Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on June 20, 2016 at 9:59pm — 6 Comments
पुरानी तस्वीर ...
ये तुंद हवायें
रहम न खाएंगी
खिड़की के पटों पर
अपना ज़ोर अजमाएंगी
किसी के रोके से भला
ये कहां रुक पाएंगी
अाजकल की हवा
बेरोकटोक चलती है
इनको क्या गरज
इनकी बेफिक्री
किसी के
पांव उखाड़ सकती है
किसी खिड़की के
सामने की दीवार पर
सांस लेती नींव की
पुरानी तस्वीर
गिरा सकती है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 20, 2016 at 9:52pm — 10 Comments
22 22 22 22 22 22
लगता है अब काला पैसा खेल रहा है
मुल्क हमारा इसीलिये तो झेल रहा है
वर्षो तक अंधों के जैसे राज किया जो
वो भी देखो प्रश्न हज़ारों पेल रहा है
धर्म अगर केवल होता तो ये ना होता
मगर धर्म से राज नीति का मेल रहा है
कैसे उसकी यारी पर विश्वास करूँ मैं
मुझ पानी से मिला नहीं, जो तेल रहा है
देखो चीख रहा है वो भी परचम ले कर
जो ख़ुद अपने ही निजाम में फेल रहा है
वो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 20, 2016 at 9:00pm — 15 Comments
"बहू ,मेरी पूजा की थाली का ध्यान रखना ,वो तुम्हारी काम वाली है न ,शकूबाई , तुम लोगो ने उसे घर की मालकिन बना रखा है , पर मेरे पूजा के कमरे से दूर रखना ! न जात का पता न धरम का, दिनभर शकूबाई , शकूबाई " बुदबुदाती दादी दुसरे कमरे में चली गई।
शकूबाई ने दरवाजे से दादी की हिदायत सुन ली थी, वो चुपचाप सिर नीचे किये, बाहर के मेनगेट को साफ़ करने लग गई। तभी फूल वाला,माला लेकर आया, और शकूबाई के हाथो मे माला थमा कर चला गया।…
ContinueAdded by Rajendra kumar dubey on June 20, 2016 at 8:30pm — 12 Comments
122/122/122/12
मुहब्बत मेरी बेनवा ही सही
तुम्हारी नज़र में ख़ता ही सही
चलो इश्क़ में कुछ किया तो सही
दुआ जो नहीं, बद्दुआ ही सही
है जितनी भी, जैसी भी, जी जाइये
भले ज़िंदगी बेमज़ा ही सही
कहाँ है वो, कैसा है, किस हाल में
न मंज़िल मिले तो पता ही सही
चलो आओ थोड़ा सा रुक लें यहाँ
अभी के लिए मरहला ही सही
हमें रौशनी की ज़रूरत नहीं
अँधेरा घना तो घना ही सही
कई बार लोगों से ये…
ContinueAdded by Mahendra Kumar on June 20, 2016 at 7:00pm — 7 Comments
Added by Rahila on June 20, 2016 at 1:00pm — 12 Comments
मुक्त कर तम से जकड़ती मुट्ठियाँ
भोर की पहली किरण को भींच ले
व्योम से तुझको पटक कर
पस्त करके होंसलो को
चिन रही है गेह तुझमे
भावनाएँ हीन गुपचुप
मार सूखे का हथौड़ा
तोड़ कर तेरी तिजौरी
बाँध खुशियों की गठरिया
जा रहा है मेघ…
Added by rajesh kumari on June 20, 2016 at 11:30am — 12 Comments
Added by Manan Kumar singh on June 20, 2016 at 11:00am — 14 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on June 20, 2016 at 9:46am — 6 Comments
माल्यवान और सुमाली रक्ष संस्कृति के प्रणेता हेति और प्रहेति के प्रपौत्र थे।
रक्ष संस्कृति का प्रादुर्भाव यक्ष संस्कृति के साथ एक ही समय में एक ही स्थान पर हुआ था। पर कालांतर में उनमें बड़ी दूरियाँ आ गयी थीं। यक्षों की देवों से मित्रता हो गयी थी और रक्षों की शत्रुता। रक्ष या दैत्य आर्यों से कोई भिन्न प्रजाति हों ऐसा नहीं था किंतु आर्य क्योंकि देवों के समर्थक थे (पिछलग्गू शब्द प्रयोग नहीं कर रहा मैं) इसलिये उन्होंने देव विरोधी सभी शक्तियों को त्याज्य मान लिया। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कालांतर…
Added by Sulabh Agnihotri on June 20, 2016 at 8:39am — 4 Comments
पूर्व-पीठिका
==========
-1-
‘‘ए ! कौन हो तुम लोग ? कैसे घुस आये यहाँ ? बाग खाली करो अविलम्ब !’’ यह एक तेरह-चैदह साल की किशोरी थी अपनी कमर पर दोनों हाथ रखे क्रोध से चिल्ली रही थी। क्रोध होना स्वाभाविक भी था। तकरीबन चार-पाँच सौ घुड़सवारों ने उसके बाग में डेरा डाल दिया था। जगह-जगह घोड़े चर रहे थे। कुछ ही बँधे थे, बाकी तो खुले ही हुये थे किंतु उनके सबके सामने आम की पत्तियों के ढेर लगे थे। तमाम डालियाँ टूटी पड़ी थीं। बहुत से लोग पेड़ों पर चढ़े हुये आम नीचे गिरा रहे…
ContinueAdded by Sulabh Agnihotri on June 19, 2016 at 7:53pm — 3 Comments
पिता
परिवार -नैया पिता पतवार
तूफान-आंधी में खेते जाते
बोते जाते श्रम -कण फसलें
साधिकार पल जाती नस्लें
पिता के काँधे …
ContinueAdded by amita tiwari on June 19, 2016 at 7:18pm — 3 Comments
2122 2122 212
जिंदगी में जीत भी कुछ हार भी
और यारो प्यार भी तकरार भी
लोग दरिया से उतारें पार भी
छोड़ देते बीच कुछ मजधार भी
हर कदम पे ही मिले हमको सबक
राह में कुछ फूल भी कुछ ख़ार भी
हम भले फुटपाथ पर धीमे चले
पार करने को बढ़ी रफ़्तार भी
जो मिले पैसे उसी में सब्र था
बीस आये हाथ में या चार भी
हम सदा खेला किये बस गोटियाँ
खेल में खंजर मिले तलवार…
ContinueAdded by rajesh kumari on June 19, 2016 at 11:10am — 9 Comments
Added by Janki wahie on June 18, 2016 at 1:29pm — 16 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on June 17, 2016 at 10:00pm — 6 Comments
महीन है विलासिनी
महीन हैंं विलासिनी तलाशती रही हवा, विकास के कगार नित्य छांटते ज़मीन हैं.
ज़मीन हैं विकास हेतु सेतु बंध, ईट वृन्द, रोपते मकान शान कांपते प्रवीण हैं.
प्रवीण हैं सुसभ्य लोग सृष्टि को संवारते, उजाड़ते असंत - कंत नोचते नवीन हैं.
नवीन हैं कुलीन बुद्ध सत्य को अलापते, परंतु तंत्र - मंत्र दक्ष काटते महीन हैं.
मौलिक व अप्रकाशित
रचनाकार.... केवल प्रसाद सत्यम
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 17, 2016 at 8:30pm — 13 Comments
आक्रोश – (लघुकथा) –
" रूपा, तू यहाँ, रात के दो बजे! आज तो तेरी सुहागरात थी ना"!
"सही कह रही हो मौसी, आज हमारी सुहागरात थी! तुम्हारी सहेली के उस लंपट छोरे के साथ जिसे तुम बहुत सीधा बता रहीं थी! बोल रहीं थीं कि उसके मुंह में तो जुबान ही नहीं है"!
"क्या हुआ, इतनी उखडी हुई क्यों है"!
"उसी से पूछ लो ना फोन करके, अपनी सहेली के बिना जुबान के छोरे से"!
"अरे बेटी, तू भी तो कुछ बोल! तू तो मेरी सगी स्वर्गवासी बहिन की इकलौती निशानी है"!
"तभी तो तुमने उस नीच के…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on June 17, 2016 at 10:53am — 26 Comments
2222 2222 2222 2222
दिन रात भरी तनहाई में इक उम्र गुज़ारी भी तो है ।
पाकर तुमको एहसास हुआ इक चीज हमारी भी तो है ।
हम बैठ तसव्वुर में तेरे बस ख्वाब नहीं देखा करते,
तेरी सूरत इन आँखों से इस दिल में उतारी भी तो है…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on June 17, 2016 at 10:00am — 12 Comments
Added by Manan Kumar singh on June 16, 2016 at 11:00pm — 6 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 16, 2016 at 5:11pm — 11 Comments
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