ग़ज़ल (1222 *4 )
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उमड़ता जब हृदय में प्यार कविता जन्म लेती है
प्रकृति जब जब करे शृंगार कविता जन्म लेती है
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नहीं देखा अगर जाये किसी से जुल्म निर्धन पर
बने संघर्ष जब आधार कविता जन्म लेती है
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हुआ विचलित अगर मन है किसी भी बात को लेकर
गलत जब हो नहीं स्वीकार कविता जन्म लेती है
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कभी पीड़ा हुई इतनी हुआ सहना जिसे…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on July 4, 2020 at 1:30pm — 6 Comments
1222 1222 122
ज़माने भर में जितने हादसे हैं.
हमें ख़ामोश होकर देखने हैं.
किसी को चलने में दिक़्क़त न आए,
चलो इतना सिमट कर बैठते हैं.
मेरी बेबाकियों के रास्ते में,
मेरी कुछ ख़्वाहिशों के कटघरे हैं.
बिना जिसके हुआ था जीना मुश्किल,
उसी के होने से शिकवे गिले हैं.
तुम्हारी याद भी इक रोग है क्या,
तुम्हारे ख़त को छूते डर रहे हैं.
दलीले रह गई कमज़ोर मेरी,
वो अपनी बात कह कर जा चुके…
Added by मनोज अहसास on July 3, 2020 at 8:55pm — 6 Comments
मन को इतना दे गये, अपने ही अवसाद
नाम पते सड़कें गली, क्या रक्खें अब याद।१।
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जीवन जिसको रेतघर, बादल क्या दे नीर
उसको तो हर हाल में, मिलनी है बस पीर।२।
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भूखा बेघर रख रहा, क्या कम यहाँ अभाव
उस पर करता रात - दिन, मँहगाई पथराव।३।
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थकन बढ़ी है पाँव की, छालों के आसार
मिले कहाँ आराम को, तरुवर छायादार।४।
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भले उजाले का हुआ, बहुत जगत भर शोर
दीपक नीचे क्यों रहा, तमस भरा घनधोर।५।
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आँसू अपने डाल दो, उस आँचल में और
हर…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2020 at 7:09pm — 8 Comments
२१२२/२१२२/२१२२/२१२
लेके आया फिर से बचपन शायरी का सिलसिला
मौत से कह दो न रोके जिन्दगी का सिलसिला।१।
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रोक तेजाबों घुएँ की गन्दगी का सिलसिला
इन हवाओं में भरो कुछ ताजगी का सिलसिला।२।
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कोशिशें दस्तक जो देंगी शब्द तोड़ेगे कभी
मौन की गहरी हुई इस तीरगी का सिलसिला।३।
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हैं बहुत कानून अपनी पोथियों में यूँ मगर
रुक न पाया भ्रष्ट होते आदमी का सिलसिला।४।
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एक जुगनू ने कहा ये भर तमस के काल में
डर न तम से मैं रखूँगा…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2020 at 12:25pm — 10 Comments
212 / 1222 / 212 / 1222
दुनिया के गुलिस्ताँ में फूल सब हसीं हैं पर
एक मुल्क ऐसा है जो बला का है ख़ुद-सर
लाल जिसका परचम है इंक़लाब नारा है
ज़ुल्म करने में जिसने सबको जा पछाड़ा है
इस जहान का मरकज़ ख़ुद को गो समझता है
राब्ता कोई दुनिया से नहीं वो रखता है
अपनी सरहदों को वो मुल्क चाहे फैलाना
इसलिए वो हमसायों से है आज बेगाना
बात अम्न की करके मारे पीठ में खंजर
और रहनुमा उसके झूट ही बकें दिन भर
इंसाँ की तरक़्क़ी…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on July 3, 2020 at 1:00am — 10 Comments
मापनी 22 22 22 22
पंछी को अब ठाँव नहीं है,
पीपल वाला गाँव नहीं है.
दिखते हैं कुछ पेड़ मगर,
उनके नीचे छाँव नहीं है.
लाती जो पिय का संदेशा,
कागा की वह काँव नहीं है
…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on July 2, 2020 at 5:19pm — 4 Comments
उम्र साठ-सत्तर तक की ,
आदमी पांच पीढ़ियों से रूबरू हो लेता है।
देखता है , समझ लेता है कि
कौन कहाँ से चला , कहाँ तक पहुंचा ,
कैसे-कैसे चला , कहाँ ठोकर लगी , ,
कहाँ लुढ़का , गिरा तो उठा या नहीं उठा ,
और उठा तो कितना सम्भला।
कर्म , कर्म का फल , स्वर्ग - नर्क ,
कितना ज्ञान , विश्वास , सब अपनी जगह हैं।
हिसाब -किताब सब यहीं होता दिखाई देता है।
बस रेस में दौड़ने वालों को सिर्फ
लाल फीता ही दिखाई देता है।
मौलिक एवं अप्रकाशित…
ContinueAdded by Dr. Vijai Shanker on July 2, 2020 at 9:36am — 4 Comments
Added by Sushil Sarna on July 1, 2020 at 9:30pm — No Comments
गौर वर्ण पर नाचती, सावन की बौछार।
श्वेत वसन से झाँकता, रूप अनूप अपार।। १
चम चम चमके दामिनी, मेघ मचाएं शोर।
देख पिया को सामने, मन में नाचे मोर।।२
छल छल छलके नैन से, यादों की बरसात।
सावन की हर बूँद दे, अंतस को आघात।।३
सावन में प्यारी लगे, साजन की मनुहार।
बौछारों में हो गई, इन्कारों की हार।। ४
कोरे मन पर लिख गईं, बौछारें इतिहास।
यौवन में आता सदा, सावन बनकर प्यास।।५
भावों की नावें चलीं, अंतस उपजा प्यार।
बौछारों…
Added by Sushil Sarna on June 30, 2020 at 9:30pm — 4 Comments
रिमझिम - रिमझिम बदरा बरसे
अजहूँ न आए पिया रे..
ये बदरा कारे - कजरारे
बार- बार आ जाएँ दुआरे
घर आँगन सब सूना पड़ा रे
सूनी सेजरिया रे
रिमझिम....
तन-मन ऐसी अगन लगाए
जो बदरा से बुझे न बुझाए )
अब तो अगन बुझे तबही जब
आएँ साँवरिया रे
रिमझिम...
छिन अँगना छिन भीतर आऊँ
दीप बुझे सौ बार जलाऊँ
पिया हमारे घर आएगें
छाई अँधियारी रे
रिमझिम .....
मौलिक…
ContinueAdded by Usha Awasthi on June 30, 2020 at 9:00pm — 2 Comments
(221 2121 1221 212)
जाना है एक दिन न मगर फिक्र कर अभी
हँस,खेल,मुस्कुरा तू क़ज़ा से न डर अभी
आयेंगे अच्छे दिन भी कभी तो हयात में
मर-मर के जी रहे हैं यहाँ क्यूँँ बशर अभी
हम वो नहीं हुज़ूर जो डर जाएँँ चोट से
हमने तो ओखली में दिया ख़ुद ही सर अभी
सच बोलने की उसको सज़ा मिल ही जाएगी
उस पर गड़ी हुई है सभी की नज़र अभी
हँस लूँ या मुस्कुराऊँ , लगाऊँ मैं क़हक़हे
ग़लती से आ गई है ख़ुशी मेरे घर…
Added by सालिक गणवीर on June 30, 2020 at 8:00am — 14 Comments
२२१/२१२१/१२२१/२१२
पाँवों में छाले देख के राहें नहीं खिली
दिनभर थकन से चूर को रातें नहीं खिली।१।
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सुनते हैं खूब रख रहे पहलू में अजनबी
यार ए सुखन से आपकी आँखें नहीं खिली।२।
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थकते न थे जो दूरी का देते उलाहना
उनकी ही मुझको देख के बाँछें नहीं खिली।३।
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लोटा है साँप फिर से जो उसके कलेजे पर
कहता है कौन घर मेरे रातें नहीं खिली।४।
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लाया करोना दर्द तो राहत भी साथ में
ताजी हवा में कौन सी साँसें नहीं…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 29, 2020 at 9:20am — 4 Comments
'तुरंत ' के चन्द विरही दोहे
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वर्षा लाई देश में , जगह जगह पर बाढ़ |
प्रिय तेरे दर्शन बिना , शुष्क गया आषाढ़ ||
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इधर विरह में सांवरे , गात हो रहा पीत |
इस बारी भी क्या हुआ , काम न पूरा मीत ||
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पशु-पक्षी भी कर रहे , पिय के साथ किलोल |
अँसुअन बारिश झेलते , मेरे रक्त कपोल ||
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दिन कटता गृह कार्य में , कठिन काटनी रात |
पल सुधियों…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 28, 2020 at 3:30pm — 2 Comments
आँखों के सावन में ......
ओ ! निर्दयी घन
जाने कितनी
अक्षत स्मृतियों को
अपनी बूँदों में समेटे
तुम फिर चले आये
मेरे हृदय के उपवन में
शूल बनकर
क्यों
मेरे घावों की देहरी को
अपनी बूँदों की आहटों से
मरहम लगाने का प्रयास करते हो
बहुत रिस्ते हैं
ये
जब -जब बरसात होती है
बहुत याद आते हैं
मेरे भीगे बदन से
बातें करते
उसके वो मौन स्पर्श
वो छत की मुंडेर से
उसकी आँखों का…
Added by Sushil Sarna on June 27, 2020 at 8:42pm — 8 Comments
Added by Sushil Sarna on June 26, 2020 at 8:30pm — 8 Comments
रघुनाथ ट्यूर से लौटा तो पिताजी दिखाई नहीं दिये। वे बरामदे में ही बैठे अखबार पढ़ते रहते थे। उनके कमरे में भी नहीं थे।रघुनाथ का नियम था कि वह कहीं से आता था तो पिता के चरण स्पर्श करता था।
"शीला, पिताजी नहीं दिख रहे। कहीं गये हैं क्या?"
"मुझे कौनसा बता कर जाते हैं? तुम हाथ मुंह धोलो। चाय पकोड़े लाती हूँ।" शीला के लहजे से रघुनाथ को कुछ शंका हुई।
इतने में उसका सात वर्षीय बेटा बिल्लू भी आगया।
"बिल्लू, बाबा तुम्हारे साथ गये थे क्या?"
"बाबा तो गाँव वापस चले…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on June 26, 2020 at 9:00am — 6 Comments
वह मिट्टी खोदता,ढेर लगाता। समझा जाता,राजा मिट्टी को उपजाऊ बना रहा है।समय गुजरता गया।कालांतर में नेवला राजा बना।खुदी हुई मिट्टी की सुरंगों से बाहरी अजगर आने लगे। आते पहले भी थे।डंसते,निकल जाते। अब नेवला उन्हें खा जाता।इलाके में ' हाय दैया 'मचाई गई कि अजगर ने इसे डंसा,तो उसे डंसा।कितने अजगर तमाम हुए,यह बात गौण थी।
पुराना राजा: राजा कर क्या रहा है?ये अजगर आ कैसे रहे हैं?
रा,जा:'उन्हीं सुरंगों से,जो तुमने…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on June 26, 2020 at 8:30am — 4 Comments
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मी बाई की के साथ झलकारी बाई का नाम भी बड़ी सम्मान के लिए जाता है | एक वही थी जिन्होने रानी का हर कदम पर साथ दिया और उनकी कदकाठी कुछ मेल खाती थी |इनके बलबूते ही रानी लक्ष्मी बाई संग्राम में अंग्रेज़ो की आखों में धूल झोंकने में सफल रही | लेकिन इसे विडम्बना ही कहेंगे की सक्षम होने के बावजूद भी इतिहासकारों ने उसे वो सम्मान नहीं दिया जिसकी वह हकदार थी | जाति व्यवस्था में दबे होने के कारण हमारे देश के बहुत से वीर-वीरांगनाए इसी सोच में दबकर गुमनाम हो गए जीने…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on June 25, 2020 at 4:30pm — 2 Comments
ग़ज़ल ( 1222 1222 1222 1222 )
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वफ़ा के देवता को बेवफ़ा हम कैसे होने दें
बताओ ग़ैर का तुमको ख़ुदा हम कैसे होने दें
नहीं क़ानून की दफ़्आत में कुछ ज़िक्र उलफ़त का
मुहब्बत में क़ज़ा की हो सज़ा हम कैसे होने दें
बिठा कर तख़्त पर हमने रखा है ताज तेरे सर
हमीं पर ज़ुल्म की बारिश बता हम कैसे होने दें
किसी को आसरा गर दे नहीं सकते ज़माने में
किसी को जानकर बे-आसरा हम कैसे होने दें
नतीज़ा ख़ूब भुगता है मरासिम में मसाफ़त…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 25, 2020 at 3:30pm — 6 Comments
कितने सालों से सुनें
शान्ति - शान्ति का घोष
अपने ही भू- भाग को
खो बैठे , बेहोश
जब दुश्मन आकर खड़ा
द्वार , रास्ता रोक
क्या गुलाम बन कर रहें ?
करें न हम प्रतिरोध
ज्ञान - नेत्र को मूँद लें
खड़ा करें अवरोध
गीता से निज कर्म - पथ
का , कैसै हो बोध ?
ठुकराते ना सन्धि को
कौरव कर उपहास
कुरूक्षेत्र का युद्ध क्यों ?
फिर बनता इतिहास
सोलह कला प्रवीण…
ContinueAdded by Usha Awasthi on June 25, 2020 at 10:30am — No Comments
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