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June 2016 Blog Posts (172)

उम्र गुज़रेगी कैसे तेरे बग़ैर

दे दिया दिल किसी को जाने बग़ैर

जी न पाऊँ अब उसको देखे बग़ैर



वो ही धड़कन वही है सांसें अब

ज़िंदगी कुछ नहीं है उसके बग़ैर



एक पल काटना भी मुश्किल है

उम्र गुज़रेगी कैसे तेरे बग़ैर



सोचता हूँ के भूल जाऊँ तुझे

रह नहीं पाता तुझको सोचे बग़ैर



कोई गुलशन कहाँ मुकम्मल है

फूल तितली गुलाब भौंरे बग़ैर



ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं है अब

काटता हूँ जो रोज़ तेरे बग़ैर



रिश्तों में प्यार की नमी रखिए

सूख जाते हैं फूल सींचे… Continue

Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on June 20, 2016 at 9:59pm — 6 Comments

पुरानी तस्वीर ...

पुरानी तस्वीर ...

ये तुंद हवायें
रहम न खाएंगी
खिड़की के पटों पर
अपना ज़ोर अजमाएंगी
किसी के रोके से भला
ये कहां रुक पाएंगी
अाजकल की हवा
बेरोकटोक चलती है
इनको क्या गरज
इनकी बेफिक्री
किसी के
पांव उखाड़ सकती है
किसी खिड़की के
सामने की दीवार पर
सांस लेती नींव की
पुरानी तस्वीर
गिरा सकती है

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on June 20, 2016 at 9:52pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - मुझ पानी से मिला नहीं, जो तेल रहा है ( गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22  22

लगता है अब काला पैसा खेल रहा है

मुल्क हमारा इसीलिये तो झेल रहा है

 

वर्षो तक अंधों के जैसे राज किया जो

वो भी देखो प्रश्न हज़ारों पेल रहा है

 

धर्म अगर केवल होता तो ये ना होता

मगर धर्म से राज नीति का मेल रहा है

 

कैसे उसकी यारी पर विश्वास करूँ मैं

मुझ पानी से मिला नहीं, जो तेल रहा है

 

देखो चीख रहा है वो भी परचम ले कर

जो ख़ुद अपने ही निजाम में फेल रहा है

 

वो…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on June 20, 2016 at 9:00pm — 15 Comments

अलग इन्सान (लघुकथा)

"बहू ,मेरी पूजा की थाली का ध्यान रखना ,वो तुम्हारी काम वाली है न ,शकूबाई , तुम लोगो ने उसे घर की मालकिन बना रखा है , पर मेरे पूजा के कमरे से दूर रखना !  न जात का पता न धरम का, दिनभर शकूबाई , शकूबाई " बुदबुदाती दादी दुसरे कमरे में चली गई।

शकूबाई ने दरवाजे से दादी की हिदायत सुन ली  थी, वो चुपचाप सिर  नीचे किये, बाहर के मेनगेट को  साफ़ करने लग गई।  तभी फूल वाला,माला लेकर आया, और शकूबाई के हाथो मे माला थमा कर चला गया।…

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Added by Rajendra kumar dubey on June 20, 2016 at 8:30pm — 12 Comments

ग़ज़ल - मुहब्बत मेरी बेनवा ही सही

122/122/122/12

मुहब्बत मेरी बेनवा ही सही

तुम्हारी नज़र में ख़ता ही सही

चलो इश्क़ में कुछ किया तो सही

दुआ जो नहीं, बद्दुआ ही सही

है जितनी भी, जैसी भी, जी जाइये

भले ज़िंदगी बेमज़ा ही सही

कहाँ है वो, कैसा है, किस हाल में

न मंज़िल मिले तो पता ही सही

चलो आओ थोड़ा सा रुक लें यहाँ

अभी के लिए मरहला ही सही

हमें रौशनी की ज़रूरत नहीं

अँधेरा घना तो घना ही सही

कई बार लोगों से ये…

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Added by Mahendra Kumar on June 20, 2016 at 7:00pm — 7 Comments

दंड(लघुकथा)राहिला

"सूरज देवता! दया करो प्राणी जगत पर।आपके क्रोध की अग्नि में सब कुछ झुलस गया । "

पवन रानी हाथ जोड़ कर बोलीं ।

"देवी! आपको भ्रम हुआ है । मैं कतई क्रोधित नहीं हूं । मैं तो सदियों से जैसा था वैसा ही हूं।"

"प्रभु! फिर धरती पर इतनी तपन क्यों? अब तो मेरा भी दम घुटने लगा है । मनुष्य और जीवों में त्राहि-त्राहि मची है । "

"इसका कारण कोई और नहीं,स्वंय मनुष्य है। प्रकृति के साथ निरंतर छेड़छाड़ और स्वार्थ की हद तक धरती के साथ दुर्व्यवहार का नतीजा है ये।"

"परन्तु कोई तो समाधान होगा… Continue

Added by Rahila on June 20, 2016 at 1:00pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आज का सूरज नया तू सींच ले (नवगीत 'राज ')

मुक्त कर तम से जकड़ती मुट्ठियाँ

भोर की पहली किरण को भींच ले

व्योम से तुझको पटक कर 

पस्त करके होंसलो को

चिन रही है गेह तुझमे

भावनाएँ हीन गुपचुप

मार सूखे का हथौड़ा

तोड़ कर तेरी तिजौरी

बाँध खुशियों की गठरिया

जा रहा है मेघ…

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Added by rajesh kumari on June 20, 2016 at 11:30am — 12 Comments

गजल(दीप बन जलता रहा हूँ.....)

दीप बन जलता रहा हूँ रात-दिन
रोशनी बिखरा रहा हूँ रात-दिन।1

जब अचल मन का पिघलता है कभी
नेह बन झरता रहा हूँ रात-दिन।2

फिर उबलता है समद निज आग से
मेह बन पड़ता रहा हूँ रात-दिन।3

कामनाएँ जब कुपित होकर चलीं
देह बन ढ़हता रहा हूँ रात-दिन।4

व्योम तक विस्तार का कैसा सपन!
मैं 'मनन' करता रहा हूँ रात-दिन।5
मौलिक व अप्रकाशित@मनन

Added by Manan Kumar singh on June 20, 2016 at 11:00am — 14 Comments

लघु-कवितायें -02 - डॉo विजय शंकर

मैं बड़ा ,

तू बड़ा ?

तू कैसे बड़ा ?

मैं सबसे बड़ा।

हर बड़े से बड़ा ,

बड़ों बड़ों से बड़ा।

मैं बड़बड़ा , मैं बड़बड़ा,

मैं सबसे बड़ा बड़बड़ा .

********************

हमको मालूम है कि

बातों से कुछ नहीं होता है ,

बस इसीलिये तो

हम बातें करते हैं , क्योंकि

बातों से किसी पक्ष को

कोई फरक नहीं पड़ता।

**********************



अच्छे को अच्छा कहने से

अपना क्या अच्छा होगा ,

अपने को अच्छा कहने से

अपना वो अच्छा न… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on June 20, 2016 at 9:46am — 6 Comments

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) - 2

माल्यवान और सुमाली रक्ष संस्कृति के प्रणेता हेति और प्रहेति के प्रपौत्र थे।

रक्ष संस्कृति का प्रादुर्भाव यक्ष संस्कृति के साथ एक ही समय में एक ही स्थान पर हुआ था। पर कालांतर में उनमें बड़ी दूरियाँ आ गयी थीं। यक्षों की देवों से मित्रता हो गयी थी और रक्षों की शत्रुता। रक्ष या दैत्य आर्यों से कोई भिन्न प्रजाति हों ऐसा नहीं था किंतु आर्य क्योंकि देवों के समर्थक थे (पिछलग्गू शब्द प्रयोग नहीं कर रहा मैं) इसलिये उन्होंने देव विरोधी सभी शक्तियों को त्याज्य मान लिया। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कालांतर…

Continue

Added by Sulabh Agnihotri on June 20, 2016 at 8:39am — 4 Comments

राम-रावण कथा

पूर्व-पीठिका

==========

-1-

‘‘ए ! कौन हो तुम लोग ? कैसे घुस आये यहाँ ? बाग खाली करो अविलम्ब !’’ यह एक तेरह-चैदह साल की किशोरी थी अपनी कमर पर दोनों हाथ रखे क्रोध से चिल्ली रही थी। क्रोध होना स्वाभाविक भी था। तकरीबन चार-पाँच सौ घुड़सवारों ने उसके बाग में डेरा डाल दिया था। जगह-जगह घोड़े चर रहे थे। कुछ ही बँधे थे, बाकी तो खुले ही हुये थे किंतु उनके सबके सामने आम की पत्तियों के ढेर लगे थे। तमाम डालियाँ टूटी पड़ी थीं। बहुत से लोग पेड़ों पर चढ़े हुये आम नीचे गिरा रहे…

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Added by Sulabh Agnihotri on June 19, 2016 at 7:53pm — 3 Comments

पिता -प्रणाम

पिता 

परिवार -नैया पिता  पतवार  

तूफान-आंधी में  खेते जाते 

बोते जाते  श्रम -कण फसलें 

साधिकार पल जाती  नस्लें 

पिता के काँधे …

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Added by amita tiwari on June 19, 2016 at 7:18pm — 3 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
इश्क़ में इनकार भी इकरार भी (ग़ज़ल 'राज' )

2122  2122  212

 

जिंदगी में जीत भी कुछ हार भी

और यारो प्यार भी तकरार भी  

 

लोग दरिया  से उतारें पार भी     

छोड़ देते बीच कुछ मजधार भी

 

हर कदम पे ही मिले हमको सबक

राह में कुछ फूल भी कुछ ख़ार भी

 

हम भले फुटपाथ पर धीमे चले

पार करने को बढ़ी रफ़्तार भी

 

जो मिले पैसे उसी में सब्र था 

 बीस आये हाथ में या चार भी

 

हम सदा खेला किये बस गोटियाँ

खेल में खंजर मिले तलवार…

Continue

Added by rajesh kumari on June 19, 2016 at 11:10am — 9 Comments

सपनों के गुब्बारे -- ( लघु कथा ) जानकी बिष्ट वाही - नॉएडा

विशाल प्राँगण में खूबसूरत फूलों की प्रदर्शनी , सुंदर रंग और सन्तुष्ट लोग। ये मंज़र आँखों को सुक़ून दे रहा था। तभी बगल से खिलखिलाते बच्चों का हुजूम गुजरा, उनके हाथों में पकड़े गैस के गुब्बारों पर नज़र ठहर गई।

एक पर कलात्मक शब्दों में लिखा था- " डॉक्टर -पीहू" दूसरे पर, "इंजीनयर - उत्कर्ष" तीसरे पर, "अंतरिक्ष विज्ञानी- निहारिका "

कौतूहल से मनीष ने इधर -उधर देखा,कुछ दूरी पर गुब्बारे वाले के पास बच्चों की भीड़ दिखी।



" अच्छा तो आप हैं जो मासूम बच्चों को सपने बेच रहे हैं ?" मनीष… Continue

Added by Janki wahie on June 18, 2016 at 1:29pm — 16 Comments

बहुत खुश हैं हम अपने बोरिये पर (ग़ज़ल)

1222 1222 122



बिछाया जिसने कंकड़ रास्ते पर

वो क्यों चुपचाप है इस हादिसे पर



अना के बदले सबकुछ मिल रहा था

हमीं राज़ी नहीं थे बेचने पर



हमारे पाँव में जब मोच आई

थी मंज़िल कुछ क़दम के फासले पर



ज़ुबाँ सिल ले, जिसे है जान प्यारी

कटेंगे सर यहाँ, सच बोलने पर



अधिष्ठाता वही इस देश के हैं

अभी तक जो रहे हैं हाशिये पर



मकाँ तब्दील हो जाता है घर में

डिनर पर, या सवेरे नाश्ते पर



बिठाए आपको पलकों पे… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on June 17, 2016 at 10:00pm — 6 Comments

अनंगशेखर छंद.......महीन है विलासिनी

महीन है विलासिनी  

महीन हैंं विलासिनी तलाशती रही हवा, विकास के कगार नित्य छांटते ज़मीन हैं.

ज़मीन हैं विकास हेतु सेतु बंध, ईट वृन्द, रोपते मकान शान कांपते प्रवीण हैं.

प्रवीण हैं सुसभ्य लोग सृष्टि को संवारते, उजाड़ते असंत - कंत नोचते नवीन हैं.

नवीन हैं कुलीन बुद्ध सत्य को अलापते, परंतु तंत्र - मंत्र दक्ष काटते महीन हैं.

मौलिक व अप्रकाशित

रचनाकार.... केवल प्रसाद सत्यम

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 17, 2016 at 8:30pm — 13 Comments

आक्रोश – (लघुकथा) –

आक्रोश – (लघुकथा) –

" रूपा, तू यहाँ, रात के दो बजे! आज तो तेरी सुहागरात थी ना"!

"सही कह रही हो मौसी, आज हमारी सुहागरात थी! तुम्हारी सहेली के उस लंपट छोरे के साथ जिसे तुम बहुत सीधा बता रहीं थी! बोल रहीं थीं कि उसके मुंह में तो जुबान ही नहीं है"!

"क्या हुआ, इतनी उखडी हुई क्यों है"!

"उसी से पूछ लो ना फोन करके, अपनी सहेली के बिना जुबान के छोरे से"!

"अरे बेटी, तू भी तो कुछ बोल! तू तो मेरी सगी स्वर्गवासी  बहिन की इकलौती निशानी है"!

"तभी तो तुमने उस नीच के…

Continue

Added by TEJ VEER SINGH on June 17, 2016 at 10:53am — 26 Comments

ग़जल/नीरज

2222  2222  2222  2222

दिन रात भरी तनहाई में इक उम्र गुज़ारी भी तो है ।

पाकर तुमको एहसास हुआ इक चीज हमारी भी तो है ।

हम बैठ तसव्वुर में तेरे बस ख्वाब नहीं देखा करते,

तेरी सूरत इन आँखों से इस दिल में उतारी भी तो है…

Continue

Added by Neeraj Nishchal on June 17, 2016 at 10:00am — 12 Comments

गजल(धूप का मंजर बला था)

2122 2122



धूप का मंजर बला था

साथ पर साया चला था।1



आज जितना तब कहाँ यह

छाँव का आलम खला था।2



सच कहा है घर हमेशा

खुद चिरागों से जला था।3



क्यूँ मिटाने पर तुले अब

बच गया जो अधजला था।4



बातियों का नेह बहकर

हो गया तब जलजला था!5



स्वेद सिंचित हो गयी भू

पेड़ तब कोई पला था।6



रंग सबके मिल गये थे

इक तिरंगा तब फला था।7



रश्मियों के प्रेम-रस पग

जड़ हिमालय भी गला था।8



कट रहे हम… Continue

Added by Manan Kumar singh on June 16, 2016 at 11:00pm — 6 Comments

अपनी टपरिया, अपनो सिलसिला (लघुकथा)

"अबकी हमयीं करेंगे जो काम, तुम औंरें नीचे ठांड़े रईयो, जैसी कहत जायें, करत जईयो!" यह कहते हुए ज़िद्दी बाबूजी ऊपर चढ़ गए छप्पर सही करने।



"का फ़ायदा ई घास-फूस के छप्पर से, आंधियन में फिर सब बिखर जैहे!" कन्हैया ने व्यंग्य करते हुए कहा।



"बेटा, आंधी-तूफ़ानों से कैसे निपटो जात है, जो हमईं खों मालूम है, तुम औरों ने तो कछु नईं भोगो अभै तक!" बाबूजी ने कन्हैया और उसकी पत्नी के हाथों कुछ बल्लियें (लकड़ियें) और घास-फूस लेते हुए कहा- "झुग्गी झोपड़ियों में ज़िन्दगी ग़ुज़ारवे को लम्बो… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 16, 2016 at 5:11pm — 11 Comments

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