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October 2013 Blog Posts (275)

ये दिल मांगत मोर-

दुर्मिल सवैया 

पुरबी उर-*उंचन खोल गई, खुट खाट खड़ी मन खिन्न हुआ |

कुछ मत्कुण मच्छर काट रहे तन रेंगत जूँ इक कान छुआ |

भडकावत रेंग गया जब ये दिल मांगत मोर सदैव मुआ  |

फिर नारि सुलोचन ब्याह लियो शुभचिंतक मांगत किन्तु दुआ  |

उंचन=खटिया कसने वाली रस्सी , उरदावन 

मत्कुण=खटमल 

अप्रकाशित / मौलिक 

Added by रविकर on October 8, 2013 at 4:00pm — 6 Comments

अथ श्री मुर्गा-पुराण,,,

अथ श्री मुर्गा-पुराण,,,

================

हमारॆ शिक्षा काल मॆं छात्रॊं की बड़ी व्यथा थी,

उन दिनॊं स्कूलॊं मॆं मुर्गा बनानॆ की प्रथा थी,

अध्यापक महॊदय कक्षा मॆं शान सॆ आतॆ थॆ,

और तुरंत छात्रॊं पर प्रश्नॊं कॆ तीर चलातॆ…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on October 8, 2013 at 3:00pm — 41 Comments

चोका..................

चाँद जो आया
रात के आँगन में
तारे चमके
चांदनी की गोद में
ठंडी सी हवा
मन को लहराए
ख्वाबो  के साये
नींदों को हैं जगाये
सोच रही हूँ
ख़ामोशी इतनी क्यों
मीठी सी लागे
जो  गीत धरा गाये
रात गुदगुदाए .........सविता अगरवाल 

Added by savita agarwal on October 8, 2013 at 2:21pm — 9 Comments

मजाक नहीं है

मैं शाम

ढलने का इंतज़ार करता हूँ

सूरज !!!

जिसकी तपिश से

घबराया सा

झुलसा सा

मुरझाया सा

खींच लेना चाहता हूँ

रात की विशाल

छायादार चादर

जिसमें जड़े हैं

चाँद तारे

और बिखरे से

सफ़ेद रुई के फोहों से

मखमली दूधिया बादल

थकान मिटाने

को होता है

सन्नाटों का गीत

.........................................

सन्नाटों का गीत

अद्भुत है अद्वितीय है

इसकी लय…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on October 8, 2013 at 1:30pm — 14 Comments

गजल: जहन में कैद है जो याद इक पिछली नहीं जाती

बह्र: 1222/1222/1222/1222

मुकर जाने की आदत आज भी उनकी नहीं जाती

तभी तो उनके घर पर अब तवायफ भी नहीं जाती



सियासत किस तरह से घुल गई फिरकापरस्ती में

चमन में लीडरों के अब कोई तितली नहीं जाती

ये सुनकर उम्र भर रुसवा रहा अपनी मुहब्बत से

कभी भी उठ के स्टेशन से इक पगली नहीं जाती

पढ़ेंगे लोग तो कहने लगेंगे बेवफा तुझको

कई बातें गजल में आज भी लिक्खी नहीं जाती

सितम से ऊब कर तेरा शहर मैं छोड़ दूं कैसे

सितम से…

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Added by शकील समर on October 8, 2013 at 1:00pm — 21 Comments

कुण्डलियाँ [ माँ ]

मैया दस्तक दे रही ,खोलो मन के द्वार

मात कृपा से हो सदा ,हर सपना साकार //

हर सपना साकार ,जा कर द्वार पर कर लो

देती माँ आशीष , झोलियाँ खाली भर लो

सरिता करे पुकार ,तार माँ सबकी नैया

दे दर्शन चढ़ शेर ,सदा जगदम्बे मैया//

तेरे दर पर हूँ खड़ी,नतमस्तक कर जोड़

सर पर रखना हाथ माँ, दुख जाएँ दर छोड़

दुख जाएँ दर छोड़ ,हो साकार हर सपना

रहे न पारावार दो आशीष माँ अपना

भेंट करो स्वीकार, कब से लगाती फेरे

दर्शन देदो मात ,दर पर खड़ी मैं तेरे…

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Added by Sarita Bhatia on October 8, 2013 at 11:01am — 16 Comments

भागीरथ के देश में ( लघुकथा )

प्राचार्य जी के साथ विद्यालय से निकल के कुछ दूर चले ही थे कि मुखिया जी ने पुकार लिया | बैठक में काफी लोग चर्चामग्न थे | बढती बेरोजगारी और आतंकवाद के परस्पर सम्बन्धों  से लेकर शिक्षित लोगों के ग्राम पलायन तक अनेक मुद्दों पर सार्थक विचार गंगा बह रही थी |कुछ देर बाद जब अधिकांश लोग उठकर चले गए तो मुखिया जी ने प्राचार्य जी से कहा –

“वो रामदीन के नवीं कक्षा वाले छोरे को पूरक क्यों दे दी ?”…

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Added by vandana on October 8, 2013 at 7:30am — 15 Comments

ग़ज़ल - रुक जाते हैं चलते रेले - पूनम शुक्ला

2222. 2222

हाँ ऊँचा अंबर होता है
पर धरती पर घर होता है

तुम हो आगे हम हैं पीछे
ऐसा तो अक्सर होता है

इक लय में गाते जब दोनों
हर इक आखर तर होता है

होती खाली तू तू मैं मैं
वो भी कोई घर होता है

बन जाता है जो रेतीला
वो भी तो पत्थर होता है

रुक जाते हैं चलते रेले
देखा तेरा दर होता है

तू ही जाने किस गरदन पर
जाने किसका सर होता है

पूनम शुक्ला
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Poonam Shukla on October 7, 2013 at 8:30pm — 15 Comments

तलाश की महफिले ------

तलाश की महफिले तो तन्हाईयाँ मिली !

मुझको वफ़ा के बदले  बेवफायियाँ मिली !

 

जिक्रे चाहत पर सदा लब खामोश ही रहे!

मुझको फिर क्यों  इतनी रुश्वायियाँ मिली !

 

मेरे रकीबो को तो साथ उसका मिला !

मुझको उसकी सिर्फ परछाईयाँ मिली !

 

मनायेगा शायद मातम मेरी जुदाई का वो !

सुनने को उसके घर पे शहनाईयाँ मिली !

हुस्न की बदौलत फ़लक को पा  गया  है वो !

मुझको खामोश कब्र सी गहराईयाँ मिली !

 

उसकी तूफ़ान-ए-…

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Added by डॉ. अनुराग सैनी on October 7, 2013 at 6:36pm — 10 Comments

जिजीविषा - (रवि प्रकाश)

नगरी-नगरी
फूटी गगरी
लेकर पानी
पीना है।
मेरी छानी
गारा-मिट्टी
तेरा आँगन
भीना है।
रेशम-रेशम
तेरा आँचल
मेरा कुर्ता
झीना है।
शैल-शिखर सा
मस्तक तेरा
मेरा बोझिल
सीना है।
दुनिया,तूने
बीच भँवर में
आस-आसरा
छीना है।
अन्धकार में
आँखें फाड़े
जुगनू-जुगनू
बीना है।
खुली हथेली
ख़ाली बर्तन
फिर भी हमको
जीना है।

-मौलिक एवं अप्रकाशित।

Added by Ravi Prakash on October 7, 2013 at 4:30pm — 24 Comments

ग़ज़ल- लगा दूँ आग पानी में

1222. 1222. 1222

जरा ठहरो लगा दूँ आग पानी में
कहीं गुम हो न जाए फाग पानी में

कहीं तो डोलती होगी हवा मीठी
पकड़ कर खींच लाऊँ राग पानी में

चले तो थे कदम उसके यहीं शायद
चहकता तो नहीं है काग पानी में

फिज़ाओं में कभी तो रौनकें होंगी
लहकता बोलता है बाग पानी में

न आ जाए कहीं सैलाब उठ जा भी
कहीं तू बह न जाए जाग पानी में
पूनम शुक्ला

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Poonam Shukla on October 7, 2013 at 1:00pm — 13 Comments

ग़ज़ल- सारथी || ज़िक्र कुछ यार का किया जाये ||

ज़िक्र कुछ यार का किया जाये

ज़िन्दगी आ जरा जिया जाये /१ 

हो चुकी हो अगर सजा पूरी

दर्दे दिल को रिहा किया जाये /२ 

चाँद छूने के ही बराबर है

मखमली हाथ छू लिया जाये /३ 

ज़ख़्म ताजा बहुत जरुरी है

चल कहीं दिललगा लिया जाये /४ 

वक़्त ने मिन्नतें नहीं मानी

माँ को खुलके बता दिया जाये /५ 

हसरतें ईद की अधूरी हैं…

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Added by Saarthi Baidyanath on October 7, 2013 at 11:30am — 30 Comments

गजल

खड़े होकर सभी के सामने अक्सर दुतल्ले से।

जो बातें सच थीं ज्यों की त्यों कहीं हमने धड़ल्ले से।

.

सुना है राह के काँटे भी उसका कुछ न कर पाये,

मग़र पैरों मे छाले पड़ गये जूते के तल्ले से।

.

अकेला ही मैं दुश्मन के मुकाबिल में रहा अक्सर ,

मदद करने नही निकला कोर्इ बन्दा मुहल्ले से।

.

वो इन्टरनेषनल क्रिकेट की करते समीक्षा हैं,

नही निकले कभी भी चार रन तक जिनके बल्ले से।

.

तुम्हारे गाँव के बारे में ये मेरा तजुर्बा है,…

Continue

Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 7, 2013 at 10:30am — 17 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
सांत्वना (लघु कथा) : अरुण निगम

सांत्वना

अस्पताल से जाँच की रिपोर्ट लेकर घर लौटे द्वारिका दास जी अपनी पुरानी आराम कुर्सी पर निढाल होकर लेट से गये. छत को ताकती हुई सूनी निगाहों में कुछ प्रश्न तैर रहे थे . रिपोर्ट के बारे में बेटे को बताता हूँ तो वह परेशान हो जायेगा.यहाँ आने के लिये उतावला हो जायेगा. पता नहीं  उसे छुट्टियाँ  मिल पायेंगी या नहीं. बेटे के साथ ही बहू भी परेशान हो जायेगी. त्यौहार भी नजदीक ही है.…

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Added by अरुण कुमार निगम on October 7, 2013 at 12:30am — 25 Comments

संवेदना

संवेदन शील मन

बार-बार क्यों

डूबता उतराता है

संवेदना के समंदर में

हजारबार गोते खाता है

प्रश्नों का अम्बार है

आज तो मर्यादा का व्यापार है

वास्तव में संवेदनाहीन हो रहा संसार है

गरीवी ,लाचारी ,बेचारी ,बेरोजगारी और कुछ शब्द थे ,

जिनमें संवेदना का अधिकार व्याप्त था

संवेदनशील मन के लिए इन शब्दों का होना पर्याप्त था

किन्तु संवेदना की परिभाषा बदल गयी

जहाँ संवेदना थी ओ भाषा बदल गयी

आज अत्याचारी ,बलात्कारी, भ्रष्टाचारियों पर…

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Added by दिलीप कुमार तिवारी on October 7, 2013 at 12:30am — 15 Comments

दर्द के समंदर देखे !

दर्द के खूब समंदर देखे 
हमने बाहर नहीं अंदर देखे 

आह को वाह में बदल दें वो 
एक से एक धुरंधर देखे 

देवता के गुनाह देख लिए 
जब कथाओं में चंदर देखे 

लोग उंगली पे उठा लेते है 
कृष्ण देखे हैं ,पुरंदर देखे 

फंस ही जाते हैं अपनी चालों में 
जाल देखे हैं ,मछंदर देखे 
_____________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल 

(मौलिक और अप्रकाशित )

Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on October 6, 2013 at 10:00pm — 12 Comments

प्रत्युत्पन्नमति [ लघु-कथा ]

तनु और मान्या  दोनों  किचन में नाश्ते  की तैयारी कर रहे  थे  । रवि और अल्पना, तनु के  भैया -भाभी ,  ड्राइंग रूम में बैठे  टी. वी. देख रहे थे।  अचानक किचन से  छनाक की आवाज  सुनकर दोनों किचन की ओर  दौड़ पड़े । देखा टोमेटो केचप का नया बाटल फर्श पर चूर-चूर पड़ा है, सारा केचप बिखर गया था। तनु !!!!!  गरजता हुआ  रवि गुस्से से चिल्ला पड़ा - सम्हालकर काम नहीं कर सकती, पूरा केचप  बर्बाद कर दिया , कल ही लाया था 150 रु. में । घबराहट के  कारण तनु बोली " वो भैया मै मै --- उसके …
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Added by Kapish Chandra Shrivastava on October 6, 2013 at 5:00pm — 35 Comments

जिंदगी मुझे तमाशा बनाकर चल पड़ी --------

किरण से कुहासा बना कर चल पड़ी !

जिंदगी मुझे तमाशा बना कर चल पड़ी !

समझ नही आता अर्थ किसी को मेरा !

कैसी ये परिभाषा बना कर चल पड़ी !

पा लूँ  अर्श को एक ही छलांग में !

कैसी ये अभिलाषा जगाकर चल पड़ी !

चंद दाद पाकर तसल्ली मिलती नही !

शोहरतों का प्यासा बनाकर चल पड़ी !

बड़ी हस्तियों में हो नाम शामिल मेरा !

मन में ये जिज्ञासा उठाकर चल पड़ी !

किरण से कुहासा बना कर चल पड़ी !

जिंदगी…

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Added by डॉ. अनुराग सैनी on October 6, 2013 at 4:26pm — 11 Comments

मेरी प्रिय अमृता जी ... संस्मरण...२

मेरी प्रिय अमृता जी ... संस्मरण...२

 

(अमृता प्रीतम जी से मिलने के सौभाग्य का प्रथम संस्मरण "संस्मरण ... अमृता प्रीतम जीओ.बी.ओ. पर जनवरी में आ चुका है)

कहते हैं, खुशी और ग़म एक संग आते हैं ..…

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Added by vijay nikore on October 6, 2013 at 3:30pm — 30 Comments

ग़ज़ल (२) : क़ब्र के पत्थर !

न ज़िंदगी को सजाना, गड़े खज़ाने से

नसीब ‘राख़’ है, साँसों के रूठ जाने से//१

.

खड़े हैं क़ब्र के पत्थर-से लोग चौखट पर   

जवान बेटी की इज्ज़त को यूँ गंवाने से//२

.

पकड़ के पूँछ कलाई, पे बांध लेता मैं

जो मान जाता कभी वक़्त भी मनाने से//३

.

न आफ़ताब को हो फ़िक्र तो मिटेगा क्यूँ 

कोई न फ़र्क है जुगनूँ के दिल जलाने से//४

.

सुना है अश्क़ दवाई से कम नहीं होता   

तो छोड़ रात में पलकों को यूँ नहाने से //५

.

तुझे…

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Added by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 6, 2013 at 1:30pm — 30 Comments

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