

वो छोड़ गये हमको रोता…

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Added by लोकेश सिंह on September 20, 2012 at 1:30pm — 2 Comments

ग़ज़ल

===========ग़ज़ल=============



ग़मों के दौर में जब मुस्कुराने का हुनर आया

हमें बंजर जमीं पे गुल खिलाने का हुनर आया



भरोसा तोड़ कर तुमने दिया हर बार धोखा यूँ

मुसलसल चोट खाकर आजमाने का हुनर आया



खुदा होता निहां है पत्थरों में मान बैठा…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 20, 2012 at 12:45pm — 9 Comments

दो रंग - लघुकथा

आज मॉर्निंग वॉक से लौटते समय सोचा कि जरा सीताराम बाबू से भेंट करता चलूँ| उनके घर पहुँचा तो देखा वो बैठे चाय पी रहे थे| मुझे देखते ही चहक उठे - "अरे राधिका बाबू, आइये आइये...बैठिये.....सच कहूँ तो मुझे अकेले चाय पीने में बिलकुल मजा नहीं आता, मैं किसी को ढूंढ ही रहा था......हा....हा...हा.....|" कहते हुए उन्होंने पत्नी को आवाज लगाई - "अजी सुनती हो, राधिका बाबू आए हैं........एक चाय उनके लिये भी ले आना|"

फिर हमदोनों चाय पीते हुए इधर-उधर की बातें करने लगे| तभी उन्होंने टेबल पर रखा अखबार…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 19, 2012 at 10:40pm — 16 Comments

हिंद के शायर

अब कोई भी मेरे आस पास नहीं होता

तुम चले गये हादसा अब हर वक्त नहीं होता,

सौ जुगनु चमकते थे मेरे दिल में कभी

अब इस टूटे ताजमहल में परिंदा भी नहीं आता,

बे वफाई कर के भी वफ़ा ही महसूस हो

मै जानता हूँ तुझे ये फन नहीं आता,

सदियाँ गुजर गयीं शोलों पे चलता रहता हूँ

खुदा बे खबर पड़ा है हमें रोना नहीं आता,

अपने घर को जलते हुए देखकर सोचता हूँ

आग खुद बुझे तो बुझ जाये हमें तो बुझाना नहीं आता.

Added by प्रमेन्द्र डाबरे on September 19, 2012 at 8:30pm — 2 Comments

ग़ज़ल

============ग़ज़ल=============



लगा है वक़्त कितना ये हसीं दुनिया बसाने में

बफा औ इश्क के खातिर सभी वादे निभाने में 



भरोसा उठ चुका है दोस्ती के नाम से लोगो

लगा है यार को ही यार अब तो आजमाने में



जिगर के जख्म पर भी वाह वाही दी मुझे…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 19, 2012 at 2:49pm — 8 Comments

आस्था (लघुकथा)

"अरे ! ये क्या!! मनु दीदी तुम तो कह रही थी की तुम्हारा बजट केवल पांच सौ रुपयों का ही था!! ये गणपति जी की शानदार मूर्ती तो हजार रुपयों से क्या कम होगी!!" शाम को सुनंदा ने अपनी बड़ी बहन के घर गणेश स्थापना की पूजा के लिये घुसते ही कहा.

'अरे! क्या बताऊँ!! हम मूर्तियाँ खरीदने गए थे तो वहां हमारी काम वाली बाई भी मिल गई. उसने पांच सौ वाली मूर्ति उठा ली तो हमारे पास हजार वाली उठाने के अलावा कोई चारा ही नहीं था...."

गहरी उदासी के साथ…

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Added by AVINASH S BAGDE on September 19, 2012 at 2:30pm — 10 Comments

ये कहाँ हैं हम ?/गीत

खिलखिलाती सिसकियों का हर तरफ ही शोर है

भीड़ में तन्हाइयों की भीड़ चारों ओर है

ये कहाँ हैं हम ?

क्या यही थे हम ?

छू रहा मानव सफलता के चमकते नव शिखर

प्रकृत नियमों को विकृत करता ये कैसा है सफर

है सभी कुछ पर अधूरी,

हर निशा हर भोर है

ये कहाँ हैं हम ?

क्या यही थे हम ?

कितनी परतों में दबा है आज का ये आदमी

अब कहाँ किरदार सच्चे अनृत की है तह जमी

स्वार्थ आरी नेह बंधन,

कर रहीं कमज़ोर हैं

ये कहाँ हैं हम ?

क्या यही थे…

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Added by seema agrawal on September 19, 2012 at 11:00am — 12 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३८ (मेरी पत्नी)

(अंग्रेज़ी की डायरी से हिन्दी में अनूदित)

---------------------------------------------------

मेरी पत्नी,

 

प्रेम सदैव हमारे अंदर है, अपनी गहराई में, बाहर नहीं. ‘मैं’ द्वारा इस तथ्य को आत्मसात कर लिए जाने  तक कि यह ‘मैं’ स्वयं भी इस आतंरिक प्रेम से बाह्य है, यह प्रेम अपने से बाहर नाना रूपों में अभिव्यक्ति की खोज में प्रयत्नशील बना रहता है. जब ‘मैं’ द्रवीभूत और अनन्य हो जाता है, इसके साथ ही वो सब कुछ जो इस ‘मैं’ से बाहर परिलक्षित है. तब प्यार के अतिरिक्त कुछ भी शेष…

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Added by राज़ नवादवी on September 19, 2012 at 10:44am — 2 Comments

पितृ सत्ता के समक्ष लो राम गया हार !

(साभार गूगल से)

.

भूतल में समाई सिया उर कर रहा धिक्कार

पितृ सत्ता के समक्ष लो राम गया हार !



देवी अहिल्या को लौटाया नारी का सम्मान

अपनी सिया का साथ न दे पाया किन्तु राम

है वज्र सम ह्रदय मेरा करता हूँ मैं स्वीकार !

पितृ सत्ता के समक्ष ........



वध किया अनाचारी का…

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Added by shikha kaushik on September 19, 2012 at 7:30am — 8 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २९ (हम बग़दाद के नहीं, हिन्द के जुनैद हैं)

मर्गोजीस्त के राज़ मेरे सीने में कैद हैं

हम बग़दाद के नहीं, हिन्द के जुनैद हैं

 

खुशी होती तो मर न गए होते कब के

जीरहें है कि गममें मुब्तलाओमुस्तैद हैं   

 

दिल कोई तिफ्लहै पूछे है तेरी तस्वीरसे

इक मुझ को ही तेरे दीदार क्यूँ नापैद हैं  

 

रोज़ेकारेमाशी शामेमैकशी शबेख्वाबीदगी 

न जाने हम कबसे बामशक्कत बाकैद हैं

 

'राज़' की उम्र हुई है, पे अन्वार बाकी है

जुज़ आँखकी पुतली सारे उज़व सुफैदहैं

 

©…

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Added by राज़ नवादवी on September 18, 2012 at 10:31pm — 8 Comments

माँ हर रूप में माँ........

आते जाते पहाड़ी जंगलों के रास्ते,

टेढ़ी मेढ़ी सी सुनसान सड़क के किनारे,

एक झुंड बैठा था कुछ बंदरों का,

मस्त थे वो सब मस्ती में अपनी,

कूदते-फाँदते कभी इस डाली,

तो कभी उस डाली,

कभी उछलते कभी झपटते,

आपस में लड़ते-गिरते,

एक पल में वो नीचे दिखते,

अगले ही पल पेड़ पे ऊंचे,

कुछ उनमें थे नन्हें बच्चे,

जो माँ की पुंछ से खेल रहे थे,

गाड़ी का ज्यों ही शोर हुआ,

सारे लपक पड़े ऊंचे पेड़ों…

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Added by पियूष कुमार पंत on September 18, 2012 at 9:30am — 5 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २८

जिन्दगी थोड़ी बाकी थीकि गुज़र गई

नदी समन्दर के पास आकर मर गई

 

रात आईतो इमरोज़ किधर चला गया

दिन निकला तो लंबी रात किधर गई

 

आज यूँ अकेला हूँ मैं अपनों के बीच

इक भीड़ में मेरी तन्हाई भी घर गई

 

दरोदीवार पुतगए बरसातकी सीलनसे

अबके बरस छत की कलई उतर गई

 

जो लोग तेज थे उठा लेगए सब ईंटें

दीवार खामोश अपने कदसे उतर गई  

 

हवाओंने गिराए जो पके फल धम्मसे

इक अकेली चिड़िया शाख पे डर गई…

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Added by राज़ नवादवी on September 17, 2012 at 11:43pm — 18 Comments

" समय "

समय के साथ सब बदलता गया , यादें धुंधली होती चली गयी. वो दिन जब स्कूल जाने की चिंता तो थी ; मगर उसी के साथ बेफिक्र ज़िन्दगी जिसमे न तो घर गृहस्ती की चिंता और न ही काम धंधे की फिक्र थी. ये कहानी राजस्थान के एक ऐसे गरीब ब्राह्मन परिवार के लड़के की है जिसका नाम " रवि " था , मगर जो अपने परिवार में रौशनी नहीं कर सका .माँ बाप ने उसके लिए अपनी सारी जिंदगी यूँ ही गुज़ार दी .. समय बीतता चला गया वो अपनी जिंदगी के २१ साल पूरे कर चुका था और उसे जिस मुकाम पर पहुंचाने का सपना उसके माँ बाप का था वो कभी पूरा…

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Added by Mukesh Sharma on September 17, 2012 at 11:00pm — 6 Comments

निरा बेवकूफ

सचिवालय के बड़ा बाबू सिन्हा साहब के घर पुलिस आई हुई थी | उनके लड़के को गिरफ्तार करने के लिये | लड़का बी.ए पार्ट वन का छात्र था और उसपर अपनी सहपाठिन के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के मामले में झूठी गवाही देकर अदालत को गुमराह करने, साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ करने तथा भोले-भाले निर्दोष युवकों पर बेबुनियाद इल्जाम लगा के उन्हें फंसाने की साजिश करने का आरोप साबित हो चुका था |

घर के बाहर मोहल्लेवालों की अच्छी-खासी भीड़ जमा थी | पड़ोस के शर्मा जी भी अपने कुछ जान-पहचानवालों के साथ खड़े ये तमाशा…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 17, 2012 at 9:11pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २७

क्या अदा वो खामुशीसे हर ख्याल पूछे है

इक नज़रसे ही सारे दिल का हाल पूछे है

 

राहगीरोंको भी खबर कुछहै हमारे इश्ककी

वरना, क्या थी रकीब की मजाल, पूछे है

 

वो समझ पाता जो खुद राज़ वा करनारहे

है बहुत आसाँ कि सवालपे सवाल पूछे है   

 

हो गुरूर हुस्नपे पे इतना नहींकि एकदिन

जाती बहारसे पतझड़ उसका ज़वाल पूछेहै  

 

रोज़ तुलूअ होना और फिर गुरूब होजाना

आफ्ताबोमेह्र देखके तू क्या कमाल पूछे है…

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Added by राज़ नवादवी on September 17, 2012 at 8:30pm — No Comments

मेरा दर्द

बहार आने पे चमन में फूल खिलते हैं 
जब तलक महक औ रंगे जवानी हो 
संग चलने दिल मिलने को मचलते हैं 
छाती है जब खिजां गुलशने ए बहारां में 
पराये तो क्या अपने भी रंग बदलते हैं 
था अकेला चला काफिला बढ़ता गया 
मकसद एक कभी जुदा जुदा 
जमाने का भी अब बदला चलन यारों 
मिल गयी उन्हें मंजिले मक़सूद 
मील के पत्थर के मानिंद मैं तनहा रह गया 

Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on September 17, 2012 at 7:00pm — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
नभचर रोये सारी रात

 कल रात फिर यही हुआ बादलों और दामिनी ने कहर  ढाया मूसलाधार पानी बरसा घर के पीछे की दीवार से लगा पेड़ जिस पर परिंदों का बसेरा था चरमरा कर टूट गया अचानक बहुत दिन पहले लिखी ये कविता जो मेरी कविता संग्रह ह्रदय के उद्द्गार मे भी प्रकाशित हुई ,याद आ गई आदरणीय admin जी की अनुमति हो तो कृपया पोस्ट करदें आपकी आभारी| 

बादलों ने कहर बरपाया…

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Added by rajesh kumari on September 16, 2012 at 6:22pm — 12 Comments

मैं चाँद सा सुंदर हुआ नहीं....

मेरे कमरे की खिड़की से खुला आकाश दिखता है,

कल रात ही मैंने ये महसूस किया की,

तारों से भरे काले आकाश में,

एक चाँद हर रोज इंतज़ार मेरा करता है,



लेटे लेटे ही अपने बिस्तर पर,

मैं बातें उससे अक्सर किया करता हूँ,

वो भी रूप बादल हर रोज आता है,

अभी चंद रोज पुरानी ही है मुलाक़ात हमारी,



तब छोटा सा ही तो था, फिर बढ़ते…
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Added by पियूष कुमार पंत on September 16, 2012 at 9:30am — 4 Comments

हिन्दी की दुर्दशा....

मोम सी कोमल ही थी वो माँ,

जो अब मॉम कहलाने लगी है,

अच्छा भला, चलता फिरता, हिलता डुलता,

पिता न जाने कैसे डैड हो गया है.....

ये अंग्रेजी के खेल में, ये शब्दों के मेल में,

हिन्दी से बच्चा आज कुछ दूर हो चला है,

ये व्यवसायिकता की होड है,

ये आधुनिकता की अंधी दौड़ है,

अपनी मातृभाषा से जिसने दूर किया है,

यही अनदेखी एक दिन,

बहुत हम सब को  रुलाएगी,

जब सारे रिश्ते, सारे नाते और सारे संस्कार,

ये…

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Added by पियूष कुमार पंत on September 15, 2012 at 9:49pm — 1 Comment

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