उन फाका मस्त फकीरों की हस्ती ऐसी थी
माल पुवे फीके थे उनकी मस्ती ऐसी थी
राग द्वेष नफ़रत के शहरों में जले फैले
प्यार बढ़ाती थी नानक की बस्ती ऐसी थी
जीवन की सोन चिरैया है हवस में अब
ढाई आखर सीखे ना ख़ुदपरस्ती ऐसी…
ContinueAdded by gumnaam pithoragarhi on May 27, 2014 at 8:30am — 4 Comments
काल-धारा
मेरा स्नेह तुम्हारी ज़िन्दगी के पन्ने पर देर तक
स्वयं-सिद्ध, अनुबद्ध
हलके-से हाशिये-सा रहा यह ज़ाहिर है
ज़ाहिर यह भी कि जब कभी
अपने ही अनुभवों के भावों के घावों को
विषमतायों से विवश तुम चाह कर भी
छिपा न सकी
हाशिये को मिटा न सकी
मिटाने के असफ़ल प्रयास में तुम
घुल-घुल कर, मिट-मिट कर
ऐंठन में हर-बार कुछ और
स्वयं ही टूटती-सी गई
टूटने और मिटने के इस क्रम…
ContinueAdded by vijay nikore on May 27, 2014 at 6:57am — 33 Comments
२२२ ११२ १२२
नानी अब न कहे कहानी
राजा खोये नहीं वो रानी
रेतीली वो नदी पुरानी
गुम पैरों कि मगर निशानी
बोली तुतली हिरन सी आँखे
जाने खोयी कहाँ दिवानी
बचपन बीत गया है पल में
मुरझाई सी लगे जवानी
देखेंजब भी जहर हवा में
बहता आँख से मेरी पानी
भूली सजनी किये थे वादे
उंगली में है पडी निशानी
बिसरा पाये कभी नहीं हम
गांवों वाली…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on May 26, 2014 at 2:54pm — 12 Comments
बीच राह श्मशान बना दो
इंसानों को यह समझा दो |
जीवन नश्वर है यह जानें
मृत्यु सत्य है उसको मानें
नफरत छोड़ प्यार सिखला दो
इंसानों को यह .......
रूप बड़ा ही सुन्दर पाया
काया ने कब साथ निभाया
साँच बुढ़ापे का दिखला दो
इंसानों को यह .......
यह जग एक मुसाफिरखाना
इसका राज नहीं जो जाना
राज यही उसको बतला दो
इंसानों को यह .......
रिश्ते सारे अजब अनूठे
पाश मोह ममता के झूठे …
Added by Sarita Bhatia on May 26, 2014 at 2:00pm — 19 Comments
2122 1212 22
ज़िन्दगी यूँ लगी भली, फिर भी
बात खुशियों की है चली, फिर भी
देखिये सच कहाँ पहुँचता है
यूँ है चरचा गली गली, फिर भी
क्या करूँ हक़ में कुछ नहीं मेरे
रूह तक तो मेरी जली, फिर भी
क्यों अँधेरा घिरा सा लगता है
साँझ अब तक नहीं ढली फिर भी
आप दहशत को और कुछ कह लें
डर गई हर कली कली फिर भी
अश्क रुक तो गये हैं आखों के
दिल में बाक़ी है बेकली फिर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 26, 2014 at 12:00pm — 20 Comments
धर्म-कर्म दुनिया में
प्राणवायु भरना
कब सीखा पीपल ने
भेदभाव करना?
फल हों रसदार या
सुगंधित हों फूल
आम साथ…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 26, 2014 at 11:00am — 20 Comments
जुल्फ हैं लहराते तेरे बदली जैसे
और तुम …..
मुस्कुराती दामिनी सी छल रही हो...
केशुओं से झांकते तेरे नैन दोनों
प्याले मदिरा के उफनते लग रहे
काया-कंचन ज्यों कमलदल फिसलन भरे
नैन-अमृत-मद ये तेरा छक पियें
बदहवाशी मूक दर्शक मै खड़ा
तुम इशारों से ठिठोली कर रही हो
जुल्फ हैं लहराते तेरे बदली जैसे
और तुम ..
मुस्कुराती दामिनी सी छल रही हो
इस सरोवर में कमल से खेलती
चूमती चिकने दलों ज्यों…
ContinueAdded by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on May 25, 2014 at 4:00pm — 12 Comments
दोस्तों चुनाव के दौरान की ग़ज़ल है, विलम्ब से पोस्ट कर रहा हूँ
ज़हनो-दिल ख़ामोश है औ’ हर नज़र दीवार पर
क्या इलेक्शन चीज़ है उतरा नगर दीवार पर
या कोई हो आला लीडर या गली का शेर खां
हर किसी दिख रही अपनी लहर दीवार पर
इस इलेक्शन में खड़ा है ऐसा भी उम्मीदवार
जिसने लटकाया कई सर काटकर दीवार पर
भोंकने लगता है 'शेरू' क्या पता किस बात पर
देखते ही मोहतरम का पोस्टर दीवार पर
बस चुनावी रंग में रंगे हैं ये…
ContinueAdded by Sushil Thakur on May 24, 2014 at 10:00pm — 6 Comments
उम्मीदों का जन आदेश
उम्मीदों का जन आदेश, करे उजागर मन आवेश।
मतदाता के मन की राज, बूझ रहे हैं पंडित आज।१।
घोषित होते ही परिणाम, दिग्गज आज हुए गुमनाम।…
ContinueAdded by Satyanarayan Singh on May 24, 2014 at 10:00pm — 12 Comments
2122 2122 2122
नीले नीले नयनो पर पलकों का पहरा
जैसे चिलमन झील पे कोई हो पसरा
दिल तेरा बेचैन है मुझको भी मालुम
बाँध लूं कैसे मैं लेकिन सर पे सहरा
झीने बस्त्रों में तेरा मादक सा ये तन
जैसे बैठा चाँद कोई ओढ़े कुहरा
सुध में उसकी होश मेरे जब भी उड़ते
जग को लगता जैसे मैं कोई हूँ बहरा
उसकी बातें ज्यों हो कोयल कूके कोई
उतरे बन अहसास कोई दिल पे गहरा
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Dr Ashutosh Mishra on May 23, 2014 at 4:25pm — 15 Comments
गांधी जी की कल्पना, हो सकती साकार,
राम राज्य इस देश में, ले सकता आकार |
ले सकता आकार, करे सब मिल तैयारी
मन में हो संकल्प,नहीं फिर मुश्किल भारी
लक्ष्मण कर विश्वास,चले अब ऐसी आंधी
भ्रष्ट तंत्र हो नष्ट, तभी खुश होंगे गांधी ||…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 23, 2014 at 10:00am — 15 Comments
जब जब जागी उम्मीदें ,
अरमानों ने पसारे पंख.
देखा बहेलियों का झुंड,
आसपास ही मंडराते हुए,
समेट लिया खुद को
झुरमुटों के पीछे.
अँधेरा ही भाग्य बना रहा.
हमारे ही लोग,
हमारे जैसे शक्लों वाले,
हमारे ही जैसे विश्वास वाले,
करते रहे बहेलियों का गुण गान.
उन्हें बताते रहे हमारी कमजोरियों के बारे में
बहेलिये भी हराए जा सकते हैं.
कभी सोचा ही नहीं .
उनकी शक्ति प्रतीत होती थी अमोघ.
जंगल में लगी आग में…
ContinueAdded by Neeraj Neer on May 23, 2014 at 9:36am — 23 Comments
हे मन कर कल्पना
बना फिर अल्पना
खोल कर द्वार
सोच के कर पुनः संरचना
हे मन कर कल्पना
क्यूँ मौन तू हो गया
किस भय से तू डर गया
खड़ा हो चल कदम बढ़ा
करनी है तुझे कर्म अर्चना
हे मन कर कल्पना
छोड़ उसे जो बीत गया
भूल उसे जो रीत गया
निश्चय कर दम भर ज़रा
सुना समय को अपनी गर्जना
हे मन कर कल्पना
पथ है खुला तू देख तो
नैनो को मीच खोल तो
ऊंचाई पर ही फल मीठा…
ContinueAdded by Priyanka singh on May 22, 2014 at 6:18pm — 16 Comments
बाद इसके भी बहस कुछ और चलनी चाहिए
सूरतों के साथ सीरत भी बदलनी चाहिए
**
चल पड़े माना सफर में बात इससे कब बनी
लौटने को घर हमेशा साँझ ढलनी चाहिए
**
आ ही जायेगा भगीरथ फिर यहाँ बदलाव को
आस की गंगा तुम्हीं से फिर निकलनी चाहिए
**
है जरूरी देश को विश्वास की संजीवनी
मन हिमालय में सभी के वो भी फलनी चाहिए
**
ब्याह की बातें कहो या फिर कहो तुम देश की
हाथ से जादा …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 22, 2014 at 10:30am — 19 Comments
मन मेरे तू क्या होता?
जो मुझको तू भा जाता
कर लेता मुझको दीवाना
तो मैं तुझको अपनाता
मन मेरे तुलसी दल होता
मोहन के मस्तक पर सोहता
पा जाता जीवन निर्वाण
तो मैं तुझको अपनाता
मन मेरे जमुना जल होता
कृष्णा के तन को छू जाता
पा जाता तू सम्मान
तो मैं तुझको अपनाता
मन मेरे तू हरिपथ होता
प्यारे के चरणों को छूता
पा जाता सुजीवन सोपान
तो मैं तुझको अपनाता
मन मेरे तू दर्पण होता …
Added by kalpna mishra bajpai on May 21, 2014 at 11:00pm — 12 Comments
गालों पर बोसा दे देकर मुझको रोज़ जगाती है
छप्पर के टूटे कोने से याद की रौशनी आती है
दालानों पर आकर, मेरे दिन निकले तक सोने पर
कोयल, मैना, मुर्ग़ी, बिल्ली मिलकर शोर मचाती है
सबका अपना काम बंटा है आँगन से दालानों तक
गेंहूँ पर बैठी चिड़ियों को दादी मार बगाती है
यूं तो है नादान अभी, पर है पहचान महब्बत की
जितना प्यार करो बछिया को उतनी पूँछ उठती है
लाख छिड़कता हूँ दाने और उनपर जाल बिछाता हूँ
लेकिन घर कोई…
ContinueAdded by Sushil Thakur on May 21, 2014 at 6:00pm — 9 Comments
तोड़ धैर्य के बाँध को, उफन गया सैलाब।
कुछ से उम्मीदें बढ़ीं, कुछ के टूटे ख़्वाब।।
लाँघी सीमा क्रोध की, ऐसा क्या आक्रोश।
भला बुरा सोचा नहीं, अंधा सारा जोश।।
श्रम भी काम न आ सका, काम न आया अर्थ।
बुरे कर्म की कालिमा, यत्न हुआ सब व्यर्थ।।
राग द्वेष का हो मुखर, जिनके मुख से राग।
शक्ति उन्हें मिल ही गई, जो-जो उगलें आग।।
ज्यों बिल्ली के भाग से, छींका फूटा आज।
दण्ड एक को यों मिला, दूजा पाये…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on May 20, 2014 at 11:40pm — 30 Comments
जेठ की तपती दुपहरी!
जेठ की तपती दुपहरी, लगे नीरव शांत।
धूप झुलसा रही काया, स्वेद से मन क्लांत।।
शाख पर पक्षी विकल है, गेह में मनु जात।
सूर्य अम्बर आग उगले, जीव व्याकुल गात।१।
जल भरी ठंडी सुराही, पान कर मन तुष्ट।
दूध माखन और मठठा, तन करे है पुष्ट।।
पना अमरस संग चटनी, भा रहे पकवान।
कर्ण को मधुरिम लगे फिर, आज कोयल गान।२।
गूँजता अमराइयों में, बिरह पपिहा राग।
गाँठकर छाया दुपहरी, पढ़ रही निज भाग।।
कृष हुई सरिता निराली, सूख मंथर…
Added by Satyanarayan Singh on May 20, 2014 at 6:00pm — 33 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 20, 2014 at 5:18pm — 28 Comments
हर पतझड़ को ……
ज़िंदगी को ..हर मौसम की जरूरत होती है
उजालों को भी ...अंधेरों की जरूरत होती है
क्यों सिमटे नहीं सिमटते वो बेदर्द से लम्हे
चश्मे अश्क को .खल्वत की ज़रुरत होती है
रात के वाद-ऐ-फ़र्दा पे ..यकीं भला करूँ कैसे
यकीं को भी इक समर्पण की जरूरत होती है
मिट गयी सहर होते ही वो रूदाद-ऐ-मुहब्बत
रूहे- मुहब्बत को आगोश की जरूरत होती है
हिज़्र की सिसकियों से है नम रात का दामन
सोहबते -लब को…
Added by Sushil Sarna on May 20, 2014 at 1:00pm — 20 Comments
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