बिनम्र भाव से बोले रावण
क्या मुझे जलाने आए हो
ज्ञानी पंडित भी साथ न लाए हो
मेरी मुक्ति कैसे होगी ?
मेरी मुक्ति नहीं होती
तभी तो बच जाता हूँ
सबसे अधिक बार जलने का
गिनीज़ वर्ल्ड रिकार्ड बनाता हूँ
Added by Deepak Sharma Kuluvi on October 9, 2012 at 11:00am — 5 Comments
ऐ मेरे प्रांगण के राजा
क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े
झंझावत जो सह जाते थे
जीवन के वो बड़े बड़े
क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े ?
बरसों से जो दो परिंदे
इस कोतर में रहते थे
दर्द अगर उनको होता
तेरे ही अश्रु बहते थे
उड़ गए वो तुझे छोड़ कर
अपनी धुन पर अड़े अड़े
क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े ?
इस जीवन की रीत यही है
सुर बिना संगीत यही है
उनको इक दिन जाना था
जीवन धर्म निभाना था
राजा जनक भी खड़े…
ContinueAdded by rajesh kumari on October 9, 2012 at 9:16am — 21 Comments
ना गर्मी में ताप है, ना सर्दी में शीत,
जाने कैसा दौर है, कोई नियम ना रीत |
गूंगे बहरे पा रहे अंधों से सम्मान,
ग़ालिब भूखे पेट है तुलसी नंगी पीठ |
जब पैसा साहित्य का बन जाता है धर्म,
ग़ज़लें बर्तन मांजती पानी भरते गीत |
Added by ajay sharma on October 8, 2012 at 10:00pm — 4 Comments
आह हस्रत तिरी कि ज़ीस्त जावेदाँ न हुई
यूँकि ये मरके भी आज़ादीका उन्वाँ न हुई
तू जो इक रात मेरे पास मेहमाँ न हुई
ज़िंदगी आग थी पे शोलाबदामाँ न हुई
ज़िंदगी तेरे उजालों से दरख्शां न हुई
ये ज़मीं चाँद-सितारोंकी कहकशाँ न हुई
बात ये है कि मिरी चाह कामराँ न हुई
एक आंधी थी सरेराह जो तूफाँ न हुई
दौरेमौजूदा में आज़ादियाँ आईं लेकिन
लैला-मजनूँकी तरह और दास्ताँ न हुई
याद तुझको न करूँ…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 8, 2012 at 9:00pm — 2 Comments
(चार चरण : विषम चरण १३
मात्रा व जगण निषेध / सम चरण ११ मात्रा)
आदिशक्ति है नारि ही, झुक जाते भगवान.
नारी सबकी मातु है, सब जन पुत्र समान..
शक्तिरूप में ही वही, नहीं अल्प अभिमान.
परमेश्वर के रूप में, पिय को देती मान..
ताने सहकर नित्य ही, बनी रहे अनजान.
सदा समर्पित भाव से, सबका रखती ध्यान..
जान बूझ बंधन बँधे, बचपन बाँधे पित्र.
यौवन में पिय बाँधते, जरा अवस्था पुत्र..
ईश्वर ही नर…
ContinueAdded by Er. Ambarish Srivastava on October 8, 2012 at 1:13am — 13 Comments
(चार चरण : विषम चरण
१२ मात्रा व सम चरण ७ मात्रा सम चरणों का अंत गुरु लघु से )
प्रात जागती नारी, नहिं आराम.
साथ नौकरी करती, है सब काम..
प्यार शक्ति दे तभी, उठाती भार.
नारी बिन यह दुनिया, है लाचार..
प्रेम स्नेह की करती, जग में वृष्टि.
पूजित नारी जग में, जिससे सृष्टि..
त्याग तपस्या सेवा, तेरे नाम.
शक्ति स्वरूपा नारी, तुझे प्रणाम..
सत्ता मद में गर्वित, नर है आज.
अखिल विश्व…
ContinueAdded by Er. Ambarish Srivastava on October 8, 2012 at 1:00am — 21 Comments
हमने शेरों को ठिकाने दिये हैं
आज गीदड़ हमें डराने लगे हैं
जिनके हाथों में रहनुमाई दी थी
बस्तियाँ हमारी वो जलाने लगे हैं
जिन्हे धर्म का मतलब नहीं पता
लोग क़ाज़ी उन्हें बनाने लगे हैं
लूट-खसोट, धोखा जिनका ईमान
वो तहज़ीब हमको सिखाने लगे हैं
जो आए तो थे ख़बर हमारी लेने
हौंसला देख ख़ुद लड़खड़ाने लगे हैं
Added by नादिर ख़ान on October 7, 2012 at 11:30pm — 10 Comments
चाहा था दिल ने जिसको वो दिलदार कब मिला
सब कुछ मिला जहाँ में मगर प्यार कब मिला
तनहा ही ते किये हैं ये पुरखार रास्ते
इस जीस्त के सफ़र में कोई यार कब मिला
बाज़ार से भी गुज़रे हैं हाथों में दिल लिए
लेकिन हमारे दिल को खरीदार कब मिला
उल्फत में जां भी हंस के लुटा देते हम मगर
हम को वफ़ा का कोई तलबगार कब मिला
तनहा ही लड़ रहा हूँ हालाते जीस्त से
हसरत को जिंदगी में मददगार कब मिला
Added by SHARIF AHMED QADRI "HASRAT" on October 6, 2012 at 10:54pm — 8 Comments
शब्द-तर्पण:
माँ-पापा
संजीव 'सलिल'
*
माँ थीं आँचल, लोरी, गोदी, कंधा-उँगली थे पापाजी.
माँ थीं मंजन, दूध-कलेवा, स्नान-ध्यान, पूजन पापाजी..
*
माँ अक्षर, पापा थे पुस्तक, माँ रामायण, पापा गीता.
धूप सूर्य, चाँदनी चाँद, चौपाई माँ, दोहा पापाजी..
*
बाती-दीपक, भजन-आरती, तुलसी-चौरा, परछी आँगन.
कथ्य-बिम्ब, रस-भाव, छंद-लय, सुर-सरगम थे माँ-पापाजी..
*
माँ ममता, पापा अनुशासन, श्वास-आस, सुख-हर्ष अनूठे.
नाद-थाप से, दिल-दिमाग से, माँ छाया तरु थे…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 6, 2012 at 3:01pm — 9 Comments
======ग़ज़ल========
बह्रे मुतकारिब मुसम्मन् सालिम
वजन- १२२ १२२ १२२ १२२
छुड़ा हाथ अपना वो जाने लगे हैं
मनाने में जिनको जमाने लगे हैं
लिया था ये वादा गिराना न आँसू
वो यादों में आ कर रुलाने लगे हैं…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on October 6, 2012 at 2:00pm — 6 Comments
लगेंगी सदियाँ पाने में ......
Added by shalini kaushik on October 5, 2012 at 11:56pm — 4 Comments
यहाँ से दूर कोई आसमानों में टहलता है
अगर उसको बुलायें हम तो पल में आके मिलता है।।
वो कैसा है कहां है किस जगह दुनियां में मिलता है,
तेरे अन्दर,मेरे अन्दर वही आकर मचलता है।
अगर पूछे कोई जीवन क्या है,तो ये कहेंगे हम,
तरलता है,सरलता है,विफलता है,सफलता है।
हज़ारों ख़्वाहिशों के जंगलों में ले गयीं जैसे,
तुम्हारी आँखों में देखें तो सिमसिम कोई खुलता है।
ज़मीं ने जिसको अपनी बाँहों में भरकर मुहब्बत की,
किनारे काटने को फिर वही…
Added by सूबे सिंह सुजान on October 5, 2012 at 8:00pm — 12 Comments
शोर कैसा भी हो, मेरे दिल को, अब भाता नहीं |
चहचहाना भी परिंदों का, सुना जाता नहीं ||
दावा करते थे, मेरा होने का,पहले जो कभी |
नाम मेंरा उनके लब पर, आज-कल आता नहीं ||
हूँ चमन में,आज भी, पर दिल में, जंगल आ बसा |
Added by Shashi Mehra on October 5, 2012 at 7:22pm — 1 Comment
आंखें करे शिकायत किनसे
वही व्यथा क्यों ढोते हैं
बीज वपन तो करता मन है
वे नाहक क्यों रोते हैं
पलकों की बंदिश में हरदम
क्यों वे रोके जाते हैं
और तड़पते देह यज्ञ…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on October 5, 2012 at 3:55pm — 7 Comments
इक ग़ज़ल पेशेखिदमत है दोस्तों आप सभी के जानिब
बहर है--> मुजारे मुसमन अखरब मकफूफ महजूफ
वजन है--> २२१-२१२१-१२२१-२१२
हिंदी का रंग आज यूँ रंगीन हो गया
भारत बदल के जैसे अभी चीन हो गया
मुझसे बड़ा गुनाह ये संगीन हो गया
दिल टूटने…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on October 5, 2012 at 2:00pm — 12 Comments
अपने नाम को सार्थक करती हुई कजरारे नयनों वाली सुनयना अपनी प्यारी बहन आरती से बहुत प्यार करती थी |किसी हादसे में आरती के नयनों की ज्योति चली गई थी लेकिन सुनयना ने जिंदगी में उसको कभी भी आँखों की कमी महसूस नही होने दी | हर वक्त वह साये की तरह उसके साथ रहती,उसकी हर जरूरत को वह अपनी समझ कर पूरा करने की कोशिश में लगी रहती |एक दिन सुनयना को बुखार आ गया जो उतरने का नाम ही नही ले रहा था ,उसके खून की जांच करवाने पर पता चला कि उसे कैंसर है ,उसके मम्मी पापा के पैरों तले तो जमीन ही खिसक गई ,लेकिन सुनयना…
ContinueAdded by Rekha Joshi on October 5, 2012 at 1:13pm — 10 Comments
कैद कब तक रहोगे अपनी ही तन्हाइयों में
ढूंढें मिलते नहीं ज़िंदा बशर परछाइयों में
हक़का रिश्ता ज़मींसे है, ये खंडहर कहते हैं
सब्ज़े होते नहीं अफ्लाक की बालाइयों में
खुशबूएं जम गईं गुलनार के पैकर में ढलके
कल की बादे सबा क्यूँ खोजते पुरवाइयों में
हम हैं जंगल के फूल तख़लिएमें खिलते हैं
ज़र्द पड़ जाते हैं गुलदस्ते की रानाइयों में
फूल वा होते हैं, निकहत बिखर ही जाती है
फर्क कुछ भी नहीं है प्यार और…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 5, 2012 at 11:46am — 10 Comments
डाली हरसिंगार की झूम उठी
मनमोहक फूलों के बोझ से
बल खाती हुई छेड़ जो रही थी
उसे ईर्ष्यालु सुगन्धित पवन
झर रहे थे पुहुप आलौकिक
दिल ही दिल में मगन
हर कोई चुन रहा था
सुखद स्वप्न बुन रहा था
अलसाई उनींदी पलकों
के मंच पर
ये द्रश्य चल रहा था
मेरा भी मन ललचाया
एक पुष्प उठाया
अंजुरी में सजाया
तिलस्मी पुष्प आह !
ताजमहल रूप उभर आया
अद्वित्य ,अद्दभुत
मेरे स्वयं ने मुझे समझाया
ये तेरा नहीं हो सकता
तुमने गलत…
Added by rajesh kumari on October 5, 2012 at 11:30am — 11 Comments
इस रक्त के संचार पे अधिकार तुम्हारा है
Added by seema agrawal on October 5, 2012 at 3:00am — 15 Comments
न जाने कबसे,
जारी है ये वहशत/
ये खिलवाड़ लफ़्ज़ों से,
न जाने कब छुआ था,
कागज़ का बदन स्याही से मैंने?
उसके जाने के बाद तो नहीं!
उसके मिलने से पहले भी नहीं!
वहशत है तो,
आगाज़ खुशियों से हुआ होगा/
शायद तब...जब
उसने नज़रों से छुआ होगा/
लब्ज़ बस रास्ते ही होंगे,
मंजिल बस वो होगी,
अहसास बेताब होंगे/
हसरतें मचतली होंगी/
दिल बहकता होगा,
धडकनें संभलती होंगी/
बहुत वक़्त बीत गया है
बहुत सफ़र बीत गया है
याद भी नहीं मुझे
न…
Added by Pushyamitra Upadhyay on October 4, 2012 at 10:32pm — 4 Comments
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