कुण्डलिया छंद (हिंदी दिवस पर विशेष)
हिंदी निज व्यवहार में, भरती मधुर सुगंध,
देवनागरी में मिले, संस्कृति की चिरगंध |
संस्कृति की नवगंध, और सुगन्ध सी वाणी
सीखे नैतिक मूल्य, पढ़े जो हिंदी प्राणी ||
लक्ष्मण कर सम्मान, सजे माथे जो बिंदी
करती रहे प्रकाश, सरस यह भाषा हिंदी ||
(2)
आता है हिन्दी दिवस, जाने को तत्काल
अपनी भाषा का सदा उन्नत रखना भाल |
उन्नत रखना भाल,करे विकास तब भाषा
हिंदी में हो बात, रहे क्यों भाव…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 14, 2014 at 3:55pm — 5 Comments
Added by Neeraj Nishchal on September 14, 2014 at 1:42am — 17 Comments
Added by seemahari sharma on September 14, 2014 at 1:35am — 2 Comments
नफ़रतों का जवाब मैं रक्खूं
ख़ार तू रख गुलाब मैं रक्खूं
बीत जाये इसी में उम्र तमाम
ज़ख्मों का गर हिसाब मैं रक्खूं
मै ग़मों की रवाँ है रग रग में
होश कैसे जनाब मैं रक्खूं
सामने तेरे बेहिजाब हुआ
क्या बुतों से हिजाब मैं रक्खूं
दर्दे-उल्फ़त पलेगा क्या मुझसे
क्यूं कफ़स में उक़ाब मैं रक्खूं
शमा सी वो पिघलती है हर शब
कब सिरहाने किताब मैं रक्खूं
पेट में भूख का शरारा …
ContinueAdded by khursheed khairadi on September 13, 2014 at 10:00pm — 5 Comments
हिन्दी दिवस पर विशेष
माँ तुझको याद नहीं करते तू तो धमनी में है बहती I
तू ह्रदय नही इस काया की रोमावली प्रति में है रहती I
अपने ही पुत्रो से सुनकर भाषा विदेश की है सहती I
पर माते ! धन्य नहीं मुख से कोई भी अपने दुःख कहती I
होते कुपुत्र भी इस जग में पर माता उन्हें क्षमा करती I
सुंदरता और असुंदर को जैसे धारण करती धरती I
जो सेवा-रत अथवा …
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 13, 2014 at 8:44pm — 6 Comments
माँ के माथे की बिन्दी
गोल बड़ी सी बिन्दी
माथे पर कान्ति बन
खिलती है बिन्दी
माँ के माथे की बिन्दी
सजाती सवाँरती
पहचान बनाती बिन्दी
मान सम्मान
आस्था है बिन्दी
शीतल सहज सरल
कुछ कहती सी बिन्दी
माँ के माथे की बिन्दी
थकान मिटा,उर्जा बन
मुस्काती बिन्दी
पावन पवित्र सतित्व की
साक्षी है बिन्दी
परंपरा संस्कारों का
आधार है बिन्दी
माँ के माथे की बिन्दी
अपनी हिन्दी भी…
ContinueAdded by Maheshwari Kaneri on September 12, 2014 at 6:30pm — 5 Comments
२१२ २१२ २१२ २१२
हो रहा है मुझे ये वहम देखिये
आज क़ातिल की भी आँख नम देखिये
आधुनिकता के ऐसे नशे में हैं गुम
नौजवानों के बहके क़दम देखिये
पसरा है नूर सा कमरे में हर तरफ
आये हैं घर पे मेरे सनम देखिये
शहर लगता है शमशान सा इन दिनों
आस्तीनों में किसके है बम देखिये
नाम तेरा लिखा था मैंने इक ही बार
महके उस रोज से ही क़लम देखिये
मौलिक व अप्रकाशित
Added by gumnaam pithoragarhi on September 12, 2014 at 8:27am — 11 Comments
आज फिर लड़खड़ाते कदमों से
गिरने की कोशिश की
यह लालच संजोये हुए कि
आप आ जाओगे
फिर से मुझे चलना सिखाने को
मेरी अंगुली पकड़ के
मुझे गिरने नहीं दोगे...
काश आपकी पदचाप फिर सुन पाता,
या काश, मेरे क़दमों को गिरते हुए
आपकी आदत ना होती..
साथ थे आप तो पैर अल्हड़ थे
घिसटते कदम थे चाल बेताल थी..
विश्वास था फिर भी ना गिरने का
आज आपकी याद है...
पैर तने हैं, कदम सधे हैं
चाल भी सीधी…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on September 11, 2014 at 9:00pm — 6 Comments
कल कल कल कल नदियाँ बहती, झरने गीत सुनाते हैं,
तरु शाखाओं पर छिपकर खग, पंचम सुर में गाते हैं.
गिरि, नद, जंगल, अवनि, पशु सब, सृष्टि के अनमोल रतन,
मानव सबसे बुद्धि शील बन, अपनी राह बनाते हैं.
नदियों की धारा को रोकी, शिखरों को भी ध्वस्त किया,
काटके जंगल, भवन बनाते, अब क्यों वे पछताते हैं.
सीख नहीं कुछ लेते मानव, प्रकृति सब कुछ देख रही,
कभी केदार, कभी कश्मीर में, मानव ही दुःख पाते हैं.
सेना सीमा की रक्षक है, आपद में करती…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on September 11, 2014 at 5:27pm — 10 Comments
काशी की दुनिया हो
या काबा की बस्ती हो
यूँ ही न उजड़े चाहे
फ़कीर बाबा की बस्ती हो।।
साहिल से बिछड़ी हुई
मुक़ाम-ए-पास हो जाए
लहरों में फँसती चाहे
केवट की कश्ती हो।।
शोहरत की मस्ती हो
या माले की हस्ती हो
यूँ ही न टूटे कोई चाहे
मुफ़लिसी में घरबां गिरस्ती हो।।
मातहतों की मस्ती…
Added by anand murthy on September 11, 2014 at 4:00pm — 8 Comments
कौआ एक बार फिर प्यासा था। बहुत ढूंढने पर उसे फिर एक घड़े में थोड़ा सा पानी दिखाई दिया। एक बार फिर उसने पास पड़े कंकड़-पत्थर उठा उसमें डाले और जैसे ही पानी उसकी पहुँच तक आया तभी कुछ ताकतवर कौऐ एक झुंड में उस पर टूट पड़े और उसे वहां से खदेड़ कर उस पानी पर कब्जा कर लिया। बेचारा प्यासा कौआ एक बार फिर से पानी की तलाश में जुट गया।
.
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Ravi Prabhakar on September 11, 2014 at 12:00pm — 8 Comments
हमें भी जिन्दगी से प्यार हो जाता।।।
हमारे प्यार मे गर कोई खो जाता
शिकायत भी नहीं उनसे दोष मेरा है
निभाते प्यार गर हम तो न वो जाता
तड़पता ही रहूँगा रात भर क्या मैं
मिलन की अास गर भी होती सो जाता
न पाये रूह उसकी चैन जन्नत में
दिखा सपने सुहाने छोड़ जो जाता
बहे जो आज नफरत की हवा जग में
मिटा मैं काश नफरत प्यार बो जाता
मौलिक व अप्रकाशित अखंड गहमरी
Added by Akhand Gahmari on September 11, 2014 at 3:45am — 5 Comments
Added by ram shiromani pathak on September 10, 2014 at 7:07pm — 11 Comments
तेरी मेरी बात पर फँस जाता इन्सान,
धन दौलत को देखकर, खो देता ईमान |
अग्नि परीक्षा दे रही कितनी सीता आज,
दुष्ट दुशासन लूटते, नित श्यामा की लाज |
रिश्ते नातो में भरो मधुर प्रेम का सार
प्यार भरे व्यवहार से मिटते कष्ट हजार |
संस्कारी परिवार में, बच्चें ही जागीर,
ह्रदय प्रेम उमड़े सदा, दिल से रहे अमीर |
भावुकता वरदान हो, समझे मन की पीर,
गलत काम का खौफ हो, खुशियों में हो सीर |
(मौलिक व…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 10, 2014 at 6:00pm — 9 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on September 10, 2014 at 4:13pm — 12 Comments
१.
देश की शान है अपनी हिंदी
फिर भी हल्कान है अपनी हिंदी
एक डोरी से जुड़ जाए भारत
एक अभियान है अपनी हिंदी
घर में अपने ही होकर पराई
आज हैरान है अपनी हिंदी
अपना सिर क्यूं झुके जग में यारों
अपना अभिमान है अपनी हिंदी
सारी दुनिया में फहराया परचम
हिन्द की आन है अपनी हिंदी
हिंदी से हैं सभी हिन्दवासी
अपनी पहचान है अपनी हिंदी
जितना सीधा सरल मन है…
ContinueAdded by khursheed khairadi on September 10, 2014 at 1:30pm — 6 Comments
मौत का सघन साया
अनुभूति बनकर आया
मेरे अंतिम क्षणों में I
*
यह आत्मीयता प्रदर्शन
करुणा का कलित क्रंदन
चीत्कार आर्त्त रोदन
या नाट्य अभिनय मंचन
.
इसे देख जी में आया
छोडूं न अभी काया
मेरे अंतिम क्षणों में I
*
सर्वांग व्यथित परिजन
सूने उदास से मन
इतना असीम कम्पन
तब था न जब था जीवन
.
यह मोह है या माया
कुछ कुछ समझ में आया
मेरे अंतिम क्षणों में…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 10, 2014 at 1:30pm — 23 Comments
शहरों की भीड़ भाड़ में
बस आदमी ही आदमी।
चलता ही जा रहा है
थकता नहीं है आदमी।
वाहनों की दौड़ भाग से
नहीं इसे परहेज
न है इसे प्रतिद्वंद्विता
न द्वेष रखता है सहेज
इसका तो अपना ध्येय है
पीढ़ियों से अपराजेय है
फिर भी देवताओं सा
लगता नहीं है आदमी।
इसकी अभिलाषाओं का
अभी न अंत होना है
अभी न तृप्त होगा यह
अभी न संत होना है
अभी इसे विकास के
सोपानों पर चढ़ना है…
ContinueAdded by Dr. Gopal Krishna Bhatt 'Aakul' on September 10, 2014 at 9:40am — 1 Comment
देर हो रही है
जागो-जागो
आओ रे भगाओ रे भेडिए
इधर व्यवस्था के पालने में
सोया हे प्रजातंत्र
और सत्ता के गलियारे तक…
Added by rawal rajesh on September 9, 2014 at 11:00pm — 2 Comments
भारतीय या किसी अन्य देश व प्रांत की भाषा,संस्कृति,धर्म व जीवन शैली वंहा की अपनी मौलिक व प्राकृतिक होती है । जिसका स्वतः विकास होना अति आवश्यक होता है। परंतु अन्य धर्मावलम्बियों द्वारा दूसरे राज्य,संस्कृति,धर्म,पर अनावश्यक दबाव मानवीय मूल्यों को क्षति तो पहुंचाता है साथ ही अनैतिक है। किसी भी सच्चे अर्थों में जो मानव होते हैं उन्हें यह अनैतिक दबाव सहन नहीं होता , जिसके कारण मानव आपस में लडते हैं और मानवीय मूल्यों का ह्रास होता है। सच्चे अर्थों में मानव के लिये ऐसा कार्य निंदनीय होता है। भारतीय…
ContinueAdded by सूबे सिंह सुजान on September 8, 2014 at 10:27pm — No Comments
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