Added by जयनित कुमार मेहता on April 30, 2016 at 9:01pm — 14 Comments
22-22-22-22-----22-22-22-2
जीवन पथ में, तेज़ धूप, तुम घने पेड़ की छाया माँ।
इस मन्दिर सा पावन दूजा, मन्दिर कहीं न पाया माँ।।
जब भी दुख के बादल छाये, मन तूफ़ाँ से घिरा कभी।
इस चेहरे पर दर्द की रेखा, और कौन पढ़ पाया माँ।।
तुम अपने सारे बच्चों को, कैसे बांधे रखती हो।
जबकी सबके अलग रास्ते, फिर भी एक बनाया माँ।।
विह्वल व्यथित हृदय की धड़कन, ज्यूँ अमृत पा जाती है।
जब भी सर पर कभी स्नेह से, तुमने हाथ फिराया माँ।।
जब भी दर्द यहाँ उट्ठा है, चोट कहीं…
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 30, 2016 at 1:30pm — 10 Comments
Added by amita tiwari on April 29, 2016 at 10:00pm — 9 Comments
अनाम ख़त
चेरी के फूल जैसे
मुरझाये हुए शब्दों को
जब छु जायेंगी तुम्हारी नफ्स
तो शायद,यह फिर से सब्ज़ हो खिलें
और हाँ, इनके पीछे
छुपे हुए अर्थों की खुश्बू
उड़ने लगे तुम्हारे कमरे में
सावन के बादलों-सी बेचैनी
मंडराएगी सिने पे कहीं
और जब तुम्हारी आँखों से बरसेगी झड़ी
होंठ पे उगती इक नन्ही मुस्कान
यूँ ही दब जायेगी दर्द के ओलों से
तब यह मुर्दे शब्द और भी सजीव लगेंगी
तो क्या…
ContinueAdded by Rajkumar Shrestha on April 29, 2016 at 2:30pm — 3 Comments
22-22-22-22----------2212-1222
सोते रहिये, किसने टोका, जगना कहाँ ज़रूरी है?
ढ़ोते रहिये, जीवन बोझा, रखना कहाँ ज़रूरी है?
क्या मतलब है, और किसी से, अपने रहें सलीके से।
लिखते रहिये, इन पन्नों से, हटना कहाँ ज़रूरी है।।
घर से बाहर, भूले से भी, मेहनत ज़रा न करियेगा।
चिंतन करिये यूँ ही, कुछ भी, करना कहाँ ज़रूरी है।।
राहों में घायल को छोड़ें, व्याकुल पड़े ही रहने दें।
कलयुग में सिद्धार्थ का बुद्धा,बनना कहाँ ज़रूरी है।।
रावण…
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 28, 2016 at 8:00pm — 11 Comments
1. रोशनी ....
क्या ज़मीं
क्या आसमां
हर तरफ
चटख़ धूप है
सहर से सांझ तक
उजालों की बारिश है
बस, तुम आ जाओ
कि मेरी तारीकियों को
रोशनी मिले //
२. यकीन ....
चटख धूप में भी
अब्र चैन नहीं लेते
आधी सी धूप में
आधी सी बारिश है
जैसे अधूरी सी ज़िंदगी की
अधूरी से ख्वाहिश है
सबा भी बेसब्र नज़र आती है
लगता है कोई रूठा पल
मिलन को बेकरार है
शायद कोई वादा
मेरी तन्हाई में
आरज़ू-ऐ-शरर बन के…
Added by Sushil Sarna on April 28, 2016 at 2:27pm — 6 Comments
2122 2122 2122 212
इस तरह इक औ नया रिश्ता यहाँ बनता गया
आप हम से ना मिले औ दिल गरां बनता गया
दिल से दिल मिलने लगे जब तो जहाँ बनता गया
प्यार से भरपूर रोशन आशियाँ बनता गया
मिल फकीरों की दुआ से फायदा ये है हुआ
घर मेरा भी धीरे - धीरे आस्तां बनता गया
मैं पलटने जब चला किस्मत तो खाली हाथ था
मेहनत के साथ फिर तो कारवां बनता गया
रोज कुछ बाजार से लाने की आदत बन गयी
और फिर तो घर में मेरे…
ContinueAdded by munish tanha on April 28, 2016 at 9:00am — 5 Comments
बह्र : २१२२ १२१२ २२
ये दिमागी बुखार टेढ़ा है
यही सच है कि प्यार टेढ़ा है
स्वाद इसका है लाजवाब मियाँ
क्या हुआ गर अचार टेढ़ा है
जिनकी मुट्ठी हो बंद लालच से
उन्हें लगता है जार टेढ़ा है
खार होता है एकदम सीधा
फूल है मेरा यार, टेढ़ा है
यूकिलिप्टस कहीं न बन जाये
इसलिए ख़ाकसार टेढ़ा है
-------------
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 27, 2016 at 10:43pm — 15 Comments
हौले हौले-(ग़ज़ल - एक प्रयास)
बहर -२२ २२ २२ २
हौले हौले रात चली
हौले हौले बात चली !!१!!
हौले हौले होंठ हिले
हौले से बरसात चली !!२!!
हौले हौले आँखों में
प्यासी प्यासी रात चली !!३!!
हौले हौले जीत हुई
आलिंगन की बात चली !!४!!
हौले हौले ख़्वाबों की
आँखों से बरसात चली !!५!!
हौले हौले आँखों से
जागी जागी रात चली !!६!!
हौले हौले वो महकी
जुगनू की बारात चली !!७!!
सुशील सरना…
Added by Sushil Sarna on April 27, 2016 at 4:40pm — 15 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on April 27, 2016 at 2:15pm — 7 Comments
सुधि आँगन ....
याद आये वो बैन तुम्हारे
तृषित नयनों का सिंगार हुआ
संग समीर के
उलझी अलकें
स्मृति कलश से फिर
छलकी पलकें
याद आये वो अधर तुम्हारे
फिर मूक पल हरसिंगार हुआ
स्मृति मेघों की
निर्मम गर्जन
देह कम्पन्न का
करती अभिनन्दन
याद आये वो स्पर्श तुम्हारे
आलिंगन क्षण अंगार हुआ
जब देह से देह की
गंध मिली
तब स्वप्निल पवन
मकरंद चली
याद आये…
ContinueAdded by Sushil Sarna on April 26, 2016 at 9:41pm — 8 Comments
Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on April 26, 2016 at 8:29pm — 4 Comments
तपकर लोहा आग में, बन जाता फौलाद,|
मात-पिता की आँच में, संस्कारी औलाद |
संस्कारी औलाद, प्रगति में हाथ बँटाते
करते जो पुरुषार्थ, काम से कब घबराते
कह लक्ष्मण कविराय,युवक ले शिक्षा जमकर
सक्षम और कुशाग्र, बने गुरुकुल में तपकर |
सुनकर लंबित फैसला, विधवा हुई निढाल
दुख सहते वादी मरा, घर का खस्ता हाल |
घर का खस्ता हाल, हुई जब पेंशन लंबित
सुनने हक़ में न्याय, हुआ न वहाँ उपस्थित
लक्ष्मण माँगे न्याय, परिस्थिति हो जब…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 26, 2016 at 5:00pm — 10 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 25, 2016 at 11:02pm — 15 Comments
1222-1222-1222-1222
दिवाना आप का होकर फिरे वो यार बरसों से
लिए फिरता है दिल में वो तो तेरा प्यार बरसों से
हुआ है ज़िक्र महफ़िल में उसी की बात का लेकिन
बना रहता है वो मजनू करे दीदार बरसों से
अदालत ये अनोखी है जहाँ पे झूठ चलता है
हुए कैदी मिली फांसी जो थे सरदार बरसों से
जरा दिल की सुनो तो जी बड़ा मासूम भोला है
पड़ा धोखे में जाकर ये लुटा घर बार बरसों से
मेरे मौला सफर में हूँ अता कर फ़िक्र ना मुझको
दे वो ढूँढा…
Added by munish tanha on April 25, 2016 at 10:00pm — 3 Comments
१२२/१२२/१२२/१२
.
कोई राज़ मुझ पर खुला देर से,
वो आँसू वहीँ था,, बहा देर से.
.
चिता की हुई राख़ ठंडी मगर,
सुलगता हुआ दिल बुझा देर से.
.
मैं दुनिया से लड़ने को तैयार था,
मगर ..ख़त तुम्हारा मिला देर से.
.
तेरा नाम धडकन पे गुदवा लिया,
ये ताबीज़ मुझ को फला देर से.
.
हमारी सिफ़ारिश फ़रिश्तों ने की,
मगर आसमां ही झुका देर से.
.
अजब सी नमी लिपटी हर्फ़ों से थी,
वो ख़त तो जला पर जला देर से.
.
कई खेत…
ContinueAdded by Nilesh Shevgaonkar on April 25, 2016 at 8:32pm — 23 Comments
Added by amita tiwari on April 25, 2016 at 8:00pm — 3 Comments
२२ २२ २२ २२ २२ २
हँसते दर्पण जब जब तेरी आँखों के
रफ़्ता रफ़्ता महके गुलशन साँसों के
धीमे धीमे होती है ये रात जवाँ
ख़्वाब मचलते हैं प्यासे पैमानों के
कैसे डूबे भँवरों में किश्ती नादां
सिखलाते हमको गड्ढे रुखसारों के
गोया नभ से चाँद उतर आया कोई
चेह्रे से हटते ही साए बालों के
पार उतर आये हम तूफां से बचकर
मस्त सफीने पाए तेरी बाहों के
खूब शफ़ा…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 25, 2016 at 8:00pm — 19 Comments
मरणोपरांत मृतक युवक के कर्मो का हिसाब किताब करने की कार्यवाही शुरू हो चुकी थी। दूसरी दुनिया का दरोगा लेखा-जोखा देखने वाले से पूछताछ कर रहा था ।
"इस लड़के की उम्र विधाता ने कम लिखी थी क्या? "
"नहीं दरोगा साहब! उम्र तो खूब लिखी थी। लेकिन इसने खुदकुशी कर ली ।"
"क्यूं? "
"इसका इम्तेहान चल रहा था, पर ये बीच में ही भाग निकला। "
"क्यूं क्या इसने जीने की कला नहीं सीखी? "
"नहीं, ये सतयुग के प्राणी नहीं, कलयुग की खुदपरस्त पीढ़ी है।ना सब्र,ना मर्यादा, ना अनुशासन और ना…
Added by Rahila on April 25, 2016 at 7:30pm — 49 Comments
165
ये गठरी!
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ये गठरी!
कब होगी हलकी,
परायों के समानार्थी,
अपनों के कर्ज से छलकी!
मूलाॅंश को पटाने की
योजना बनाई मैंने,
तत्क्षण,
अपनी अपनी व्याज दर बढ़ाई इन्होंने।
जिंदगी की रेलगाड़ी,
कभी पा न सकी पटरी!
कुछ लोग,
सुखपूर्वक जीते हैं,
कर्ज लेकर भी घी पीते हैं!
और,
चुकाने के नाम पर---
देते हैं धमकी!
सुख! क्या है?
क्या पता।
घर! क्या है?
नहीं सकता बता।
किराये की…
Added by Dr T R Sukul on April 25, 2016 at 6:19pm — 6 Comments
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