वो छुपाते रहे अपना दर्द
अपनी परेशानियाँ
यहाँ तक कि
अपनी बीमारी भी….
वो सोखते रहे परिवार का दर्द
कभी रिसने नहीं दिया
वो सुनते रहे हमारी शिकायतें
अपनी सफाई दिये बिना ….
वो समेटते रहे
बिखरे हुये पन्ने
हम सबकी ज़िंदगी के …..
हम सब बढ़ते रहे
उनका एहसान माने बिना
उन पर एहसान जताते हुये
वो चुपचाप जीते रहे
क्योंकि वो पेड़…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on February 3, 2016 at 6:30pm — 12 Comments
अपने बंगले के बगीचे की दीवार के पास जमा भीड़ देखकर उसने गाड़ी रोक दी I
" क्या हुआ "? बाहर निकल उसने पूछा I
"कोई भिखारी मर गया "I
" कैसे ?"
" कैसे क्या साहब ,ठण्ड से अकड़ कर I पिछले कुछ दिनों से यहीं पड़ा रहता था दीवार के पास I"
गाड़ी में बैठते उसे लगा ,उसका सारा शरीर ठण्ड से जमा जा रहा है I चार दिन पहले पत्नी ने कहा था कि पुराने गर्म कपडे कम्बल काफी जमा हो गए हैं , कहीं दान करने चलना है I और फिर बात आई गयी हो गयी थी I
" अरे, अब क्या चद्दर डाल रहे हो…
ContinueAdded by Pradeep kumar pandey on February 3, 2016 at 6:18pm — 7 Comments
Added by Rahila on February 3, 2016 at 6:05pm — 29 Comments
विवाद समाप्त होते न देख,मामले को कोर्ट के सुपुर्द कर दिया।शनि को भी पार्टी बनाया गया,बकायदा समन भेजा गया।निर्धारित तारीख पर कोर्ट में उपस्थिति हेतु आवाज लगाई।सभी पार्टियां मुस्कुरा रही थी,हूंह अब शनि आयेंगे गवाही देने।तत्क्षण विटनेस बाक्स में भुजंग काला सुगठित शरीर,गदा लिए,दिव्य प्रकाश के साथ उपस्थित हुए।विस्मय से चकित न्यायाधीश ने शपथ की कार्रवाई कराई ।
"सत्य बोलूंगा,सत्य के सिवा कुछ नहीं बोलूंगा,जो भ्रमित है ,उन्हें भी सत्य पर चलना सिखाता हूँ।"
" तो प्रवेश पर रोक क्यों…
Added by Pawan Jain on February 3, 2016 at 8:47am — 15 Comments
उपेक्षित....
दसों दिशाओं में डंका बजाता
चक्रवर्ती सम्राट......दिन!
यशस्वी-प्रकाशवान
निरंतर गतिमान
नित्य महासमर के उपरांत शिथिल,
क्लांत वश पिघल जाता
रक्त का कण-कण
संगठित करता लाल सागर
विचलित होती आत्मा
अश्रु आश्चर्यचकित...!
कपोलों पर ठिठके...
हवाएं अट्टहास करती
मचलती ज्वार-भाटा आदत से…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 3, 2016 at 7:12am — 9 Comments
2222 2222 2222 222
सुनते सुनते गीत प्रेम का क्या सूझी पुरवाई को
कोयल आँसू भर भर देखे आग लगी अमराई को /1
बात कहूँ तो बन जाएगी जग की यार हँसाई को
जैसे तैसे झेल रहा हूँ जालिम की रूसवाई को /2
दिन तो बीते आस में यारो शायद चलती राह मिले
किन्तु पुराने खत पढ़ काटा रातों की तनहाई को /3
वो साहिल की रेत देख कर चाहे यूँ ही लौट गया
ख्वाबों में देखेगा लेकिन दरिया की गहराई को /4
भर कर जेबें रोज चढ़े है मस्ती को सैलानी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 3, 2016 at 12:05am — 16 Comments
सुधि-बुधि बिसराई
व्याकुल पनीली आँखें,
अधखुले केश, बेसुध आँचल
अस्त-व्यस्त आभूषण...
कराहती सिसकती चीत्कारती
पल-पल जमती जाती करुण वाणी से
कहाँ-कहाँ नहीं पुकारा-
पर,
लौट-लौट आती थी
हर पुकार की कर्णपटों को बेधती
हृदय विदारक प्रतिध्वनि...
लिख चुकी थी नियति
यशोधरा के भाग्य में
अंतहीन निष्ठुर विरह...
कितनी प्रबल रही होगी
सत्यान्वेषण को आतुर
अंतरात्मा की वो पुकार,
कि नहीं थम…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on February 2, 2016 at 11:30pm — 4 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on February 2, 2016 at 8:30pm — 23 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 2, 2016 at 8:17pm — 4 Comments
काम सारे
ख़त्म करके
रुक गई बहती नदी
ओढ़ कर
कुहरे की चादर
देर तक सोती रही
सूर्य बाबा
उठ सवेरे
हाथ मुँह धो आ गये
जो दिखा उनको
उसी से
चाय माँगे जा रहे
धूप कमरे में घुसी
तो हड़बड़ाकर
उठ गई
गर्म होते
सूर्य बाबा ने
कहा कुछ धूप से
धूप तो
सब जानती थी
गुदगुदा आई उसे
उठ गई
झटपट नहाकर
वो रसोई में…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 2, 2016 at 3:44pm — 12 Comments
ये शबे-गम किसने दिया दिल को
किसने अपना बना लिया दिल को
मेरी नजरों में तेरे ख्वाब सनम
कह रहे हैं ये शुकरिया दिल को
इश्क तुमसे किया है शिद्दत से
और बे चैन कर लिया दिल को
पीला-पीला बसंती सा आंचल
मिस्ल-ए-गुलशन बना गया दिल को
चाँदनी दूर जा के चमके कहीं
हमने अब तो जला लिया दिल को
रूठी तकदीर आज जागी है
कौई तकदीर दे गया दिल को
छुप गया चाँद रात होने पर
उसने जब प्यार से छुआ दिल को
तंग…
Added by kanta roy on February 2, 2016 at 1:00pm — 5 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 2, 2016 at 9:25am — 7 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on February 2, 2016 at 8:21am — 5 Comments
शाम का समय था और गाँव के बाजार में अचानक किसी ने मास्टर जी की साईकिल को पीछे से पकड़ कर रोक लिया और बोला, “अरे पहचानिए–पहचानिए ।’’
“अच्छा रुकिये जरा नजदीक से देखने दीजिये -मास्टर जी ने अपना चश्मा लगाया और बोले -अरे रामजी मिश्रा, तुम! कब आये दिल्ली से? और बताओ, कर क्या रहे हो आजकल ?”
“रिक्शा ठेल रहा हूँ साले तुम्हारी कृपा से, साला जिंदगी नरक हो गयी है दिल्ली की सड़कों पर, जिसको देखो वही १-२ रुपयों के लिए लतिया कर चल देता है, न ढंग की जगह है रहने को, न…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on February 2, 2016 at 12:52am — 6 Comments
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