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आधुनिकता

अजीब विडम्बना देखो ,
शिष्टाचार विलुप्त हो गया !
बेटा! बेटा नहीं रहा ,
बाप हो गया !
लज्जा आती है इन्हे ,
प्रणाम ,.नमस्कार करने में !
थोडा भी संकोच नहीं ,
महिला मित्र से गले मिलने में !!
मै सोच रहा हूँ ,
क्या होगा आनेवाला कल !
मेरे उदार संस्कारों का ,
कैसा है ये फल !!
प्रायः सुनता रहता हूँ ,
हाय ,बाय और हेल्लो ,
कितना स्नेह छुपा है इनमे…
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Added by ram shiromani pathak on January 13, 2013 at 4:00pm — 6 Comments

गजल - कशाकश !!!

समय के इस कशाकश में, बदलना सीख जायेंगे
गिरेंगे फिर उठेंगे, खुद ही चलना सीख जायेंगे ।

नदी नालों ने ली है जान कुछ लाचार धारों की
करो मजबूत पैरों को, ये पलना सीख जायेंगे ।

कटे पंखों से उडती है जिगर वाली वो गौरेया,
नये मौसम में पर फिर से निकलना सीख जायेंगे ।

नहीं पहचानते बच्चे अभी तक लाल अंगारा,
हथेली पर रखेंगे तो ये जलना सीख जायेंगे ।

'सलिल' छोड़ो ये वैशाखी चलो थामो कलम-कागज,
सियासत डगमगायेगी, बदलना सीख जायेंगे ।

Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 13, 2013 at 3:26pm — 10 Comments

आज के युवा बनाम राष्ट्रीय युवा दिवस (व्यंग्य) // -शुभ्रांशु

आज मुहल्लेवालों ने राष्ट्रीय युवा दिवस मनाने के लिये एक कार्यक्रम का आयोजन किया था. लाला भाई के प्रयास से ही आज का आयोजन सम्भव हो पाया था इसलिये वे बहुत ही प्रसन्न दिख रहे थे. कार्यकारिणी के सभी सदस्यों के अनुरोध पर कार्यक्रम के मुख्य वक्ता लाला भाई को ही बनाया गया था.

इस वर्ष ठंढ ने न्यूनतम होने के कई सारे रिकार्ड तोड दिये थे. मैं भी शरीर पर कई तह में कपडे तथा सिर पर कनटोप और मफ़लर के साथ जमा था. कडाके की ठंढ आदमी को प्याज के छिलकों की तरह वस्त्र पहनने को विवश कर देती है. तीन-चार…

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Added by Shubhranshu Pandey on January 13, 2013 at 12:30am — 13 Comments

माँ तुमसॆ बलिदान माँगती है

माँ तुमसॆ बलिदान माँगती है :--

========================

भारत कॆ सैनिकॊं की हत्या पर, इंद्रासन हिला नहीं,

प्रलयं-कारी शंकर का क्यॊं, नयन तीसरा खुला नहीं,

शॆष अवतार लक्ष्मण जागॊ, मत करॊ प्रतीक्षा इतनी,

मर्यादाऒं मॆं बंदी भारत माँ,दॆ अग्नि-परीक्षा कितनी,

हॆ निर्णायक महा-पर्व कॆ, तुम फिर सॆ जयघॊष करॊ,

युद्ध-सारथी बन भारत कॆ, जन-जन मॆं जल्लॊष भरॊ,

भारत माँ की बासंती चूनर,तुमसॆ नया बिहान माँगती है !!

महाँकुम्भ मॆं महाँ-युद्ध कर, यॆ रक्तिम स्नान माँगती…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 12, 2013 at 10:30pm — 12 Comments

पाठक नामा- मेरी आपबीती: बेनज़ीर भुट्टो पर संजीव 'सलिल'

पाठकनामा:

संजीव 'सलिल'

*

गत दिनों बेनजीर भुट्टो की लिखी पुस्तक मेरी आपबीती पढ़ी. मेरे पिता की हत्या, अपने ही घर में बंदी, लोकतंत्र का मेरा पहला अनुभव, बुलंदी के शिखर छूते ऑक्सफ़ोर्ड के सपने, जिया उल हक का विश्वासघात, मार्शल लॉ को लोकतंत्र की चुनौती, सक्खर जेल में एकाकी कैद, करचे जेल में- अपनी माँ की पुरानी कोठारी में बंद, सब जेल में अकेले और २ वर्ष, निर्वासन के वर्ष, मेरे भाई की मौत, लाहौर वापसी और १९८६ का कत्ले-आम, मेरी शादी, लोकतंत्र की नयी उम्मीद, जनता की जीत,…

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Added by sanjiv verma 'salil' on January 12, 2013 at 8:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल

=========ग़ज़ल=========

बहरे जदीद मुसद्दस महजूफ मक्फूफ़ मुतव्वी

वजन - 212 2121 2112



बात करना बड़ी बड़ी ही सही

झूठ हो या सही सही ही सही



इश्क के हर कदम पे वादे हों

तब तो करना है दोस्ती ही सही



गरचे…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on January 12, 2013 at 6:25pm — 5 Comments

मकर संक्रांति पर्व

मकर संक्रांति पर्व है, चौदह जनवरी जान

उत्तरायण सूर्य का है, देख शास्त्रीय विज्ञान

पित्त कफ़ वायुप्रकोपहै,शुष्क ठण्ड के रोग .

ओजस्वी उर्जावान सूर्य किरणे करे निरोग

छत पर, खुले में जा लोग पतंग खूब उड़ाते

दूर उडती पतंग निहार नयन ज्योति बढ़ाते

मानसिक संतोष,औ तंदुरस्ती चाहे बढ़ाना

गरीब औ अनाथ को ठण्ड में वस्त्र…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 12, 2013 at 2:00pm — 12 Comments

हद है

मान है सम्मान गर दौलत नगद है .. हद है,

लोभ बिन इंसान कब करता मदद है .. हद है,

हाल मैं ससुराल का कैसे बताऊँ सखियों,

सास बैरी है बहुत तीखी ननद है .. हद है,

स्वाद चखते थे कभी हम स्नेह की बातों का,

आज जहरीली जुबां कड़वा शबद है .. हद है,

कौन…

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Added by अरुन 'अनन्त' on January 12, 2013 at 11:00am — 10 Comments

दो-दोहे- अपने सुख की खोज में...

एक.

अपने सुख की खोज में,सब जा रहे विदेश।

वहां जा कर पता चला, कितना अच्छा देश।।

दो-

सब बदलने की कोशिश,करते हैं सब आज।

आदमी वहीं का वहीं, बदला नहीं समाज।।

Added by सूबे सिंह सुजान on January 12, 2013 at 10:57am — 7 Comments

आक्रोश

घटना ऐसी घटित हो गयी सुनकर भारत रोया है,

वीर सपूतो को फिर से इस मात्रभूमि ने खोया है.

छल कर गया पड़ोसी उसने अपनी जात दिखा डाली,

सोते सिंहो पर हमला अपनी औकात दिखा डाली.

खून हमारा उबल उठा है पाक तेरी नादानी से,

दिल्ली कैसे सहन कर गयी सोंचू मै हैरानी से.

आज हमारी सहनशक्ति का बाँध तोड़ डाला तूने,

सोये सिंह जगाकर अपना भाग्य फोड़ डाला तूने.

अरे भेंड़िये कायरपन पर बार-बार धिक्कार तुझे,

हिन्दुस्तानी बच्चा-बच्चा देता है ललकार तुझे.

कूटनीति अपनाने वाले…

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Added by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on January 12, 2013 at 9:30am — 12 Comments

उमड़ते विचार ..

टूटती सी ताल है ,भेड़िये की खाल है ..

चीख भी न सुन सके ,कानों का ये हाल है।।

बात तो तपाक सी ,गंदली नापाक सी ..

रोम रोम जल उठे ,'तीन पात ढाक' सी ..

गंगा निर्मल कहाँ ,प्रण में अब बल कहाँ ..

स्वच्छ जलधार हो ,कोई भी हल कहाँ?

स्वदेश है पुकारता ,स्वजनों से हारता ,

हिन्द के लिए कहाँ ,स्वयं कोई वारता ?

कुर्सी में गोंद है, उठना मोहाल है …

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Added by Lata R.Ojha on January 12, 2013 at 3:00am — 10 Comments

ककहरा

ककहरा



क- काले दिल कपड़े सफ़ेद

ख- खादी की नियत में छेद

ग- गद्दार देश को बेच रहे

घ- घर को रहे भालो से भेद

इसके बाद कुछ नहीं

मानो हुआ कुछ नहीं…



च- चिड़िया थी जो सोने की

छ- छलनी है आतंक की गोली से

ज- जहां तहां है ख़ून खराबा

झ- झगड़े, जात-धर्म की बोली से

इसके बाद कुछ नहीं

मानो हुआ कुछ नहीं…



ट - टंगी है आबरू चौराहे पे माँ की

ठ - ठगी सी आंसू बहाती है

ड - डरी हुयी है बलात्कारियों से

ढ - ढंग से जी नहीं…

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Added by Ranveer Pratap Singh on January 11, 2013 at 11:30pm — 11 Comments

दो निरे ....

एक बच्चा था, अबोध, हमारे यहाँ की भाषा के उसे निरा कहते है| निरा अबोध बच्चा, अक्ल से कच्चा, दिल से सच्चा| एक दिन खेलते खेलते जाने कहाँ आ पहुचा, उसे नहीं पता था, उसने देखा कुछ लोग थे , अजीब दाड़ी टोपी लगाए, हँसते हुए, बांस की पंचटो के ढाँचे पर आटे की लेई से पतंगी कागज चिपकाते हुए| उसने देखा, कुछ बच्चे उस जैसे ही, निरे अबोध बच्चे, मदद कर रहे है अजीब दाड़ी टोपी वाले लोगे की, वो देखता रहा, बहुत देर तक देखता रहा, उसका दिल रंगीन कागजों में अटक गया था, वो चिपकाना चाहता था उस पतंगी कागज को, बांस की…

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Added by अमि तेष on January 11, 2013 at 11:11pm — 4 Comments

एक बेटी सो गई

सांस उसकी थम गई

एक बेटी सो गई।

पर अब जागा हिंदूस्तां

हर आंख नम हो गई।।

मैं सजा दिलाना चाहती हूं

उन दरिंदों को मां।

ताकि अपवित्र ना हो

फिर कोई दामिनी मां।।

हौंसला बुलंद देखा

कुछ पलों के होश में।

देशवासी न्याय मांगे

हर कोई आक्रोश में।।

तेरा बलिदान हमेशा याद रहेगा

अब मेरा हिंदूस्तां नहीं सहेगा।

यू हीं घूमते रहे गर दरिंदे

तो आक्रोश यूं ही कायम रहेगा।।

चिंगारी जो जल चुकी है

अब नहीं बुझने देना।

बेटी की मौत औ

अपमान का…

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Added by chandramauli pachrangia on January 11, 2013 at 8:33pm — 4 Comments

गजल -- हो रहा है फिर उजाला इस शहर में !!!

हो रहा है फिर उजाला इस शहर में,
जल उठी है मोमबत्ती मेरे घर में ।

आँधियों के पैर कतराने लगे हैं,
है समंदर आस का अब हर नजर में ।

देखकर कोंपल नयी खुश हो गये हम,
शेष है आशा घनी बूढ़े शजर में ।

शाम से महसूस होती है थकावट,
लौट आती है जवानी, नव सहर में ।

यूँ मिला किरदार जीवन का 'सलिल' को,
गीत गम का गुनगुनाया भी बहर में ।

Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 11, 2013 at 6:32pm — 8 Comments

डा . तुकबंद की तबाहियां

डा . तुकबंद की तबाहियां

------------------------------

निकला मेरा जनाजा उनके इश्क की छाँव में

फूल बिछाए हमने बिखेरे कांटे उन्होंने राह में

भूल गए वो कि जनाजा तो काँधे पे जाएगा

गुजरेंगी इस राह से कोई बहुत याद आएगा

---------------------------------------------------------

आशिक और शायरों की है अलग पहचान

जानते हैं सब फिर भी बनते हैं अनजान

आशिकी में आशिक बस करते हैं आह आह

पढ़े गजल शायर लोग करते हैं वाह…

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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on January 11, 2013 at 5:57pm — 9 Comments

"ग़ज़ल"जिसे देखा नहीं हमने उसे भगवान बोलेंगे

===========ग़ज़ल=============

बहर-ए-हजज मुसम्मन सालिम 

वजन- 1222 / 1222 / 1222 / 1222 



गरीबों का दमन करके जो सीना तान बोलेंगे 

झुकाए सर उन्ही को आप तुर्रम खान बोलेंगे 



सिपाही काठ के पुतले बने फिरते हैं राहों में 

कसम खाई वो करने जो…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on January 11, 2013 at 3:30pm — 8 Comments

मेरे सपने में

बह रही थी एक नदी मेरे सपने में
रह गयी फिर भी प्यासी सपने में

जी रही थी इस दुनिया में मगर
देखती थी दूसरी दुनिया सपने में

करती थी इंतेजार उसका दिनभर
आता था जो आंसू पोछने सपने में

यकीन था आएगा वो पूरा करने
कर गया था वादे, जो सपने में

ढूढती हूँ एक वही चेहरा भीड़ में
बस गया था अक्श जिसका सपने में

काश ।अब सूरज ना निकले कभी
'शुभ' देखती रहे हरवक्त उसे सपने में

Added by shubhra sharma on January 11, 2013 at 10:00am — 17 Comments

कलम की नॊंक सॆ

कलम की नॊंक सॆ

===========

फ़ांसी कॆ फन्दॊं कॊ हम,गर्दन का दान दिया करतॆ हैं,

गॊरी जैसॆ शैतानॊं कॊ भी,जीवन-दान दिया करतॆ हैं,

क्षमाशीलता का जब कॊई, अपमान किया करता है,

अंधा राजपूत भी तब, प्रत्यंचा तान लिया करता है,

भारत की पावन धरती नॆं, ऎसॆ कितनॆं बॆटॆ जायॆ हैं,

मातृ-भूमि कॆ चरणॊं मॆं, जिननॆ निजशीश चढ़ायॆ हैं,

दॆश की ख़ातिर ज़िन्दगी हवन मॆं, झॊंकतॆ रहॆ हैं झॊंकतॆ रहॆंगॆ !!

कलम की नॊंक सॆ आँधियॊं कॊ हम,रॊकतॆ रहॆ हैं रॊकतॆ रहॆंगॆ…

Continue

Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 10, 2013 at 8:30pm — 16 Comments

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