!!! हर काम-दिशा रति पावन हो !!!
दुर्मिल सवैया छन्द आठ सगण यथा-112 आठ पुनरावृतित
// 1 //
हर मां जगती तल शीतल सी, नव जीवन दायक है जर* मां।..........*धन अर्थात लक्ष्मी
जर मां सब ध्यान धरे उर में, दर रोशन, बाहर है गर मां।।
गर मां नव दीप जले सुखदा, सुख बांट रहूं सुख को वर मां।
वर मां मुझको शिशु कृष्ण कहो, तम नष्ट करूं वर दे हर मां।।
// 2 //
समिधा सम दुर्गति नष्ट करें, सत पुष्ट करें अति पावन हो।
मन…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 5, 2013 at 11:00am — 27 Comments
चप्पल घिस-घिस कर आधे रह गए थे सूरज शर्मा के । पिछले 3 साल से अपनी मास्टर डिग्री की फ़ाइल प्लास्टिक के थैले में रखे नौकरी की तलाश में जगह-जगह धक्के और ठोकरें खाते घूम जो रहा था । मई महीने की दोपहरी थी । दैनिक पत्रिका के " वान्टेड " वाले पृष्ठ में कई जगह पेन से गोल घेरा लगाए सूरज पिछले चार घंटे से शहर के चक्कर लगाते भूख प्यास से बेहाल हो चुका था । शाम तक 2-3 इंटरव्यू और देना था उसे । बची-खुची हिम्मत जुटा , सिटी…
ContinueAdded by Kapish Chandra Shrivastava on October 5, 2013 at 10:30am — 37 Comments
"डॉ साहिब, हमें बेटी नहीं चाहिए. आप बहू का एबॉर्शन कर दीजिए."
"ठीक है, आप लोग कल शाम मेरे प्राइवेट क्लिनिक पर आ जाईए".
"कल नहीं डॉ साहिब, हम लोग अगले हफ्ते ही आ पाएंगे"
"अगले हफ्ते क्यों ?"
"क्योंकि अभी नवरात्रे चल रहे हैं "
(मौलिक एवँ अप्रकाशित्)
Added by योगराज प्रभाकर on October 5, 2013 at 10:00am — 45 Comments
हल्की-सी उदासी
भावों की आहट
हल्की-सी उदासी
तुम्हें उदास देख कर ...
हल्की-सी उदासी
अँधेरे की थाहों में तुम्हें
कुछ टटोलते देख कर...
कुछ पहचानी कुछ अनजानी
तुम्हारी चुप्पी भी
चुभती है बहुत ...
सिन्दूर जो तुम्हारी मांग में
सजने को था
बिखरा पड़ा ...
सहसा हिल जाता है दिल
सोचते, ख़्यालों के कंगूरों पर कहीं
अकेली, तुम रो तो नहीं…
ContinueAdded by vijay nikore on October 5, 2013 at 8:00am — 32 Comments
मिली जब से पनाहें सच, यहां इल्जाम को घर में
लिए बदनामी संग फिरते, छुपाकर नाम को घर में
बुलाकर नेह को रखो, यहां सम्मान से तुम नित
मगर भूले से भी मत देना, “शरण काम को घर में
निपट लेगा फिर वन में, अकेली ताड़का से तो वो
यहां सौ-सौ लंकेश बैठे हैं, बुलाओ राम को घर में
सुना है सबसे रखवाया, वचन बेटी की इज्जत का
मगर बोलो कि कब दोगे, इसी अंजाम को घर में
अभी तो साथ चलनी है, कर्ज में लिपटी हुर्इ सुबहें
भला फिर कैसे रोकें हम, धुआंती…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 5, 2013 at 6:00am — 7 Comments
वह माटी थी पर नहीं थी वह ...जिसे कुम्हार ने माजा चाक पे चढ़ाया, गढा, चमकाया बाजार में बिठाया ... वह तो किस्मत की धनी थी पर वह ? वह तो सिर्फ उसके बगिया की माटी थी उसके पैरों तले गाहे बगाहे आ जाती ... कुचली जाती रही .. टूटती रही, खोदी जाती रही, तोडी जाती रही ..... और बदले में रंगबिरंगे फूलों से फलों से अपनी हरियाली को सजा कर बगिया को महकाती रही .... यही तो था उन् दोनों के अपने अपने हिस्से का आसमान .. लेकिन उन् दोनों के लिए एक आसमान से इतर एक दूसरा आसमान किसी बंद दरवाजे से बाहर भीतर…
ContinueAdded by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on October 4, 2013 at 9:30pm — 17 Comments
सफ़र
ओ बी ओ के संग मेरा, सफ़र पुराना भाई,
जानते नहीं जो मुझे, जान लो क़रीब से।
धन औ दौलत से भी, बड़ी चीज़ पाई मैंने,
शारदे की कृपा मिली, मुझको नसीब से।
लेखन में रुचि मेरी, लेखन ही जान मेरी,…
ContinueAdded by Sushil.Joshi on October 4, 2013 at 9:14pm — 21 Comments
कलाम सबकी जुबाँ पर है लाकलाम तेरा।
सलाम करता है झुक कर तुझे गुलाम तेरा।
वो पाक़ साफ है इल्जाम न लगा उस पर,
करेगा काम वो वैसा ही जैसा दाम तेरा।
किसी को ताज़ किसी को दिये फटे कपड़े,
बड़े गज़ब का है दुनिया मे इन्तजाम तेरा।
जो अपने आप को पहुँचा हुआ समझते हैं,
समझ में उनके भी आता नहीं है काम तेरा।
तेरे ही नाम से होते हैं सारे काम मेरे,
मैं मरते वक्त तक लेता रहूँगा नाम तेरा।
मौलिक अप्रकाशित…
ContinueAdded by Ram Awadh VIshwakarma on October 4, 2013 at 8:00pm — 19 Comments
हम क्या हैं
सिर्फ पैसा बनाने की मशीन भर न !
इसके लिए पांच बजे उठ कर
करने लगते हैं जतन
चाहे लगे न मन
थका बदन
ऐंठ-ऊँठ कर करते तैयार
खाके रोटियाँ चार
निकल पड़ते टिफिन बॉक्स में कैद होकर
पराठों की तरह बासी होने की प्रक्रिया में
सूरज की उठान की ऊर्जा
कर देते न्योछावर नौकरी को
और शाम के तेज-हीन सूर्य से ढले-ढले
लौटते जब काम से
तो पास रहती थकावट, चिडचिडाहट,
उदासी और मायूसी की परछाइयां
बैठ जातीं कागज़ के…
Added by anwar suhail on October 4, 2013 at 8:00pm — 9 Comments
Added by डॉ. अनुराग सैनी on October 4, 2013 at 6:03pm — 5 Comments
अपनी निगाहों से मेरा हर अक्श मिटाने चला है वो
दिल से अपने अब मेरा हर नक्श मिटाने चला है वो
मेरी महफ़िल की रंगीनियत कम होने लगी शायद
इसलिए साथ गैरों के महफिलें सजाने चला है वो
उस शख्स की शख्सियत भी क्या होगी यारो
मोहब्बत से भरा एक शख्स मिटाने चला है वो
जिसने खुद ही जलाई थी मोहब्बत की शमा कभी
उस शमा की आखिरी लौ भी अब बुझाने चला है वो
और जिनकी रग-रग मैं हैं धोखे और फरेब भरे
साथ उनके अब यारियों…
ContinueAdded by Sachin Dev on October 4, 2013 at 5:30pm — 28 Comments
बह्रे रमल मुसम्मन सालिम(2122 2122 2122 2122)
संग तेरे मैंने कोई पल गुज़ारा ही न होता
ऐ खुशी तूने अगर मुझको पुकारा ही न होता
तूने ऐ जज़्बा-ए-दिल मुझको सँवारा ही न होता
आइने में लफ़्ज़ के तुझको उतारा ही न होता
रह गया था मैं कहीं खो कर जहां की वुसअतों मे वुसअत= व्यापकता
गर मुहब्बत की न होती तो सहारा ही न होता
रात की जल्वागरी होती अधूरी रौनकें भी
चाँद की जो बज़्म…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on October 4, 2013 at 4:00pm — 31 Comments
माँ !!
नेह ममता
लाड़ दुलार
अविस्मरण रूप
स्नेह की गागर
छलकाती ।
आँखों मे असंख्य
अबूझ स्वप्न
स्नेह सिक्त
जल धारा बरसाती ।
होती ऐसी माँ !!!..................अन्नपूर्णा बाजपेई
अप्रकाशित एवं मौलिक
Added by annapurna bajpai on October 4, 2013 at 2:00pm — 24 Comments
शान्त *चित्ति के फैसले, करें लोक कल्यान |
चिदानन्द संदोह से, होय आत्म-उत्थान |
होय आत्म-उत्थान, स्वर्ग धरती पर उतरे |
लेकिन चित्त अशान्त, सदा ही काया कुतरे |
चित्ति करे जो शांत, फैसले नहीं *कित्ति के |
करते नहीं अनर्थ, फैसले शान्त चित्ति के ||
चित्ति = बुद्धि
कित्ति = कीर्ति / यश
अप्रकाशित / मौलिक
Added by रविकर on October 4, 2013 at 11:00am — 11 Comments
राजकुमार तोते को दबोच लाया और सबके सामने उसकी गर्दन मरोड़ दी... “तोते के साथ राक्षस भी मर गया” इस विश्वास के साथ प्रजा जय जयकार करती हुई सहर्ष अपने अपने कामों में लग गई।
उधर दरबार में ठहाकों का दौर तारीं था... हंसी के बीच एक कद्दावर, आत्मविश्वास भरी गंभीर आवाज़ गूंजी... “युवराज! लोगों को पता ही नहीं चल पाया कि हमने अपनी ‘जान’ तोते में से निकाल कर अन्यत्र छुपा दी है... प्रजा की प्रतिक्रिया से प्रतीत होता है कि आपकी युक्ति काम आ गई... राक्षस के मारे जाने के उत्साह और उत्सव के बीच…
Added by Sanjay Mishra 'Habib' on October 4, 2013 at 9:36am — 22 Comments
Added by Kapish Chandra Shrivastava on October 4, 2013 at 9:30am — 24 Comments
2122 1212 22
जुल्म को देख रहगुज़र चुप है
गाँव सारा नगर नगर चुप है
खामुशी चुप ज़ुबां ज़ुबां है चुप
दश्त चुप है शज़र शज़र चुप है
दोस्त चुप चाप दुश्मनी भी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on October 4, 2013 at 8:00am — 39 Comments
1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2
चढा दी हसरतें सूली किसी ईनाम से पहले//
नमन है उन शहीदों को सदा आवाम से पहले//
बने आजाद परवाने कफ़न को सिर पे बांधा था
वतन पर जान देते थे किसी अंजाम से पहले //
भुला सकते न कुर्बानी वतन पर मर मिटे हैं जो
ज़माना सर झुकाएगा खुदा के नाम से पहले//
शहादत व्यर्थ उनकी यूँ नहीं अब तुम करा देना
नसीहत मानना उनकी किसी कुहराम से पहले//
वफ़ा कैसे निभानी सीखलो अपने वतन से तुम …
Added by Sarita Bhatia on October 3, 2013 at 8:00pm — 24 Comments
उठते बैठते बस एक ही ख्याल हुआ
क्यूँ जीना भी इस कदर मुहाल हुआ
लुटी आबरू तो चुप हैं सफ़ेद-पोश
ख़ामो ख्वाह की बातों पर बवाल हुआ
जलाता है रावण खुद अपना ही बुत
तमाशा ये देखो हर साल हुआ
जुबां…
ContinueAdded by Praveen Verma 'ViswaS' on October 3, 2013 at 6:43pm — 22 Comments
स्वच्छ गगन मे
सुवर्ण सी धूप
भोर की किरण ने
आ जगाया ।
अर्ध उन्मीलित नेत्र
उनींदा मानस
आलस्य पूरित
यह तन मन
पंछियों ने राग सुनाया ।
कामिनी सी कमनीय
सौंदर्य की प्रतिमा
नैसर्गिक छटा
फैली चहुं ओर
मुसकाते सुमन
झूमते तरुवर
नव जोश जगाया ।
हुआ प्रफुल्लित ये मन
तोड़ कर मंथर बंधन
मानो रोली कुमकुम
आ छिड़काया ।............. अन्नपूर्णा बाजपेई
अप्रकाशित…
ContinueAdded by annapurna bajpai on October 3, 2013 at 4:59pm — 30 Comments
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