ट्राफ़िक पुलिस को देख उसे आईडिया आया । उसने झट अपनी बाईक किनारे लगाई, हेलमेट सिर से उतारकर बाईक के पीछे लटकाया । उस नोट बंदी के मारे ने, धड़धड़ाते हुये बाईक लेजाकर इन्स्पेक्टर के सामने रोकी ।
“सर, मेरा चालान काटिये मै हेल्मेट नही पहना हूं ।“ वह बोला ।
इन्स्पेक्टर ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा । पूछा – “दो सौ रुपये छुट्टे है ?”
उसने इन्कार मे सर हिलाया ।
“ठीक है, जब छुट्टे होंगे तब आना ।“ इन्स्पेक्टर ने कहा ।
“सर, आज ही …”
“ऐसा है बेटा । अपना हेल्मेट सिर पे…
ContinueAdded by Mirza Hafiz Baig on November 21, 2016 at 1:09am — 5 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 20, 2016 at 4:30pm — 16 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 20, 2016 at 4:18pm — 7 Comments
ग़ज़ल
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212 -212 -2121 /212
उसपे वारा है जीवन तमाम ।
जिस में मौजूद हैं फ़न तमाम ।
सख़्त लहजे का अंजाम है
हो गए तुझ से बद ज़न तमाम ।
उनको देखूंगा जब तक नहीं
दिल की होगी न धड़कन तमाम।
अबतो आ जाओ बन कर बहार
उजड़ा उजड़ा है गुलशन तमाम ।
किस को सौंपें क़यादत भला
रहबरों में हैं रहज़न तमाम ।
पूछना है तो बिजली से पूछ
किस ने फूंके नशेमन तमाम ।
इश्क़ तस्दीक़ आसाँ…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on November 20, 2016 at 2:25pm — 10 Comments
बह्र : १२२२ १२२२ १२२
उतर जाए अगर झूठी त्वचा तो।
सभी हैं एक से साबित हुआ, तो।
शरीअत में हुई झूठी कथा, तो।
न मर कर भी दिखा मुझको ख़ुदा, तो।
वो दोहों को ही दुनिया मानता है,
कहा गर जिंदगी ने सोरठा, तो।
समझदारी है उससे दूर जाना,
अगर हो बैल कोई मरखना तो।
जिसे मशरूम का हो मानते तुम,
किसी मज़लूम का हो शोरबा, तो।
न तुम ज़िन्दा न तुममें रूह ‘सज्जन’
किसी दिन गर यही…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 19, 2016 at 10:08pm — 10 Comments
2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
इंसानी फितरत के जलवे दिन ये कैसे आये हैं
सन्नाटा गलियों में छाया संगीनों के साये हैं
चप्पे-चप्पे पर दिखता है आतुर सैनिक का पहरा
धरती की रक्षा करने की शत-शत कसमे खाये हैं
कुछ तो अजगुत कहता है यह सघन सुरक्षा का घेरा
क्या फिर से तारामंडल में घन संकट के छाये हैं
पोथी लेकर भोली बाला घूम रही वीराने में
अक्षर ने शब्दों से मिल कर गीत सुहाने गाये हैं
खौल रहा है खून वतन…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 19, 2016 at 7:27pm — 4 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 19, 2016 at 4:22pm — 8 Comments
Added by Ravi Prakash on November 19, 2016 at 2:24pm — 6 Comments
बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती ।
आखिर वे लोग आ पहुंचे तो बकरे की अम्मा रोने लगी “देखिये आराम से … ज़्यादा तकलीफ़ तो नहीं होगी न … बड़े प्यार से पाला है …”
“आप चिंता न करें हमारे कसाई हाई स्किल्ड हैं …” वे बोले ।
“फ़िर भी …” वह विनती करने लगी ।
“देखिये ! हम किसी पर अत्याचार नहीं करते । हमारी व्यवस्था भी लोकतांत्रिक है । हम हर एक बकरे को वोट का अधिकार देते हैं । हमारे बकरे अपना कसाई खुद चुनते हैं …”
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Mirza Hafiz Baig on November 19, 2016 at 9:06am — 8 Comments
कालाधन भ्रष्टाचार की नोटबंदी रूपी दीवार की आड़ लिए हुए सफ़ेद धन की गुलाबी मुद्रा को शर्माते-मुस्कराते देख कर बोला- "तुम्हें आना ही होगा एक दिन मेरे ही पास!"
"अभी या रात के अँधेरे में!"
"जब मौक़ा मिले तभी; मैं तुम में या तुम मुझ में समा जाओगी!"
"लोकतंत्र के इस बुढ़ापे में भी!" उसने शरारती अंदाज़ में कहा।
"हाँ, काले को सफ़ेद और सफ़ेद को काले में बदलने के तज़ुर्बे का यही तक़ाज़ा है!" कालेधन ने आत्मविश्वास के साथ कहा।
उसने कालेधन का हाथ थामा और स्वयं के वजूद को भूल सी…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 18, 2016 at 11:30pm — 8 Comments
गाँव में चोरों का प्रकोप बढ़ रहा था। लोग परेशान थे।आये दिन किसी-न-किसी घर में चोरी हो जा रही थी। ग्राम प्रधान ने नई योजना बनाई। पूरा गाँव स्थिति से निपटने को तैयार था।रात चढ़े कालू सेठ के घर चोर पहुँचे।घर का मौन उन्हें ज्यादा मुखर लगा,कालू सेठ का चिर परिचित खर्राटा जो सुनने को नहीं मिला। वे भागने लगे।पूरा गाँव होहकारा देकर पीछे पड़ गया। पर चोर तो चोर थे।निकल गए दूर तक,चोरोंवाले गाँव की तरफ।प्रधान जी के नेतृत्व में उनके गाँव का जत्था आगे बढ़ता जा रहा था।पर यह क्या? थोड़ा ही आगे जाने पर वे…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on November 18, 2016 at 6:30pm — 4 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 17, 2016 at 9:00pm — 4 Comments
"अरे जल्दी घर आओ. माँजी वापस आ गयी हैं| मैंने पूछा भी लेकिन कुछ कहा नहीं उन्होंने", पत्नी का फोन सुनते ही उसका माथा ठनका|
"ठीक है, तुम देखो, मैं जल्दी आता हूँ", कहकर उसने फोन रख दिया| उसको भी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक माँ घर क्यों आ गयी| अभी तीन महीने पहले ही तो उनको वृद्धाश्रम में छोड़ कर आया था|
इसी उधेड़बुन में डूबा हुआ वह जल्दी जल्दी घर पहुंचा| पत्नी भी अंदर कुछ परेशान खड़ी थी, एक तो वैसे ही नोट बंदी के चलते हालत पतली थी, उसपर माँ भी आ गयी|
"माँ, सब ठीक तो है वहाँ", और क्या…
Added by विनय कुमार on November 17, 2016 at 8:06pm — No Comments
तृषित नज़र .....
तृषित नज़र अवसन्न अधर
मौन भाव सब हुए प्रखर
नयन घटों की हलचल में
मधु पल सारे गए बिखर
तृषित नज़र अवसन्न अधर
मौन भाव सब हुए प्रखर
देह दिगम्बर रैन निहारे
बिंब चुंबन के देह सँवारे
प्रेम बंध सब चूर हो गए
स्वप्न वात में गए बिखर
तृषित नज़र अवसन्न अधर
मौन भाव सब हुए प्रखर
निर्झर बन बही विरह वेदना
अमृत पल कुछ रहे शेष न
श्वास श्वास से…
Added by Sushil Sarna on November 17, 2016 at 5:33pm — 4 Comments
देखो तुम भी गुनगुनाओगे जब बात समझ में आएगी
देखो तुम भी मुस्कुराओगे जब बात समझ में आएगी
कोई भी अकेला कैसे करे, इस अंधियारे से सबको दूर
तुम साथ चले ही आओगे, जब बात समझ में आएगी
गर लक्ष्य बड़ा हो जीवन में, देनी पड़ती है क़ुरबानी
खुशियों के दीप जलाओगे, जब बात समझ में आएगी
हर काम सही से हो जाए, क्यूँ रखते लोगों से उम्मीद
अपने भी फ़र्ज़ निभाओगे, जब बात समझ में आएगी
इस वक़्त अगर ना बन पाए इस तब्दीली का इक हिस्सा
आगे चलकर…
Added by विनय कुमार on November 17, 2016 at 3:32pm — 8 Comments
एक करतब दूसरे करतब से भारी देखकर
मुल्क भी हैरान है ऐसा मदारी देखकर,
जिनके चेहरे साफ दिखते हैं मगर दामन नहीं
शक उन्हें भी है तेरी ईमानदारी देखकर,
उम्रभर जो भी कमाया मिल गया सब खाक में
चढ गया फांसी के फंदे पर उधारी देखकर,
मुल्क में हालात कैसे हैं पता चल जाएगा
देखकर कश्मीर या कन्याकुमारी देखकर,
सर्द मौसम है यहां तो धूप भी बिकने लगी
हो रही हैरत तेरी दूकानदारी देखकर,
इस…
ContinueAdded by atul kushwah on November 16, 2016 at 5:00pm — 16 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on November 16, 2016 at 9:15am — 4 Comments
आहुति – लघुकथा -
गोविंदी को आज चार दिन हो गये बैंकों के चक्कर काटते हुए। हज़ार हज़ार के चार नोट लेकर घूम रही थी। ना कोई सुनने वाला, ना कोई मदद करने वाला। तीन साल के इकलौते बच्चे को पड़ोसिन के सहारे छोड़ कर आती थी। एक एक पैसे को मुँह ताक रही थी। उसका मर्द ठेके पर मजदूरी करता था। एक दिन भी नागा करना परिवार पर आर्थिक बज्रपात होता। घर खर्च चलाना दूभर हो रहा था। मगर आज गोविंदी कुछ मन में ठान कर आई थी। बैंक की लाइन में लगे हुए लोगों से बड़ बड़ा रही थी,
"भाई, कोई ऐसी तरक़ीब बताओ जिससे आज…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on November 15, 2016 at 6:43pm — 11 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 15, 2016 at 5:50pm — 4 Comments
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