बाद ए सबा
पूछा जो किसी ने बावरी बाद ए सबा से
उफ़्ताँ व खेज़ाँ है तू ए बावली हवा
टकराई है तू बारहा बेरहम दीवारों से
खटखटाए हैं कितने बंद दरवाज़े भी तूने
आज बता तो ज़रा तेरी मंज़िल कहाँ है…
ContinueAdded by vijay nikore on January 9, 2019 at 1:05pm — 4 Comments
2122/1212/22
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हार तूफ़ान से न मानी है
कश्ती ने तैरने कि ठानी है
मेरी पलकों पे ये जो पानी है
ऐ मुहब्बत तेरी निशानी है
हमने माना बहुत पुरानी है
पर बहुत ख़ूब ये कहानी है
दिल पे चस्पां है जो नही मिटती
यूूँ तेरी हर शबीह फानी है
राख मैं कर चुका तेरे ख़त को
याद लेकिन मुझे ज़बानी है
हर किसी दर पे ये नही झुकती
मेरी दस्तार ख़ानदानी है
पहली बारिश है तिफ़्ल बन…
Added by Gajendra shrotriya on January 9, 2019 at 11:59am — 16 Comments
(१२१२ ११२२ १२१२ २२/११२ )
***
न हसरतों से ज़ियादा रखें लगाव कभी
वगरना क़ल्ब में मुमकिन है कोई घाव कभी
***
इमारतें जो बनाते जनाब रिश्तों की
उन्हें भी चाहिए होता है रखरखाव कभी
***
हयात का ये सफर एक सा कहाँ होता
कभी ख़ुशी तो मिले ग़म का भी पड़ाव कभी
***
न इश्क़ की भी ख़ुमारी सदा रहे…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on January 8, 2019 at 7:00pm — 17 Comments
देहलीज़ - लघुकथा -
दिल्ली में जनवरी की कयामत की सर्दी वाली रात। रात के ग्यारह बजे के लगभग घर की डोर बेल बजी। घर में दो बुजुर्ग प्राणी। दोनों ही सत्तर पार। आमतौर पर नौ बजे तक रजाई में घुस जाते थे। गहरी नींद में थे। बार बार घंटी बजी तो शर्मा जी की आँख खुली तो उठकर द्वार खोलने चल दिये। खटर पटर की आवाज से तथा लाइट जलने से मिसेज शर्मा भी आँख मलते हुए उठ बैठी।
"सुनो जी, तुम रुको, मैं खोलती हूँ।"
वे थोड़ी मजबूत थीं। शर्मा जी दुबले पतले और बीमार भी थे। वे रुक गये। मिसेज शर्मा…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on January 8, 2019 at 6:14pm — 10 Comments
रेशमा की नजर फिर उस लड़की पर पड़ी जो कल ही यहाँ लायी गई थी. बेहद घबराई और लगातार रोती हुई वह लड़की देखने में तो किसी गरीब घर की ही लगती थी लेकिन पढ़ी लिखी भी लगती थी. उससे रहा नहीं गया तो वह उसकी तरफ बढ़ी और पास जाकर उसने पूछा "क्या नाम है रे तेरा और कहाँ से आयी है? यहाँ रोने धोने से कुछ नहीं होता, जितनी जल्दी सब मान लेगी, उतना बढ़िया. वर्ना तेरी दुर्गति ही होनी है यहां पर".
लड़की ने उसकी तरफ देखा, रेशमा की आँखों का सूनापन देखकर वह सिहर गयी. उसने रेशमा का हाथ पकड़ा और फफक पड़ी "मुझे यहाँ से बचा…
Added by विनय कुमार on January 8, 2019 at 5:52pm — 12 Comments
३ क्षणिकाएं :
तृप्त हो गए
चक्षु
पिघला कर
एक पाषाण से बोझ को
हृदय की
स्मृति श्रृंखला से
.......................
मृत्यु
किसी जीवंत स्वप्न का
यथार्थ है
ज़िंदगी
यथार्थ का
आभास है
प्रीत
आभास में निहित
विश्वास है
...............................
कुछ टूटा
कुछ छूटा
प्रीत पथ के
अंतस से
वेदना साकार हुई
बुत बनी आँखों से …
Added by Sushil Sarna on January 8, 2019 at 2:30pm — 10 Comments
2122 2122 212
आज उनका है ज़माना चुप रहो ।
गर लुटे सारा खज़ाना चुप रहो ।।
क्या दिया है पांच वर्षों में मुझे ।
मांगते हो मेहनताना चुप रहो ।।
रोटियों के चंद टुकड़े डालकर ।
मेरी गैरत आजमाना चुप रहो ।।
मंदिरों मस्ज़िद से उनका वास्ता ।
हरकतें हैं वहिसियाना चुप रहों ।।
लुट गया जुमलों पे सारा मुल्क जब ।
फिर नये सपने दिखाना चुप रहो ।।
दांव तो अच्छे चले थे जीत के ।
हार पर अब…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on January 8, 2019 at 12:30pm — 10 Comments
2122 2122 2122 212
प्यार का तुमने दिया मुझको सिला कुछ भी नहीं,
मिट गये हम तुझको लेकिन इत्तिला कुछ भी नहीं।
कोख में ही मारकर मासूम को बेफ़िक्र हैं,
फिर भी अपने ज़ुर्म का जिनको गिला कुछ भी नहीं।
राह जो खुद हैं बनाते मंजिलों की चाह में ,
मायने उनके लिए फिर काफिला कुछ भी नहीं।
हौंसले रख जो जिये पाये सभी कुछ वे यहाँ,
बुज़दिलों को मात से ज्यादा मिला कुछ भी नहीं।
ज़िंदगी चाहें तो बेहतर हम बना सकते यहाँ,
ज़ीस्त में…
Added by शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप" on January 7, 2019 at 8:02pm — 13 Comments
मैं सक्षम, हूँ विलक्षण
निर्मल करता, विचलित मन
पुलकित कर तेरे, तन मन
सुगन्धित करता, वन उपवन
प्रकृति का श्रृंगार कर
महक का प्रसार कर
चिंतन करता हर एक क्षण
खुशियाँ देता मैं पल पल
न्योछावर अपना जीवन कर
कभी मंदिर, कभी जमी में
कभी रेंगता धूलि में
जीवन की प्रवाह ना कर
खुशियाँ बाटता हर एक क्षण
कभी कंठ की शोभा बनता
कभी बढाता शोभा शव
कभी गजरा नारी बनता
कभी में देता सेज सजा
क्षण भर के…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on January 7, 2019 at 4:30pm — 4 Comments
कलम ....
कहाँ
चल सकती है
बिना बैसाखी के
कागज़ पर
कलम
पडी रहती है
निर्जीव सी
किसी के इंतज़ार में
कलमदान में
कलम
लेकिन
ये न हो तो
आसमान की ऊंचाईयों को
ज़मीन नहीं मिलती
शब्दों को पंख नहीं मिलते
सोच को साकार का माध्यम नहीं मिलता
भाव अन-अंकुरित ही रह जाते हैं
यथार्थ में देखा जाए तो
कलम को बैसाखी की नहीं
अपितु
भाव
बिना कलम की बैसाखी के
मृत समान होते…
Added by Sushil Sarna on January 7, 2019 at 2:46pm — 2 Comments
पिला दे घूंट दो मुझको, ज़रा नजरों से ऐ साकी।।
मिलुंगा मैं तुझे हर मोड़ पे पहचान ले साकी।।१।।
अभी तो दिन भी बाकी है ये सूरज ही नहीं डूबा।
इसे दिलबर के आंचल में जरा छुप जान दे साकी।।२।।
जिसे पूजा किये हरदम जिसे समझा खुदा मैंने।
किया बर्बाद मुझको तो उसी इन्सान ने साकी।।३।।
मेरा महबूब भी तू है मेरा हमराज भी तू है।
वे दुश्मन थे मेरे पक्के जो मेरे साथ थे साकी।।४।।
नहीं इससे बड़ी कोई भी अब अपनी तमन्ना है।
गमों का नाम हो जाये हमारे नाम से…
Added by Amit Kumar "Amit" on January 6, 2019 at 10:30pm — 10 Comments
प्रस्तुत है कुछ पुच्छल दोहे
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प्रेम और उत्साह जब ,पैदा करें तरंग |
छोड़ कुसुम के तीर तब , विहँसे तनिक अनंग ||
मिलन का क्षण ही ऐसा |
***
देश प्रेम की हर समय ,उठती रहे हिलोर |
उन्नति की फिर देश में ,निश्चित होगी भोर ||
यही हो लक्ष्य हमेशा |
***
ह्रदय सभी के आ सकें ,थोड़े से भी पास |
फिर निश्चित इस देश में ,छा जाये…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on January 6, 2019 at 2:30pm — 5 Comments
विलीन ...
क्या
मिटते ही काया के
सब कुछ मिट जाता है
शायद नहीं
जीवित रहते हैं
सृष्टि में
चेतना के कण
काया के
मिट जाने के बाद भी
मेरी चेतना
तुम्हारी चेतना से
अवशय मिलेगी
इस सृष्टि में
विलीन हो कर भी
काया के मिट जाने के बाद
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 6, 2019 at 2:09pm — 2 Comments
२१२२ ११२२ ११२२ ११२/२२
अस्ल के बाद तो जीना है निशानी के लिए
ज़िंदगी लंबी है दो रोज़ा जवानी के लिए //१
यूँ ज़बां ख़ूब है ये तुर्रा बयानी के लिए
उर्दू मशहूर हुई शीरीं ज़बानी के लिए //२
लोग क्यों दीनी तशद्दुद के लिए मरते हैं
जबकि जीना था उन्हें जज़्बे रुहानी के लिए //३
नफ़्स के झगड़े हैं ने'मत से भरी दुन्या में
चंद रोटी के लिए तो, कभी पानी…
Added by राज़ नवादवी on January 6, 2019 at 1:18pm — 12 Comments
कर जोड़ प्रभो विनती अपनी, तुम ध्यान रखो हम दीनन का।
हम बालक बृंद अबोध अभी, कुछ ज्ञान नहीं जड़ चेतन का
चहुओर निशा तम की दिखती, मुख ह्रास हुआ सच वाचन का
अब नाथ बसों हिय में सबके, प्रभु लाभ मिले तव दर्शन का ।।
मौलिक व अप्रकाशित
Added by नाथ सोनांचली on January 6, 2019 at 1:06pm — 2 Comments
उस देश धरा पर जन्म लिया, मकरंद सुप्रीति जहाँ छलके।
वन पेड़ पहाड़ व फूल कली, हर वक़्त जहाँ चमके दमके।
वसुधा यह एक कुटुम्ब, जहाँ, सबके मन भाव यही झलके
सतरंग भरा नभ है जिसका, उड़ते खग खूब जहाँ खुलके।।1।।
अरि से न कभी हम हैं डरते, डरते जयचंद विभीषण से।
मुख से हम जो कहते करते, डिगते न कभी अपने प्रण से
गर लाल विलोचन को कर दें, तब दुश्मन भाग पड़े रण से
यदि आँख तरेर दिया अरि ने, हम नष्ट करें उनको गण से।।2।।
हम काल बनें विकराल बनें, निकलें जब…
ContinueAdded by नाथ सोनांचली on January 6, 2019 at 1:03pm — 6 Comments
शायद वह दीवानी है ।
लड़की जो अनजानी है ।।
दिलवर से मिलना है क्या ।
चाल बड़ी मस्तानी है ।।
इश्क़ हुआ है क्या उसको ।
आँखों में तो पानी है ।।
खोए खोए रहते हो ।
यह भी इक नादानी है ।।…
Added by Naveen Mani Tripathi on January 6, 2019 at 11:55am — 3 Comments
तरन्नुम बन ज़ुबाँ से जब कभी निकली ग़ज़ल कोई ।
सुनाता ही रहा मुझको मुहब्बत की ग़ज़ल कोई ।।
बहुत चर्चे में है वो आजकल मफ़हूम को लेकर ।
जवां होने लगी फिर से पुरानी सी ग़ज़ल कोई ।।
कभी यूँ मुस्कुरा देना कभी ग़मगीन हो जाना ।
वो छुप छुप कर तुम्हारी जब कभी पढ़ती…
Added by Naveen Mani Tripathi on January 6, 2019 at 11:21am — 3 Comments
"क्या कर रहे हो, गुड्डू अब तुम यहां? तुमने नई डिक्शनरी की पैकिंग आज भी नहीं खोली! कब से पढ़ना शुरू करोगे, बेटे?"
"नहीं पापा, मैं नहीं पढ़ूंगा! मैंने दिल्ली में ही पिछले विश्व पुस्तक मेले में कह दिया था कि ख़रीदो, तो मेरे पक्के दोस्त के लिए भी ख़रीदो!"
"बेटे, मैंने वैसे भी पांच हज़ार रुपए की पुस्तकें ख़रीद लीं थीं, इसलिए केवल तुम भाई-बहन के लिए ही दो डिक्शनरियां ख़रीदीं थीं। वहां तुम्हारे लिए भी तो कुछ ख़रीदना था दिल्ली के बाज़ार से!"
"कुछ भी हो, मेरे दोस्त को बहुत बुरा लगा है।…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 6, 2019 at 8:52am — 3 Comments
++ग़ज़ल ++(1222 1222 1222 1222 )
हज़ारों बार क़ुदरत ने इशारा तो किया होगा
कभी नाहक कोई तूफ़ान शायद ही उठा होगा
***
जुनूनी है जिसे मंज़िल नज़र भी साफ़ आती है
वही अक़्सर अचानक नींद से उठकर खड़ा होगा
***
समझ रक्खे कोई तो इश्क़ की गलियाँ नहीं देखे
क़दम पहला उठाया वो यक़ीनन सरफिरा होगा
***
नफ़ा-नुक़्सान उल्फ़त में लगाए कौन छोडो…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on January 5, 2019 at 4:30pm — 4 Comments
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