कभी हँसते कभी रोते समय की कानों में आहट
अरमानों की उतरती-चढ़ती लम्बी परछाइयाँ
आकारहीन अँधेरे में अंधों की तरह
अभी भी हम एक-दूसरे को खोजते हैं
इस खोज में तेरे आँसुओं ने मुझको
बहुत दिया
इतना दिया कि मुझसे आज तक
झेला नहीं गया
काँपती परछाइयों में तुम आई, हर बार
मन का पलस्तर उखड़ गया
स्वर तुम्हारे, कभी स्वर मेरे रुंधे हुए
खोखले हुए
तुमको, कभी मुझको सुनाई न दिए
पर सुन लेती हैं…
ContinueAdded by vijay nikore on November 15, 2016 at 3:08pm — 10 Comments
इस घर से .... (200 वीं प्रस्तुति )
कितना
इठलाती थी
शोर मचाती थी
मोहल्ले की
नींद उड़ाती थी
आज
उदास है
स्पर्श को
बेताब है
आहटें
शून्य हैं
अपनी शून्यता के साथ
एक विधवा से
अहसासों को समेटे
झूल रही है
दरवाज़े पर
अकेली
सांकल
शायद
इस घर से
इस घर को
घर बनाने वाला
चला गया है
इक
बज़ुर्ग
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on November 15, 2016 at 1:39pm — 14 Comments
1222 1222 1222 1222
तेरे जलवे से वाकिफ हूँ तेरा दीदार करता हूँ ।
मुहब्बत मैं तुझे सज़दा यहां सौ बार करता हूँ ।।
नज़र बहकी फिजाओं में अदाएं भी हुई कमसिन ।
बड़ी मशहूर हस्ती हो नया इकरार करता हूँ ।।
न जाने कौन सी मिट्टी खुदा ने फिर तराशा है ।
है कारीगर बड़ा बेहतर बहुत ऐतबार करता हूँ ।।
नई आबो हवा में वो कली खिल जायेगी यारों ।
गुलाबी रोशनाई से लिखा रुख़सार करता हूँ ।।
यहां बेदर्द ख्वाहिश है वहां कातिल निगाहें हैं ।
बड़ी…
Added by Naveen Mani Tripathi on November 15, 2016 at 2:00am — 5 Comments
2122 2122 2122 212
दर्द लिखता था मैं अपना और तराना बन गया|
इस तरह लिखने का देखो इक बहाना बन गया|
मैं परिंदा था अकेला मस्त रहता था यहाँ
एक दिन नज़रों का उनकी मैं निशाना बन गया |
है बड़ा कमजर्फ वो भी देखिये इस दौर में ,
डालकर हमको कफस में ख़ुद सयाना बन गया|
दासतां मत पूछिये हमसे हमारे प्यार की
काम उनका रूठना अपना मनाना बन गया|
जिंदगी की राह में मैं भी अकेला था मगर,
हमसफ़र…
ContinueAdded by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on November 14, 2016 at 10:00pm — 10 Comments
बेपर्दा ....
तमाम शब्
अधूरी सी
इक नींद
ज़हन की
अंगड़ाई में
छुपाये रहती हूँ
इक *मौहूम सी
मुस्कान
लबों पे
थिरकती रहती है
सुर्ख रूख़सारों पे
ज़िंदा है
वो तारीकी की ओट में लिया
इक गर्म अहसास का
नर्म बोसा
डर लगता है
सहर की शरर
मेरी हया को
बेपर्दा न कर दे
जिसे छुपाया
अपनी साँसों से भी
कहीं ज़माने को
वो
ख़बर न कर…
Added by Sushil Sarna on November 14, 2016 at 3:30pm — 6 Comments
“शर्म नहीं आती ?”
“शर्म क्यों आयेगी… ?” वह बोला- “अपने पैसे से पीता हूं । भीख नहीं मांगता । मुझे क्यों शर्म आयेगी ?“
मैने भिखारी से कहा- “हट्टे कट्टे होकर भीख मांगते हो शर्म नहीं आती ?”
“शर्म क्यों आयेगी भीख मांगता हूं , कोयी चोरी तो नही करता । शर्म तो चोर को आनी चाहिये ।“
मै चोर के पास गया ।
“शर्म नहीं आती ?” मैने कहा ।
“क्यों भाई ? मुझे शर्म क्यों आयेगी ? कोई मुफ़्त मे करता हूं… निछावर देना पड़ता है । कहां से दूंगा ? धंधा है भाई , कमाऊंगा नही तो…
ContinueAdded by Mirza Hafiz Baig on November 14, 2016 at 11:28am — 3 Comments
अँधेरे को चीर कर ज्वाला
चमक रही है दीप-माला
नज़र उठाके दखो झोपडी, महल के पीछे वाली
कहो, झोपडी में कैसे मने दिवाली |…
ContinueAdded by Kalipad Prasad Mandal on November 13, 2016 at 3:30pm — 1 Comment
Added by Manan Kumar singh on November 13, 2016 at 12:56pm — 2 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 13, 2016 at 9:52am — 2 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 13, 2016 at 7:00am — 3 Comments
रात के सन्नाटे में
कहते हैं
आज भी रोती है वह नदी
जिन्होंने भारत में
पूर्व से पश्चिम की ओर
ऊंचाइयों पर
पथरीले कगारों के बीच से
बहती उस एक मात्र पावन चिर-कुमारिका
नदी का आर्तनाद कभी सुना है
जिन्होंने की है कभी उसकी
दारुण परिक्रमा
जो विश्व में
केवल इसी एक नदी की होती है ,
हुयी है और आगे होगी भी
वे विश्वास से कहते है -
‘इस नदी में नहीं सुनायी देती
रात में…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 12, 2016 at 8:00pm — 11 Comments
Added by Gurpreet Singh jammu on November 12, 2016 at 7:30pm — 2 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 12, 2016 at 6:55pm — 6 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 12, 2016 at 3:00pm — 6 Comments
उदास रात के साये में ख़्वाब पहने हुए
निकल पड़ा है मुसाफ़िर अज़ाब पहने हुए
डरा सकेगी नहीं जुगनुओं को तारीकी
निकल पड़े हैं वो तो आफ़ताब पहने हुए
नज़र-नज़र से मिली और खा गये धोक़ा
वो दिलफ़रेब मिली थी नक़ाब पहने हुए
यहाँ उदास मैं भी हूँ, वहाँ उदास वो भी है
बहार भी है ख़िज़ां के गुलाब पहने हुए
लो आ गया मिरा महबूब फिर ख़्यालों में
''सितारे ओढ़े हुए माहताब पहने हुए''
मौलिक व…
ContinueAdded by दीपक कुमार on November 12, 2016 at 9:30am — 4 Comments
मौसम तो कमोबेश वही था लेकिन घर का माहौल कुछ बदला बदला सा लग रहा था| ऑफिस से घर आने में लगभग एक घंटा लग जाता था इसलिए इस एक घंटे में देश दुनियां में क्या हुआ, इसका पता शर्माजी को घर पहुँचने पर ही लगता था| लेकिन घर पहुँचते ही टी वी खोलने का मतलब शेर के मुंह में हाथ डालना होता था| शर्माजी का घर पहुँचने का समय वैसे ही कुछ ऐसा था कि श्रीमतीजी का दिमाग चढ़ा ही रहता था और उसपर कहीं गलती से पहुँचते ही टी वी खोल दिया तो फिर पता नहीं क्या क्या सुनना पड़ जाता था| उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ, घर पहुँचते…
Added by विनय कुमार on November 11, 2016 at 10:24pm — 4 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 11, 2016 at 9:30pm — 2 Comments
एक सामयिक ग़ज़ल.....
(१२२ १२२ १२२ १२)
समाचार आया नए नोट का
गिरा भाव अंजीर-अखरोट का |
दवा हो गई बंद जिस रात से
हुआ इल्म फौरन उन्हें चोट का |
मुखौटों में नीयत नहीं छुप सकी
सभी को पता चल गया खोट का |
जमानत के लाले उन्हें पड़ गए
भरोसा सदा था जिन्हें वोट का |
नवम्बर महीना बना जनवरी
उड़ा रंग नायाब-से कोट का |
मकां काँच के हो गए हैं अरुण
नहीं आसरा रह गया ओट का…
ContinueAdded by अरुण कुमार निगम on November 11, 2016 at 4:30pm — 4 Comments
बह्र2122 2122 212
यार गर फिर बावफ़ा हो जाएगा
प्यार मेरा फिर हरा हो जाएगा।
साथ मिल कोशिश करें सब ही सही
तो जहाँ फिर खुशनुमा हो जाएगा।
हाँ पकड़ कर बह्र को गर तुम चलो
तो गजल कहना भला हो जाएगा।
हो अकेले में जरा गर हौंसला
फिर तो पीछे काफिला हो जाएगा।
हो सही हिम्मत खुदी में दोस्तो
साथ में फिर तो खुदा हो जाएगा।
साथ रहकर बात हमदम से करो
छोड़ते ही बेवफ़ा हो जाएगा।
कुछ मुहब्बत जो करें कुदरत से…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 10, 2016 at 1:30pm — 4 Comments
Added by Manan Kumar singh on November 10, 2016 at 11:54am — 4 Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |