नीले नभ पर .,
Added by Rekha Joshi on July 4, 2012 at 2:56pm — 19 Comments
आँखों से मौत के निशाने निकल पड़े,
दिल पे चोट खाए दिवाने निकल पड़े,
बसती है तेरी चाहत सनम मेरी रूह में,
सूखे लबों की प्यास बुझाने निकल पड़े,
चाहतों के मामले फसानों में कैद है,
इल्जामों का पिटारा दिखाने निकल पड़े,
यादों का तेरे मौसम जब - जब आया है,
अश्को में बीते सारे ज़माने निकल पड़े,
होता है दर्द अक्सर तेरे बदले मिजाज़ से,
आज अपने साथ तुझको मिटाने निकल पड़े,
उल्फत की जिंदगी मैं जी-जी कर हारा हूँ,
समंदर में…
Added by अरुन 'अनन्त' on July 4, 2012 at 11:00am — 9 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on July 3, 2012 at 3:00pm — 17 Comments
सदा हिजाब में रहते हो माज़रा क्या है?
बड़े रुबाब में रहते हो माज़रा क्या है?
बना दिया आखिर मुझे गुलशन पसंद....
हरेक गुलाब में रहते हो माज़रा क्या है?
हुदूद कोई बना लो हुस्न-ए-शबनम की....
खुले शबाब में रहते हो माज़रा क्या है?
कभी दुआ कभी मुराद में महसूस किया....
कभी अज़ाब में रहते हो माज़रा क्या है?
शकाफत भरा है तुम्हारा कोहिनूर बदन....
हया-ओ-आब में रहते हो माज़रा क्या है?
जबसे दीदार…
Added by Shayar Raj Bajpai on July 3, 2012 at 12:48pm — 7 Comments
मरासिम उनसे था मेरा सूफियाना सा
गा भी लेते थे हम
सुना भी लेते थे हम
इबादत उनकी किया करते थे
खुदा से रूठ जाते थे
मना भी लेते थे हम
वक़्त-ए-फुरकत
उनसे वादा किया था
एक कतरा न गिरेगा कभी
ये आब-ए-जमजम
मेरी आँखों से
तो पाकीजा आब से भरे ये प्याले
रोज भरते तो हैं
पर छलकते कभी नहीं
और लोग हमें संगदिल सनम कहते हैं
ये कैसा वादा लेकर वो गए हैं
उस दिन से लेकर आज तक…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 2, 2012 at 5:37pm — 5 Comments
जिस प्रकार के भवन की कल्पना बादशाह ने की थी यह भवन उससे भी कहीं अधिक सुन्दर बना था, जिसकी भव्यता देखकर बादशाह की आँखें चौंधिया सी गईं थीं. चहुँ ओर भवन निर्माण करने वाले शिल्पकार की मुक्तकंठ से प्रशंसा हो रही थी. जिसे सुनकर शिल्पकार भी फूला नहीं समा रहा था. लेकिन तभी अचानक बादशाह ने शिल्पकार के दोनों हाथ काट देने का आदेश दे दिया ताकि शिल्पकार पुन: ऐसी…
ContinueAdded by योगराज प्रभाकर on July 2, 2012 at 11:47am — 31 Comments
वो बच्चा
बीनता कचरा
कूड़े के ढेर से
लादे पीठ पर बोरी;
फटी निकर में
बदन उघारे,
सूखे-भूरे बाल
बेतरतीब,
रुखी त्वचा
सनी धूल-मिटटी से,
पतली उँगलियाँ
निकला पेट;
भिनभिनाती मक्खियाँ
घूमते आवारा कुत्ते
सबके बीच
मशगूल अपने काम में,
कोई घृणा नहीं
कोई उद्वेग नहीं
चित्त शांत
निर्विचार, स्थिर;
कदाचित
मान लिया खुद को भी
उसी का एक हिस्सा
रोज का किस्सा,
चीजें अपने मतलब की
डाल बोरी में
चल पड़ता…
Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on July 2, 2012 at 9:24am — 20 Comments
चलो जी चलो कलम उठाएं;चलो जी चलो कलम उठाएं.
लिख के कविता लेख कहानी,हम लेखक बन जाएं
तदुपरांत वो बकरा ढूंढें जिसको लिखा सुनाएं
चलो जी चलो कलम उठाएं.चलो जी चलो कलम उठाएं.
-०-०-०--०-०-०-०-०-०-०-०-
कागज़ कलम ; डाक खर्चे की ;पहले युक्ति लगाएं,
लिख लिख रचनाएँ अपनी ;अख़बारों को भिजवाएं .…
Added by DEEP ZIRVI on July 2, 2012 at 8:32am — 6 Comments
हुश्न को माह कहते हो कमाल करते हो
आदमी को खुदा बुत को जमाल करते हो
चश्म में डूब कर उनका जबाब देते हैं
मौन पलकें झुका के जो सवाल करते हो
नोट में वोट दे ईमान बेच कर तुम ही
बात सुनते नहीं नेता बबाल करते हो
इश्क की आग में सूखा जला हुआ तन्हा
तुम उसे दीद दे ताज़ा निहाल करते हो
है हकीकत जमाने की तुझे पता लेकिन
ढूँढने को ख़ुशी क्या क्या ख़याल करते हो
छोड़ के हाथ जिसने तोड़ दिया हर रिश्ता
साथ…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 1, 2012 at 3:38pm — 6 Comments
Added by AVINASH S BAGDE on July 1, 2012 at 3:30pm — 13 Comments
वो देखो सखी
फिर रक्ताभ हुआ नील गगन
बढ़ रही हिय की धड़कन
विदीर्ण हो रहा हैमेरा मन
बाँध दो इन उखड़ी साँसों को ,
अपनी श्यामल अलकों से
भींच लूँ कुछ भी ना देखूं
मैं अपनी इन पलकों से
झील के जल में भी देखो
लाल लहू की है ललाई
कैसे तैर रही है देखो
म्रत्यु दूत की परछाई
थाम लो मुझको बाहों में
जडवत हो रही हूँ मैं
दे दो सहारा काँधे का
सुधबुध खो रही हूँ…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 1, 2012 at 10:37am — 18 Comments
ये मेरी लिखी पहली ग़ज़ल है जो मैंने पूरे प्रयास से बह्र में लिखने की कोशिश की है.
आप सभी जानकार लोगों से गुज़ारिश है कि तब्सिरा करके खामियां बताएं. आप सब का आभार. :)
इसका वज़न कुछ ऐसा गिना है मैंने.
1222/2122/1222/122
Added by Raj Tomar on June 30, 2012 at 11:00pm — 3 Comments
अपनी ही जिन्दगी से शर्मसार हैं आज हम,
क्या बनने कि कोशिश थी, क्या बन गये हम|
जज्बातों कि लाश को सीढियाँ बना मंजिल तो पा ली,
पर क्या अब खुद को इन्सान कह सकते हैं हम|
अपनों की भीड़ में, अपनों को ढूंढ़ कर देख…
Added by savi on June 30, 2012 at 8:02pm — 14 Comments
देखना तुझको मुसीबत तो नहीं
है मुहब्बत ये शरारत तो नहीं
मर मिटे उसके बदन पर वो मगर
चाहना बस हुश्न चाहत तो नहीं
हार बैठा हूँ जिगर पर ये बता
गैर से तुझको मुहब्बत तो नहीं
छोड़ आया हूँ सभी दुनिया-जहाँ
अब तुझे मुझसे शिकायत तो नहीं
तोड़ के रिश्ते मिले किसको सुकूं
इश्क चाहत है बगावत तो नहीं
देख कर क्यूँ आह भरते हो सनम
इश्क अंदाजे अदावत तो नहीं
खेलना दिल से नहीं आता मुझे…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 30, 2012 at 2:30pm — 4 Comments
तू अगर दूर जाकर, हमसे बेखबर है..
Added by Pradeep Kumar Kesarwani on June 30, 2012 at 10:55am — 7 Comments
बड़े प्रेम की छोटी सी प्रेम कहानी...
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परछाईयों के पीछे आज फिर नज़र की रहलत (प्रस्थान) हुई, रोशनियों की शाहराह (चौड़ी राह) पे हम कुछ यूँ सफरपिजीर (सफर पे निकले) हुए. रात की सन्नाटगी, दरख्तों से हवाओं की सरगोशी (हौले से कानों में बात करना), चाँदनी का सीमाब (चांदी जैसा) सा पिघलता बदन, और फज़ा में उसकी यादों का लहराता आँचल- मैं गोया सफर-ए-इरम (इक काल्पनिक स्वर्ग की यात्रा) की ओर रवाँ होने को था.
ज़माना गुज़र गया है…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:27pm — 3 Comments
दिल एक रेलवे स्टेशन सा हो गया है......
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दिल एक रेलवे स्टेशन सा हो गया है. वो भी किसी छोटे से कसबे का जहाँ दिन में कुछ गाडियां ही आती जाती है, और दिन भर एक वीरानी सी पसरी होती है पटरियों पे. सारा दिन जैसे ३ बजे की लोकल का और शाम की मुंबई वाली पैसेंजर का इन्तेज़ार रहता है. थोड़ी देर की धड़कन, कुछ लम्हे की रौनक, कुछ मिनटों की भाग दौड़, और फिर मीलों लंबे समय का न कटने वाला साथ.
ज़िंदगी में सवारियों की तरह…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:24pm — 2 Comments
आज का दिन भी...
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आज का दिन भी फंस गया है मोटरगाड़ियों की ट्राफिक में. आहिस्ता आहिस्ता रेंग सा रहा है धूप की बरसाती के नीचे, मैं साफ़ देखा रहा हूँ अपने ऑफिस की खिडकी पे खड़ा. लोग किधर और क्यूँ भागते रहते हैं अपने अपने घरों से निकल कर, मैं इस ख्याल को किसी शायर के तखय्युल की हवा देता हूँ, कि आखिर क्यूँ? क्यूँ शिताबी सी मची रहती है ज़िंदगी में, कि लोगों के पास हर वक्त वक्त क्यूँ नहीं होता जबकि वक्त के बगैर कोई भी वक्त…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:22pm — No Comments
प्रेम के उद्भव और विलय का यह कैसा दंश है......
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समूची सृष्टि में एक ही प्रेम का गीत गुंजायमान है. मेरे और तुम्हारे हृदयों में जो प्रेम धड़क रहा है उसमें भी उसी एक मौलिक प्रेम का स्पनंदन विद्यमान है. सारा अस्तित्व आकर्षणों और विकर्षणों के एक हीगणित से चलायमान है. प्रेम एक ऐसा वर्तुल है जिसका केंद्र कल्पना में ही अस्तित्वमान है. ये वर्तुल जब असीम होके निराकार हो जाता है तो केंद्र की भी सत्ता खो जाती है और प्रेम के…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:14pm — No Comments
वेनिस की भव्य ऐतिहासिक इमारतें, पो एवं पिआवे नदियों के नहरों के पानी पे तैरती गलियाँ और गोंडोलों में भागती दौड़ती शह्र की ज़िंदगी. बहते पानी के पसेमंज़र ऐसा लगता है जैसे ज़िंदगी ठहरी है और इमारतें पुरइत्मीनान तैर रही हैं.
अभी दो रोज़ पहले द ग्रेट गैम्बलर फिल्म का गाना सुन रहा था टीवी पर- ‘दो लफ़्ज़ों की है ये दिल की कहानी, या है मुहब्बत या है जवानी’. अमिताभ और ज़ीनत आमान पे वेनिस के ऐसे ही एक कूचे में फिल्माए गाने में इतालवी भाषा के मूल गीत की शुरुआती पंक्तिओं ने जैसे प्राण…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 11:12pm — No Comments
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