कहाँ तूफान था वो तो बयार से कम था
वो भूलने का असर यादगार से कम था
खयाल आते ही मुरझाये फूल खिलते थे
गुमाँ-ए-वस्ल कहाँ इस बहार से कम था
छुपाके अश्क तबस्सुम उधार ले ली थी
कहाँ ये चेहरा मेरा इश्तेहार से कम था
वो याद मुझको किये रात दिन रहा ऐसे
मेरा रक़ीब कहाँ तेरे यार से कम था
खरीददार सा आँखों में रौब था सब के
वो घर कहाँ किसी चौक-ओ-बाज़ार से कम था
मैं ग़मज़दा था, मै निस्तेज था औ' घायल भी
मैं मुन्तसिर था मगर अब की…
Added by भुवन निस्तेज on July 31, 2014 at 10:00pm — 6 Comments
२२ २२ २२ २
दीवारों को दर कर लें
ऐसा अपना घर कर लें
वरना होगा शोर बहुत
ज़ख्मों को अक्षर कर लें
झुकने को तैयार रहे
ऐसा अपना सर कर लें
मान बढ़ेगा नारी का
लज्जा को ज़ेवर कर लें
है कीमत जीवन की ,गर
यादों को हम जर कर लें
जीना आसां होगा , गर
गुमनाम हमसफ़र कर लें
मौलिक व अप्रकाशित
Added by gumnaam pithoragarhi on July 31, 2014 at 9:30pm — 7 Comments
धूल में दबी हुयी ये डायरी
जिसकी एक एक परत की हैं ये यादें
हर एक सफा तुम्हारी याद है
.... न जाने कहाँ कहाँ रखा उसे
..... आलमारी मे ठूसा
..... बक्से में दबाया
.... ऊपर टाँड़ पर रखा
अटैची मे रखा ....
उसके पन्नों के रंग उतर गए
मगर लिखावट वही रही
आज भी देखकर उन सफ़ों को
और आपके उन हिसाबों को देखकर
उन हिसाबों मे हमारा भी अंश हैं
जिन्हे आज देखकर महसूस करता हूँ
उन सफ़ों पे लिखा आपका हिसाब
दूध वाले…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on July 31, 2014 at 8:30pm — 10 Comments
कुवत्स ने पिता को देखा जिनके दोनों नाक में आक्सीजन की नली लगी थी I अगर स्वस्थ होते तो आज ही के दिन उन्हें रिटायर होना था I उसे डाक्टर के शब्द याद आये –‘कुछ बचा नहीं, ज्यादा से ज्यादा दो दिन, बस I’ बेटे ने सोचा अगर आज कैजुअलिटी न हुयी तो मुफ्त की नौकरी तो जायेगी ही, बीमा अदि का पूरा पैसा भी नहीं मिलेगा ---- I
उसने चोर-दृष्टि से इधर –उधर देखा I आस-पास कोई न था I अचानक आगे बढ़कर उसने एक नाक से नली हटा दी I फिर वह दबे पांव कमरे से बाहर निकल गया और कारीडोर में रिश्तेदारों के बीच…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 31, 2014 at 7:30pm — 30 Comments
१
इस पार आ रहे हैं कुछ जाने माने लोग
उस पार जा रहे हैं कुछ जाने माने लोग
कैसी है राम राम ये कैसी सलाम है
पहचान नहीं पा रहे कुछ जाने माने लोग
२
फिर कई सूत्र नयी धुन के रुई निकले हैं
तंग कुर्ते पतंग लहँगे…
Added by पं. प्रेम नारायण दीक्षित "प्रेम" on July 31, 2014 at 9:36am — 5 Comments
मात्रा तेरह विषम में ग्यारह सम का मान
दोहा छंद सदा रचें इसका यही विधान
पाँव पाँव की बात है पूत सपूत कपूत
श्रेणी मेरी कौन सी जानू हो अभिभूत
चला दौर प्रतियोगिता आदी अंत न छोर
सुन सुन सब जन खुश हुए मैं भी भाव विहोर
प्रथम बार आया मजा दोहों की बारात
जाग जाग पढता रहा फिर हो गया प्रभात
सखा मगन बंधे बंद सजा तोरण द्वार
करें तिलक है कवि जगत स्वागत है सरकार
ज्ञानी जन मिल बैठिये मंदिर…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 31, 2014 at 9:30am — 5 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on July 31, 2014 at 9:00am — 24 Comments
तुम्हारा पहला प्यार
सरिता के दोनों तटों को सहलाता कल-कल करता –
अबाध गति सा बह रहा था हमारा प्यार।
वसंती हवा की मदिर सुगंध लिए उन्मुक्त-
सी थी हमारी मुस्कान,
धुले उजले बादलों में छुपती-छुपाती –
इंद्र्धनुष जैसी थी हमारी उड़ान ।
हवा के झौंके ने सरकाया था दुपट्टा मुख से-
तुम अपलक निहारते रहते,
बस तुम ही हो मेरा पहला प्यार-
धीरे से मधुर शब्दों में कहते ।
आखिर वो सलौना सा दिन आ ही गया,
जिस का…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on July 30, 2014 at 6:00pm — 20 Comments
सोचा था आईने की तरह
साफ़ रखूँगी अपना चेहरा
पर कुछ तो है जो छिपा जाती हूँ
यूँ भाव चेहरे के बदल लेती हूँ
कि कहीं प्रतीयमान न हो जाये|
बोलती थी कभी बेधड़क हो
कुछ तो है जो किसी कोने में
मौनव्रत रख बैठ जाती हूँ
कि कही कुछ प्रतीप न हो जाये|
आँखों में भी दिखता था कभी
दूसरे की गलत बातो का प्रतिकार
पर किसी का तो डर है जो
अब आँखों को झुका लेती हूँ…
Added by savitamishra on July 30, 2014 at 3:30pm — 20 Comments
*एक ग़ज़ल
बारिशों का दौर आया दिन सुहाने आ गए है.
जल भरे बादल धरा को गुदगुदाने आ गए हैं.
++
झड़ चुकीं थीं पत्तियां सब दिख रहीं वीरान सी वो,
फूल फिर से डालियों पर...... मुस्कुराने आ गए है.
++
मंदिरों ने प्रार्थना की मस्जिदों ने दी अजानें,
रहमतों को मेघ लेकर जल गिराने आ गए हैं.
++
भीगते सारे महल…
Added by harivallabh sharma on July 30, 2014 at 11:00am — 22 Comments
2122 1212 22 /112
पर यहीं पर करार सा है कुछ
****************************
उजड़ा उजड़ा दियार सा है कुछ
पर यहीं पर करार सा है कुछ
गर्मियाँ खून में कहाँ बाक़ी
गर्म हूँ , तो बुखार सा है कुछ
खूब बोले थे खुल के, क्यूँ आखिर
बच गया फिर, उधार सा है कुछ
दिल को बेताबियाँ नहीं डसतीं
प्यार है, या कि प्यार सा है कुछ
फूल कलियों में खूब चर्चा है
अब ख़िंज़ा मे उतार सा है…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 30, 2014 at 10:30am — 26 Comments
जाने कहाँ विलुप्त हो गए बचपन के एहसास
हमसे बहुत दूर हो गए ममता भरे हाथ।
जिस प्यार के तले सीखा था जीने का अंदाज
अकेला छोड़ उड़ गए सुनहरे परवाज़
अपने जज़्बातों का मुकाम पाने को
बेताब है अपना नया घरौदा बनाने को
क्या पता किससे मिले, बिछड़े किसी से
कौन कहेगा तू रहना खुशी से,
जमाने की हाफा-दाफी ने भुला दिया-
अपनों के प्यार की दौलत को
ऊंचा उठने के मनोरथ ने मिटा…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on July 29, 2014 at 11:30pm — 18 Comments
चाँद की आँख में नमी होगी
लोगों को ईद पर खुशी होगी
चाँद हर रोज देखता है तुम्हें,
आपकी आज बेबसी होगी
जिंदगी रोज खून से लथपथ,
आज कैसे ये जिंदगी होगी
गर्दनें काट कर दिखाते हो,
क्या खुशी फिर भी ईद की होगी
अन्ध-विश्वास से लडाई है,
अब लडाई ये रोकनी होगी
छोड दो अपना-अपना कहना उसे,
इस तरह खत्म दुश्मनी होगी
आज इनसानियत है खतरे में,
क्या वजह है ये सोचनी…
ContinueAdded by सूबे सिंह सुजान on July 29, 2014 at 10:00pm — 18 Comments
२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२
अवशेष चिनारों के तुमसे आफ़ात पुरानी कह देंगे
हालात वहाँ कैसे बिगड़े खुद अपनी जुबानी कह देंगे
दीवारें धज्जी धज्जी सी हर छत दिखती उधड़ी उधड़ी
आसार लहू के अक्स तुम्हें बेख़ौफ़ कहानी कह देंगे
दिखते पर्वत सहमे-सहमे औ गुम-सुम से झरने नदियाँ
कब-कब दामन में आग लगी कब बरसा पानी कह देंगे
जो साथ जला करते थे कभी आबाद रहे जिनसे आँगन
वो आज अल्हेदा चूल्हे खुद दिल की…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 29, 2014 at 9:48pm — 21 Comments
"अरे पनीर की सब्ज़ी कहा है ? जल्दी लाओ , यहाँ ख़त्म हो गयी |"
बड़े भैया ने आवाज़ लगायी और आगे बढ़ गए | कई पंगतों में लोग बैठ कर भोजन कर रहे थे , काफी गहमागहमी थी दरवाजे पर | सारे रिश्तेदार और अगल बगल के गांव से भी लोग खाने आये हुए थे | थोड़ी दूर ज़मीन पर कुछ और लोग भी बैठे थे जो हर पंगत के उठने के बाद पत्तल वगैरह बटोरते , उसे ले जाकर किनारे रख देते और जो कुछ भी खाने लायक बचा होता था , वो सब उनके बर्तनों में रख लेते थे |
खटिया पर लेटे हुए बाबूजी सब देख रहे थे | उसके दिमाग में पिछले कुछ…
Added by विनय कुमार on July 29, 2014 at 5:00pm — 21 Comments
हामिद अब बड़ा हो गया है. अच्छा कमाता है. ग़ल्फ़ में है न आजकल !
इस बार की ईद में हामिद वहीं से ’फूड-प्रोसेसर’ ले आया है, कुछ और बुढिया गयी अपनी दादी अमीना के लिए !
ममता में अघायी पगली की दोनों आँखें रह-रह कर गंगा-जमुना हुई जा रही हैं. बार-बार आशीषों से नवाज़ रही है बुढिया. अमीना को आजभी वो ईद खूब याद है जब हामिद उसके लिए ईदग़ाह के मेले से चिमटा मोल ले आया था. हामिद का वो चिमटा आज भी उसकी ’जान’ है.
".. कितना खयाल रखता है हामिद ! .. अब उसे रसोई के ’बखत’ जियादा जूझना नहीं…
Added by Saurabh Pandey on July 29, 2014 at 3:00pm — 61 Comments
२२ २२ २२ २२
सन्नाटा भी पसरा सा है
उसका कमरा बिखरा सा है
अब तुम पास नहीं हो ,शायद
उसका मुखड़ा उतरा सा है
बुत से कैसा कहना सुनना
हाफ़िज़ भी तो बहरा सा है
जीवन हुआ दिसंबर जैसा
आँखों में क्यों कुहरा सा है
देख के तुझे लगता है ये
चाँद कांच का कतरा सा है
गुमनाम बना लो घर कोई
अब खंजर का खतरा सा है
मौलिक व अप्रकाशित
गुमनाम पिथौरागढ़ी
Added by gumnaam pithoragarhi on July 29, 2014 at 2:30pm — 5 Comments
बचपन से देवेश को एक तिरष्कार, जो कभी मोहल्ले के दूसरे बच्चों या उनके पालकों द्वारा झिड़की भरे अंदाज से मिलता रहा था. इस वजह से देवेश का बचपन हमेशा एक डर और निरंतर टूटे हुए आत्मबल में गुजरा. इन्ही मापदंडों के अनुसार अपनी पहचान को तरसते, आज वो बड़ा हो चुका है. निकला है एक सामजिक कार्यक्रम में शामिल होने को, अपनी एक पहचान और बहुत सारा आत्मबल लेकर.... भीड़ में जो उसे पहचानते है वो लोग उसे अनदेखा कर रहे थे . और जो उसे नही पहचानते , वो लोग जानने की कोशिश में लगे हुए है.....
“अरे..!…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 29, 2014 at 11:16am — 24 Comments
ईद मनाये हम सभी गले मिले सब आज
सर्व धर्म सद्भाव के अकबर थे सरताज |
अकबर थे सरताज, सभी का मान बढाया
नवरत्नों के साथ, गर्व से राज चलाया
सभी तीज त्यौहार सुखद अनुभूति कराये
बढे ह्रदय सद्भाव सभी अब ईद मनाये |…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 29, 2014 at 10:30am — 10 Comments
दिनकर मनमाना हुआ, गई धरा जब ऊब।
सूर्य रश्मियाँ रोक के, ......मेघा बरसे खूब।
त्राही दुनियां में मची, संकट में सब जीव।
बरखा रानी आ गई, .....कहे पपीहा पीव।
झूम रहे पत्ते सभी, पवन गा रही गीत।
वन्दन बरखा का करें, निभा रहें हैं रीत।
रंग धरा के खिल गए, शीतल पड़ी फुहार।
वन कानन नन्दन हुए , झूम उठा संसार।
पुष्प सभी हैं खिल उठे, जल की पड़ी फुहार।
भ्रमरों ने गुंजन किया, तितली ने मनुहार।
जल निमग्न धरती हुई, जन जीवन फिर…
Added by seemahari sharma on July 29, 2014 at 10:30am — 10 Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |