For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

October 2017 Blog Posts (156)

गजल(इक गजल की शाम हो तुम...)

2122 2122
--------------------
इक गजल की शाम हो तुम
धड़कनें गुमनाम हो तुम।1

ख्वाहिशों की संगिनी हो
नींद हो ,आराम हो तुम।2

ढूँढ़ता तब से रहा मैं
ख्वाहिशे-आवाम हो तुम।3

घोल दे जो कान में रस
वह सहज-सा नाम हो तुम।4

राधिका हो तुम किशन की
बीन मेरी,'साम' हो तुम।5

टूटता है जब मनोरथ
उस घड़ी में काम हो तुम।6

भागता फिरता बटोही
बस सुफल इक धाम हो तुम।7
"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Manan Kumar singh on October 10, 2017 at 7:30pm — 6 Comments

सिसकते बल्ब (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"कमली, तू तो करवा चौथ के दूसरे दिन भी काफी सुंदर लग रही है, सजी-धजी सी!"

मेम साहब की यह टिप्पणी सुनकर कमली उनके कमरे में और अच्छी तरह से झाड़ू लगाने लगी।

"छोड़ ये झाड़ू-पोंछा.. आ बैठ यहां!" कमली का हाथ खींच कर उसे सोफे पर बैठा कर मेम साहब ने पूछा - "सच, बहुत सुंदर और ख़ुश दिख रही है तू!"

"पर आपके सामने हम कहां!"

"चुप्प! छोड़ ऐसी बातें! अच्छा ये बता, तू कितने वाट की है?"

"वाट!"

"हां, कितना वोल्टेज है तुझ में?" इतना कहकर मेम साहब फफक-फफक कर रोने लगी।

उनके ही… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 10, 2017 at 6:38pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ- ४६ (सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है)

स्पेनिश कवि पाब्लो नेरुदा की कविता "You Start Dying Slowly" के हिन्दी अनुवाद से प्रेरित

सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है

-----------------------------------------

सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है

आप चाहे तुच्छ हों या हों आप महान

आप चाहे पत्थर हों, पेड़ हों

पशु हों, आदमी हों, या कोई साहिबे जहान

आप चाहे बुलंद हों या जोशे नातवान

 

सब को धीरे धीरे मरना पड़ता है

आप चाहे विनीत हों या कोई दहकता…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 10, 2017 at 3:00pm — 10 Comments

अपने-पराये(लघुकथा)राहिला

"तुम्हारी सारे फैसलों से मैं हमेशा सहमत रहा हूँ । लेकिन आज इस फैसले से मैं कतई सहमत नहीं।आख़िर मेरी गैरहाजिरी में ऐसा क्या हुआ कि अचानक तुमने वहां वापसी की ज़िद पकड़ ली?बड़ी भाभी या सुषमा ,किसी ने कुछ कहा क्या?"



"...."



" कुछ तो बोल बिट्टो! क्या तू भूल गयी उन लोगों ने तेरे साथ कितना गलत किया था?"

" नहीं ..,कुछ नहीं भूली, लेकिन ये भी याद है कि इन सब के बाद वह अपने व्यवहार पर शर्मिंदा भी हुए थे!"उसने सपाट भाव से उत्तर दिया।

"तू !पागल हो गयी है? कुत्ते की पूंछ कभी सीधी… Continue

Added by Rahila on October 10, 2017 at 2:29pm — 8 Comments

परंपरा और गुलामी--

"कल की फोटो देखी मैंने, बहुत सुंदर दिख रही थीं आप", उसने ऑफिस में अपनी कलीग से कहा|

"अरे कल वो व्रत था ना, उसमें तो सजना बनता था", मुस्कुराते हुए वह बोली|

"अच्छा, तो आप भी यह सब मानती हैं, मुझे लगा कि आप आजाद ख्याल की हैं", उसके लहजे में व्यंग्य था या सहानुभूति, वह समझ नहीं पायी|

"ऐसी बात नहीं है, मैं तो बस परंपरा निभाने के लिए ऐसा कर लेती हूँ| वैसे इसी बहाने थोड़ी शॉपिंग भी हो जाती है, पति से गिफ्ट भी मिल जाता है", थोड़ी सफाई सी देती हुए वह बोली|

"मतलब परंपरा की आड़ में सब कुछ…

Continue

Added by विनय कुमार on October 10, 2017 at 11:46am — 6 Comments

ग़ज़ल --- ख़ुदकुशी बार बार कौन करे // दिनेश कुमार

2122---1212---112/22
.
ख़ुदकुशी बार बार कौन करे
आप का इन्तिज़ार कौन करे
.
आइना टूटने से डरता है
झूट को शर्मसार कौन करे
.
अपना मतलब निकालते हैं सब
बे-ग़रज़ हमसे प्यार कौन करे
.
नाव टूटी है हौसला ग़ायब
ग़म के दरिया को पार कौन करे
.
हम हक़ीक़त से मुँह चुराते हैं
ख़्वाब को तार तार कौन करे
.
उस्तरा बन्दरों के हाथ में है
इन को सर पर सवार कौन करे
.
( मौलिक व अप्रकाशित )

Added by दिनेश कुमार on October 10, 2017 at 5:33am — 8 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ५७

ग़ज़ल २२१ २१२१ १२२१ २१२ 

------------------------------------



लूटा जो तूने है मेरा, अरमान ही तो है

उजड़ा नहीं है घर मेरा, वीरान ही तो है



वादा खिलाफ़ी शोखी ए खूबाँ की है अदा

आएगा कल वो क़स्द ये इम्कान ही तो है



सीखेगा दिल के क़ायदे अपने हिसाब से

वो शोख़ संगदिल ज़रा नादान ही तो है



नज़रे करम कि हुब्ब के कुछ वलवले…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 9, 2017 at 11:31pm — 14 Comments

अपने अपने जज़्बात- लघुकथा

"हाय मम्मी, कैसी है, तबियत ठीक है ना तुम्हारी और दवा रोज ले रही हो ना", रोज के यही सवाल होते थे सिम्मी के और उसका रोज का जवाब।

"अब वीडियो काल किया है तो देख ही रही है मुझे, मैं एकदम ठीक हूँ। अच्छा अभी कितना बज रहा है वहाँ पर", उसने अपनी दीवाल घड़ी को देखते हुए पूछा।

"रोज तो बताती हूँ, बस साढ़े तीन घंटे आगे चलती है घड़ी यहाँ, अभी शाम के सिर्फ सात ही बजे हैं"।

"मुझे याद नहीं रहता, हमेशा उलझ जाती हूँ कि हमारी घड़ी आगे है या तुम्हारी। और मेहमान आए कि नहीं अभी, छोटू कैसा है", उसने भी…

Continue

Added by विनय कुमार on October 9, 2017 at 5:54pm — 12 Comments

शाम-ए-रंगीं  गुलबदन गुलफा़म है : सलीम रज़ा रीवा ग़ज़ल

2122 2122 212

..

शाम-ए-रंगीं  गुलबदन गुलफा़म है

मिल गए तुम जाम का क्या काम है

.. 

ये वज़ीफा़ मेरा सुब्ह-ओ-शाम है

मेरे लब पे सिर्फ तेरा नाम है

..

तू मिला मुझको सभी कुछ मिल गया

ये मुक़द्दर का बड़ा इनआम है



तुम हो सांसों में तुम्ही धड़कन में हो

ज़िन्दगी मेरी  तुम्हारे  नाम  है

..

हम किसी से दुश्मनी करते नहीं

दोस्ती तो प्यार  का  पैग़ाम है 

..

मेरा घर खुशिओं से है फूला फला 

मेरे रब का ये  बड़ा  इनआम… Continue

Added by SALIM RAZA REWA on October 9, 2017 at 3:30pm — 13 Comments

कुछ यादें बचपन की

बीत गया जो बचपन अपना, वह भी एक जमाना था

पल में हँसना पल में रोना, पल पल इक अफसाना था



बारिश में कागज की नैया, भैया रोज बनाते थे

बागों में तितली के पीछे, हमको वह दौड़ाते थे

रोने की थी वजह न कोई, हँसने के न बहाने थे

कमी नहीं थी किसी चीज की, सारे पास खजाने थे



चिन्ता फिक्र न कोई कल की, हर मौसम मस्ताना था

पल में हँसना पल में रोना, पल पल इक अफसाना था



जिधर निकलते थे हम यारों उधर दोस्त मिल जाते थे

गिल्ली डंडा और कबड्डी, फिर हम वहीं जमाते… Continue

Added by नाथ सोनांचली on October 9, 2017 at 1:00pm — 11 Comments

ग़ज़ल -ये’ बातचीत में’ खरसान बैर बू क्या है?(संशोधित)

१२१२  ११२२  १२१२  २२

सटीक बात की’, आक्षेप बाँधनू क्या है

ये’ बातचीत में’ खरसान बैर बू क्या है?

नया ज़माना’ नया है तमाम पैराहन

अगर पहन लिया’ वो वस्त्र, फ़ालतू क्या है |

हसीन मानता’ हूँ मैं उसे, नहीं शोले

नजाकतें जहाँ’ है इश्क, तुन्दखू क्या है |

किया करार बहुत आम से चुनावों में

वजीर बनके’ कही रहबरी, कि तू क्या है ?

हो’ वुध्दिमान मिला राज, अब करो कुछ भी  

उलट पलट करो’ खुद आप, गुफ्तगू क्या…

Continue

Added by Kalipad Prasad Mandal on October 9, 2017 at 8:30am — 8 Comments

ग़ज़ल -- ग़लती कर पछताए कौन // दिनेश कुमार

22__22__22__2
.
ग़लती कर पछताए कौन
ख़ुद से नज़र मिलाए कौन
.
अपनी अना मिटाए कौन
सच्ची अलख जगाए कौन
.
पिछले लेखे-जोखे हैं
अपने कौन पराए कौन
.
राम भी कब से भूखे हैं
झूठे बेर खिलाए कौन
.
कस्तूरी मिल जाएगी
ख़ुद में गहरे जाए कौन
.
तूफ़ां नाम का तूफ़ां है
लहरों से टकराए कौन
.
माज़ी माज़ी करें सभी
मुस्तक़बिल चमकाए कौन
.
( मौलिक व अप्रकाशित )

Added by दिनेश कुमार on October 9, 2017 at 6:18am — 20 Comments

विकल्प ( लघुकथा )

कुछ क्षण ही बीते होंगे उस कोहराम को मचे।इला की दृष्टि घड़ी पर गई।ऑफिस का समय हो रहा था।रोज की ही कहानी है सोच उसने अपने आँसू पौंछे और तुरन्त रसोई में पहुँच लंच' तैयार कर दफ़्तर को निकल गई।दिनभर मन उचाट ही रहा।शाम को लौटते हुए उसके कदम मायके की ओर मुड़ गये।

" अरे इला बेटी ! कैसी है ? आ भीतर आ ..."

" ठीक हूँ माँ।"इला ने एक ओर पर्स पटका और धम्म से सोफ़े पर बैठ गई।

" आज फिर हाथ उठाया कमल ने ?" इला अक़्सर तभी आती,जब उसका कमल से झगड़ा होता।ये बात इला की माँ बहुत अच्छे से जानती थी… Continue

Added by shashi bansal goyal on October 8, 2017 at 10:39pm — 4 Comments

बचपन

*बचपन*



न समंदर-सा गहरा,न पर्वत-सा ऊँचा



न ही लताओं-सा उलझा



जटिल तो हो ही नहीं सकता है



बचपन



क्योंकि बड़ा सादा-सा होता है



बचपन



बड़ा सीधा-सा होता है



बचपन



खुली उन्मक्त हवा-सा बहता है



करता है अठखेलियां



विभिन्न पत्तियों से



टहनियों से



कभी-कभी हिला देता है



वृक्ष को भी जड़ तक



क्योंकि बहती हवा-से



बचपन का विवेक इतना ही



होता… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 8, 2017 at 10:37pm — 4 Comments

ग़ज़ल...ज़िन्दगी मुस्कुराने लगी शाम से-बृजेश कुमार 'ब्रज'

मुतदारिक सालिम मुसम्मन बहर

212 212 212 212

आपकी याद आने लगी शाम से

ज़िन्दगी मुस्कुराने लगी शाम से



गुनगुनाती हुई चल रही है हवा

शाम भी गीत गाने लगी शाम से



चाँदनी रात से क्यों करें हम गिला

हर ख़ुशी झिलमिलाने लगी शाम से



बड़ रही प्यार की तिश्नगी हर घड़ी

हसरतें सिर उठाने लगी शाम से



ताल बेताल थे सुर बड़े बेसुरे

रागनी वो सुनाने लगी शाम से



आस दिल में लिये चल पड़ी बावरी

रात सपने सजाने लगी शाम से

(मौलिक एवं… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 8, 2017 at 7:00pm — 18 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
ग़ज़ल - चाहे आँखों लगी, आग तो आग है.. // --सौरभ

२१२ २१२ २१२ २१२

 

फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी

मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी

 

दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..

ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी

 

लौट आया शरद जान कर रात को

गुदगुदी-सी हुई, झुरझुरी खिल उठी

 

उनकी यादों पगी आँखें झुकती गयीं

किन्तु आँखो में उमगी नमी खिल उठी

 

है मुआ ढीठ भी.. बेतकल्लुफ़ पवन..

सोचती-सोचती ओढ़नी खिल उठी

 

चाहे आँखों लगी.. आग तो आग है..

है मगर प्यार की, हर घड़ी खिल…

Continue

Added by Saurabh Pandey on October 8, 2017 at 1:00pm — 56 Comments

लघुकथा - मंत्री जी का कुत्ता

लघुकथा - मंत्री जी का कुत्ता –

कलुआ ने जब से होश संभाला था वह मंत्री जी के ही साथ था।सुबह से रात तक, हर काम का भागीदार होता था।

आज मंत्री जी का दौरा उसी के गाँव में था।बड़ी दुविधा के साथ बरसों बाद गाँव आया था।लगभग सभी लोग उसे भूल चुके थे।मगर उसके बचपन के सखा हरिया ने उसे पहचान लिया।

"अरे कालीचरण भैया आप"?

"हरीराम, तुम पहचान लिये हमका"।

"क्या बात करते हो भैया, हम आपको भूल सकते हैं।आज हम आपकी वजह से जिंदा हैं।बचपन में भेड़िया से भिड़ गये थे, हमको बचाने के लिये"।

हरिया… Continue

Added by TEJ VEER SINGH on October 8, 2017 at 12:02pm — 10 Comments

देखो कैसे-कैसे गीत...

बिन पायल के,

साज बिना ये,

बाज रहा संगीत।

देखो कैसे-कैसे गीत।।



राग बसंती, तान-तराने

सुमधुर गायन सकल घराने।

ये सोच रहा अनजाने,

मेरे ही मनमीत।

देखो कैसे-कैसे गीत।।



सांझ-सबेरे प्रियतम मेरे

तरसाओ न चित-चोर चितेरे।

नयना बरसे अश्रु मेरे,

बिन प्रियतम ये प्रीत।

देखो कैसे-कैसे गीत।।



मधुबन की ये संगत सारी

बिन पायल सब बाजी हारी।

अब कौन कहे मतवारी,

हारकर ये जीत।

देखो कैसे-कैसे गीत।।

"मौलिक व…

Continue

Added by BS Gauniya on October 8, 2017 at 8:15am — 6 Comments

लघुकथा- भेड़िया

" क्या कहा ,हमेशा के लिए आ गई है । "
"हाँ !हाँ ! हाँ !! कितनी बार कहूँ मैं हमेशा के लिए आ गई हूँ ।" श्वेता ने झुँझलाकर कहा ।
"आखिर क्यों बेटी ?कुछ तो वजह होगी ?"
"वही भेड़िया ।अब वो मौका पाकर मेरा शिकार करना चाहता है । "
अब माँ को अच्छे से समझ में आ गया । भेड़िया और कोई नहीं श्वेता का देवर है क्योंकि वह पहले भी कई बार माँ को बतला चुकी है ।

मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on October 7, 2017 at 11:30pm — 7 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
चाँद निकला छत पे किसकी कर रहा दीदार कौन(ग़ज़ल 'राज')

बहर-ए-रमल मुसम्मिन मक्सूर व मह्जूफ़

2122 2122 2122 2121

किसके चेह्रे पर लिखा है कौन दुश्मन यार कौन 

क्या पता है आड में गुल की  छुपा है ख़ार कौन

हक़ है किसका सिर पे पहने है मगर दस्तार कौन 

चाँद निकला छत पे किसकी कर रहा दीदार कौन

मतलबी हैं आज रिश्ते खो गया है एतबार 

इस जहां में दिल से सच्चा आज करता प्यार कौन

मर गया  है मुफ़्लिसी में भूख से देखो अनाथ 

सब ही  खाते थे  तरस लेकिन उठाता भार कौन

पेट भरने के लिए…

Continue

Added by rajesh kumari on October 7, 2017 at 9:30pm — 15 Comments

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर दोहे हुए हैं।हार्दिक बधाई। भाई रामबली जी का कथन उचित है।…"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आदरणीय रामबली जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । बात  आपकी सही है रिद्म में…"
Tuesday
रामबली गुप्ता commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"बड़े ही सुंदर दोहे हुए हैं भाई जी लेकिन चावल और भात दोनों एक ही बात है। सम्भव हो तो भात की जगह दाल…"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई लक्ष्मण धामी जी"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई चेतन प्रकाश जी"
Monday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय, सुशील सरना जी,नमस्कार, पहली बार आपकी पोस्ट किसी ओ. बी. ओ. के किसी आयोजन में दृष्टिगोचर हुई।…"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . रिश्ते
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय "
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार "
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . संबंध
"आदरणीय रामबली जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार ।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"रोला छंद . . . . हृदय न माने बात, कभी वो काम न करना ।सदा सत्य के साथ , राह  पर …"
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service