ईद ...
दीद आपकी ईद पर, है अनुपम सौगात।
ईद मुबारक कर गई , आज ईद की रात ।।
मेघों की चिलमन हटी, हुई चाँद की दीद।
भेद-भाव सब भूलकर, कहें मुबारक ईद।।
दीद आपकी दे गई, ईदी हमको आज।
धड़कन के बजने लगे, देखो दिल में साज ।।
अर्श पर्श पर आज है, ईद मिलन का राज ।
ईद मुबारक सब कहें , इक दूजे को आज ।।
तरस रही हैं दीद को,कब आएगी ईद।
आएगी जब ईद, तो कैसे होगी दीद।।
बिना आपके बे-मज़ा,…
ContinueAdded by Sushil Sarna on June 5, 2019 at 3:30pm — 3 Comments
ग़ज़ल:
तेरी मेरी कहीं कुछ कहानी भी है
प्यार में तैरती ज़िन्दगानी भी है
मत डरो देख तुम इस जमन की लहर
रासलीला तुम्हीं संग रचानी भी है
आँसुओं से नहाती रही उम्र-भर
तू ही चंपा मेरी रातरानी भी है
फूल जब मुस्कुराएँ तो समझा करो
इन बहारों में अपनी जवानी भी है
बाँध मत प्यार की बह रही है नदी
है रवाँ जिसमें उल्फ़त का पानी भी है
साथ देता हमेशा रहा…
Added by Amar Pankaj (Dr Amar Nath Jha) on June 4, 2019 at 7:30pm — 3 Comments
सफर बाकी है अभी
अभी बाकी है
जिंदगी से अभिसार
कह रहा हूं
तुम्हीं से
बार-बार
सुन रही हो न
ऐ मृत्यु के आगार।…
Added by Amar Pankaj (Dr Amar Nath Jha) on June 4, 2019 at 7:22pm — No Comments
ज़िंदगी ... तीन क्षणिकाएँ
मरती रही ज़िंदगी
ज़िंदा रही जब तक
अमर हो गई
फ्रेम में
कैद होने के बाद
..........................
जीती रही ज़िंदगी
ज़िंदा रही जब तक
मर गई
फ्रेम में
कैद होने से पहले
..........................
वाकिफ़ थी
अपने हश्र से
ज़िंदगी
फिर भी
मिट न सकी
जीने की लालसा
अवसान से पहले
.....................
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 2, 2019 at 9:24pm — 4 Comments
गाड़ी रूकते ही मैं ढाबे की तरफ़़ बढ़ा। कुर्सी पर बैठते हुए छोटू को पास बुलाया।
उस से बात करने लगा, जैसे अक्सर ही मैं ऐसा करता हूँ, ऐसा करना मेरा काम है, किसी को अच्छा या नहीं लगता। ये जानना मेरा काम नहीं ।"
“आप इन से क्या बात करते हो?" दूसरी तरफ बैठे मालिक ने उठ कर बालो से उस पकड़ा अंदर की ओर ले कर जाते हुए कहा
आप को यहाँ काम के लिए रखा है, बातों के लिए नहीं।
"भाई साहिब,कुछ लेना है,आप ने।" उसने मेरी तरफ
देखते हुए कहा
“नहीं,बात करनी है,इस और आप से।"…
Added by मोहन बेगोवाल on June 2, 2019 at 4:30pm — 6 Comments
ये रातें जल रही हैं,
वो बातें खल रही हैं
लगा दी ठेस तुमने दिल के अंदर
नसें अंगार बनकर जल रही हैं
मौसम सर्द है,
जीवन में लेकिन
लगी है आग,
तन मन जल रहा है।
जिसे उम्मीद से बढ़कर था माना
वही घाती बना है छल रहा है।
तुम्हारी ठोकरों के बीच आकर
बहुत टूटा हुआ हूँ, लुट गया हूँ
तेरा सम्मान खोकर, स्नेह खोकर
स्वयं ही बुझ चुका हूँ, घुट गया हूँ।
यहाँ हालात क्या से क्या हुआ है
नहीं कुछ सूझता…
Added by आशीष यादव on June 1, 2019 at 5:02pm — No Comments
घर चलता है नर नारी से , नर का चले सारा अधिकार | |
घर का काम करे सब नारी , फिर भी रहे नर से लाचार | |
संग रहे भाई बचपन में , बात बात में देता ताना | |
एक दिन ससुराल जाओगी , वहाँ होगा तेरा ठिकाना | |
सदा कहा भाई की होती , बहन का नहीं चले बहाना | |
रोकर चुप हो जाती बहना , दबा लेती आंसू की धार… |
Added by Shyam Narain Verma on June 1, 2019 at 2:30pm — No Comments
22 22 22 22
इच्छाओं का भार नहीं धर
रिश्तों के नाज़ुक धागों पर
पोषित पुष्पित होंगे रिश्ते
हठ मनमानी त्याग दिया कर
ऊर्जा से परिपूर्ण रहेगा
खुद में शक्ति सहन की तू भर
करनी का फल सन्तति भोगे
सो कुकर्म से ए मानव डर
देख निगाहें घुमा-फिरा के
कौन नहीं फल भोगे यहाँ पर
अब वैज्ञानिक भी कहते हैं
पाप-प्रलय-भय तू मन में भर
गा कर, लिख कर, यूँ ही पंकज
हर मन से अवसाद सदा…
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 1, 2019 at 12:46pm — 1 Comment
ढलते पहर में लम्बाती परछाईयाँ
स्नेह की धूप-तपी राहों से लौट आती
मिलन के आँसुओं से मुखरित
बेचैन असामान्य स्मृतियाँ
ढलता सूरज भी तब
रुक जाता है पल भर
बींध-बींध जाती है ऐसे में सीने में
तुम्हारी दुख-भरी भर्राई आवाज़
कहती थी ...
"इस अंतिम उदास
असाध्य संध्या को
तुम स्वीकारो, मेरे प्यार"
पर मुझसे यह हो न सका
अधटूटे ग़मगीन सपने से जगा
मैं पुरानी सूनी पटरी पर…
ContinueAdded by vijay nikore on June 1, 2019 at 12:00am — 4 Comments
(१२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ )
.
वफ़ा ढूंढते हो जफ़ा के नगर में यहाँ पर वफ़ा अब बची ही कहाँ है
बुझी है वफ़ा की मशालें दिलों से वफ़ा का नहीं कोई नाम-ओ-निशाँ है
**
यहाँ राज करते हवस के पुजारी किसी की नहीं है मुहब्बत से यारी
इधर बेवफ़ाओं का लगता है मेला कोई बावफ़ा अब न मिलता यहाँ है
**
इधर पैसा फेंको दिखेगा तमाशा अगर जेब ख़ाली मिलेगी हताशा
इधर है न…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 31, 2019 at 4:30pm — 2 Comments
2122-2122-2122-212
मतला:-
ख़ुश ही रहता हूँ शिकायत क्या करूँ क्या है अता।।
आदमी हूँ ख्वाहिशें होनी नहीं कम ऐ ख़ुदा।।
हुश्न-ए-मतला:-
तेरे ज़ानिब से मुझे जो भी मिला अच्छा लगा ।
मैं तो मुफ़लिस था मेरी हिम्मत कहाँ कुछ माँगता।।
मेरा दम घुटने लगा जब महफिलों की शान में ।
यार आया हूँ उठा कर दूर खुद का मकबरा।।
मेरी मैय्यत में गुलों की बारिशें अच्छी नहीं।
शाइरी के भेष में करने लगा था इल्तिज़ा।।
देख़ो उल्फ़त के…
ContinueAdded by amod shrivastav (bindouri) on May 31, 2019 at 12:20pm — No Comments
चुप होना चाहता हूँ ....
नहीं नहीं
बहुत हुआ
अब मैं चुप रहना चाहता हूँ
अंधेरों सा खामोश रहना चाहता हूँ
अब मेरे पास
न तो विचार हैं
न किसी भी विचार को
अभिव्यक्त करने के लिए शब्द
पता नहीं
क्यों मैं चुप नहीं रह पाता
बावजूद ये जानते हुए भी
कि मेरे बोलने से कुछ नहीं बदलने वाला
मैं निरंतर बोले जा रहा हूँ
न जाने किसे और क्या क्या
मैं नहीं जानता
मेरा इस तरह से लगातार बोलना
किस हद तक ठीक है…
Added by Sushil Sarna on May 31, 2019 at 12:00pm — 4 Comments
212 212 212 212
कीजिये मत अभी रोशनी मुख़्तसर ।
आदमी कर न ले जिंदगी मुख़्तसर ।।
इश्क़ में आपको ठोकरें क्या लगीं ।
दफ़अतन हो गयी बेख़ुदी मुख़्तसर ।।
नौजवां भूख से टूटता सा मिला ।
देखिए हो गयी आशिक़ी मुख़्तसर ।।
गलतियां बारहा कर वो कहने लगे ।
क्यूँ हुई मुल्क़ में नौकरी मुख़्तसर ।।
कैसे कह दूं के समझेंगे जज़्बात को ।
जब वो करते नहीं बात ही मुख़्तसर ।।
सिर्फ शिक़वे गिले में सहर हो गयी…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on May 30, 2019 at 6:30pm — No Comments
मर्म .....
कितनी पहेलियाँ हैं
हथेलियों की
इन चंद रेखाओं में
पढ़ते हैं
लोग इनमें
जीवन की लम्बाई
साँसों की गिनती
भौतिक सुख सुविधा
दाम्पत्य सुख
औलाद
सब कुछ पढ़ते है
नहीं पढ़ते
तो
प्राण बिंदु का मर्म
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 30, 2019 at 3:04pm — 1 Comment
बोझ उठाती हैअकेली माँ कई बच्चोँ का
कई बच्चोँ को मगर माँ भी बोझ लगती है
लहू से सींचकर जिसको बडा किया उसको
बहु के साथ ही रहने में मौज लगती है…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on May 30, 2019 at 3:00pm — No Comments
छंद सोरठा .......
अपनेपन की गंध, अपनों में मिलती नहीं।
स्वार्थपूर्ण दुर्गन्ध,रिश्तों से उठने लगी।1।
प्रथम सुवासित भोर, प्रीत सुवासित कर गई।
मधुर मिलन का शोर, नैनों में होने लगा।2।
तृषित रहा शृंगार, बंजारी सी प्यास का।
धधक उठे अंगार,अवगुंठन में प्रीत के।3।
जागे मन में प्रीत, नैन मिलें जब नैन से ।
बने हार भी जीत, दो पल में सदियाँ मिटें।4।
वो पहली मनुहार, यौवन की दहलीज पर।
शरमीली सी हार,हर बंधन…
Added by Sushil Sarna on May 29, 2019 at 1:23pm — No Comments
बुढ़ापा ...
शैशव,बचपन ,जवानी
छूट जाती है
बहुत पीछे
जब आता है
बुढ़ापा
छूट जाता है
हर मुखौटा
हर आयु का
जब आता है
बुढ़ापा
बहुत लगती है
प्यास
बीते हुए दिनों की
तृषा की ओढ़नी में
तृप्ति की तलाश में
युगों के बिछोने पर
उड़ जाता है तोड़ कर
काया की प्राचीर को
अंत में
अनंत में
ये
पावन
बुढ़ापा
सुशील सरना
मौखिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 28, 2019 at 1:00pm — 2 Comments
वादियाँ ख़ामोश ख़ामोशी भरा है ये सफ़र
अब दरख़्तों से भी हम डरने लगे हैं किस क़दर
यूँ मचा कर शोर करते हैं परिंदे अहतिजाज
इस जगह पर ही हुआ करता था अपना एक घर'
जिस जगह हमने गुज़ारी थी महकती शाम, अब
ज़ह्र फैला उस जगह तो कैसे हम रोकें असर
फूल भी बेनूर से क्यों दिख रहे हैं बाग में
ख़ूबसूरत से चमन कोतो खा गयी किसकी नज़र
वो पुराने दिन हमें जब याद आते हैं कभी
ढूँढने लगते हैं…
Added by Amar Pankaj (Dr Amar Nath Jha) on May 28, 2019 at 1:00pm — 4 Comments
(२१२२ ११२२ ११२२ २२/११२ )
.
रंज-ओ-ग़म हो न अगर आँखें कभी रोती क्या ?
बेसबब साहिल-ए-मिज़गाँ पे नमी होती क्या ?
**
ज़ख़्म ख़ुद साफ़ करें और लगाएं मरहम
ज़ख़्म क़ुदरत किसी के ज़िंदगी में धोती क्या ?
**
चन्द लोगों के नसीबों में लिखी है ग़ुरबत
ज़ीस्त सबकी ग़मों का बोझ कभी ढोती क्या ?
**
बाग़बाँ फ़र्ज़ निभाता जो तू मुस्तैदी से
तो कली बाग़ की अस्मत को कभी खोती क्या ?
**
क्यों किनारे पे कई बार सफ़ीने डूबे
इस तरह रब कभी क़िस्मत किसी की…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 28, 2019 at 12:30am — 4 Comments
सब ग़मों को भुला दिया जाए
थोड़ा सा मुस्कुरा दिया जाए
अश्क़ मैं पी चुका बहुत यारो
जामे उल्फ़त पिला दिया जाए
.
लो सियासत बदल गयी अब तो
हुक़्म उनका सुना दिया जाए
आँधियाँ तेज जब चलें, खुद को
अपने घर में बिठा दिया जाए
अब जलाकर 'अमर' बसेरा तुम
कह रहे ग़म भुला दिया जाए
"मौलिक और अप्रकाशित"
Added by Amar Pankaj (Dr Amar Nath Jha) on May 27, 2019 at 6:00pm — 4 Comments
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