Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 11, 2017 at 10:55pm — 8 Comments
तू है मैं हूँ
तू है मै हूं और साथ मेरी तन्हाई है
क्यूँ कल तू फिर मेरे सपने में आयी है
तेरा इस कदर मेरे सपने में आना
और आकर फिर इस तरह से जाना
मेरा चैन और सुकूंन सब तेरा ले जाना
मेरे सपने में तेरा यूँ आके चले जाना
बिन तेरे ना कुछ भी अब अच्छा लगता है
तेरा यूँ छोड़ के जाना ना अच्छा लगता है
क्यूँ तुझको प्यार मेरा ना सच्चा लगता है
बस तेरे में खो जाना क्यूँ अच्छा लगता है
बिन तेरे ना कुछ भी अब अच्छा लगता…
ContinueAdded by रोहित डोबरियाल "मल्हार" on June 11, 2017 at 10:11pm — 2 Comments
Added by रामबली गुप्ता on June 11, 2017 at 7:45pm — 8 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 11, 2017 at 5:59pm — 8 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on June 11, 2017 at 5:32pm — 4 Comments
चुग्गा
उस अज़नबी स्त्री की
मटकती पतली कमर पे
पालथी मारकर बैठा है
मेरा जिद्दी मन |
पिंजरे का बुढ़ा तोता
बाहर गिरी हरी मिर्च देख
है बहुत ही प्रसन्न |
x x x x x x x x
पसीना-पसीना पत्नी आती है
मुझपे झ्ल्ल्लाती है
रोती मुनिया बाँह में डाल
मिर्च उठाकर चली जाती है
x x x x x x x x x
तोता मुझे और
मैं तोते को
देखता हूँ |
वो फड़फड़ा कर
पिंजरा हिलाता है…
ContinueAdded by somesh kumar on June 11, 2017 at 11:32am — 2 Comments
2122 1212 22 /112
चाहे ग़ालिब, या फिर शकील आये
गलतियाँ कर.., अगर दलील आये
मिसरे मेरे भी ठीक हो जायें
साथ गर आप सा वक़ील आये
ख़ुद ही मुंसिफ हैं अपने ज़ुर्मों के
और अब खुद ही बन वक़ील आये
भीड़ में पागलों की घुसना क्यों ?
हो के आखिर न तुम ज़लील आये
ज़िन्दा लड़की ही घर से निकली थी
जाने क्या सोच कर ये चील आये
आग-पानी सी दुश्मनी रख कर
बह के पानी सा, बन ख़लील…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 11, 2017 at 8:30am — 6 Comments
Added by दिनेश कुमार on June 10, 2017 at 3:28pm — 3 Comments
एक दो तीन- - - एक दो तीन
फिर अनगिन
मन्डराती रहीं चीलें
घेरा बनाए
आतंक के साएँ में
चिंची-चिंची-चिंची
पंख-विहीन |
एक दो तीन- - -
फुदकी इधर से
फुदकी उधर से
घुस गई झाड़ी में
पंजों के डर से
जिजीविषा थी जिन्दा
करती क्या दीन !
एक दो तीन- - -
झाड़ी में पहले से
कुंडली लगाए
बैठे थे विषदंत
घात लगाए
टूट पड़े उस पे
दंत अनगिन | एक दो तीन- - -
प्राणों को…
ContinueAdded by somesh kumar on June 10, 2017 at 10:14am — 3 Comments
"अरे! सुनंदा सुनो भाई कब से फोन पर बातें कर रही हो. चलो अब खाना लगाओ जी. बडी भूख लगी है. क्या इतनी लंबी बातें किए जा रही हो."
"जी! "अंकुर" से. बता रहा आज किसे बिज़नेस …
Added by नयना(आरती)कानिटकर on June 9, 2017 at 10:45pm — No Comments
बाज़ुओं में ....
कौन रोक पाया है
समय वेग को
अपने गतिशील चक्र के नीचे
हर पल को रौंदता
चला जाता है
और लिख जाता है
धरा के ललाट पर
न मिटने वाली
दर्द की दास्तान
शायद
तुमने मेरे चेहरे की लकीरों को
गौर से नहीं देखा
तुमने सिर्फ
मुहब्बत के हर्फ़ पढ़े हैं
उन हर्फों को
बेहिजाब होते नहीं देखा
किर्चियों से चुभते हैं
जब ये हर्फ़
समय के अश्वों की
टापों के नीचे
बे-आवाज़ फ़ना हो जाते…
Added by Sushil Sarna on June 9, 2017 at 3:52pm — 4 Comments
1,स्पंदन......(२ मुक्तक) :
व्यर्थ व्यथा है हार जीत की
निशा न जाने पीर प्रीत की
नैन बंध सब शुष्क हो गए
आहटहीन हुई राह मीत की
.... ..... ..... ..... ..... ..... ..... ....
2.
गंधहीन हुए चन्दन सब
स्वरहीन हुए क्रंदन सब
स्मृति उर से रिसती रही
मौन हो गए स्पंदन सब
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 9, 2017 at 12:54pm — 6 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 9, 2017 at 12:53pm — 4 Comments
बहर फ़ैलुनx ४
कुछ तुम बोलो कुछ हम बोलें
सारा मैल ह्रदय का धो लें
सुख की धूप खिल रही बाहर,
अन्दर की खिड़की तो खोलें.
उगा लिए हैं बहुत कैक्टस,
बीज फूल के भी कुछ बो लें
सूख न जाए आँख का पानी,…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on June 9, 2017 at 12:00pm — 2 Comments
Added by Rahila on June 9, 2017 at 4:38am — 5 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on June 8, 2017 at 8:30pm — 9 Comments
"तेरे पिता उस संगठन से जुड़े हैं जो इन्हें देखना तक नहीं चाहता और तू कहता है कि इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता?" कार्तिक आज भी उसी रेस्टोरेंट में बैठा था जहाँ सुमित ने कभी उससे ये बातें कही थीं। उसके हाथ में परवीन शाकिर की किताब थी तो ज़ेहन में ये ग़ज़ल, तुझसे कोई गिला नहीं है, क़िस्मत में मेरी सिला नहीं है।
"क्या ख़ूब ग़ज़ल सुनाई तुमने। किसकी है?" न्यू ईयर की पार्टी में लोगों ने ज़ोया से पूछा जिसने अभी हाल ही में ऑफिस ज्वाइन किया था।
"परवीन शाकिर की।" यह पहली बार था…
ContinueAdded by Mahendra Kumar on June 8, 2017 at 10:30am — 7 Comments
Added by Rahila on June 8, 2017 at 12:17am — 2 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on June 7, 2017 at 11:59pm — 6 Comments
श्वासों का क्षरण ...
मैं
बहुत रोयी थी
अपने एकांत में
तेरे बाद भी
कई रातों तक
तेरे अंक में सोयी थी
तेरा जाना
एक घटना थी शायद
दुनियां के लिए
मगर
असंभव था
तुझे विस्मृत करना
मैं तेरे गर्भ के अंक की
पहचान थी
और तू
मेरे स्मृति अंक की श्वास
सच
कोई भी नहीं देख पाया
मेरे रुदन को
तूने कैसे देख लिया
शुष्क पलकों में
तू मुझसे कल
मिलने आयी थी
अपने अंक में
तूने मुझे सुलाया…
Added by Sushil Sarna on June 7, 2017 at 4:14pm — 6 Comments
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