Added by Dr. Vijai Shanker on September 21, 2014 at 2:00pm — 21 Comments
२२१ २१२१ १२२१ २१२
तुम मेरे नाम की पहचान बन गए
मेरे लिए ख़ुदा रब भगवान बन गए
दहशत के कारबार का सामान बन गए
लगता है सारे लोग ही हैवान बन गए
तेरे सभी ख़तों को रखा था सँभाल के
अब वो मेरे हदीस ओ क़ुरआन बन गए
हालात आज शहर के अब देखिये ज़रा
हँसते हुए थे शहर जो शमशान बन गए
ख़त आंसू सूखे फूल रखे थे सँभाल के
ज़ाहिर हुए जहां पे तो दीवान बन गए
मौलिक व अप्रकाशित
गुमनाम पिथौरागढ़ी
Added by gumnaam pithoragarhi on September 21, 2014 at 12:40pm — 8 Comments
अरे चाचा !
तुम तो बिलकुल ही बदल गये
मैंने कहा – ‘ तुम्हे याद है बिरजू
यहाँ मेरे घर के सामने
बड़ा सा मैदान था
और बीच में एक कुआं
जहाँ गाँव के लोग
पानी भरने आते थे
सामने जल से भरा ताल
और माता भवानी का चबूतरा
चबूतरे के बीच में विशाल बरगद
ताल की बगल में पगडंडी
पगडंडी के दूसरी ओर
घर की लम्बी चार दीवारी
आगे नान्हक चाचा का आफर
उसके एक सिरे पर
खजूर के दो पेड़
पेड़ो के पास से…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 21, 2014 at 12:14pm — 19 Comments
मन
भटकता है इधर- उधर,
गली- गली,नगर- नगर
करता नहीं अगर-मगर
प्रेम खोजता डगर-डगर
झेलता जीवन का कहर
व्यस्त रहता आठों प्रहर
घंटी के नादों में घुसकर
पांचों अजानो को सुनकर
गीता ,कुरआन पढकर
माटी की मूरत गढ़कर
कथा -कीर्तन सजाकर
संतों-महंतों से मिलकर
आज भी मानव मन
क्यों भ्रमित है निरंतर?
मौलिक व अप्रकाशित
विजय प्रकाश शर्मा
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on September 21, 2014 at 11:32am — 4 Comments
चूड़ियाँ
एक दिन
कॉफी हाउस में
दिखा
कलाई से कोहनी तक
कांच की चूड़ियों से भरा
हीरे के कंगन मढ़ा
एक खूबसूरत हाथ.
गूँज रही थी
उसकी हंसी चूड़ियों के
हर खनक के साथ.
फिर एक दिन
दिखा वही हाथ
कलाईयाँ सूनी थीं
चूड़ियों का कोई निशान
तक नहीं था
सूनी संदल सी
उस कलाई
के साथ
जुडी थी एक
खामोशी .
देर तक सोंचता रहा
क्या चूड़ियाँ
चार दिन की चांदनी
होती हैं.?
मौलिक व…
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on September 20, 2014 at 8:32pm — 12 Comments
रखे मुझको भी हरदम बाख़बर कोई मेरे मौला
बड़े भाई के जैसा हो बशर कोई मेरे मौला
हुआ घायल बदन मेरा हुए गाफ़िल कदम मेरे
मेरे हिस्से का तय करले सफ़र कोई मेरे मौला
मुझे तड़पा रही है बारहा क्यूं छाँव की लज्ज़त
बचा है गाँव में शायद शजर कोई मेरे मौला
उदासी के बियाबाँ को जलाकर राख कर दे जो
उछाले फिर तबस्सुम का शरर कोई मेरे मौला
खड़ा हूं आइने के सामने हैरतज़दा होकर
इधर कोई मेरे मौला उधर कोई मेरे…
ContinueAdded by khursheed khairadi on September 20, 2014 at 6:00pm — 6 Comments
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 20, 2014 at 4:30pm — 32 Comments
221 2121 1221 212
जल जल के सारी रात यूं मैंने लिखी ग़ज़ल
दर दर की ख़ाक छान ली तब है मिली ग़ज़ल
मैंने हयात सारी गुजारी गुलों के साथ
पाकर शबाब गुल का ही ऐसे खिली ग़ज़ल
मदमस्त शाम साकी सुराही भी जाम भी
हल्का सा जब सुरूर चढ़ा तब बनी ग़ज़ल
शबनम कभी बनी तो है शोला कभी बनी
खारों सी तेज चुभती कभी गुल कली ग़ज़ल
चंदा की चांदनी सी भी सूरज कि किरणों सी
हर रोज पैकरों में नए है ढली…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on September 20, 2014 at 1:30pm — 13 Comments
2122 2122 2122 212
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प्यार को साधो अगर तो जिंदगी हो जाएगी
गर रखो बैशाखियों सा बेबसी हो जाएगी /1
***
बात कड़वी प्यार से कह दोस्ती हो जाएगी
तल्ख लहजे से कहेगा दुश्मनी हो जाएगी /2
***
फिर घटा छाने लगी है दूर नभ में इसलिए
सूखती हर डाल यारो फिर हरी हो जाएगी /3
***
मौत तय है तो न डर, लड़, हर मुसीबत से मनुज
भागना तो इक तरह से खुदकुशी हो जाएगी /4
***
मन मिले तो पास में सब, हैं दरारें कुछ…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 20, 2014 at 11:05am — 17 Comments
Added by Neeraj Nishchal on September 20, 2014 at 4:00am — 5 Comments
मध्यम वर्गीय परिवार में पला-बड़ा मुकेश, अपने छोटे से शहर से अच्छे प्राप्तांक से स्नातक की डिग्री लेकर बड़े शहर में प्रसिद्द निजी शिक्षण संस्था से प्रबंधन की डिग्री लेना चाहता है. आर्थिक समस्या के कारण उसे संस्था में प्रवेश नही मिल पा रहा है उसने कई बार संस्था के प्रबंध-समूह से शुल्क में कमी करने की गुजारिश की, लेकिन शिक्षा भी तो व्यापार ही सिखाती है. अपने ही शहर के दो और छात्रों को उसी प्रसिद्द निजी संस्था की गुणवत्ता बताकर, प्रवेश दिलवाने से मुकेश के पास अब एक वर्ष के रहने और खाने के पूँजी…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on September 19, 2014 at 11:34pm — 6 Comments
“तालाब सूख जाएगा बरगद की छाँवों में ”
221 2121 1221 212
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अब आग आग है यहाँ हर सू फ़ज़ाओं में
तुम भी जलोगे आ गये जो मेरी राहों में
तिश्ना लबी में और इजाफ़ा करोगे तुम
ऐसे ही झाँक झाँक के प्यासी घटाओं में
वो शह्री रास्ते हैं वहाँ हादसे हैं आम
जो चाहते सकूँ हो, पलट आओ गाँवों में
तू देख बस यही कि है मंजिल…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 19, 2014 at 6:30am — 28 Comments
Added by Neeraj Nishchal on September 19, 2014 at 1:36am — 9 Comments
तुम्हारी झील सी आँखे मुझे बस डूब मरने दो
न रोको तुम कभी मुझको मुझे बस प्यार करने दो
तुम्हारे बिन ये जीवन है जैसे फूल बिन धरती
मरे हम भी तुम्हारे पर मगर तुम क्यों नहीं मरती
बडा सूना पडा जीवन प्यार के रंग भरने दो
न रोको तुम कभी मुझको मुझे बस प्यार करने दो
तुम्हारी झील सी आँखे मुझे बस डूब मरने दो
तुम्हारे पाव की पायल मुझे हरदम सताती है
निगाहे रात दिन तुमको न जाने क्यो बुलाती है
छुपाना मत कभी ऑंखे मुझे पलको पे रहने दो
न रोको तुम कभी…
Added by Akhand Gahmari on September 18, 2014 at 8:00pm — 4 Comments
बूँदे बरसे
घनश्याम ना आये
मन तरसे
अद्भुत बेला
नदियाँ उफनाईं
पानी का रेला
कोयल गाये
बरसे छम छम
मन को भाये
स्वर्ग धरा का
हाहाकार मचाये
नद मन का
गौरैया आई
उपवन महका
बदरी छायी
व्याकुल धरा
तृप्त हुई जल से
आँचल हरा
********************
मीना पाठक
मैलिक /अप्रकाशित
Added by Meena Pathak on September 18, 2014 at 7:19pm — 6 Comments
जाओ पथिक तुम जाओ
(किसी महिला के घर छोड़ जाने पर लिखी गई रचना)
पैरों तले जलती गरम रेत-से
अमानवीय अनुभवों के स्पर्श
परिवर्तन के बवन्डर की धूल में
मिट गईं बनी-अधबनी पगडंडियाँ
ज़िन्दगी की
परिणति-पीड़ा के आवेशों में
मिटती दर्दीली पुरानी पहचानें
छूटते घर को मुड़ कर देखती
बड़े-बड़े दर्द भरी, पर खाली
बेचैनी की आँखें
माँ के लिए कांपती
अटकती एक और पागल पुकार
इस…
ContinueAdded by vijay nikore on September 18, 2014 at 5:30pm — 16 Comments
यादें
आज अचानक यूं ही
खिड़की के पास उग आई
मेरी यादों की बगिया
मनोरमता से भरी हुई।
मैंने देखा ..................
कुछ पुष्प पौधों ने जन्म लिया
अभी-अभी और जवान हो गए.
इठलाते हुए
उड़ रही थी भीनी-भीनी खुशबू
यादों की,
बगिया के हर कोने से
हर क्यारी में तने हुए थे
मधुर यादों के इन्द्र-धनुष
जो खिचते थे बरवश अपनी तरफ
हर एक पल ..............................
किसी ने मेरे हाथ…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on September 18, 2014 at 3:30pm — 8 Comments
रास पर एक प्रयास और -
अपनेपन की रीत पुरानी अब भी है
गाँवों का जीवन लासानी अब भी है
जिसकी गोद सुहाती थी भर जाड़े में
उस मगरी पर धूप सुहानी अब भी है
जिनमें अपना बचपन कूद नहाया था
उन तालाबों में कुछ पानी अब भी है
बाँह पसारे राह निहारे सावन में
अमुवे की इक डाल सयानी अब भी है
गर्मी की छुट्टी शिमला में बुक लेकिन
रस्ता तकते नाना नानी अब भी है
ठाकुर द्वारे में झालर संझ्या…
ContinueAdded by khursheed khairadi on September 18, 2014 at 11:00am — 8 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on September 18, 2014 at 10:21am — 10 Comments
दर्द पत्थर को जब सुनाता था
मुझको पत्थर और आजमाता था।
बोलना,उसके सामने जाकर,
मैं तो अन्दर से काँप जाता था
वो समझता न था,मेरे अहसास,
मैं तो मिट्टी पे लेट जाता था
इतनी पूजा की विधि थी उसके पास,
हर किसी को वो लूट जाता था
आज मालूम हो गया मुझको,
एक पुतला मुझे डराता था।
मौलिक व अप्रकाशित
Added by सूबे सिंह सुजान on September 18, 2014 at 9:55am — 5 Comments
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