शक्ति छंद (नेपाल भूकंप )
अभी फूल पूरे खिले भी न थे
नई जिंदगी से मिले भी न थे
चली बेरहम वक़्त की आरियाँ
कटे शीश धड़ से मिटी क्यारियाँ
कहर बन फटी थरथराती जमी
जहाँ सांस आई वहीँ पे थमी
दिखाई अजब काल ने क्रूरता
फिरा क्रुद्ध यमराज यूँ घूरता
निवाले कई काल के हैं बने
दबे हर जगह जिस्म खूँ से सने
बचा जो यहाँ ढूँढता आसरा
सहारा बना एक का दूसरा
बचे काल से एक भाई बहन
सिसकते…
ContinueAdded by rajesh kumari on May 13, 2015 at 8:53am — 24 Comments
‘आज तो लाला ने भी और मोहलत देने से साफ मना कर दिया । समझ नहीं आ रहा अब क्या होगा? बैंक की किश्तें, अगले महीने छोटी की शादी... इस बेमौसमी बरसात ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा ।’ साहूकार की दुकान से बाहर निकलते हुए परेशानी के आलम में वो अपने साथी से बोला
‘सब्र से काम लो भाई ! अब जो भगवान को मंजूर ... अरे ! उधर क्या करने जा रहे हो ... उस तरफ तो बाजार है ?’
‘एक रस्सी लेने...।’
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Ravi Prabhakar on May 13, 2015 at 8:18am — 23 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on May 13, 2015 at 7:04am — 24 Comments
" अरे रामू , तुम वापस कब आये , फिर से घर का काम करोगे "?
" क्या करता साहब , बेटा तो अपनी नौकरी पर चला जाता था और रात देर से लौटता था "।
" तो क्या , आराम से घर पर रहते , बहू और बच्चों के साथ समय बिताते "।
" अब क्या कहूँ साहब , आप कम से कम हमें नौकरों जैसा तो समझते हो , पर बहू तो .."!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on May 13, 2015 at 3:00am — 14 Comments
अकेला-एकान्त
असंग आत्म-विश्वास का
गम्भीर भान
अकेला-एकान्त
कभी करी हुई विलीन हुई बातें
अनबूझा विशाद
संसारी गतिविधियों से
परिवर्तित प्रवृत्तियों से
बदले व्यवहार से शब्दों की चोट से
कुछ हुआ अचानक
हमारे बीच का बहता वह सुगम प्रवाह
घनिष्ठ अपनत्व
अमृत-सा सुख
सूख गया
खुशियों का हिस्सा जो लगता था मेरा था
अब मेरा न था
असंवेदनाओं के धरातल पर…
ContinueAdded by vijay nikore on May 13, 2015 at 12:30am — 18 Comments
मजदूरी करके जितना भी कमाता , आधी से ज्यादा बेटे के पढ़ाई के लिये लगाता । पिता के फर्ज़ से वह उरिन होना चाहता था । गरीबी सदा जिंदगी को जटिल बनाने के लिये अपना मोर्चा संभाले रहती है । बेटे का मन आस पडोस के लडकों में रमा रहता । फिर भी पिता अपनी आस को रबड़ के भाँति खींच कर पकडे़ हुए था ... कि एकदिन बेटा बडा होकर उसका मर्म जान पायेगा । आज दसवीं का रिजल्ट आने वाला था । पूजा घर में माँ बेटे के लिए प्रार्थना में लगी रही सुबह से । रिजल्ट आते ही घर में सब जकड़न टुट गई । विजय ने अपनी हार का ठीकरा पिता…
ContinueAdded by kanta roy on May 12, 2015 at 8:30pm — 26 Comments
ज़िंदगी है तो
जीने से डरना क्या !
ख़वाब रंगीन होते हैं
देखने से डरना क्या !
जाम जब होंठों को छू जाये
तो फिर पीने से डरना क्या !
प्यार हो जाये
तो इकरार से डरना क्या !
ज़िंदगी एक सफ़र ही तो है
फिर रास्तों से डरना क्या !
सफ़र में कई हमसफ़र होंगे
मिलना क्या बिछुड़ना क्या !
हर मंजिल एक पड़ाव ही तो है
पाना क्या और खोना क्या !
जीवन सिर्फ़ एक आवागमन ही तो है
फिर आना क्या और जाना क्या…
Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 12, 2015 at 6:00pm — 4 Comments
यूँ तो दिखते ,
कितने ही चेहरे ,
मिलते-जुलते इंसानोँ से ।
पर , जब उनकी
फितरत देखी,
तो लगी हैवानोँ सी !!
करते हैँ शर्मसार ,
इंसानियत को ।
देख कर इनकी करतूतेँ ,
सवाल करते हैँ जानवर भी ,
कि क्योँ हैँ हम बदनाम !
जब कि इतना ज्यादा ,
गिर चुका है इंसान ।
खुदा ने उसे ज़हानत दी ,
कुछ भी करने की ताकत दी ,
फिर भी वह ,इतना गिर गया ?
कि लाश का कफ़न भी ,
नोँच कर ले गया !
घायल को देख कर ,
नहीँ पसीजा ,
उसका…
Added by jyotsna Kapil on May 12, 2015 at 4:30pm — 11 Comments
Added by Seema Singh on May 12, 2015 at 4:04pm — 5 Comments
Added by मनोज अहसास on May 12, 2015 at 3:36pm — 11 Comments
१२१ २२ १२१ २२ यूं कतरा कतरा शराब पीकर हैं जिन्दा अब तक जनाब पीकर सवाल मुश्किल थे जिन्दगी के मगर दिए सब जवाब पीकर ये मय लगी कडवी सच के जैसी न कह सका मैं ख़राब पीकर पहाड़ सीने पे दर्दो गम के नहीं रहा कोई दवाब पीकर जिन्हें मयस्सर न रोटियाँ… |
Added by Dr Ashutosh Mishra on May 12, 2015 at 1:54pm — 20 Comments
पार्टी में दुल्हन को गहने से सजी देखते ही बस देखते ही रह गया । उसके देह पर सजे गहने मानो एक एक कर कह उठे कि मुझसे ही दुल्हन की खूबसूरती है । हर श्रंगार की बस्तु मुझसे बात कर रही थी कि अचानक कुछ खुसुर पुसुर हुई । मेरा ध्यान भंग हुआ ।
"क्या हुआ शर्माइन जी ? "
"कुछ नही रे ..! ये लड़का पागल है । सुंदरता के चक्कर में पड़ गया रे.! ये लड़की तीन घरोँ को बर्बाद करके आई है इसकी ये चौथी शादी है। अब न जाने यहाँ क्या गुल खिलायेगी ! "
"ओहो क्या ....?"
मैने पुनः उन सभी जेवरों से कहा…
Added by babita choubey shakti on May 12, 2015 at 1:00pm — 5 Comments
बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२
मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ
हज़्म हो जाएगा विष भी मैं अगर खा जाऊँ
कैसा दफ़्तर है यहाँ भूख तो मिटती ही नहीं
खा के पुल और सड़क मन है नहर खा जाऊँ
इसमें जीरो हैं बहुत फंड मिला जो मुझको
कौन जानेगा जो दो एक सिफ़र खा जाऊँ
भूख लगती है तो मैं सोच नहीं पाता कुछ
सोन मछली हो या हो शेर-ए-बबर, खा जाऊँ
इस मुई भूख से कोई तो बचा लो मुझको
इस से पहले कि मैं ये…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 12, 2015 at 12:38pm — 16 Comments
22/22/22/22/22/2 (सभी कॉम्बिनेशन्स)
दिल के ओहदेदारों का अब क्या करिये.
बचपन के उन यारों का अब क्या करिये.
.
तुम कब तुम थे- मैं कब मैं, वो कहानी थी
उन मुर्दा क़िरदारों का अब क्या करिये.
.
राजमहल था जिस्म, ये दिल था शाह कभी
इन वीरां दरबारों का अब क्या करिये.
.
मान गए वो आख़िर में जब बात अपनी
पहले के इन्कारों का अब क्या करिये.
.
उसके क़दमों पे धर आए सर ही जब
फिर महँगी दस्तारों का अब क्या करिये.…
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 12, 2015 at 10:30am — 26 Comments
इनकार कितना भी कर लें
दिल पर हाथ रख कर पूरी इमानदरी से सोचेंगे तो आप भी कहेंगे
हम भावनाओं की दुनिया में जीते हैं
और ये सच हो भी क्यों न , एकाध अपवाद छोड़कर
हम सब दो पवित्र भावनाओं के मिलन का ही तो परिणाम हैं
भावनायें गणितीय नहीं होतीं
कारण और परिणाम दोनों का गणितीय आकलन नामुमकिन है
हम सब ये जानते हैं , फिर भी
दूसरों के मामले में हम सदा गणितीय हल चाहते हैं ,
अक्सर रोते बैठते हैं , दो और दो चार न पा के
उत्तर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 12, 2015 at 9:15am — 15 Comments
धरा में कम्पन होते हुए एक सैलाब सा उमड़ पड़ा। सामने से आती उत्ताल नदी का वेग फट पड़ा था जमीन पर .....
धरा का हृदय विभक्त हो उठा दो किनारों में । धरा का खुद के अंश से अलगाव सहना ...!!
धरा का रूदन अब कौन सुने ..?
उन्मुक्त नदी अपनी ताव में जमीन की छाती चीरती हुई बढ़ चली थी ।
उसे क्या परवाह थी कि किसने चोट खाई .... !
बेबस थे दोनों किनारे ....बरसों,जो रहे थे एक दुसरे में समाहित ... वो आज .... !!
अब जीवन भर देखते ही रहना है एक दुसरे को.....यूँ ही ।
किनारे नदी की…
Added by kanta roy on May 11, 2015 at 10:00pm — 21 Comments
कैसे जाएगी याद दिल को बताऊं कैसे
मेरी नजरों में बसी तस्वीर हटाऊं कैसे।
उसने आवाज तलक भी नहीं दी मुझे
खुद के जीने के लिए सांस जुटाऊं कैसे।
की बड़ी दूर से थी मौहब्बत हमने
जख्म उनको मैं दिखाकर रूलाऊं कैसे।
अब हवाओं से दीवार यहां हिलती है
अपने सपनों की तस्वीर लगाऊं कैसे।
उनकी हर बात का हमने तो भरम रखा है
तोड़कर वो ही कसम आंख मिलाऊं कैसे।
मौलिक व अप्रकाशित
Added by shivendra on May 11, 2015 at 5:00pm — 8 Comments
2122/ 2122/ 2122/212
है कहाँ पहचान तेरी सादगी को क्या हुआ
शोखियों को क्या हुआ तेरी हँसी को क्या हुआ
मुब्तला खुदगर्ज़ियों में हो गये जज़्बात सब
क्या कहूँ अब आजकल की दोस्ती को क्या हुआ
रास्ते भी थम गये हैं मंज़िलें भी खो गईं
रुक गई इक मोड़ पर ये ज़िन्दगी को क्या हुआ
अपनी हस्ती को मिटाता जा रहा है बेखिरद
किसको फुरसत सोचने की आदमी को क्या हुआ
सुब्ह पहले सी नहीं मौसम भी पहले सा नहीं
हो गई…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on May 11, 2015 at 4:30pm — 32 Comments
“साहब एक जरूरी बात करनी है !”
“देख नहीं रहे हो कितना व्यस्त हूँ ,अभी मेरे पास किसी भी बात के लिए समय नहीं है,जाओ बाद में आना !”
“पर साहब लगता है आपकी पत्नी के पास भी समय नहीं है, उनका अभी कुछ देर पहले ही एक्सिडेंट हो गया है, और मैं उनको अस्पताल में.. और उनके पर्स से आपका विजिटिंग कार्ड मिला, आपका फ़ोन बंद था ,तभी मुझे अपने सब काम छोड़कर आपको बताने आना पड़ा !”
“अरे भाईसाहब जल्दी ले चलो मुझे आपका बहुत एहसान होगा !”
“समय की परिभाषा बदल चुकी थी !”
© हरि प्रकाश…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on May 11, 2015 at 9:04am — 13 Comments
हम बड़े हो रहे थे
लेकिन आप हमें
बच्चा ही समझती थीं
और जब हम अकड दिखाते
बात-बेबात बहस करते
तो आप खामोश हमें ताकते रहतीं
हम अपने मन की करते
और आपकी खामोश आँखें करतीं
हमारी सलामती की दुवाएं..
आज आप नहीं हैं
और इस संसार में
हम यूँ फिर रहे हैं
जैसे कोई फल हों
सड़क किनारे पेड़ के
जिसपर हर कोई
आजमाता है पत्थर...
हम बड़े ज़रूर हुए हैं अम्मी
लेकिन ममता की ऊष्मा से
वंचित हैं…
Added by anwar suhail on May 10, 2015 at 7:00pm — 5 Comments
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