१२२२ १२२२ १२२२ १२२
मुझे बेजान सा पुतला बनाना चाहता है
किसी शोकेस में रखकर सजाना चाहता है
मेरे जज्बात सब उसको खिलौने जान पड़ते
जिन्हें वो खुद की चाभी से चलाना चाहता है
कुतर डाले मेरे जब हौंसलों के पंख…
ContinueAdded by sanju shabdita on January 11, 2014 at 3:00pm — 24 Comments
अकेलापन
खिड़की से झांकता
एक उदास चेहरा
और, दूर खड़ा
पत्ता विहीन ,
ढ़ूँढ़ सा, एक पेड़
दोनों ही
अपने अकेलेपन
का दर्द बाँटते
और
घंटों बतियाते
***********
महेश्वरी कनेरी......पूर्णत: मौलिक/अप्रकाशित
Added by Maheshwari Kaneri on January 11, 2014 at 12:30pm — 8 Comments
औरत और नदी
………
औरत जब करती है
अपने अस्तित्व की तलाश और
बनाना चाहती है
अपनी स्वतंत्र राह -
पर्वत से बाहर
उतरकर
समतल मैदानों में .
उसकी यात्रा शुरू होती है
पत्थरों के बीच से
दुराग्रही पत्थरों को काटकर
वह बनाती है घाटियाँ
आगे बढ़ने के लिए
पर्वत उसे रखना चाहता है कैद
अपनी बलिष्ठ भुजाओं में
पहना कर अपने अभिमान की बेड़ियाँ,
खड़े करता है,
कदम दर कदम अवरोध .
उफनती ,…
ContinueAdded by Neeraj Neer on January 10, 2014 at 10:39pm — 27 Comments
बस न पाया , क्या हुआ , कुछ वक़्त वो , ठहरा तो था
वो था मेरा , जितना भी था , जैसा भी था , मेरा तो था
साथ उसके हाथ का , मुझको न मिल पाया कभी
मेरे दिल में उम्र भर , उसका मगर , चेहरा तो था
आँसुओं की , आँख में मेरे , खड़ी इक भीड़ थी
बंद पलकों का लगा , लेकिन कड़ा , पहरा तो था
हाँ ! सियासत में , वो बन्दा , था बहुत कमतर "अजय"
ख़ासियत थी इस मगर , कैसा भी था , बहरा तो था
उम्र भर , इस फ़िक्र में , डूबा रहा मैं ,…
ContinueAdded by ajay sharma on January 10, 2014 at 10:30pm — 12 Comments
2122 1122 22/112
तिश्नगी में न सराबों में है
ताब जो मेरे इरादों में है
चहचहाते हुये पंछी ये कहें
ज़िन्दगी अब भी खराबों में है
ध्यान से पहले सुनो फिर समझो
क्या हकीकत मेरे दावों में है
बादलों की ये शरारत है जो
चाँद का नूर हिजाबों में है
अब तलक तेरी ज़ुबाँ पे थी वो
बात अब मेरे सवालों में है
काम आयेगी अकीदत आखिर
ऐसी तासीर दुआओं में है
ताब=…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on January 10, 2014 at 8:28pm — 22 Comments
आँखों देखी 9 एक बार फिर डॉक्टर का चमत्कार
हम लोगों के लिए 21 जून 1986 का दिन एक यादगार दिन बनकर रह गया है. आज शीतकालीन दल के वे चौदह सदस्य न जाने कहाँ-कहाँ बिखरे हुए हैं लेकिन उस दिन की स्मृति हम सबके दिल में अपना स्थायी आसन बिछा चुकी है. सुबह से ही मंच आदि को अंतिम रूप दिया जा रहा था. जो नाटक और गायन में अपना योगदान दे रहे थे उनका रिहर्सल देखते ही बनता था. चूँकि दल का रसोईया पूरे कार्यक्रम में अहम भूमिका निभा रहा था, रसोई का दायित्व उन पर छोड़ दिया गया जो…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on January 10, 2014 at 11:00am — 11 Comments
सर्द हवा ने बिस्तर बाँधा,
दिवस हो चले कोमल-कोमल।
सूरज ने कुहरे को निगला।
ताप बढ़ा, कुछ पारा उछला।
हिमगिरि पिघले, सागर सँभले,
निरख नदी, बढ़ चली चंचला।
खुली धूप से खिलीं वादियाँ,
लगे झूमने निर्झर कल-कल।
नगमें सुना रही फुलवारी
गूँज उठी भोली किलकारी
खिलती कलियाँ देख-देखकर
भँवरों पर छा गई खुमारी।
देख तितलियाँ, उड़ती चिड़ियाँ,
मुस्कानों से महक रहे पल।
अमराई…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on January 10, 2014 at 10:00am — 27 Comments
किसको पता कि कौन हूँ मैं ....
कोई शब्द नहीं निःशब्द हूँ मैं ....
खुद के चित्कार में छुप जाता हूँ
मेरा अस्तित्व,
मेरी संवेदनाएं
सन्नाटों ने खूब पढ़ा है
मेरे अनकहे शब्दों को
और ठंडी चुभती सर्द हवाओं ने
महसूस करा है ....
मेरे शब्दों के एहसास को .....
बहुत कुछ कहता हूँ
दिन भर ....
तुमसे, सबसे
पर सच कहूँ तो
आज तक
मैं, सिर्फ निःशब्द हूँ .....
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Amod Kumar Srivastava on January 9, 2014 at 10:49pm — 20 Comments
करें हम हमेशा ही उनकी इबादत
ये जीवन हमारा है जिनकी बदौलत...
नहीं कोई सानी है माता पिता का
यकीनन ये करते हैं दिल से मुहब्बत...
चरण छू लो इनके, मिलेंगी दुआएं
इन्हें देखने भर से होती जियारत ...
सही मायने में यही देवता हैं
यही पूरी करते हमारी ज़रूरत ...…
Added by Ajay Agyat on January 9, 2014 at 9:00pm — 16 Comments
11212 11212 11212 11212
उसे भूल जा तू न याद कर, जो गुज़र गया वो गुज़र गया
जिसे तख़्ते दिल में बिठाया था,वो उतर गया तो उतर गया
यहाँ आंधियों का वो ज़ोर है ,कि उजड़ गया है मेरा चमन
मेरी चाहतें मिली ख़ाक में , मेरा ख़्वाब था जो बिखर गया
…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 9, 2014 at 6:30pm — 47 Comments
Added by AVINASH S BAGDE on January 9, 2014 at 3:00pm — 26 Comments
कभी सोचा न था ...
कितनी कलरफुल थी
मेरी दुनिया
अब तुम्हारे बाद
ब्लैक एंड वाइट होकर रह जाएगी
कभी सोचा न था ...
अलमारी में पड़े
लाल गुलाबी कपड़े
मुंह चिड़ाएंगे और पूछेंगे
मुझसे कई सवाल
कभी सोचा न था ..
आइने के सामने आज
खड़े होने में डर लगेगा
क्योंकि
खो दूंगी वो अक्स
जो मुझे निहारा करता था
कभी सोचा न था ...
बड़ी बेपरवाह थी जिन्दगी
बस तुम्हे बताकर
दुनिया की परवाह किये बिना
स्वछन्द घूमा करती थी
अब घर…
Added by Sarita Bhatia on January 9, 2014 at 2:37pm — 13 Comments
बह्र : हज़ज मुरब्बा सालिम
सदा दिन रात भिनसारे,
गिरें नैनों से अंगारे,
हमें पागल वो कहते हैं,
थे जिनकी आँख के तारे,
समझना है कठिन बेहद,
हकीकत प्यार की प्यारे,
घुटन गम दर्द तन्हाई,
लगें अपने यही सारे,
हमारी रूह तक गिरवी,
वो केवल दिल ही थे हारे,
यही अब आखिरी ख्वाहिश,
जहां पत्थर हमें मारे.
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by अरुन 'अनन्त' on January 9, 2014 at 11:00am — 33 Comments
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
बज़्म थी तारों की उसमें चाँद का पहरा भी था
धूम थी रानाइयों की दिल मेरा तन्हा भी था
इक नदी थी नाव भी थी और था मौसम हसीं
साथ तुम थे बाग़ गुल थे इश्क मस्ताना भी था…
ContinueAdded by अमित वागर्थ on January 8, 2014 at 7:00pm — 35 Comments
ममता का चित बड़ा चंचल चपल तब
तन मे सचल मन बड़ा ही प्रचल है
रमता ये जोगी छोटा नाटा ये कपट कब
तन में उदित मन बड़ा ही स्वचल है
समता का भाव जागा मन में भी मेरे अब
तन में न हलचल मन निशचल है
तमता नहीं है भाव में रहे निचल रब
तल में अतल में वितल में अचल है
मौलिक एवं अप्रकाशित
आशीष (सागर सुमन)
Added by Ashish Srivastava on January 8, 2014 at 5:58pm — 9 Comments
श्रीराम कुछ क्रोधित होकर बोले, “हनुमान तुमसे सीता की ख़बर लाने को कहा था। तुमने लंका में आग क्यों लगा दी?”
हनुमान शांत भाव से बोले, “प्रभो! जब तक हम जैसे आदिवासी पहाड़ों की गुफाओं, जंगलों और खुले आसमान के नीचे रह रहे हैं तब तक दुनिया में किसी को भी सोने के महल में रहने का अधिकार नहीं है। मुझे धरती पर हमेशा रहना है अतः मैं कभी मार्क्स, कभी मिन्ह, कभी लेनिन तो कभी माओ बनकर जनमानस तक ये संदेश पहुँचाता रहूँगा। सोने की लंका जलाकर मैंने इसकी शुरुआत की है प्रभो।“
हनुमान…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 8, 2014 at 2:25pm — 22 Comments
दॊहा छन्द (श्रंगार-रस)
===================
उठत गिरत झपकत पलक, दुपहरि साँझ प्रभात !!
चितवत चकित चकॊर-दृग,मुख-मयंक दुति गात !!१!!
नाभि नासिका कर्ण कुच, त्रि-बली उदर लकीर !!
ग्रीवा चिबुक कपॊल कटि,निरखत भयउँ अधीर !!२!!
हँसि हॆरति फॆरति नयन, मन्द मन्द मुस्काति !!
दन्त-पंक्ति ज्यूँ दामिनी, बिन गरजॆ चमकाति !!३!!
चॊटी मानहुँ कॊबरा, लटि नागिन की जात !!
कॆश समुच्चय कर रहा, नाग लॊक की बात !!४!!
भरीं भुजा दॊनहुँ सबल,…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 8, 2014 at 12:00pm — 27 Comments
नियम/अनुशासन
सब आम लोगों के लिए है
जो खास हैं
इन सब से परे हैं
उन पर लागू नहीं होते
ये सब
ख़ास लोग तो तय करते हैं
कब /कौन/ कितना बोलेगा
कौन सा मोहरा
कब / कितने घर चलेगा
यहाँ शह भी वे ही देते हैं
और मात भी
आम लोग मनोरंजन करते हैं
आम लोगों का रेमोट
ख़ास लोगों के हाथों में होता है
वे नचाते हैं
आम लोग नाचते हैं.....
मगर हालात
हमेशा एक जैसे नहीं होते
और न ही…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on January 8, 2014 at 12:00pm — 11 Comments
गीत भी लिखे कलम भारती के गान के तो,
कागज भी नाच के ही आन करने लगा
वंदन हजार माँ को छंद ने किये है और
पंक्ति पंक्ति लिख के ही गान करने लगा
स्याही शूर वीरता के मंत्र लिखती गयी तो
अक्षर भी अक्षर का मान करने लगा
देशप्रेम वाला भाव मन में बसा लिया तो
शब्द शब्द राष्ट्र को सलाम करने लगा
मौलिक एवं अप्रकाशित
आशीष ( सागर सुमन)
Added by Ashish Srivastava on January 8, 2014 at 11:00am — 12 Comments
जब कभी भी भोर के मालिक अँधेरे हो गए
क़ाफ़िलें लुटते रहे , रहबर लुटेरे हो गए
कुछ हुयी इंसान में भी इस तरह तब्दीलियाँ
क़द बढ़े लेकिन , वो बौरे हो गए
हो गयी खुशबू ज़हर इस दौर में
बाग़ में , साँपों के डेरे हो गए
ग़र बँटी धरती कहाँ तेरा चमन रह जायेगा
भूल है तेरी अलग तेरे बसेरे हो गए
झूठ तो देखो इधर किस क़दर धनवान है
और उधर नीलाम सच के घर बसेरे हो गए
आदमी डरता था पहले , रात में ही "अजय" …
Added by ajay sharma on January 7, 2014 at 11:00pm — 7 Comments
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