दुर्मिल सवैया
पुरबी उर-*उंचन खोल गई, खुट खाट खड़ी मन खिन्न हुआ |
कुछ मत्कुण मच्छर काट रहे तन रेंगत जूँ इक कान छुआ |
भडकावत रेंग गया जब ये दिल मांगत मोर सदैव मुआ |
फिर नारि सुलोचन ब्याह लियो शुभचिंतक मांगत किन्तु दुआ |
उंचन=खटिया कसने वाली रस्सी , उरदावन
मत्कुण=खटमल
अप्रकाशित / मौलिक
Added by रविकर on October 8, 2013 at 4:00pm — 6 Comments
हमारॆ शिक्षा काल मॆं छात्रॊं की बड़ी व्यथा थी,
उन दिनॊं स्कूलॊं मॆं मुर्गा बनानॆ की प्रथा थी,
अध्यापक महॊदय कक्षा मॆं शान सॆ आतॆ थॆ,
और तुरंत छात्रॊं पर प्रश्नॊं कॆ तीर चलातॆ…
ContinueAdded by कवि - राज बुन्दॆली on October 8, 2013 at 3:00pm — 41 Comments
चाँद जो आया
रात के आँगन में
तारे चमके
चांदनी की गोद में
ठंडी सी हवा
मन को लहराए
ख्वाबो के साये
नींदों को हैं जगाये
सोच रही हूँ
ख़ामोशी इतनी क्यों
मीठी सी लागे
जो गीत धरा गाये
रात गुदगुदाए .........सविता अगरवाल
Added by savita agarwal on October 8, 2013 at 2:21pm — 9 Comments
मैं शाम
ढलने का इंतज़ार करता हूँ
सूरज !!!
जिसकी तपिश से
घबराया सा
झुलसा सा
मुरझाया सा
खींच लेना चाहता हूँ
रात की विशाल
छायादार चादर
जिसमें जड़े हैं
चाँद तारे
और बिखरे से
सफ़ेद रुई के फोहों से
मखमली दूधिया बादल
थकान मिटाने
को होता है
सन्नाटों का गीत
.........................................
सन्नाटों का गीत
अद्भुत है अद्वितीय है
इसकी लय…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on October 8, 2013 at 1:30pm — 14 Comments
बह्र: 1222/1222/1222/1222
मुकर जाने की आदत आज भी उनकी नहीं जाती
तभी तो उनके घर पर अब तवायफ भी नहीं जाती
सियासत किस तरह से घुल गई फिरकापरस्ती में
चमन में लीडरों के अब कोई तितली नहीं जाती
ये सुनकर उम्र भर रुसवा रहा अपनी मुहब्बत से
कभी भी उठ के स्टेशन से इक पगली नहीं जाती
पढ़ेंगे लोग तो कहने लगेंगे बेवफा तुझको
कई बातें गजल में आज भी लिक्खी नहीं जाती
सितम से ऊब कर तेरा शहर मैं छोड़ दूं कैसे
सितम से…
Added by शकील समर on October 8, 2013 at 1:00pm — 21 Comments
मैया दस्तक दे रही ,खोलो मन के द्वार
मात कृपा से हो सदा ,हर सपना साकार //
हर सपना साकार ,जा कर द्वार पर कर लो
देती माँ आशीष , झोलियाँ खाली भर लो
सरिता करे पुकार ,तार माँ सबकी नैया
दे दर्शन चढ़ शेर ,सदा जगदम्बे मैया//
तेरे दर पर हूँ खड़ी,नतमस्तक कर जोड़
सर पर रखना हाथ माँ, दुख जाएँ दर छोड़
दुख जाएँ दर छोड़ ,हो साकार हर सपना
रहे न पारावार दो आशीष माँ अपना
भेंट करो स्वीकार, कब से लगाती फेरे
दर्शन देदो मात ,दर पर खड़ी मैं तेरे…
Added by Sarita Bhatia on October 8, 2013 at 11:01am — 16 Comments
प्राचार्य जी के साथ विद्यालय से निकल के कुछ दूर चले ही थे कि मुखिया जी ने पुकार लिया | बैठक में काफी लोग चर्चामग्न थे | बढती बेरोजगारी और आतंकवाद के परस्पर सम्बन्धों से लेकर शिक्षित लोगों के ग्राम पलायन तक अनेक मुद्दों पर सार्थक विचार गंगा बह रही थी |कुछ देर बाद जब अधिकांश लोग उठकर चले गए तो मुखिया जी ने प्राचार्य जी से कहा –
“वो रामदीन के नवीं कक्षा वाले छोरे को पूरक क्यों दे दी ?”…
ContinueAdded by vandana on October 8, 2013 at 7:30am — 15 Comments
2222. 2222
हाँ ऊँचा अंबर होता है
पर धरती पर घर होता है
तुम हो आगे हम हैं पीछे
ऐसा तो अक्सर होता है
इक लय में गाते जब दोनों
हर इक आखर तर होता है
होती खाली तू तू मैं मैं
वो भी कोई घर होता है
बन जाता है जो रेतीला
वो भी तो पत्थर होता है
रुक जाते हैं चलते रेले
देखा तेरा दर होता है
तू ही जाने किस गरदन पर
जाने किसका सर होता है
पूनम शुक्ला
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Poonam Shukla on October 7, 2013 at 8:30pm — 15 Comments
तलाश की महफिले तो तन्हाईयाँ मिली !
मुझको वफ़ा के बदले बेवफायियाँ मिली !
जिक्रे चाहत पर सदा लब खामोश ही रहे!
मुझको फिर क्यों इतनी रुश्वायियाँ मिली !
मेरे रकीबो को तो साथ उसका मिला !
मुझको उसकी सिर्फ परछाईयाँ मिली !
मनायेगा शायद मातम मेरी जुदाई का वो !
सुनने को उसके घर पे शहनाईयाँ मिली !
हुस्न की बदौलत फ़लक को पा गया है वो !
मुझको खामोश कब्र सी गहराईयाँ मिली !
उसकी तूफ़ान-ए-…
ContinueAdded by डॉ. अनुराग सैनी on October 7, 2013 at 6:36pm — 10 Comments
नगरी-नगरी
फूटी गगरी
लेकर पानी
पीना है।
मेरी छानी
गारा-मिट्टी
तेरा आँगन
भीना है।
रेशम-रेशम
तेरा आँचल
मेरा कुर्ता
झीना है।
शैल-शिखर सा
मस्तक तेरा
मेरा बोझिल
सीना है।
दुनिया,तूने
बीच भँवर में
आस-आसरा
छीना है।
अन्धकार में
आँखें फाड़े
जुगनू-जुगनू
बीना है।
खुली हथेली
ख़ाली बर्तन
फिर भी हमको
जीना है।
-मौलिक एवं अप्रकाशित।
Added by Ravi Prakash on October 7, 2013 at 4:30pm — 24 Comments
Added by Poonam Shukla on October 7, 2013 at 1:00pm — 13 Comments
ज़िक्र कुछ यार का किया जाये
ज़िन्दगी आ जरा जिया जाये /१
हो चुकी हो अगर सजा पूरी
दर्दे दिल को रिहा किया जाये /२
चाँद छूने के ही बराबर है
मखमली हाथ छू लिया जाये /३
ज़ख़्म ताजा बहुत जरुरी है
चल कहीं दिललगा लिया जाये /४
वक़्त ने मिन्नतें नहीं मानी
माँ को खुलके बता दिया जाये /५
हसरतें ईद की अधूरी हैं…
ContinueAdded by Saarthi Baidyanath on October 7, 2013 at 11:30am — 30 Comments
खड़े होकर सभी के सामने अक्सर दुतल्ले से।
जो बातें सच थीं ज्यों की त्यों कहीं हमने धड़ल्ले से।
.
सुना है राह के काँटे भी उसका कुछ न कर पाये,
मग़र पैरों मे छाले पड़ गये जूते के तल्ले से।
.
अकेला ही मैं दुश्मन के मुकाबिल में रहा अक्सर ,
मदद करने नही निकला कोर्इ बन्दा मुहल्ले से।
.
वो इन्टरनेषनल क्रिकेट की करते समीक्षा हैं,
नही निकले कभी भी चार रन तक जिनके बल्ले से।
.
तुम्हारे गाँव के बारे में ये मेरा तजुर्बा है,…
Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 7, 2013 at 10:30am — 17 Comments
सांत्वना
अस्पताल से जाँच की रिपोर्ट लेकर घर लौटे द्वारिका दास जी अपनी पुरानी आराम कुर्सी पर निढाल होकर लेट से गये. छत को ताकती हुई सूनी निगाहों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे . रिपोर्ट के बारे में बेटे को बताता हूँ तो वह परेशान हो जायेगा.यहाँ आने के लिये उतावला हो जायेगा. पता नहीं उसे छुट्टियाँ मिल पायेंगी या नहीं. बेटे के साथ ही बहू भी परेशान हो जायेगी. त्यौहार भी नजदीक ही है.…
ContinueAdded by अरुण कुमार निगम on October 7, 2013 at 12:30am — 25 Comments
संवेदन शील मन
बार-बार क्यों
डूबता उतराता है
संवेदना के समंदर में
हजारबार गोते खाता है
प्रश्नों का अम्बार है
आज तो मर्यादा का व्यापार है
वास्तव में संवेदनाहीन हो रहा संसार है
गरीवी ,लाचारी ,बेचारी ,बेरोजगारी और कुछ शब्द थे ,
जिनमें संवेदना का अधिकार व्याप्त था
संवेदनशील मन के लिए इन शब्दों का होना पर्याप्त था
किन्तु संवेदना की परिभाषा बदल गयी
जहाँ संवेदना थी ओ भाषा बदल गयी
आज अत्याचारी ,बलात्कारी, भ्रष्टाचारियों पर…
Added by दिलीप कुमार तिवारी on October 7, 2013 at 12:30am — 15 Comments
दर्द के खूब समंदर देखे
हमने बाहर नहीं अंदर देखे
आह को वाह में बदल दें वो
एक से एक धुरंधर देखे
देवता के गुनाह देख लिए
जब कथाओं में चंदर देखे
लोग उंगली पे उठा लेते है
कृष्ण देखे हैं ,पुरंदर देखे
फंस ही जाते हैं अपनी चालों में
जाल देखे हैं ,मछंदर देखे
_____________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल
(मौलिक और अप्रकाशित )
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on October 6, 2013 at 10:00pm — 12 Comments
Added by Kapish Chandra Shrivastava on October 6, 2013 at 5:00pm — 35 Comments
किरण से कुहासा बना कर चल पड़ी !
जिंदगी मुझे तमाशा बना कर चल पड़ी !
समझ नही आता अर्थ किसी को मेरा !
कैसी ये परिभाषा बना कर चल पड़ी !
पा लूँ अर्श को एक ही छलांग में !
कैसी ये अभिलाषा जगाकर चल पड़ी !
चंद दाद पाकर तसल्ली मिलती नही !
शोहरतों का प्यासा बनाकर चल पड़ी !
बड़ी हस्तियों में हो नाम शामिल मेरा !
मन में ये जिज्ञासा उठाकर चल पड़ी !
किरण से कुहासा बना कर चल पड़ी !
जिंदगी…
ContinueAdded by डॉ. अनुराग सैनी on October 6, 2013 at 4:26pm — 11 Comments
मेरी प्रिय अमृता जी ... संस्मरण...२
(अमृता प्रीतम जी से मिलने के सौभाग्य का प्रथम संस्मरण "संस्मरण ... अमृता प्रीतम जी" ओ.बी.ओ. पर जनवरी में आ चुका है)
कहते हैं, खुशी और ग़म एक संग आते हैं ..…
ContinueAdded by vijay nikore on October 6, 2013 at 3:30pm — 30 Comments
न ज़िंदगी को सजाना, गड़े खज़ाने से
नसीब ‘राख़’ है, साँसों के रूठ जाने से//१
.
खड़े हैं क़ब्र के पत्थर-से लोग चौखट पर
जवान बेटी की इज्ज़त को यूँ गंवाने से//२
.
पकड़ के पूँछ कलाई, पे बांध लेता मैं
जो मान जाता कभी वक़्त भी मनाने से//३
.
न आफ़ताब को हो फ़िक्र तो मिटेगा क्यूँ
कोई न फ़र्क है जुगनूँ के दिल जलाने से//४
.
सुना है अश्क़ दवाई से कम नहीं होता
तो छोड़ रात में पलकों को यूँ नहाने से //५
.
तुझे…
ContinueAdded by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 6, 2013 at 1:30pm — 30 Comments
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