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September 2014 Blog Posts (150)

क्षणिकाएँ --3 --- डा० विजय शंकर

वो सब जो

वन्दनीय है,

पूज्य है ,स्तुत्य है ,

...........त्याज्य है |

वो , जो

निंदनीय है ,

अधर्म है , अपकार है ,

...स्वीकार है , अंगीकार है ||



* * * * * * * * * * * * * * * * *



बेईमान व्यवस्था में

प्रश्न यह नहीं होता

कि कौन ईमानदार है ?

प्रश्न केवल यह होता है

कि किसको बेईमानी का

कितना अधिकार है ॥



* * * * * * * * * * * * * * * * *



संबंधों में

नमक की अहमियत

बनाये रखिये ,

सम्बन्ध… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on September 21, 2014 at 2:00pm — 21 Comments

ग़ज़ल ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,गुमनाम पिथौरागढ़ी

२२१ २१२१ १२२१ २१२

तुम मेरे नाम की पहचान बन गए
मेरे लिए ख़ुदा रब भगवान बन गए

दहशत के कारबार का सामान बन गए
लगता है सारे लोग ही हैवान बन गए

तेरे सभी ख़तों को रखा था सँभाल के
अब वो मेरे हदीस ओ क़ुरआन बन गए

हालात आज शहर के अब देखिये ज़रा
हँसते हुए थे शहर जो शमशान बन गए

ख़त आंसू सूखे फूल रखे थे सँभाल के
ज़ाहिर हुए जहां पे तो दीवान बन गए

मौलिक व अप्रकाशित
गुमनाम पिथौरागढ़ी

Added by gumnaam pithoragarhi on September 21, 2014 at 12:40pm — 8 Comments

एक दिन

अरे चाचा !

तुम तो बिलकुल ही बदल गये

मैंने कहा – ‘ तुम्हे याद है बिरजू 

यहाँ मेरे घर के सामने

बड़ा सा मैदान था 

और बीच में एक कुआं 

जहाँ गाँव के लोग

पानी भरने आते थे 

सामने जल से भरा ताल 

और माता भवानी का चबूतरा

चबूतरे के बीच में विशाल बरगद

ताल की बगल में पगडंडी

पगडंडी के दूसरी ओर

घर की लम्बी चार दीवारी

आगे नान्हक चाचा का आफर

उसके एक सिरे पर

खजूर के दो पेड़ 

पेड़ो के पास से…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 21, 2014 at 12:14pm — 19 Comments

मन

मन
भटकता है इधर- उधर,
गली- गली,नगर- नगर

करता नहीं अगर-मगर
प्रेम खोजता डगर-डगर

झेलता जीवन का कहर
व्यस्त रहता आठों प्रहर

घंटी के नादों में घुसकर
पांचों अजानो को सुनकर

गीता ,कुरआन पढकर
माटी की मूरत गढ़कर

कथा -कीर्तन सजाकर
संतों-महंतों से मिलकर

आज भी मानव मन
क्यों भ्रमित है निरंतर?

मौलिक व अप्रकाशित
विजय प्रकाश शर्मा

Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on September 21, 2014 at 11:32am — 4 Comments

चूड़ियाँ

चूड़ियाँ

एक दिन

कॉफी हाउस में

दिखा

कलाई से कोहनी तक

कांच की चूड़ियों से भरा

हीरे के कंगन मढ़ा

एक खूबसूरत हाथ.

गूँज रही थी

उसकी हंसी चूड़ियों के

हर खनक के साथ.

फिर एक दिन

दिखा वही हाथ

कलाईयाँ सूनी थीं

चूड़ियों का कोई निशान

तक नहीं था

सूनी संदल सी

उस कलाई

के साथ

जुडी थी एक

खामोशी .

देर तक सोंचता रहा

क्या चूड़ियाँ

चार दिन की चांदनी

होती हैं.?

मौलिक व…

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Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on September 20, 2014 at 8:32pm — 12 Comments

रखे मुझको भी हरदम बाख़बर कोई मेरे मौला

रखे मुझको भी हरदम बाख़बर कोई मेरे मौला 

बड़े भाई के जैसा हो बशर कोई मेरे मौला 

 

हुआ घायल बदन मेरा हुए गाफ़िल कदम मेरे

मेरे हिस्से का तय करले सफ़र कोई मेरे मौला

 

मुझे तड़पा रही है बारहा क्यूं छाँव की लज्ज़त

बचा है गाँव में शायद शजर कोई मेरे मौला

 

उदासी के बियाबाँ को जलाकर राख कर दे जो

उछाले फिर तबस्सुम का शरर कोई मेरे मौला

 

खड़ा हूं आइने के सामने हैरतज़दा होकर

इधर कोई मेरे मौला उधर कोई मेरे…

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Added by khursheed khairadi on September 20, 2014 at 6:00pm — 6 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : बंद गली (गणेश जी बागी)

                  नंद वन अपने नाम के अनुसार ही आनंद पूर्ण वातावरण के लिए जाना जाता था, सभी जानवर शांति और भाईचारा से जीवन व्यतीत करते थे किन्तु अब यहाँ सब कुछ बदल गया था, कालू भेड़िया और दुर्जन भैस राजा की छत्र - छाया में आनंद वन में अत्याचार कर रहे थे, यहाँ तक की दिनदहाड़े ही बहु बेटियों को अपने अड्डे पर उठा ले जाते थे और विरोध करने वालों को जान से मार देते थे ।
                 भोलू हिरन…
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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 20, 2014 at 4:30pm — 32 Comments

मैंने हयात सारी गुजारी गुलों के साथ

221   2121   1221    212  

 

जल जल के सारी रात यूं मैंने लिखी ग़ज़ल

दर दर की ख़ाक छान ली तब है मिली ग़ज़ल

 

 मैंने हयात सारी गुजारी गुलों के साथ

पाकर शबाब गुल का ही ऐसे खिली ग़ज़ल

 

मदमस्त शाम साकी सुराही भी जाम भी

हल्का सा जब सुरूर चढ़ा तब बनी ग़ज़ल

 

शबनम कभी बनी तो है शोला कभी बनी

खारों सी तेज चुभती कभी गुल कली ग़ज़ल

 

चंदा की चांदनी सी भी सूरज कि किरणों सी

हर रोज पैकरों में नए है ढली…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on September 20, 2014 at 1:30pm — 13 Comments

प्यार के दो बोल कह दे शायरी हो जाएगी - गजल (लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’)

2122    2122    2122    212

*******************************

प्यार को साधो अगर तो जिंदगी हो जाएगी

गर  रखो  बैशाखियों सा बेबसी हो जाएगी /1

***

बात कड़वी प्यार से कह दोस्ती हो जाएगी

तल्ख  लहजे से कहेगा दुश्मनी हो जाएगी /2

***

फिर घटा छाने लगी है दूर नभ में इसलिए

सूखती हर डाल यारो फिर हरी हो जाएगी /3

***

मौत तय है तो न डर, लड़, हर मुसीबत से मनुज

भागना  तो  इक  तरह  से  खुदकुशी हो जाएगी /4

***

मन  मिले  तो पास  में सब, हैं दरारें  कुछ…

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 20, 2014 at 11:05am — 17 Comments

फिर कोई दिल मेँ न आया

2122 2122 2122 212



फिर कोई दिल मेँ न आया इक तेरे आने के बाद ।

फिर न कुछ खोया न पाया इक तुझे पाने के बाद ।



हमने देखेँ हैँ तुम्ही मेँ अपने दोनोँ ही जहाँ ,

हम कहाँ जायेगेँ हमदम तेरे ठुकराने के बाद ।



हमनेँ पी आँखोँ से तेरी शोख जामेँ जिन्दगी ,

कोई मधुशाला न देखी तेरे मयखाने के बाद ।



अपने होने की खबर भी दो घडी रहती है अब ,

इक तेरे आने से पहले इक तेरे जाने के बाद ।



दिन गुजारा हमने सारा बस खयालोँ मेँ तेरे ,

और फिर यादोँ की… Continue

Added by Neeraj Nishchal on September 20, 2014 at 4:00am — 5 Comments

उच्च-शिक्षा....(लघुकथा)

मध्यम वर्गीय परिवार में पला-बड़ा मुकेश, अपने  छोटे से शहर से अच्छे प्राप्तांक से स्नातक की डिग्री लेकर बड़े शहर में प्रसिद्द निजी शिक्षण संस्था से प्रबंधन की डिग्री लेना चाहता है.  आर्थिक समस्या के कारण उसे संस्था में प्रवेश नही मिल पा रहा है उसने कई बार संस्था के प्रबंध-समूह  से शुल्क में कमी करने की गुजारिश की, लेकिन शिक्षा भी तो व्यापार ही सिखाती है. अपने ही शहर के दो और छात्रों को उसी प्रसिद्द निजी संस्था की गुणवत्ता बताकर, प्रवेश दिलवाने से मुकेश के पास अब एक वर्ष के रहने और खाने के पूँजी…

Continue

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on September 19, 2014 at 11:34pm — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
इक तरही ग़ज़ल --“तालाब सूख जाएगा बरगद की छाँवों में ( गिरिराज भंडारी )

तालाब  सूख जाएगा  बरगद  की छाँवों में

221      2121     1221     212

******************************************

अब  आग  आग है यहाँ  हर सू फ़ज़ाओं में

तुम  भी  जलोगे आ गये  जो मेरी राहों में

 

तिश्ना लबी  में  और  इजाफ़ा  करोगे  तुम

ऐसे ही झाँक झाँक के प्यासी घटाओं में

 

वो  शह्री  रास्ते  हैं  वहाँ  हादसे  हैं  आम

जो  चाहते  सकूँ हो, पलट  आओ  गाँवों में

 

तू  देख बस यही कि है मंजिल…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on September 19, 2014 at 6:30am — 28 Comments

हमारी दिल परस्ती का

1222 1222 1222 1222



हमारी दिल परस्ती का वो ये ईनाम देता है ।

हमारे दिल के टुकडे कर हमेँ इल्जाम देता है ।



सयाना खुद को हमको नासमझ पागल समझता है ,

दगाओँ को सदा अपनी वफा का नाम देता है ।



हमारा दिल दुखाने की हदेँ सब तोड दी उसने ,

हमारे सामने गैरोँ का दामन थाम लेता है ।



कभी बसने नहीँ देता हमारी ख्वाहिशोँ का घर ,

इरादोँ को फकत अपने सदा अंजाम देता है ।



तरसती हूँ मै उसके प्यार के दो बोल की खातिर ,

जो चुभते हैँ मुझे ताने वो… Continue

Added by Neeraj Nishchal on September 19, 2014 at 1:36am — 9 Comments

रहने दो

तुम्‍हारी झील सी आँखे मुझे बस डूब मरने दो

न रोको तुम कभी मुझको मुझे बस प्‍यार करने दो



तुम्‍हारे बिन ये जीवन है जैसे फूल बिन धरती

मरे हम भी तुम्‍हारे पर मगर तुम क्‍यों नहीं मरती

बडा सूना पडा जीवन प्‍यार के रंग भरने दो

न रोको तुम कभी मुझको मुझे  बस प्‍यार करने दो

तुम्‍हारी झील सी आँखे मुझे बस डूब मरने दो



तुम्‍हारे पाव की पायल मुझे हरदम  सताती है

निगाहे रात दिन तुमको न जाने क्‍यो बुलाती है

छुपाना मत कभी ऑंखे मुझे पलको पे रहने दो

न रोको तुम कभी…

Continue

Added by Akhand Gahmari on September 18, 2014 at 8:00pm — 4 Comments

कुछ हाइकू

बूँदे बरसे
घनश्याम ना आये
मन तरसे

अद्भुत बेला
नदियाँ उफनाईं
पानी का रेला

कोयल गाये
बरसे छम छम
मन को भाये

स्वर्ग धरा का
हाहाकार मचाये
नद मन का  

गौरैया आई

उपवन महका
बदरी छायी

व्याकुल धरा
तृप्त हुई जल से
आँचल हरा 

********************
मीना पाठक 
मैलिक /अप्रकाशित 

Added by Meena Pathak on September 18, 2014 at 7:19pm — 6 Comments

जाओ पथिक तुम जाओ ... (विजय निकोर)

जाओ पथिक तुम जाओ

(किसी महिला के घर छोड़ जाने पर लिखी गई रचना)

पैरों तले जलती गरम रेत-से

अमानवीय अनुभवों के स्पर्श

परिवर्तन के बवन्डर की धूल में

मिट गईं बनी-अधबनी पगडंडियाँ

ज़िन्दगी की

परिणति-पीड़ा के आवेशों में

मिटती दर्दीली पुरानी पहचानें

छूटते घर को मुड़ कर देखती

बड़े-बड़े दर्द भरी, पर खाली

बेचैनी की आँखें

माँ के लिए  कांपती

अटकती एक और पागल पुकार

इस…

Continue

Added by vijay nikore on September 18, 2014 at 5:30pm — 16 Comments

अतुकांत कविता

यादें

 

आज अचानक यूं ही

खिड़की के पास उग आई 

मेरी यादों की बगिया

मनोरमता से भरी हुई।

मैंने देखा ..................

कुछ पुष्प पौधों ने जन्म लिया

अभी-अभी और जवान हो गए.

इठलाते हुए 

उड़ रही थी भीनी-भीनी खुशबू

यादों की,

बगिया के हर कोने से

हर क्यारी में तने हुए थे

मधुर यादों के इन्द्र-धनुष

जो खिचते थे बरवश अपनी तरफ

हर एक पल ..............................

किसी ने मेरे हाथ…

Continue

Added by kalpna mishra bajpai on September 18, 2014 at 3:30pm — 8 Comments

अपनेपन की रीत पुरानी अब भी है

रास पर एक प्रयास और -

अपनेपन की रीत पुरानी अब भी है

गाँवों का जीवन लासानी अब भी है

 

जिसकी गोद सुहाती थी भर जाड़े में

उस मगरी पर धूप सुहानी अब भी है

 

जिनमें अपना बचपन कूद नहाया था

उन तालाबों में कुछ पानी अब भी है

 

बाँह पसारे राह निहारे सावन में

अमुवे की इक डाल सयानी अब भी है

 

गर्मी की छुट्टी शिमला में बुक लेकिन

रस्ता तकते नाना नानी अब भी है

 

ठाकुर द्वारे में झालर संझ्या…

Continue

Added by khursheed khairadi on September 18, 2014 at 11:00am — 8 Comments

सपनों का सच--डा० विजय शंकर

यूँ तो सपनों का सच से

कोई वास्ता नहीं होता है |

सच सामने से

ज्यों ज्यों गुजरने लगता है ,

सपनों से डर लगने लगता है ॥

सपने जब टूटने लगते हैं ,

सच से डर लगने लगता है ॥

फिर भी कोई सपने देखना

छोड़ नहीं पाता है ।

रोज सपनों के सच होने के

सपने सजाता है ॥

सपने एक आशा हैं ,

एक उम्मीद हैं ,

कुछ पाने की , कुछ होने की

किसी चिर प्रतीक्षित

अभिलाषा के पूरी होने की |

क्योंकि यही तो जीवन है ,

यही तो जीवन का सच है… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on September 18, 2014 at 10:21am — 10 Comments

ग़ज़ल- दर्द जब पत्थर को सुनाता था......सूबे सिंह सुजान

 दर्द पत्थर को जब सुनाता था

मुझको पत्थर और आजमाता था।

बोलना,उसके सामने जाकर,

मैं तो अन्दर से काँप जाता था

वो समझता न था,मेरे अहसास,

मैं तो मिट्टी पे लेट जाता था

इतनी पूजा की विधि थी उसके पास,

हर किसी को वो लूट जाता था

आज मालूम हो गया मुझको,

एक पुतला मुझे डराता था।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by सूबे सिंह सुजान on September 18, 2014 at 9:55am — 5 Comments

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